
प्रगतिशील जीवन के लिये उत्कृष्ट विचारों का आरोपण
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खेत में जिस प्रकार का बीज बोया जायगा उसी तरह के पौधे उगेंगे और वैसी ही फसल उगेगी। किसान जो फसल उगाना चाहता है उसके लिए उसी प्रकार के बीज की व्यवस्था करता है। साथ ही यह भी ध्यान रखता है कि वह बीज ‘सड़ा, घुना, छोटा, पुराना, कमजोर न हो।
जीवन एक खेत है। उसमें प्रगति और सफलता की फसल उगाई जानी है तो ऐसे विचारों का मनःक्षेत्र में आरोपण करना चाहिए जो प्रगति के लिए आवश्यक शक्ति का उद्भव कर सकें। साहस और पुरुषार्थ के बिना किसी का आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं। आलस्य और अनियमितता का अवरोध रहते कोई व्यक्ति किसी प्रयोजन में सफल नहीं हो सकता। इन दुर्बलताओं को हटाने के लिये खेत में खर-पतवार उखाड़ने जोतने की तरह हमें किसान का अनुकरण करना होगा।
विचार बीज है। जीवन का स्वरूप उसी की लहराती हुई हरी-भरी फसल है। आशा है अन्न की राशि। मनःक्षेत्र में किन विचारों को स्थान मिले इसके लिये अत्यधिक सतर्कता की आवश्यकता है। कुछ भी—कैसा ही—बीज बो देने से कुछ भी उग सकता है और उपलब्धि कैसी भी हो सकती है। बीज की ओर से उपेक्षा बरतने वाला किसान अभीष्ट फसल काटने में सफल मनोरथ कैसे होगा?
प्रगति के लिये प्रयास बहुत किये जाते हैं पर यह भुला दिया जाता है कि निर्धारित दिशा में प्रेरणा देने वाले और पथ प्रशस्त करने वाले समर्थ विचारों की अभीष्ट मात्रा संकलित कर ली गई या नहीं?
वैयक्तिक दोष दुर्गुणों की कँटीली झाड़ियाँ प्रगति के पथ को अवरुद्ध और दुरूह बनाती हैं। यह दुर्गुण और कुछ नहीं उन विचारों के प्रतीक प्रतिनिधि हैं, जिन्हें बहुत समय से—ज्ञात या अविज्ञात रूप में मनःक्षेत्र में सँजोये जमाये रखा गया है। सर्प के काटने पर उसका विष एक बूँद ही रक्त में प्रवेश करता है। पर वह कुछ ही देर में समस्त शरीर में फैल जाता है और अपना असर दिखाता है। कुविचार सर्प-दंश की तरह हैं—वे ही अपना विस्तार करके दोष-दुर्गुणों के रूप में फैल जाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि आन्तरिक शत्रु-मनोविकार-बाहर के शस्त्रधारी शत्रुओं की अपेक्षा हजार गुने अधिक बलिष्ठ और घातक होते हैं। दूर रहने वाले बाहरी शत्रुओं से बचने और उन्हें निरस्त करने के अनेक उपाय हो सकते हैं पर अहर्निशि सामने रहने वाले इन घर के भेदियों को क्या कहा जाय? आस्तीन के साँप की तरह वे सदा विघातक ही सिद्ध होते हैं।
क्षयग्रस्त दुर्बल और मरणासन्न शरीर वस्तुतः उस रोग के विषाणुओं का ही खाया हुआ होता है। घुन का कीड़ा चुपचाप लगा रहता है और विशाल शहतीर को खोखला कर देता है। कुविचार विषाणुओं से अधिक घातक और घुन से अधिक अदृश्य होते हैं। वे भीतर जमकर बैठ जाते हैं और गुण, कर्म, स्वभाव की सारी सम्पदा को खोखली और विषाक्त बना देते हैं।
ओछे स्वभाव के—आदर्श रहित और लक्ष्य विहीन व्यक्ति जीवन की लाश ढोते रहते हैं। उनके मनोरथ सफल हो ही नहीं सकते। क्योंकि प्रगति के लिए-प्रखर व्यक्तित्व की आवश्यकता है।
सफल जीवन जीने की आकाँक्षा आदि साकार करनी हो तो पहला कदम आत्म-निरीक्षण में उठाया जाना चाहिए। अपने विचारों—मान्यताओं—आस्थाओं और अभिमान की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जितने भी अवाँछनीय तत्व हों उन्हें उन्मूलन करने के लिए जुट जाना चाहिए। यह तभी संभव है? जब उनकी स्थान पूर्ति के लिए सद्विचारों के आरोपण की व्यवस्था बना ली जाय। कहना न होगा कि विचार-परिवर्तन के चार ही आधार हैं स्वाध्याय, सत्संग—मनन और चिन्तन। इन्हें अपनाया जा सके तो जीवन का स्वरूप बदलेगा और अवसाद उत्कर्ष में परिणत होगा।