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Magazine - Year 1973 - Version 2

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पूर्वाग्रहों पर अड़ कर न बैठें

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सर्वेश्वर की उस सत्ता को प्रेम का- श्रद्धा का पर्याय माना गया है। शास्त्रकार ने कहा है-रसों वैसः । यह रस क्या है ? वस्तुतः यह रस उस अनुभूति का नाम है जिसके आस्वादन मात्र से आत्मा को परम सत्ता से मिलन संयोग जैसी असीम तृप्ति होती है। यह रस प्रेम रस ही तो है। ईश्वर का साक्षात्कार जब भी होता है, अन्तःकरण से शाश्वत प्रेम के निर्झर के फूट पड़ने के रूप में ही होता है। यह अगोचर सत्ता रस से भरपूर है, जहाँ आदर्शवादी उमंगों का समुच्चय विद्यमान है, घट-घटवासी वह सर्वव्यापी सत्ता अपना अस्तित्व भाव सम्वेदना, करुणा, परमार्थ के रूप में सतत् प्रकट करती रहती है। भक्त को क्या चाहिए? अपने अन्दर उस स्तर की श्रद्धा-भावनाओं की उत्कृष्टता ही तो वह गुण है जिसे विकसित कर भगवत् सत्ता का प्यार मिलता है। यही उसकी प्यास है, जो तृप्त अन्तःकरण को शान्त कर उसे श्रेष्ठता के पथ पर चलने को प्रेरित करती है।

भगवत् सत्ता से प्रेम किसी भौतिक आदान-प्रदान पर नहीं, आध्यात्मिक लेन-देन पर निर्भर है। भक्त को कुछ त्यागना पड़ता है और भगवान को अनुदान पाने वाले की गरिमा को ध्यान में रखना होता है। इस स्थिति में दोनों परस्पर पूरक बन जाते है । यह घनिष्ठता ही प्यार कहलाती है जो आदर्शों के परिपालन हेतु भक्त को पर्याप्त आत्मबल देती, उत्कृष्टता उभारती और सन्मार्ग पर चलने हेतु सहयोग देती है। इस प्रेम में पाने की नहीं, सतत् उत्सर्ग करने की- देते रहने की आतुरता बनी रहती है।

ईश्वर भक्त का परस्पर सम्बन्ध भावनात्मक आदान’-प्रदान का है। यह परम सत्ता श्रद्धा-प्रगाढ़ निष्ठा दृढ़ विश्वास का समुच्चय है। जहाँ भी ये तत्व इकट्ठे होंगे, वही दैवी चमत्कार उत्पन्न होगा। एकलव्य का मृतिका का गुरु और रामकृष्ण का काली इन्हीं तत्वों के अभिवर्द्धन से अनुप्राणित हुए व सामर्थ्यवान बने थे। मीरा का गिरिधर गोपाल इन्हीं का घनीभूत मूर्त रूप था। वस्तुतः भाव-श्रद्धा का सम्मिलित रूप ही भक्ति है। दोनों एक-दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं। श्रद्धारहित भक्ति तो ढोल के समान पोल व आडम्बर मात्र है। ऐसी पंगु भक्ति में कोई सामर्थ्य नहीं होती। इसे सामर्थ्यवान बनाने के लिए श्रद्धा एवं अगाध निष्ठा का समन्वय अपरिहार्य है।

निश्छल हृदय से की गई प्रार्थना भक्ति का ही एक रूप है, किन्तु दोनों में सूक्ष्म अन्तर है। प्रार्थना वेदनापरक होती है, जबकि भक्ति मस्तीपरक। दोनों प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से ईश्वर साक्षात्कार के ही मार्ग है, पर उनके स्वरूप में थोड़ी भिन्नता है। लक्ष्य दोनों का एक ही है। भक्त अपनी गहन भक्ति के द्वारा भगवान से तादात्म्य जोड़ता है, वह ईश-चिन्तन में इतना मस्त हो जाता है कि उसे परिस्थिति, काल एवं स्वयं की भी सुधि नहीं रहती, दोनों के बीच की भिति टूट जाती है और भक्त-भगवान एक हो जाते है। चेतना रहते हुए भी वह ब्राहा चेतना से विलग हो अपने इष्ट में पूर्णतः लीन हो जाता है। तब सर्वत्र उसे अपना अधिष्ठात्रा ही नजर आता है, समस्त जड़-चेतन उसी के प्रसार-विस्तार रूप में दिखाई पड़ते है। अपने पराये की परिधि समाप्त हो जाती है। स्व का सीमा बन्धन टूटना ही भक्ति का चरमोत्कर्ष है। भक्त-भगवान का मिलन संयोग इसी स्थिति में होता है।्र्र

प्रार्थना में आत्मा की कसक होती है। घोर निराशा, असफलता, दरिद्रता अथवा दारुण दुःख में जब प्रार्थी की पुकार अन्तःकरण से प्रस्फुटित होती है, तो वह विधाता के पास पहुँचे बिना नहीं रहती। इस कातर-पुकार से भगवान या तो स्वयं प्रार्थी की सहायता के लिए दौड़े चले आते है अथवा किसी अन्य माध्यम से उसे समाधान प्रदान करते है, उसकी रक्षा करते एवं सहयोग देते है।

संपर्क-सूत्र इसी स्तर का होने से अभ्यर्थी की आवाज भगवान तक पहुंच जाती है, और भगवान की ओर से तभी उसका उत्तर भी प्राप्त होता है, अन्यथा उथले मन से लोभ-लिप्सा युक्त याचना तो अनसुनी ही रहती है। चूँकि विधि-विधान सम्बन्धी यह सत्ता भली-भाँति जानती है कि याचक फरेबी है और अन्यान्य मनुष्यों की तरह विधाता को भी भ्रमित करना चाहता है। सस्ती प्रार्थना के बदले अपने आपको न बदलने वाले बहूमूल्य उपहार के आकांक्षी आत्म-प्रवंचना में पड़े रहते समय गँवाते देखे जाते है। विधाता का यह शाश्वत नियम है कि वे ऐसे पाखण्डियों का साथ नहीं देते। उन्हें तो निश्छल और पवित्र मन वालों से प्रेम है, जो आडम्बरहीन है, उन्हें ही उनका अनुग्रह प्राप्त होता है।

अस्तु सच्चे मन से की गई प्रार्थना निरर्थक नहीं जाती, उसका कोई-न-कोई जवाब अवश्य मिलता है। एकबार रामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य ने उनसे पूछा कि क्या हर प्रार्थना सार्थक होती है? उनने उत्तर दिया “ अन्तःकरण से की गई सच्ची पुकार भगवान तक अवश्य पहुँचती है, वह बेकार नहीं जाती, भक्त को उसका उत्तर भी प्राप्त होता है।

शिष्य का शंका समाधान प्रस्तुत करते हुए उन्होंने आगे कहा “ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रहा”, अर्थात् ब्रहा अनन्त अपरिमित है। वह समस्त जड़-चेतन में उसी प्रकार रमा हुआ है, जैसे इस संसार में वायु के अणु। निराकार जल से जैसे साकार बर्फ जम जाती है, उसी प्रकार प्रार्थना रूपी शीतलता से उस अगोचर ईश्वर-सत्ता का साक्षात्कार किया जा सकता है। वह सत्ता सर्वज्ञ है, सर्व-शक्तिमान है। हम उसके आगे अबोध बालक से है। हमें सदा उसका नाम स्मरण करते रहना चाहिए, अपने अंतर्मन में उसे सदा बिठाये रखना चाहिये।

प्रार्थना की शक्ति के चमत्कारी परिणामों को भले ही विज्ञान सम्मत न माना जाय, इन्हें प्रमाण रूप में नित्य घटते देखा जा सकता है। आये दिन ऐसे अनेकों प्रसंग प्रकाश में आते व परमसत्ता की इस अलौकिकता का परिचय देते रहते है।

जापान में जोसुदा कस्बे में एक किशोरी सपरिवार रहती थी। नाम था येन। उसके पास किसी देवी की एक छोटी प्रतिमा थी। वह ऐसी सुघड़ थी, मानो साक्षात् देवी ही विराजमान हो। येन उससे बहुत प्यार करती थी। उसे सदा अपने कमरे में पलंग के सिरहाने एक छोटी मेज पर रखती थी और रात में सोते वक्त बहुत देर तक उससे बाते करती रहती, जैसे मूर्ति सचमुच उसकी बाते सुन रही हो। प्रतिदिन का यही उसका क्रम था।

दुर्दैव से एक बार वह बीमार पड़ी। आरम्भ में बीमारी को सामान्य समझकर घरवालों ने उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और स्वतः ठीक हो जाने की उम्मीद से छोड़ दिया, किन्तु मर्ज बढ़ता ही गया। घर वालों को चिन्ता हुई, तो उसे योग्य डॉक्टरों से दिखाया गया, मगर बीमारी उन्हें भी समझ नहीं आयी। येन बिल्कुल कंकालवत् बन गई। अब वह अपने कमरे में पलंग पर लेटी-लेटी देवी की प्रतिमा के सामने रोती रहती और उससे मूक प्रार्थना करती रहती। निरन्तर वह शारीरिक दृष्टि से दुर्बल होती जा रही थी। एक सप्ताह तक सब कुछ सामान्य क्रम में चलता रहा। एक सप्ताह बाद एक दिन अचानक मूर्ति की आंखों से आँसू झलकते दिखाई पड़े। आश्चर्य की बात जब से प्रतिमा ने रोना प्रारम्भ किया, येन उत्तरोत्तर ठीक होने लगी। देवी की प्रतिमा चौबीस घंटे रोती रहती, जिससे उसके नीचे बिछा कपड़ा पूरी तरह भीग जाता।

यह घटना बिजली की तरह चारों ओर फैली। बड़े-बड़े डॉक्टर व वैज्ञानिक भी उस दृश्य को देखने के लिए वहां उपस्थित हुए। उन्होंने आँसू का रासायनिक विश्लेषण किया। मानवी आँसू के ही सारे घटक उस जल में भी पाये गए। जब तक येन पूर्णतः ठीक नहीं हो गई; मूर्ति रोती रही। जिस दिन वह पूर्ण स्वस्थ हुई, प्रतिमा ने भी उस दिन से रोना बन्द कर दिया। इस घटना से जनसाधारण को प्रार्थना की शक्ति-सामर्थ्य पर विश्वास दिलाया, अनेंको में ईश्वर-निष्ठा विकसित की।

ऐसी ही एक घटना एक अमरीकी साहित्यकार के साथ घटी। अपटान सिनक्लेयर अपने जमाने के जाने-माने साहित्यकार थे। अमरीका में इनकी खूब ख्याति थी। विचारों से ये धार्मिक और ईमानदार प्रवृत्ति के थे। भगवान में इनकी गहरी आस्था थी और प्रतिदिन सुबह-शाम पूजा-प्रार्थना किया करते।

उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है- “ प्रार्थना करते-करते मैं भाव-विभोर हो जाया करता था। इस स्थिति में मेरे अन्तरंग से बार-बार एक आवाज उभरती ‘ सिन! तुम अपनी आस्था और निष्ठा को बनाये रखना। मैं देखता हूँ, कि तुम्हारी पत्नी कुछ संशयवादी है, किन्तु तुम अपने विश्वास को घटने मत देना। यदि तुम्हारी आस्था डगमगाई, तो फिर हमसे नहीं मिल पाओगे। सिनक्लेयर का कहना है कि यद्यपि यह वाणी स्थूल रूप में नहीं होती थी, फिर भी मुझे उसके एक-एक शब्द स्फुट सुनाई पड़ते।”

इसी पुस्तक में एक अन्य संदर्भ के साथ उन्होंने लिखा है कि एकबार उनकी पत्नी गम्भीर रूप से बीमार पड़ी। उनका निवास एक ऐसे गाँव से था, जहाँ से शहर काफी दूर पड़ता था। पत्नी को तत्काल शहर के किसी अस्पताल में दाखिल कराने के लिए कोई परिवहन-सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी और न गाँव में कोई डॉक्टर-हकीम ही था। सबसे बड़ी परेशानी तो यह थी कि मर्ज रात में यकायक उत्पन्न हुआ और देखते-देखते गम्भीर बन गया। दूसरी बात, उन्हें इस नये मकान में आये अभी दो ही सप्ताह हुए थे। अतः आसपास के लोगों से भी पूरा परिचय नहीं हो पाया था। इस स्थिति में बीमारी की बात किससे कहे? सोच-विचार कर देखा उपाय अब एक ही शेष था- ईश्वर। वे ही अब इस कठिन परिस्थिति में एकमात्र सहारा रहे गये है -वह विचार कर उनने प्रार्थना शुरू कर दिया।

वे स्वयं एक कमरे में थे और बगल वाले कमरे में उनकी पत्नी मरणासन्न अवस्था में पड़ी थी। रात भर वह बैठे ईसा की मूर्ति के सामने प्रार्थना करते रहे। सवेरा होने तक वे अभ्यर्थना करते रहे। यहाँ तक कि सूर्योदय हो गया, धूप चढ़ने लगी, तब भी वह बैठे ही रहे। अन्ततः पत्नी की पगध्वनि से सिनक्लेयर की तन्द्रा टूटी। पत्नी ने देखा, उनकी आंखों से अविरल अश्रु धारा बह रही थी। पत्नी को स्वस्थ देख आर्श्चयमिश्रित प्रसन्नता में उसने पूछा-” नैन्सी, जो कुछ में देख रहा हूँ , क्या वह सच है? क्या सचमुच तुम ठीक हो गई हो? नैन्सी ने हामी भरी और रात घटी एक विलक्षण घटना का उल्लेख किया। उसने बताया-’ प्रार्थना में आपके बैठने के करीब दो घण्टे के करीब मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे कोई दिव्य प्रकाश मेरे अन्दर प्रवेश कर गया हो। इसी के बाद से मेरी तकलीफें धीरे-धीरे घटने लगी। एक घण्टे बाद मेरे स्वास्थ्य में काफी सुधार हुआ, किन्तु इसी बीच नींद आ गई। अभी-अभी जब नींद खुली तो मुझे आपके प्रार्थना में बैठने की याद आयी और आपको देखने के लिए यहाँ चली आयी।

अपनी भारत भ्रमण यात्रा के दौरान पाल ब्रण्टन एक बार बनारस पहुँचे। वहाँ उनकी एक प्रसिद्ध ज्योतिषी सुधी बाबू से भेंट हुई। बातचीत से ज्ञात हुआ कि सुधी बाबू अब अपने परिवार में अकेले है और यही अपने मकान में रहते है। ब्रण्टन महोदय ने जब उनकी ज्योतिष विद्या के बारे में पूछा, तो उनने कहना आरम्भ किया-” बचपन में मैं बहुत मन्द बुद्धि था। कुछ भी पढ़ता तुरन्त भूल जाता । परीक्षाओं में असफल रहता। इससे माँ-बाप बराबर झिड़की दिया करते। कुछ समय तक तो मैं इसे सहता रहा पर जब प्रतिदिन यही क्रम बन गया, तो मैं परेशान हो उठा और इसके लिए भगवान से मौन प्रार्थना करने लगा। अभ्यर्थना से मेरा हृदय कभी-कभी बुरी तरह टूट जाता। लेकिन अन्दर से सदैव यही स्फुरणा मिलती रही कि “ प्रार्थना निरन्तर करते रहना। कभी मुझे भूलना नहीं”। इस अंतर्ध्वनि से मेरा हृदय इतना भावुक हो उठता, कि प्रायः मैं रो पड़ता। लम्बे समय तक मेरा यह क्रम चलता रहा। अचानक एक दिन मुझे एक स्वप्न दिखाई पड़ा। सपने में एक दिव्य पुरुष मुझसे कह रहे थे -’तुम ज्योतिष का अध्ययन शुरू करो, सफलता मिलेगी।’ तभी से मैंने अपना सारा ध्यान ज्योतिष पर केन्द्रित कर लिया। ज्योतिष शास्त्र की दुर्लभ पुस्तकों का अध्ययन और संग्रह आरम्भ किया। उसी प्रार्थना का परिणाम है कि आज मेरा भवन ज्योतिष शास्त्र की एक अनुपम लाइब्रेरी के रूप में परिणित हो गया है, ज्योतिष विद्या की अनेकों अच्छी व दुर्लभ पाण्डुलिपिया के रूप में मुझे यह ज्ञान सम्पदा मिली है। सुधी बाबू ज्योतिष में इतने निष्णान्त थे कि मात्र सामान्य अंक गणना द्वारा हर व्यक्ति का जीवन-वृत्तांत बता देते थे।

गाँधीजी प्रार्थना को आत्मा का आहार मानते थे। उनके अनुसार यह अध्यात्म का पहला कदम है। इसमें खरा उतरने के बाद ही व्यक्ति आगे के सोपानों का श्रेयाधिकारी बन सकता और सफलता पा सकता है। उनका कहना था, अध्यात्म की शुरुआत आत्म-परमात्मा तत्वों के अस्तित्व स्वीकारोक्ति से ही होती है। इसके बाद ही इसकी गहराई में प्रवेश का सुयोग बनता है। अपने अन्दर इन तत्वों को परिपुष्ट और सुविकसित बनाने के लिए वे प्रार्थना-उपासना सेवा को ही प्रमुख मानते थे और आत्मा को इन्हीं उपचारों से पोषण प्राप्त होने की बात कहते थे।

हालीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता पीटर सेलर्स के जीवन में भी एक अद्भुत घटना घटी थी। आज से लगभग ढाई वर्ष पूर्व की बात है। वे अपने दो इंजिन वाले विमान द्वारा बरमूडा त्रिकोण पार करने का प्रयास कर रहे थे। अमेरिका के पूर्वी तट की ओर स्थित इस रहस्यमय त्रिभुज के बारे में पहले कई रहस्यमय घटनाक्रम प्रकाश में आ चुके थे। फिर भी खतरों से खेलने वाले आकल्ट के प्रेमी इस व्यक्ति ने अपनी उड़ान जारी रखी। उन्हें पता था कि उड़न तश्तरी से लेकर वायुयान गायब होने जैसे कई प्रसंग इससे जुड़े है। इन प्रसंगों पर सोचते सोचते वे लगभग इस त्रिभुज को पारकर ही चुके थे कि उन्हें लगा, वायुयान उनके नियन्त्रण के बाहर जा रहा है। वह बड़ी तेजी से नीचे गिरने लगा जबकि एल्टीट्यूड मीटर सही रीडिंग दे रहा था। उनका कहना था उन्हीं क्षणों में उन्हें अपनी भारत यात्रा के दौरान एक हिन्द योगी द्वारा सिखाये गये गायत्री मन्त्र का स्मरण हो आया। आसन्न मृत्यु संकट से ध्यान हटाकर वे पूरी श्रद्धा व निष्ठा के साथ इस मन्त्र का सतत् जाप करने लगे। जप के समय आंखें बन्द थी प्रार्थना चल रही थी लेकिन इंद्रियां विमान के नियन्त्रण में संलग्न थी। जब कुछ क्षणों बाद उनकी आंखें खुली तो उन्होंने देखा कि खतरा टल चुका है, वे जीवित है और उनका विमान उस त्रिभुज को पारकर बरमूडा द्वीप पर आ चुका है इस अनुभूति को उन्होंने अमेरिका के मुख्य पत्रों में प्रकाशित करवाया व लिखा कि “ इस मन्त्र के जप में ईश प्रार्थना में अद्भुत शक्ति सामर्थ्य है। मैंने तो इसकी अनुभूति मात्र की है। वैज्ञानिक यदि जप प्रक्रिया व प्रार्थना शक्ति के परिणामों पर अनुसन्धान कर सके तो यह सबसे बड़ा शोध कार्य होगा।”

सुप्रसिद्ध लेखक एरिकवाँन डैनिकन ने अपनी पुस्तक “मिरेकल्स ऑफ गोडस” में अनेकों ऐसे चमत्कारों का वर्णन किया है जो प्रार्थना की प्रतिक्रिया स्वरूप अभी भी घटते देखे जा सकते है। इनमें से एक फ्रांस के “लाँर्डिस” स्थान से सम्बन्धित घटना यहाँ उल्लेखनीय है। इसे न केवल ईसाई वरर्न सभी धर्म समुदाय एक तीर्थ मानते है। दुनिया के कोने-कोने से लाखों की संख्या में जन समुदाय प्रतिवर्ष यहाँ एकत्र होते देखा जा सकता है। इस स्थान पर एक कन्या वनेर्डेट ने 28 वी शताब्दी में प्रार्थना द्वारा ईसा से साक्षात्कार किया था।

वस्तुतः सभी धर्म मतावलम्बियों ने प्रार्थना शक्ति को ईश्वरीय सता से साक्षात्कार का एक महत्वपूर्ण माध्यम माना है। भगवान की आकृति कुछ भी हो, श्रद्धा-भक्ति से की गई प्रार्थना के द्वारा उसके साथ निश्चित ही तादात्म्य बिठाया जा सकता है। आत्मिक प्रगति का लक्ष्य इन दोनों के समन्वय से ही पूरा होता है। भक्तियोग की साधना तत्काल प्रतिफल देने वाली है, लेकिन इसका क्रम ज्ञानयोग, कर्मयोग की सिद्धि के बाद आता है। श्रद्धा को श्रेष्ठता से प्यार माना गया है एवं भक्ति को उदार आत्मीयता एवं सेवा सज्जनता। पात्रता प्राप्ति के बाद की गयी निश्छल प्रार्थना निश्चित ही अपने सुपरिणाम दिखाती है साधक को धन्य बना देती है।

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