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Magazine - Year 1975 - Version 2

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देवता की शरण में जाये बिना अन्यत्र कहीं कोई ठिकाना नहीं

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हमारी शारीरिक, मानसिक हलचलों से लेकर कृषि, उद्योग आदि हर काम में शक्ति खर्च होती है। शक्ति का उत्पादन ऊर्जा से होता है। ऊर्जा उत्पन्न करने के लिये ईंधन की आवश्यकता है।

मनुष्य क्रमशः बौद्धिक और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हाता जा रहा है तद्नुसार उसकी आवश्यकताएँ भी बढ़ रही हैं। पूर्ति के साधन जुटाने के लिये अनेक वस्तुओं का उत्पादन करना पड़ता है और अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ जुटानी पड़ती हैं इस सबके लिये शक्ति चाहिए। ऊर्जा उत्पादन के लिये ईंधन अनिवार्य है। क्रमशः ईंधन की खपत बढ़ती जा रही है। जन-संख्या वृद्धि ने उस खर्च और भी अधिक बढ़ा दिया है। सन् 1800 में जितनी ‘शक्ति’ मनुष्य की सेविका थी अब औद्योगिक क्षेत्र में उससे दो हजार गुनी शक्ति खर्च होती है। घरेलू काम में खर्च होने वाली शक्ति जिसमें बिजली प्रमुख है उसके अतिरिक्त है। सन् 1900 में प्रति व्यक्ति पीछे 2 अश्व शक्ति बिजली प्राप्त थी, पर अब वह पाँच गुनी बढ़कर 10 अश्व शक्ति का उत्पादन औसत आता है।

ऊर्जा सम्बन्धी माँग भर में बेतरह बढ़ रही है। हर साल यह माँग इतनी बढ़ जाती है जितनी 3000 लाख टन कोयले से पूरी की जा सकती है। सन् 1900 से लेकर 1950 तक यह माँग तीन गुनी हो गई थी। 1950 से 1970 तक बीस वर्षों में ही वह फिर तीन गुनी हो गई है। अब सन् 1980 तक पहुँचते फिर वह माँग तिगुनी हो जायगी। इसके बाद सम्भव है हर वर्ष पिछले वर्ष की तुलना में यह आवश्यकता तीन गुने क्रम में बढ़ सकती है।

अमेरिका की आबादी संसार की जनसंख्या का छठा भाग है किन्तु उसकी आवश्यकता संसार में उत्पन्न बिजली का एक तिहाई भाग प्राप्त कर लेने पर ही पूरी हो पाती है। औसतन हर अमेरिकी इतनी बिजली खर्च करता है, जितनी 46 पौंड कोयला, 9॥ गैलन पेट्रोल, आधे पिण्ट परमाणु शक्ति द्वारा उपलब्ध हो सकती है। सम्भावना यह है कि सन् 1985 तक वहाँ यह खपत दूनी हो जायगी।

समस्त संसार में प्रस्तुत पर्यवेक्षण के अनुसार 48,656000 लाख टन कोयले का भण्डार है। इसमें भारत में प्रस्तुत घटिया-बढ़िया कोयले का कुल भण्डार 1080000 लाख टन कूता गया है। यह कुल उत्पादन का 203 प्रतिशत है। जबकि अपने देश की जनसंख्या विश्व की आबादी का छठा भाग है। संसार भर में गैस भण्डार 2300000 मेगाटन है, जिसमें भारत में केवल 41155 मेगाटन है।

संसार भर में जितना कोयला भण्डार कूता गया है वह वर्तमान खपत क्रम को देखते हुए 100 वर्ष काम दे सकता है। किन्तु तेल के बारे में ऐसी बात नहीं है। उससे पचास वर्ष का ही काम मुश्किल से चलेगा। भारत जैसे गरीब देश वन सम्पदा को नष्ट करके लकड़ी जलाते हैं और कृषि के लिये अत्यन्त उपयोगी खाद, गोबर को उपले बनाकर चूल्हा गरम करते हैं, यह अपने पैरों कुल्हाड़ी मारने की तरह है। वन काटने से वर्षा घटेगी ओर जमीन कटेगी। गोबर को जला लेने पर भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जायगी। रासायनिक खादों से तत्कालिक लाभ होता है, भूमि की उर्वरा शक्ति नहीं बढ़ती। अपने देश में भी घरेलू ईंधन के लिये दूसरे साधन ढूंढ़ने पड़ेंगे साथ ही कल-कारखानों के लिये तेल, गैस, बिजली का उत्पादन बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। विदेशों से तेल, कोयला मँगाकर हम अपनी गर्दन दूसरों के हाथ सौंपते हैं और अनिश्चित सम्भावनाओं में भटकते हैं।

अमेरिका के पास कोयला काफी है। वे सोचते हैं कि इस भण्डार से अगले 100 वर्ष तक मजे में काम चल जायगा। पर वर्तमान तेल भण्डार 10 वर्ष में

प्राकृतिक गैस भण्डार और यूरेनियम 13 साल में ही चुक जायगा। अगले दिनों नई खदानें निकलें तो बात अलग है।

अमेरिका के बाद ऊर्जा की खपत करने वाले देशों में जापान का नम्बर आता है। विकास की वर्तमान रफ्तार जारी रखने के लिए उसे अगले वर्ष 3000 लाख टन तेल की जरूरत पड़ेगी और दस वर्ष में वह आवश्यकता दूनी बढ़ जाने की सम्भावना है। उसका अपना तेल उत्पादन, मात्र एक महीने के लिए ही है। उसे अपनी यह आवश्यकता अन्य देशों से पूरी करनी पड़ती है। तेल के मामले में रूस की स्थिति अच्छी है। संसार भर में हर साल निकलने वाले तेल का 15 प्रतिशत अर्थात् 4000 लाख टन तेल अकेले रूस में निकलता है। गैस का उसके पास विपुल भण्डार ह। 35000 बिलियन घन फुट गैस वह पैदा कर लेता है। यह सब होते हुए भी उसे अपने अधीनस्थ पूर्वी योरोप के कम्युनिस्ट देशों की आवश्यकता पूरी करने के लिए कुछ ही दिनों में बाहर से तेल खरीदने की जरूरत पड़ जायगी।

पश्चिम योरोप के 9 देशों ने तेल आयात के लिए निश्चित नीति अपनाने के लिये यूरोपीय इकोनोमिक कम्यूनिटी (ई.ई.सी.) बनाई है। यह लोभ 60 प्रतिशत तेल प्रधानतया अरब देशों से तथा छुट-पुट अन्यत्र से खरीदते हैं। इनकी जरूरत बढ़ रही है और अगले पाँच वर्ष में वे अब की अपेक्षा दूना अर्थात् 80-80 लाख टन तेल आयात करने के लिए विवश होंगे। फ्राँस की दशा तो और भी दयनीय है उसका कोयला भण्डार क्रमशः चुकता चला जा रहा है। दस वर्ष पूर्व उसका कोयला उत्पादन 550 लाख टन था। पर अब वह घटते-घटते 300 लाख टन रह गया है। आगे यह गिरावट और भी बढ़ेगी।

ब्रिटेन के अर्थशास्त्री स्टेनली जोवोन्स ने अपने ग्रन्थ ‘दि कोल क्विश्चन-एन इन्क्वारी’ में लिखा है- आज कोयले के आधार पर जो देश अपने उद्योग चला रहे हैं उन्हें पीछे लौटना पड़ेगा और इस जल्दी समाप्त होने वाले ईंधन का आधार छोड़कर नये ऊर्जा साधन ढूंढ़ने पड़ेंगे।

विज्ञानी टोनी लोफ्टास ने गरीब देशों का सलाह दी है कि वे पनचक्की जैसे साधनों से छोटे बिजलीघर बनाये और अपने सीमित साधनों से स्वावलम्बी योजनाएँ बनाएँ। परावलम्बी साधनों के आधार पर बनाई गई उनकी लम्बी-चौड़ी योजनाएँ अन्ततः उन्हें पश्चाताप ही प्रदान करेंगी।

मध्य पूर्व और अफ्रीका में संसार के तेल भण्डार का 66 प्रतिशत है जबकि वहाँ खपत 4 प्रतिशत ही है। संसार की तेल आवश्यकता को देखते हुए यह देश अपने दाम बढ़ा रहे हैं फलतः ऊर्जा महंगी ही नहीं अनिश्चित भी होती जाती है। तेल देशों ने अपनी अच्छी स्थिति को राजनैतिक सौदेबाजी का मोहरा भी बना लिया है। इसलिये उनका रुख, कब किस देश के लिए क्या होगा इस सम्बन्ध में कुछ भी कहा नहीं जा सकता।

ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक और आस्टन विश्वविद्यालय के कुलपति डाक्टर जे.ए. पापा ने हिसाब लगाकर बताया है कि जिस गति से आजकल पैट्रोल खर्च हो रहा है उसी गति से वह खर्च होता रहे तो अब तक उपलब्ध तेल स्रोतों का सारा, भण्डार 31 वर्षों में समाप्त हो जायगा किन्तु यदि पैट्रोल के खर्च में थोड़ी-सी अर्थात् 5 प्रतिशत भी वृद्धि हुई तो वह 20 वर्षों में ही चुक जायगा। आशा की गई है कि अभी नये तेल स्त्रोत और मिल सकते हैं। इस सम्भावना को स्वीकार करते हुए डा.पापा ने कहा है कि यदि यह उपलब्धियाँ अबकी तुलना में 5 गुनी बढ़ जायें तो 50 वर्ष तक, दस गुनी बढ़ जायें तो 78 वर्ष तक ही धरती का पैट्रोल मोटरें चलाने में काम दे सकेगा।

औद्योगिक ऊर्जा में 97 प्रतिशत तेल, कोयला आदि अतिरिक्त ईंधनों का प्रयोग होता है इनके जलने से जो कार्बन, नाइट्रोजन, सल्फर आक्साइड आदि बनते हैं उनसे जहरीली हवा पैदा होती है और वायुमण्डल को खराब करती हैं। इसी प्रकार परमाणु विस्फोटों से जो विषाक्त विकिरण पैदा होता है उससे जल-थल और नभ में विचरण करने वाले प्राणियों के लिए अनेकों विभीषिकाएं पैदा होती हैं। बड़ी भट्टियाँ पृथ्वी के वायुमण्डल को लगातार गरम कर रहीं है यह बढ़ती हुई गर्मी मौसमी सन्तुलन को बिगाड़ने, ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलाकर समुद्री बाढ़ में बहुत-सी धरती डुबो देने जैसी भयंकर सम्भावनाएँ सामने खड़ी कर सकती है।

इन कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए विचारशील वर्ग द्वारा वृद्धि और विकास की सीमा निर्धारण करने की माँग जोरों से उठाई जा रही है अन्यथा प्रकृति के नाम पर चल रही अन्धी दौड़ कुछ ही समय में सर्वनाश के दृश्य उपस्थित करेगी।

ईंधन की बढ़ती माँग को प्रकृति के वर्तमान स्त्रोत पूरा नहीं कर सकते हैं। धरती के पास जितना मसाला है वह बहुत दिन चलने वाला नहीं हैं। वह दिन दूर नहीं जब हम ईंधन की दृष्टि से बुरी तरह दिवालिये हो जायेंगे और ऊर्जा के अभाव में अपने विलासी जीवन-क्रम का भार न ढो सकने के कारण बेमौत मरेंगे। अणु ऊर्जा के प्रति पिछले दिनों बहुत उत्साह था और बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँधी गई थी, पर अणु भट्ठियों से निकलने वाले विकिरण विष का कोई समाधान न निकलने के कारण उसका उपयोग भी सर्प के मुख में उँगली डालने से कम खतरनाक प्रतीत नहीं हो रहा है।

ईंधन के लिए हमें अन्ततः सविता देवता की आराधना करनी पड़ेगी। जीवन उसी से मिला है। धरती की समस्त जड़-चेतन, हलचलें उसी की कृपा से चल रही हैं। भविष्य की ईंधन समस्या सहित अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमें उन्हीं की शरण लेनी पड़ेगी।

पृथ्वी पर जितनी सूर्य शक्ति अवतरित होती है, उसका 99 प्रतिशत बेकार चला जाता है केवल 1 प्रतिशत का ही कुछ उपयोग हो पाता है। सारी पृथ्वी पर जितनी शक्ति का व्यय होता है उससे 20 हजार गुनी शक्ति निरन्तर पृथ्वी पर भेजता रहता है।

सूर्य ऊर्जा अतुलनीय है। किसी राजस्थानी रेगिस्तान के सौ वर्ग मील टुकड़े की सूर्य शक्ति यदि वशवर्ती की जा सके तो उससे पूरे भारत की शक्ति आवश्यकता मजे में पूरी हो सकती है। दर्पणों के प्रतिबिंब द्वारा सूर्य शक्ति का उपयोग करने की बात सोची गई थी, पर उसमें जितना सरंजाम इकट्ठा करना पड़ता है उसकी तुलना में उपलब्धि कम होती है। ‘सिलीकॉन’ के पतले परतों द्वारा सूर्य ऊर्जा से बैटरियाँ बनाई गई थीं छोटे प्रयोजनों के लिये वह सफल तो थीं, पर प्रारम्भिक स्थिति में उसमें भी लागत अधिक आई। सूर्य शक्ति और अणु ऊर्जा का स्तर एक ही है पर सूर्य किरणें आठ मिनट की यात्रा करके जब धरती पर पहुँचती हैं तो वे इतनी हल्की हो जाती हैं कि प्राणी और वनस्पति उनका सुकोमल स्पर्श सुखपूर्वक कर सकते हैं और लाभ उठा सकते हैं। इसके विपरीत धरती पर उत्पन्न की गई अणु ऊर्जा किसी बलिष्ठ दैत्य के समान है उसका उपयोग केवल ऐसे ही कामों में हो सकता है जो गर्मी का तीव्र दबाव सहन कर सकें।

अध्यात्म उपासनाओं में सूर्योपासना सर्वोपरि है। गायत्री महामन्त्र का अधिष्ठाता सूर्य देवता है। ब्रह्मरंध्र में अवस्थित सहस्रार सूर्य चक्र ही अन्याय षटचक्रों को प्रभावित करता है। आकाशस्थ सूर्य नवग्रहों और उपग्रहों पर अनेकानेक स्तर की शक्तियाँ प्रदान करके उन्हें अपने कर्म चक्र पर चलते रहने का साधन प्रदान करता है। हमारी पृथ्वी पर जो जीवन उपलब्ध है वह मात्र सूर्य देवता का ही अनुदान है।

तत्वदर्शी महामनीषियों ने शरीर को सूर्य संपर्क में रखकर जीवनी शक्ति प्राप्त करने और मनोभूमि सविता देवता की आराधना करके ओजस्वी, तेजस्वी एवं ब्रह्मवर्चस् सम्पन्न बनाने का साधना विज्ञान विनिर्मित किया था। अब भौतिक विज्ञानी भी हर दिशा से निराश होकर सूर्य देवता की शरण में जाने की तैयारी कर रहे हैं। विश्व की ऊर्जा समस्या का कोई अन्य समाधान आधार नहीं।

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