
जीवन और शक्ति अन्योन्याश्रित
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जीवन और जगत के समस्त कार्य-व्यापार शक्ति के संस्पर्श से ही संचालित है। शक्ति हीनता, जड़ता एवं मृत्यु की द्योतक है। विद्युत की शक्ति से लोहे, एवं ताँबे के बने पंखे, मोटर, बल्ब आदि कितने जीवनोपयोगी कार्य सम्पन्न किये जाते हैं। परमात्मा ने अपने प्रिय राजकुमार मानव को जो अतिरिक्त अनुदान प्रदान किया है उसे विचार के नाम से जानते हैं। वस्तुतः विचार ही शक्ति का जनक है और शक्ति, मुक्ति की जननी हैं। जहाँ विचार नहीं, वहाँ शक्ति नहीं। जहाँ शक्ति नहीं, वहाँ कर्म नहीं एवं जहाँ कर्म नहीं, वहाँ जीवन नहीं। अर्थात् जहाँ विचार नहीं, वहाँ जीवन नहीं। दूसरे शब्दों में शक्ति ही जीवन का पर्याय है।
विचारों का संबंध मानसिक शक्ति से है और मन की शक्ति प्रचण्ड एवं अपार है। मन ही जीवन के उत्थान-पतन का केन्द्र बिन्दु है। यदि मन की दासता को मनुष्य त्याग दे और उसका स्वामी बन जाये तो स्वर्गीय जीवन एवं मुक्ति मार्ग दूर नहीं। आर्ष ग्रन्थों के सृष्टा मनीषियों ने सत्य को तप का पर्याय निरूपित करते हुए उसको शक्ति का स्त्रोत कहा है। साथ ही आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में सत्य को नारायण एवं नारायण को सत्य कहा है। दिव्य-तत्व उत्कृष्टता की उपलब्धि जो मानव जीवन का अभीष्ट है आत्म-शक्ति के संवर्धन से ही सम्भव होती है।
शक्ति का स्त्रोत गतिशील, कर्म में से ही फूटकर निकलता है। अकर्मण्यता, निष्क्रियता से शक्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। क्रियाशीलता नित्य नवीन शक्ति प्रदान करती हैं। बेकार पड़ी रहने वाली भूमि बंजर और उपजाऊ हो जाती है, बेकार पड़ी रहने वाली मशीन जंग ग्रस्त हो जाती है।
शक्ति सम्बर्द्धनार्थ, कर्मशीलता और कर्मसाधना की महती आवश्यकता होती है। कर्म कैसा भी हो अन्ततोगत्वा वह कर्म ही कहा जायेगा। सैनिक, व्यापारी लेखक, उपदेशक, श्रमिक, मजदूर सभी अपने-अपने स्थान पर कर्मशील हैं।
किसी कर्म को निष्ठा एवं दृढ़ लगन के साथ करना ही ‘कर्म-साधना’ है जिससे शक्तियों के स्त्रोत खुलते हैं। यही शक्ति स्त्रोत सिद्धियाँ बनकर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता और यश के वरदान प्राप्त करते हैं।
कर्म की पूजा ही मानव का वास्तविक धर्म है। कर्म से शक्ति, पौरुष, साहस एवं तेजस् की उपलब्धि होती है।
एक कहावत प्रचलित है ईश्वर उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं। वस्तुतः “दैव को दुर्बलता का घातक” बताकर शास्त्रकारों ने एक कटु सत्य का ही उद्घाटन किया है।
शक्ति की उत्पत्ति अवरोध से होती है। नदी का प्रवाह वही तीव्र होता है जहाँ चट्टानों, पहाड़ों द्वारा गत्यावरोध उत्पन्न किया जाता है। मैदानी नदियों का प्रवाह तीव्र नहीं होता। अवरोध और घर्षण के सिद्धान्त पर बिजली की शक्ति का उद्भव होता है। धनुष की डोरी जब तनती है तब उसमें तीर को दूर फेंकने की शक्ति आती है। यदि डोरी ढीली पड़ी रहे तो तीर फेंकने का काम जरा भी न हो सकेगा। वैज्ञानिकों, योगियों एवं आत्मवेत्ताओं ने भी अगणित सिद्धियाँ प्राप्त की हैं उन सबका श्रेय मन को रोककर एक दिशा में लगाये रहने की सफलता में ही सन्निहित है।
संघर्ष का ही दूसरा नाम जीवन है। जहाँ सक्रियता समाप्त हुई वहाँ जीवनाँत समीप समझिये। आलसी, अकर्मण्यों को जीवित अवस्था में भी मृत की संज्ञा दी जाती है। जिसने पुरुषार्थ के प्रति अनास्था व्यक्त की वह जीवन के प्रति आस्था ही खो बैठा मनुष्य की सच्ची वीरता युद्ध के मैदान में दुश्मनों को पराजित करने में नहीं, बल्कि मनोशक्ति के द्वारा अपनी वासनाओं और तृष्णाओं के हनन करने में निहित हैं।