• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • जीवन सम्पदा का सदुपयोग सीखा जाय
    • सिद्धिश्च सोपानः
    • जीवन सम्पदा का सदुपयोग सीखा जाय
    • परमाणु शक्ति से बढ़कर जीवाणु सत्ता
    • एकता के तीन सूत्र
    • हम उत्कृष्टता की ओर अनवरत गति से अग्रसर हों
    • मनुष्य जीवन-समुद्र से भी अधिक गहरा और विस्तृत
    • Quotation
    • चिन्तन की विकृति मनोरोगों का प्रधान कारण
    • अपनत्व की विस्तार मानवता का गौरव
    • विकास की सोचें पर विनाश को न भूलें
    • छोटे कीड़े मकोड़ों की दुनिया हम से कम रोचक नहीं
    • उत्पादक संघर्ष नहीं सहयोग ही है
    • मनुष्य विवश है या समर्थ स्वतन्त्र
    • देवता की शरण में जाये बिना अन्यत्र कहीं कोई ठिकाना नहीं
    • जीवन और शक्ति अन्योन्याश्रित
    • हमारी उदारता विवेक सम्मत हो
    • मनुष्य जन्म प्रचण्ड पुरुषार्थ का प्रतिफल
    • आँवला सस्ता किन्तु अति उपयोगी फल
    • आहार के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता बरती जाय
    • Quotation
    • गंगा की गौरव गाथा अकारण नहीं गाई जाती
    • नन्हा दीपक (kahani)
    • भारतीय धर्म नारी के प्रति अनुदार नहीं
    • शरीर के सर्वोत्तम और निकृष्ट अंग (kahani)
    • क्षुद्रता अपना कर हम पाते कुछ नहीं खोते ही हैं।
    • अपनों से अपनी बात - प्रत्येक परिजन सृजन सैनिक की भूमिका निवाहें
    • नर से नारायण
    • नर से नारायण (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • जीवन सम्पदा का सदुपयोग सीखा जाय
    • सिद्धिश्च सोपानः
    • जीवन सम्पदा का सदुपयोग सीखा जाय
    • परमाणु शक्ति से बढ़कर जीवाणु सत्ता
    • एकता के तीन सूत्र
    • हम उत्कृष्टता की ओर अनवरत गति से अग्रसर हों
    • मनुष्य जीवन-समुद्र से भी अधिक गहरा और विस्तृत
    • Quotation
    • चिन्तन की विकृति मनोरोगों का प्रधान कारण
    • अपनत्व की विस्तार मानवता का गौरव
    • विकास की सोचें पर विनाश को न भूलें
    • छोटे कीड़े मकोड़ों की दुनिया हम से कम रोचक नहीं
    • उत्पादक संघर्ष नहीं सहयोग ही है
    • मनुष्य विवश है या समर्थ स्वतन्त्र
    • देवता की शरण में जाये बिना अन्यत्र कहीं कोई ठिकाना नहीं
    • जीवन और शक्ति अन्योन्याश्रित
    • हमारी उदारता विवेक सम्मत हो
    • मनुष्य जन्म प्रचण्ड पुरुषार्थ का प्रतिफल
    • आँवला सस्ता किन्तु अति उपयोगी फल
    • आहार के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता बरती जाय
    • Quotation
    • गंगा की गौरव गाथा अकारण नहीं गाई जाती
    • नन्हा दीपक (kahani)
    • भारतीय धर्म नारी के प्रति अनुदार नहीं
    • शरीर के सर्वोत्तम और निकृष्ट अंग (kahani)
    • क्षुद्रता अपना कर हम पाते कुछ नहीं खोते ही हैं।
    • अपनों से अपनी बात - प्रत्येक परिजन सृजन सैनिक की भूमिका निवाहें
    • नर से नारायण
    • नर से नारायण (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1975 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


अपनत्व की विस्तार मानवता का गौरव

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 9 11 Last
हम दूसरों से अलग है- हमारा व्यक्तित्व एकाकी अथवा स्वतन्त्र है यह मानना अपने आपको असहाय एवं दीन-दुर्बल स्थिति में ले जाकर पटक देना है। अकेला व्यक्ति सर्वथा नगण्य एवं तुच्छ बनकर ही रहेगा, भले ही वह कितना ही समर्थ एवं साधन सम्पन्न क्यों न हो। अँधेरे में जाने अथवा एकाकी यात्रा में डर लगता है, आशंका बनी रहती है और उदासी छाई रहती है। इसका कारण एकाकीपन की अवाँछनीयता ही समझी जानी चाहिए।

मेले-ठेले में जाने से अनेक प्रकार की असुविधाएँ उठानी पड़ती है, पर वहाँ जाने को मन इसलिए करता है कि एकत्रित हुए जन-समूह की एक इकाई अपने को मान लेने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया सहज ही अपने को प्रमुदित बनाती है। सेना का अंग बनकर चलने वाला सैनिक साहस और उत्साह से भरा रहता है जबकि एकाकी चलने पर उसे अनुत्साह और अवसाद घेरता है।

हम अकेले हैं-सम्बन्धित लोग अपनी सुविधा बढ़ाने मात्र के लिए है ऐसा सोचते ही मनुष्य असुर बन जाता है। वह पत्नी का तरह-तरह से शोषण करता रहता है और उसे कठपुतली, पैर की जूती, क्रीत दासी बनाकर रखने से कम में संतुष्ट नहीं होता। मतभेद या असहमति व्यक्त करते ही आग-बबूला हो जाता है और क्षण भर पहले जो प्रेम प्रदर्शित करने की विडंबना चल रही थी वह न जाने कहाँ चली जाती हैं उसके स्थान पर जल्लाद जैसी दुष्टता ताण्डव नृत्य करती दिखाई पड़ती है। यह सब एकाकी मनोभूमि के दुष्परिणाम हैं।

परिवार के लोगों को असह्य, अभावग्रस्त और दुखी परिस्थिति में भटकता छोड़कर कितने ही लोग नशेबाजी, यारबाजी, शौकीनी मटरगश्ती में पैसा उड़ाते, रहते हैं। उन्हें अपनी थोड़ी-सी इच्छा पूर्ति सर्वोपरि मालूम पड़ती है। इसके कारण परिवार के अन्य सदस्यों को कितना वास सहना करना पड़ेगा, यह बात उनकी समझ में ही नहीं आती। एकाकी मनोभूमि के लोगों के लिए अपना आपा ही सब कुछ होता है। दूसरों से क्या और कैसे लाभ उठाया जा सकता है वे इतना ही सोच पाते हैं। माता-पिता के पास जो कुछ है वह किस तरह झटक लिया जा सकता है इसमें उनकी बुद्धि तीव्र होती है, पर क्या उनकी सहायता करना भी कर्तव्य है यह बात सूझती नहीं। छोटे लड़के माता का जेवर चुराकर बम्बई सैर करने निकल जाते हैं। घर में कैसा कुहराम मच रहा होगा इसकी उन्हें कल्पना भी नहीं होती। अपनी मौज उन्हें बहुत कुछ लगता है। विछोह में बिलखते अभिभावक उनके लिए महत्व हीन मिट्टी के पुतले भर बन जाते हैं। एकाकीपन मनुष्य को कितना निष्ठुर बना देता है इसकी कल्पना करना भी कठिन है।

तनिक से लाभ या मनोरंजन के लिए, तनिक से अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बहुत लोग प्राणघातक आक्रमण कर देते हैं। ऐसा मात्र आवेश में ही नहीं होता कारण गहरा होता है। वे दूसरों को चलते-फिरते गाजर, बैंगन जैसे अनुभव करते हैं। उनको कितना कष्ट होगा या उनके परिवार को कितना व्यथा सहनी पड़ेगी यह सोचना उनके लिए सम्भव नहीं रहता। एकाकी मनुष्य स्वार्थपरता की भूमिका में जितना उतरता जाता है उतना ही निष्ठुर बनता जाता है। चोर, डाकू, हत्यारे, ठग, प्रपंची, दुराचारी प्रकृति के अपराध परायण लोग इन क्रूर कर्मों में गर्व और विनोद इसलिए अनुभव करते हैं कि उन्हें एकाकी मन की स्वार्थ परायण निष्ठुरता मिल गई।

ऐसे ही लोग अपने तनिक से लाभ के लिए देश धर्म, समाज, संस्कृति का बड़ से बड़ा अहित कर सकते हैं। किसी के प्रति दया बरतने की उन्हें कुछ भी आवश्यकता अनुभव नहीं होती। उनके लिए गाजर और मुर्गी में कुछ अन्तर नहीं रहता। वे दोनों को बिना किसी दया, माया का अन्तर किये समान रूप से कच्चा चढ़ा सकते हैं। माँसाहार के लिए पशु-पक्षियों का वध उन्हें अखरता नहीं। अवसर मिले तो वे अपने स्वजन सम्बन्धियों को भी इसी तरह काट पकाकर खा सकते हैं। स्त्री-बच्चों की, भाई बहिनों की नृशंस हत्या कर डालने के समाचार आये दिन सुनने को मिलते हैं इनमें तात्कालिक कारण कोई छोटा आवेश भी हो सकता है, पर वास्तविक कारण उनकी एकाकी मनोभूमि ही होती है। स्वार्थपरता जहाँ जितनी सघन है वहाँ उतनी ही भयावह असुरता विद्यमान रहेगी। ऐसे मनुष्य की मित्रता किसी के लिए भी प्राणघातक संकट सिद्ध हो सकती है वे तनिक सा लाभ देखकर मित्र के गले पर वे रोक-टोक छुरी फिरा सकते हैं। ठग लेना, विश्वास घात करना और बुरी आदतों या संकटों में फँसा देना तो उनके लिए बांये हाथ का खेल होता है।

अपराधों की संख्या अनेक हैं। उनके स्वरूप भी विभिन्न हैं। क्रूर कर्मों के प्रयोग विनियोग कई-कई तरीकों से होते हैं, पर वस्तुतः वे सब एक ही स्वार्थ वृक्ष के पत्र पुष्प होते हैं पर वस्तुतः वे सब एक ही स्वार्थ वृक्ष के पत्र पुष्प होते हैं। स्वार्थी मनुष्य यदि साहस हीन, डरपोक हुआ तो धोखेबाजी का सहारा लेगा और यदि उग्र उद्दण्ड हुआ तो उत्पीड़क, शोषक, आतंकवादी आचरण करेगा। आग जहाँ रहती है वहीं जलाती है, स्वार्थी जिसके भी संपर्क में आता है उसी का सर्वनाश करता है। इसके अपवाद उसके स्त्री, बच्चे भी नहीं कितनी ही स्त्रियाँ स्वार्थी पतियों द्वारा पग-पग पर दी जाने वाली प्रताड़नाओं से इतनी संत्रस्त रहती है मानों उन्हें हर घड़ी जल्लाद को छुरी के नीचे रहना पड़ता हो। नरक नाम का कोई स्थान कहीं नहीं हैं उसकी घिनौनी भयंकरता तो स्वार्थ परायण वातावरण में अपने आस-पास ही कहीं भी देख सकते हैं।

डरावने प्रेत-पिशाचों की कल्पना के साथ यह मान्यता भी जुड़ी रहती है कि वे मरघट जैसे किसी वीभत्स स्थान में एकाकी निवास करते हैं। ऐसे भूत, पलीत होते हैं या नहीं यह संदिग्ध है। पर यह असंदिग्ध है कि स्वार्थी मनुष्य की मनःस्थिति सर्वथा इसी प्रकार की होती है। वे एकाकी रहते हैं। अपनी वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए कुछ भी करने को उद्यत रहते हैं। दूसरों की लाशें पास में जलती रहें इसका उन पर कोई असर नहीं पड़ता वरन् विनाश के विनोद को देखने की उनकी दुष्टता को पोषण मिलता है। सृजन तो वे कर नहीं सकते ध्वंस देखकर वे प्रसन्न होते हैं। सुना है भूतों का काम दूसरों को डराना, बीमार करना या अन्य प्रकार की हानियाँ पहुँचाना होता है। मुफ्त के उपहार पाने के लिए वे तरह-तरह के दबाव डालते हैं। यह पिशाच वृत्ति अनेकों में देखी जा सकती है और उन्हें जीवित रहते हुए भी मरा हुआ कहा जा सकता है। उन्हें प्रेत पिशाच की संज्ञा देना अनुपयुक्त नहीं है।

प्रसन्नता एकाकी मन में सम्भव ही नहीं हो सकती। उपनिषद् के ऋषि का प्रतिपादन है कि-”सृष्टि के आदि में ईश्वर अकेला था। इस एकाकीपन में उसे ऊब आई ओर खीज उठी। इस स्थिति में देर तक रह सकना उसे लिए अशक्य हो गया अस्तु एक से बहुत बनने की ठान ठान। अपने को खण्ड-विखण्ड कर डाला जड़, परमाणु और चेतन जीवाणु उसने बनाये। पदार्थ और प्राणी सृजे। इसके बाद उनमें रमण करता हुआ प्रसन्न प्रमुदित रहने लगा। यह तथ्य अलंकारिक भी हो सकता है, पर मानव जीवन में यह सचाई असंदिग्ध है। व्यक्ति एकाकी मनःस्थिति में खीजता और ऊबता रहेगा। उसे अपनी आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ाये बिना चैन न पड़ेगा। अपनापन जितने विस्तृत क्षेत्र में बिखरा होगा उतना ही अधिक आनन्द, उल्लास का कार्य क्षेत्र उसे उपलब्ध होगा। रमण करना-प्रसन्न प्रमुदित रहना तो विस्तृत जन-समूह के साथ अपने को जोड़ने से ही सम्भव हो सकता है।

पुण्य-परमार्थ के जितने भी श्रेष्ठ सत्कर्म जहाँ तहाँ उभरते दृष्टिगोचर होते हैं वहाँ मनुष्य की उदारता एवं सहृदयता काम कर रही होगी। यह उदारता क्या है? वस्तुतः यह और कुछ नहीं केवल आत्म विस्तार की भावना ही है। हम जब अपने आपको सुविस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ देखते हैं तो सभी वस्तुएँ अपनी प्रतीत होती हैं और जिस तरह अपने निज के प्रयोग में आने वाली, अपने स्वामित्व की परिधि में समाने वाली वस्तुओं को सँभाल कर रखते हैं उसी प्रकार उस सुदूर क्षेत्र में फैली हुई-पराई कही जाने वाली वस्तुएँ भी अपनी ही लगती है। तब उन्हें सँभालकर रखने और सदुपयोग करने में भी वैसी ही प्रवृत्ति होती है जैसी कि निजी वस्तुओं में अमुक वस्तु हमारी नहीं है इसलिए उसे सँजोये जाने या बर्बाद होने में अपने को क्या लेना देना, यह विचार तभी मन में आवेगा जब अपनत्व का दायरा सीमित होगा। जिसने इस दायरे को जितना बढ़ा रखा होगा। वह बिना अपने पराये का भेदभाव किये सभी वस्तुओं को अपने ईश्वर की-ममता की परिधि की मानेगा और उनकी सुरक्षा, सुव्यवस्था एवं सुसज्जा का पूरा-पूरा ध्यान रखेगा।

संकुचित स्थिति में केवल अपना शरीर ही अपना होता है। उसकी सुविधा के लिए संबद्ध परिवार वालों की उपेक्षा भी की जाती है ओर उनके साथ अनीति बरतना भी खूब होता है। पर जब आत्मीयता बढ़ती है तो स्वयं कष्ट उठाकर-अभावग्रस्त रहकर कुटुम्ब के सदस्यों को सुखी बनाने के साधन जुटाये जाते हैं। अविकसित मनोभूमि पत्नी तक बहुत हुआ तो बच्चों तक सीमित होकर रह जाती है किन्तु जिनने अपने को बढ़ाया है वे माता-पिता, भाई-बहिन से लेकर मित्र, पड़ौसी तक की सुख-शान्ति में पूरी दिलचस्पी लेते हैं, और अपने से जो बन पड़ता है उसमें कुछ उठा नहीं रखते। आत्म-विकास की मात्रा यदि अधिक हुई तो उसी अनुपात से ग्राम, नगर, प्रान्त देश और अन्ततः समस्त बिखरे हुए मानव प्राणियों में यह ममत्व फैलता है। वे सब आत्मीयजन लगते हैं। उनके दुख दर्द अपने प्रतीत होते हैं ओर निज के कष्टों का निवारण करने के लिए जैसी चिन्ता एवं चेष्टा रहती है वैसी ही उनके लिए भी सहज ही बन पड़ती है। वसुधैव कुटुम्बकम् की विश्व परिवार की मान्यता इसी स्थिति में परिपक्व होती है। तब सबमें एक ही आत्मा-एक ही विश्वात्मा ओत-प्रोत दीखती है। सभी अपने प्रतीत होते हैं। पराया कोई दीखता ही नहीं। जहाँ अपनापन होगा वहाँ प्रेम की उमंगे उठेंगी। सहानुभूति जगेगी फलतः उदारता, सेवा, सहायता का भाव भरा सहृदय व्यवहार ही सबके साथ बन पड़ेगा। यह आत्म-विस्तार ही समस्त अध्यात्म विज्ञान का एकमात्र लक्ष्य है।

आत्मीयता का विस्तार मनुष्यों तक सीमित न रहकर क्रमशः प्राणिमात्र में विस्तृत होता चला जाता है। तब अन्य प्राणी भी अपना ही कुटुम्बी लगता है। उनकी सुविधाओं का भी ध्यान रखता है। उनके कष्टों में भी अपने जैसे कष्ट की अनुभूति होती है। मानवी अन्तःकरण का जहाँ सन्तोषजनक स्तर तक विकास होगा वहाँ स्नेह, सौजन्य का समुद्र उमड़ रहा होगा। अकारण कष्ट किसी भी प्राणी को दे सकना सम्भव न रहेगा। ऐसे मनुष्य प्राणियों का वध करके उनका माँस खाने की कल्पना भी नहीं कर सकते। यह नृशंस कृत्य उन्हें उतना ही कष्टकारक होता है जितना किसी सामान्य व्यक्ति को अपने बच्चे या भाई को मारकर खाना। जीभ के स्वाद अथवा शरीर पुष्टि की लालसा जैसे अत्यंत तुच्छ स्वार्थ के लिए अन्य प्राणियों को मर्मान्तक पीढ़ा देना केवल पाषाण हृदय असुरों से ही बन पड़ सकता है जिसमें आत्मा की सत्ता मौजूद है और वह सुविकसित कहे जा सकने वाले स्तर तक जा पहुँचा है उसके लिए माँसाहार का ग्रास हाथ से उठा सकना भी सम्भव न होगा। इस कृत्य को करते हुए उसका हृदय धड़केगा और हाथ काँपेंगे।

यह समस्त सृष्टि हमारे ही लिए नहीं बनाई गई हैं। समस्त विश्व वसुधा हमारी वपौती नहीं है। अन्य प्राणी भी ईश्वर के बनाये हैं और उस धरती पर रहने तथा प्रकृति सम्पदा का उपभोग करने का अधिकार उन्हें भी है। सबके अधिकार छीनकर, सबके अस्तित्व को खतरे में डालकर हम अपनी ही स्वार्थ लिप्सा पूरी करने की बात सोचे तो यह संकीर्ण स्वार्थपरता अनीति मूलक ही होगी। उससे मानवता का गौरव गिरेगा ही।

हम अपने को एकाकी अनुभव न करें। अपनत्व का दायरा विस्तृत करते चले जायं तभी व्यक्ति की महानता और समाज की सुख-शाँति स्थिर रह सकेगी।

First 9 11 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • जीवन सम्पदा का सदुपयोग सीखा जाय
  • सिद्धिश्च सोपानः
  • जीवन सम्पदा का सदुपयोग सीखा जाय
  • परमाणु शक्ति से बढ़कर जीवाणु सत्ता
  • एकता के तीन सूत्र
  • हम उत्कृष्टता की ओर अनवरत गति से अग्रसर हों
  • मनुष्य जीवन-समुद्र से भी अधिक गहरा और विस्तृत
  • Quotation
  • चिन्तन की विकृति मनोरोगों का प्रधान कारण
  • अपनत्व की विस्तार मानवता का गौरव
  • विकास की सोचें पर विनाश को न भूलें
  • छोटे कीड़े मकोड़ों की दुनिया हम से कम रोचक नहीं
  • उत्पादक संघर्ष नहीं सहयोग ही है
  • मनुष्य विवश है या समर्थ स्वतन्त्र
  • देवता की शरण में जाये बिना अन्यत्र कहीं कोई ठिकाना नहीं
  • जीवन और शक्ति अन्योन्याश्रित
  • हमारी उदारता विवेक सम्मत हो
  • मनुष्य जन्म प्रचण्ड पुरुषार्थ का प्रतिफल
  • आँवला सस्ता किन्तु अति उपयोगी फल
  • आहार के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता बरती जाय
  • Quotation
  • गंगा की गौरव गाथा अकारण नहीं गाई जाती
  • नन्हा दीपक (kahani)
  • भारतीय धर्म नारी के प्रति अनुदार नहीं
  • शरीर के सर्वोत्तम और निकृष्ट अंग (kahani)
  • क्षुद्रता अपना कर हम पाते कुछ नहीं खोते ही हैं।
  • अपनों से अपनी बात - प्रत्येक परिजन सृजन सैनिक की भूमिका निवाहें
  • नर से नारायण
  • नर से नारायण (kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj