
हम अपना गुरुत्वाकर्षण बनाये रखें
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दृश्यमान स्थूल आयामों के अतिरिक्त दिन्-काल के बोध रूप में एक अतिरिक्त अविज्ञात आयाम भी होता है। इनकी जानकारी जब वैज्ञानिकों को इस सदी के प्रारम्भिक दशकों में हुई तो उससे न केवल ब्रह्मांड भौतिकी अपितु मानवी काया एवं मन सम्बन्धी भी अनेकों रहस्यमय जानकारियाँ उभर कर सामने आई। प्रारम्भ में छाया वैज्ञानिक चिन्तन को घेरा हुआ कुहासा, ज्यों ही क्रमशः मिटता चला जा रहा है, विचारणात्व बोध को मानवी स्वास्थ्य से जोड़ पाने में क्रमशः वैज्ञानिकों को सफलता हस्तगत होती जा रही है।
जैसे हम देश काल, कण-प्रतिकणों के विराट् साम्राज्य को साकार रूप नहीं दे सकते मात्र कल्पना ही कर पाते है ठीक उसी प्रकार मानवी मस्तिष्क के मनस् रूपी अदृश्य आयाम की, विचारो के स्वरूप की मात्र कल्पना ही कर पाते है। पिछले दिनों “मनुष्य दीर्घायुष्य कैसे बने,” इस मुद्दे पर जब स्वास्थ्य विज्ञानियों ने अनुसंधान क्रम आरम्भ किया तो उन्हें भौतिकी के सापेक्षवाद सिद्धान्त को मानवी काया एवं चिन्तन पर आरोपित कर, इस माध्यम से विचारो के बोध जगत का मनुष्य के जीवकोशों एवं चिन्तन प्रवाह पर प्रभाव जानने की आवश्यकता जान पड़ी। इन चिकित्सा विज्ञानियों का मत था कि बहुसंख्य तथाकथित शारीरिक रोगों की उत्पत्ति, जिनमें कैन्सर, हृदयाघात एवं उच्च रक्तचाप जैसी घातक व्याधियों का बाहुल्य है, चौथे आयाम विचार जगत में सर्वाधिक होती देखी जाती है। चाहे इनके कारणों हेतु आधुनिक विज्ञान जगत की उपलब्धियों, जीवन क्रम, एवं प्रदूषण कारक तत्वों का वातावरण में बाहुल्य जैसों का नाम ले लिया जाय लेकिन ये सब मूलतः हर मनुष्य के चारों ओर छाये विचार मण्डल, जिसे डॉ0 अर्नेस्ट बर्जर ने “आयोडियोरिफयर” नाम “बायो” एवं “आयनोस्फियर” की तरह दिया है, में होने वाले असंतुलन की ही प्रतिक्रिया है। इसे समझाने के लिये वे कहते है कि अच्छा होगा कि इस चिकित्सकीय चतुर्थ आयाम की परिकल्पना को आइन्स्टीन के भौतिकी के बलों के एकीकरण व सापेक्षिकता सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय।
दिक्, काल सम्बन्धी सापेक्षवाद की मनीषी आइन्स्टीन की वर्षों पुरानी मान्यता पर आज के वैज्ञानिक जितनी गहराई से चिन्तन करते है, उन्हें अनेकानेक नई अनुभूतियाँ होती, नये चिन्तन के आयाम खुलते चलते जाते है। आइन्स्टीन की जन्म शदी पर पिछले दिनों प्रकाशित विद्वान लेखक नोजल काल्डर की पुस्तक “आइन्सटीन्स यूनीवर्स” में कई ऐसे अविज्ञात तथ्यों का उद्घाटन किया गया है जो अभी तक सूत्र रूप में होने के कारण वैज्ञानिक समझ पाने में असफल रहे है। “बायोलेन्ट यूनीवर्स”, “वेदर मशीन”, “स्पेसशीप आफ माइण्ड”, “द माइण्ड ऑफ द मैन”, एवं “की टू यूनीवर्स” जैसी बेस्ट सेलर पराभौतिकी पर लिखी गयी पुस्तकों के लेखक डा नोजेल काल्डर ने आइन्स्टीन को अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न देवी पुरुष माना है, जिन्होंने परोक्ष जगत की परिकल्पना करने तथा अदृश्य जगत के अनुसंधान हेतु मानवता को मार्ग सुझाया। न केवल ब्रह्मांड भौतिकी अपितु मानवी काया एवं मनस के अविज्ञात आयामों को भी उन्होंने दृश्यमान रूप दिया, जिसे समझने का कार्य अब पैंसठ वर्ष बाद सम्पन्न हो रहा है।
सापेक्षवाद की परिकल्पना के विषय में लिखते हुए काल्डर लिखते है कि इसे ‘सापेक्षता’ के स्थान पर इसके विपरीत “इनबेरिएन्स थ्योरी” (स्थिरता या अपरिवर्तनीयता) नाम देना अलबर्ट आइन्स्टीन ने सर्वाधिक उपयुक्त समझा था। उन्होंने “रिलेटिविटी” की नहीं अपितु “एब्साँल्यूट” की खोज की थी, एवं इस पर वे बराबर जोर देते रहे। वैज्ञानिक उस परम सत्य (एब्साल्यूट) की शोध करने वालों की वृहद शृंखला की कड़ी भर है, इसका बोध कराने के लिए उन्होंने रिलेटिविटी (सापेक्षिकता) नाम का प्रयोग भर किया था। उनका कथन था कि पदार्थ तो “जमी हुई ऊजा’”भर है। ऐसे में दृश्यमान मस्तिष्कीय पदार्थ को ही सब कुछ नहीं मान लेना चाहिए। इस जमी ऊर्जा का रूपांतरण चतुर्थ आयाम में जब विचार तरंगों के रूप में होता है तो वे अति शक्तिशाली ऊर्जा प्रवाह में बदल जाती व आसपास के वातावरण को प्रभावित करती है। आइन्स्टीन पर शोध करने वाले पिछले दशक के वैज्ञानिकों का मत है कि क्वाण्टा-बेव-पार्टिकल के समुच्चय उस आयनोस्फियर की तरह की आइन्स्टीन मनः क्षेत्र की इसी जमी ऊर्जा को विचार प्रवाह के प्रभा-मण्डल आयडियोस्फियर के रूप में हर व्यक्ति पर छाया हुआ मानते थे। इसका नेगेटिव व पॉजिटिव होना ही व्यक्ति के स्वयं के चिन्तन, स्वास्थ्य एवं प्रभावोत्पादकता पर तथा आसपास के वातावरण पर तद्नुरूप प्रभाव डालता है, ऐसा उनका मत था।
महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन के अनुसार विचार तरंगों के कम्पन इतने तीव्र होते है कि उन्हें मापा नहीं जा सकता, मात्र उस तीव्रता एवं उसके सापेक्ष नहीं परम होने का बोध भर किया जा सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार आइन्स्टीन का विश्वास था कि मानवी विचार तरंगों के परिप्रेक्ष्य में उसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को देखा जाना चाहिए। उनका मत था कि स्वास्थ्य सम्बन्धी घटनाएँ अनुभव बोध-रूपी विचार लोक में घटती है। इसमें व्यतिरेक जब भी होता है, जीवनी शक्ति लड़खड़ाती है एवं रोग मनुष्य को आ घेरते है-कोशिकाएँ जल्दी बुढाने लगती है, मनुष्य स्वतः प्राकृतिक रूप में अथवा रोगों का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।
यह विचारणीय तथ्य है कि अलबर्ट आइन्स्टीन एक भौतिकीविद् थे न कि चिकित्सा शास्त्री। लेकिन स्पेस टाइम की उनकी परिकल्पना, अनुभव-बोध एवं विचार मण्डल (आयडियास्फियर) की संरचना के माध्यम से उन्होंने रोगों के कारणों के सिद्धान्त एवं दीर्घायुष्य होने के स्वरूप को सूत्र रूप से 1813-14 में लिख कर रख दिया था।
आज हम पाते है कि वस्तुतः हमारे दैनन्दिन जीवन की घटनाओं के मूल में तेजी से दौड़ लगाने वाले विचार मण्डल के गति प्रवाह की कितनी महती भूमिका है। रूसी चिकित्साशास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक डाँ पावलोव ने चूहे से लेकर मनुष्यों तक के ऊपर किए गए परीक्षणों के आधार पर यह महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला था कि हर व्यक्ति के अन्दर किसी कार्य को करने की शीघ्रता से करने-न करने, आवश्यकता की महता समझने -न समझने, का बोध कराने वाली एक घड़ी होती है जो समय-समय पर उसके द्वारा विनिर्मित विचार के अनुरूप उसे चेतावनी देने का कार्य करती है। अवचेतन में यह सतत् क्रियाशील रहती व मनुष्य को निर्णय लेने हेतु विवश करती रहती है। पावलोव का मत है कि हमारी इस आन्तरिक घड़ी को जब शीघ्रता से किसी कार्य को करने का बोध होता है तो वह एक निश्चित गति लय पर काम करने वाली आकुँचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास आदि प्रक्रियाओं कही कम्पन गति तीव्रकर देती है। संतुलित मनःस्थिति वाले मन से संचालित शरीर की सभी क्रियाओं का संचालन करता है।
वैज्ञानिकों का मत है कि समय की गतिशीलता का बोध विचारो पर प्रभाव डालकर रोगों के होने-न होने के रूप में अपनी अभिव्यक्ति करता है। जिन व्यक्तियों पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता एवं यह तनाव को जन्म देता है उन्हें टाइप ए इनडिविजुअल कहा गया है। ऐसे व्यक्ति मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में बहुत महत्वाकाँक्षी होते है एवं स्वयं को उच्च लक्ष्यों हेतु समर्पित कर सफलता हस्तगत करने की पात्रता रखते है। लेकिन जो स्वयं को संतुलित नहीं रख पाते, वे तनाव का सामना करने में अक्षम बने रहते है एवं बहुधा हृदय रोगों के शिकार होते है। अन्तर्मुखी प्रवृत्ति वाले ये व्यक्ति सर्वदा अपने बोध-अनुभूति के आयाम में कुछ कर गुजरने की, लक्ष्य-पूर्ति की कामनाओं से घिरे रहकर बेचैनी एवं व्यथा युक्त जीवन जीते है। यहाँ तक विश्राम अवस्था में भी उनकी हृदय की गति व रक्त चाप अधिक होता है। एड्रीनलीन, नारएड्रीनलीन, सिरोटोनिन, इन्सुलिन जैसे हारमोन्स सर्वदा उत्तेजना बनी रहने के कारण हरी सिकनेस से ग्रस्त इन व्यक्तियों के रक्त में सतत् स्रावित होते है। इन टाइप ‘ए’ व्यक्तियों में आमाशय में अम्लाधिक्य, श्वास गति की वृद्धि, सारी माँस-पेशियों में तनाव, स्वेद ग्रंथियों से पसीने का सतत् बहना जैसे लक्षण अधिक पाये जाते है। इन लक्षणों को जो सारे कायतंत्र को प्रभावित करते है-”टाइप सिन्ड्रोम” नाम दिया गया है।
वैज्ञानिक द्वय कैनेथ ब्रेचेर एवं डेनिस शियामा ने अपने शोध निष्कर्षों में लिखा हैकि टाइप ‘ए’ व्यक्तियों को अन्य साधारण व्यक्तियों की तरह समय की द्रुतगामी चाल के प्रति चिन्तित न रहकर मध्यवर्ती समय बोध का जब अभ्यास कराया गया हो तो उनके रस द्रव्यों के स्रावों की गति में 25 ये 40 प्रतिशत कमी होती देखी गयी। बायोफीडबैक द्वारा भी निर्देशन प्रक्रिया से तनाव की प्रक्रिया में उन्हें मदद मिली। अब चिकित्सक औषधि उपचार के स्थान पर “समय कम नहीं है”, “जीवन में जीने हेतु पर्याप्त समय”, “जल्दबाजी की कोई आवश्यकता नहीं” , जैसे सम्मोहन परक निर्देश देकर उन्हें ऐसी अनुभूति कराते है कि वे वस्तुतः वर्तमान में जी रहे है, किसी से पिछड़ नहीं रहे। औषधि उपचार की तुलना में यह उपचार अधिक कारगर पाया गया है।
वास्तविकता यही है कि हममें से बहुसंख्य व्यक्ति जाने अनजाने इस “टाइप सिन्ड्रोम” के शिकार हो जाते है। कारण केवल यही है कि हम वर्तमान में जीना नहीं जानते, आगत को सामने देखते हुए तुरन्त उसे पाने की चेष्टा करते है। जो कुछ दृश्यमान है, उससे परे बोध अनुभूति का जो आयाम विचार मण्डल के रूप में हमारे चारों ओर छाया रहता है, उसे हम वाँछित दिशा में मनोबल के सहारे बनाते रह सकते व तद्नुसार जीवन जी दीर्घायुष्य प्राप्त कर सकते है। यह जीवन बहुत लम्बा है, उसमें कई दिन है, उसमें भी कई घण्टे, मिनट, व सेकिंड है। यदि इनका भलीभाँति सुनियोजन कर चिन्तन प्रवाह को सही दिशा दी जा सके तो अकारण रोगग्रस्त न रह कर समस्वरता से भरी हँसी-खुशी की उपलब्धियों से भरी पूरी जिन्दगी जीने में समर्थ हो सकते है।
कल्पना लोक में विचरण करने वाले -दिवास्वप्न देखने वाले तो स्वयं वैज्ञानिक मनीषी आइन्स्टीन के अनुसार इस त्रिआयामीय जगत को विकृत रूप में देखते हुए स्वयं पर आरोपित कर फलितार्थ भोगते है। आधुनिकता से इस युग में “एंजीग वार्धक्य” को टालकर दीर्घायुष्य प्राप्त करने की सही तकनीक मनोवैज्ञानिक कार्न गुस्ताव के अनुसार समय बोध के आयाम में सही चिन्तन करने की ही है। इस तथ्य को हृदयंगम करने वाले ऋषि-मुनि गण सदैव इस सूक्ष्म आयाम में ही जीवन जीते व अपने जीवन की सीमित अवधि को असीम बना लेते थे। उसी उपक्रम का आश्रय लेकर आज भी आयुष्य को बढ़ा पाना एवं रोगों को टाल पाना संभव है, इसमें किंचित मात्र भी सन्देह नहीं होना चाहिए।