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Magazine - Year 1976 - Version 2

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व्यक्तित्व को अलंकृत करने वाली व्यवस्था बुद्धि

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First 9 11 Last
कूड़े को भी यदि यथास्थान सुरुचि पूर्ण ढंग से दाब-ढक कर रखा जाय तो वह बुरा न लगेगा इसके विपरीत यदि तस्वीरें, फूल, गुलदस्ते आदि सुन्दर वस्तुएं भी अस्त-व्यस्त क्रम से फैला दी जायं तो वे गन्दगी मात्र बनकर रह जायेंगी। चतुर माली अपने बगीचे में बाढ़ के लिए लगाई गई झाड़ियों को भी इस प्रकार काटते-छाँटते हैं कि वे नयनाभिराम लगने लगती हैं। इसके विपरीत यदि गुलाब के पौधों की डालियां भी छितरी-बिखरी रहें तो वे कुरूप झाड़ियों जैसी दिखाई पड़ेंगी। काला कलूटा मनुष्य भी यदि अपने बाल, वस्त्र, रहन-सहन को ठीक ढंग से रखता है तो वह सुन्दर प्रतीत होता है किन्तु यदि गोरा चट्टा प्राकृतिक बनावट का सुन्दर होते हुए भी नाक, आँख आदि में मल भरे हैं, बेतुके बाल और बेसिलसिले मैले कुचैले कपड़े पहने हैं तो उस व्यवस्थित काले-कलूटे मनुष्य की तुलना में कुरूप दिखाई देगा।

प्रकृति ने किस वस्तु को कैसी सुन्दर-असुन्दर बनाया है यह अपने हाथ की बात नहीं। किन्तु इतना मनुष्य के हाथ में भी है कि वह अपनी कला-कुशलता का- व्यवस्था का समावेश करके कुरूप लगने वाली वस्तुओं को भी सुन्दर बना दे और फूहड़पन के द्वारा सुन्दर वस्तुओं को भी कुरूप और कुरुचि पूर्ण बना दे। कुछ समय पूर्व जो जमीन खार-खड्डों वाली, ऊबड़-खाबड़, भद्दी-भोंड़ी दिखाई पड़ती थी आज वही सुन्दर उद्यान बनकर जीवन्त तस्वीर जैसी मनोरम दिखाई पड़ती है। हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। इस अद्भुत परिवर्तन का एकमात्र कारण मनुष्य की व्यवस्था बुद्धि है जिसके साथ श्रम को जोड़कर प्रयुक्त किया जाय तो कही भी सुन्दरता का सृजन किया जा सकता है। जहाँ इस कौशल का अभाव होगा वहाँ बहुमूल्य वस्तुएं भी कुरुचिपूर्ण गन्दगी बनकर कचरे की तरह जहाँ-तहाँ अशोभनीय स्थिति में पड़ी होगी। प्राकृतिक सौन्दर्य का कोई अस्तित्व नहीं ऐसा तो नहीं कहना चाहिए, पर व्यवहार को कसौटी पर कसा जाय तो प्रतीत होगा कि जितनी भी सुन्दरता अपने इर्द-गिर्द प्रस्तुत है उसमें से अधिकाँश को मनुष्य की कुशल व्यवस्था बुद्धि ने ही उत्पन्न किया है।

सौन्दर्य और व्यवस्था वस्तुतः एक ही प्रक्रिया के दो रूप हैं। कला को सौंदर्योत्पादक कहा जाता है। पर यह कला सुरुचिपूर्ण व्यवस्था बुद्धि के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। सामान्यतया चित्रकला, मूर्तिकला, साहित्य, कविता, गायन, वाद्य, नृत्य आदि के माध्यम से किसी कलाकार की कला का प्रकटीकरण होता है। यह तो कला का प्रतिफल हुआ, वह वस्तुतः है क्या, इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि यह पदार्थों को एवं क्षमताओं को व्यवस्थापूर्वक क्रमबद्ध कर देने भर की कुशलता है इसी को कला कहते हैं।

कागज का टुकड़ा, कई तरह के रंग, पतले से ब्रुश इतनी भर नगण्य सी सामग्री को कहाँ किस क्रम, कितनी कुशलता से कहाँ नियोजित किया जाय कि उसमें से अमुक छवि या अमुक भाव प्रकट होने लगें, इस प्रक्रिया को जिसने ठीक तरह संजो लिया उसे चित्रकार कहते हैं। बहुमूल्य चित्रों कीमत उनमें लगे कागज या रगों के आधार पर नहीं दी जाती वरन् उस व्यवस्था बुद्धि की प्रखरता को परखा जाता है जिसने तूलिका के सहारे निर्जीव कागज को जीवन्त कलाकृति के रूप में प्रस्तुत करके रख दिया है। यही बात मूर्तिकार के सम्बन्ध में है। एक पत्थर का टुकड़ा-छोटे छोटे छैनी, हथौड़ी रेती जैसे उपकरण बस उन्हीं नगण्य सी वस्तुओं के सहारे वह ऐसी बहुमूल्य प्रतिमा गढ़ देता है कि उसे देख-देखकर दर्शक का मन हुलसने लगता है। इस दर्शनीय प्रतिमा का मूल्याँकन पत्थर या श्रम के घण्टों का लेखा-जोखा लेकर नहीं हो सकता, गढ़ने वाले की तन्मयता एवं सौन्दर्य परख की सूक्ष्म क्षमता ही निर्जीव मूर्ति को सजीव बनाती है। जड़ पत्थर में से भावाभिव्यक्ति का जो निर्झर झरता है वह और कुछ नहीं मूर्तिकार का सम्वेदनात्मक सौन्दर्य ही है।

साहित्यकार क्या है? शब्दकोष के जंगल में बिखरी हुई वनस्पतियों का तोरण, वन्दनवार, गुलदस्ते गजरे और पुष्प हारों के रूप में कलाकृति बनाकर प्रस्तुत करना ही है। लकड़ी की लेखनी को, भगवती, सरस्वती कौन बनाता है? साहित्यकार का भावाभिव्यक्ति कौशल। इसे शब्दों का सुरुचि पूर्ण गठन भी कह सकते हैं। वस्तुतः यह क्रमागत शब्द व्यवस्था ही साहित्यकार की कला है। कविता में यही तत्व छन्दबद्ध होकर प्रस्फुटित होता है। इसमें शब्दों को लयबद्ध, तालबद्ध, भावबद्ध करने में और भी अधिक प्रवीणता दिखानी पड़ती है।

संगीत क्या है? कण्ठ के ध्वनि प्रवाह को बहुरंगी फव्वारे की तरह मनोरम बनाना। कण्ठ से ध्वनि तो सभी के निकलती है, पर वह अस्त-व्यस्त होती है। गायक अपनी सूक्ष्म बुद्धि से उसे स्वरों में विभाजित करता है और फिर उसके उतार-चढ़ाव समाविष्ट करके मर्मस्पर्शी गीत अलापता है। वाद्य यन्त्र क्या हैं? अनगढ़ उपकरण वादक की उंगलियां, थपकियां उस पर एक विशिष्ट क्रम से थिरकती हैं और इतने भर से नस-नाड़ियों को झंकृत करने वाला संगीत बजने लगता है। अभिनय क्या है ? हाथ, पैर, उंगलियां, कमर, गरदन, कन्धे, नेत्र, मुख आदि सामान्य काय अवयवों का इस प्रकार स्पंदित होना जिसमें नर्तक की भाव मुद्रा उभरे और दर्शकों के मन मयूर को अपने साथ-साथ नाचने के लिए बाधित कर दे। दूसरे शब्दों में नृत्य अभिनय में प्रयुक्त होने वाले अवयवों की हलचलों को एक विशिष्ट भाव प्रवाह के अनुरूप गतिशील रहने की व्यवस्था। स्पष्ट है कि व्यवस्था का दूसरा नाम ही कला है। अपने विषय का निष्णात व्यवस्थापक ही उस क्षेत्र का कलाकार कहा जायगा।

व्यापार, उद्योग, कृषि, पशु-पालन, शिल्प आदि किसी का व्यवसाय क्यों न हो? व्यवस्था बुद्धि की अपेक्षा रहती है। कोई कार्य छोटा हो या बड़ा सफल तभी होगा जब उसे पूरी सतर्कता और मुस्तैदी से किया जायगा। लापरवाही और गैर जिम्मेदारी बरतने से लाभदायक काम भी हानिकारक बन जाते हैं। किसी कार्य में कुछ लोग सफल होते हैं और कुछ असफल। इसमें कभी-कभी तो परिस्थितियाँ भी कारण होती हैं, पर अधिकतर कार्य की सजग सुव्यवस्था का होना न होना ही सफलता-असफलता का प्रधान कारण होता है। जो बच्चे अनुत्तीर्ण होते हैं उनमें से मन्द बुद्धि बहुत थोड़े होते हैं अधिकाँश में लापरवाही ही भरी रहती है। समय पर पढ़ना, मनोयोग से पढ़ना उनसे बन नहीं पड़ता। मनमौजी घूमते हैं। जब जी आया पढ़े, जब मन में न हुआ न पढ़े। दौड़ में तेज दौड़ने वाले खरगोश को हराकर धीमे चलने वाला कछुआ बाजी जीत गया था, इसका एक ही कारण था खरगोश यहाँ बैठा, वहाँ सुस्ताया, यहाँ रुका, वहाँ उछला और उत्साहपूर्वक अनवरत चलता ही रहा और खरगोश से पहले नियत स्थान पर पहुँच गया। प्रकृति ने कछुए को मन्द और खरगोश को तेज गति प्रदान की है, पर उन लोगों ने अपनी समझ के अनुसार मन्दता को तेज जितनी लाभदायक बना लिया और तेजी को निरर्थक गंवा दिया।

किसके पास प्रकृति प्रदत्त, प्रतिभा कितनी है यह प्रश्न गौण है। मूल बात यह है कि वह जितनी भी है क्या उसका सदुपयोग करने पर ध्यान दिया गया है ? प्रयत्न करने पर, सतर्कता बरतने पर, उत्साहपूर्वक काम में रुचि लेने पर-सामान्य स्तर का मनुष्य भी क्रिया-कुशल बन सकता है और उसे निरन्तर विकसित करता रह सकता है। ऐसे उदाहरण सर्वत्र भरे पड़े हैं जिनमें मन्द मति समझे जाने वाले मनुष्यों ने निरन्तर सतर्कता बरतने की आदत परिपक्व करके अपने को प्रखर प्रतिभाशाली बनाया है। उनकी असावधानी की बुरी आदत जब सतर्कता, सुव्यवस्था और सुरुचि में बदली तो सारा व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो गया आरम्भिक दिनों का बुद्धुपन न जाने कहाँ चला गया और उसके स्थान पर न जाने कौन समझदारी का मुकुट पहना गया? वस्तुतः यह किसी अन्य का अभिशाप वरदान नहीं है। अपनी निज की असावधानी और सतर्कता के ही प्रतिफल हैं जो दो मनुष्यों की प्रायः एक जैसी स्थिति होते हुए भी उनके व्यक्तित्व में जमीन आसमान जैसा अन्तर उत्पन्न हो जाता है।

अपनी व्यवस्था बुद्धि को विकसित करने में यदि तत्परता बरती जाय तो उसकी प्रतिभा चेहरे पर तत्काल दिखाई देने लगेगी। आलसी, अनुत्साही और लापरवाह मनुष्य के चेहरे पर मुर्दनी छाई रहती है, लगता है कब्रिस्तान में से खोदकर निकाला है। नीची आंखें, रोती सूरत, अनिश्चितता और आशंका व्यक्त करने वाली रेखाएं न हिलने वाले अचल होठ, अनुत्साहजन्य जड़ता को देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि उसे रोना कोसना आता हो तो आता हो, हंसना और हंसाना-खिलना और खिलाना इसके भाग्य में नहीं है। उदीयमान व्यक्तित्व सदा उमंग भरे रहते हैं। उनमें भरपूर उत्साह देखा जाता है। इस आन्तरिक तेजस्विता के कारण उनके हाथ पैर काम करने के लिए मचलते रहते हैं। निःचेष्ट बैठे-बैठे समय गंवाना उन्हें बहुत ही भारी पड़ता है।

स्पष्ट है कि जिसके भीतर उमंग भरी सजीवता होगी उनके शरीर का प्रत्येक अंग काम करने के लिए मचल रहा होगा भले ही वह अशक्त अथवा रुग्ण ही क्यों न हो ? ऐसे लोगों के मस्तिष्क की क्षमता दिन-दिन तीक्ष्ण होती जाती है। प्रमादी लोग किसी बात को उथली सतह तक ही सोच पाते हैं। मानसिक आलस्य, चिन्तन को बहुत छोटे दायरे तक ही सीमित रखता है जबकि आन्तरिक स्फूर्ति हर बात पर गहराई से सोचने और हर काम को अधिक सर्वांगपूर्ण अधिक कलात्मक बनाने का ताना-बाना बुनती रहती है। आन्तरिक स्थिति में जो अवसाद एवं उत्साह भरा रहता है उसी को चेहरे की तेजस्विता के रूप में देखा जा सकता है। इसके विपरीत जहाँ मानसिक आलस्य घिरा होगा वहाँ सोचने से लेकर करने तक की सभी स्थूल और सूक्ष्म क्रियाएं अतीव मन्द गति से चल रही होंगी। ऐसे लोग अपनी जन्म-जात प्रतिभा, क्षमता के सौ वें हिस्से का भी लाभ नहीं उठा पाते, उसे यों ही निरर्थक गवाँ देते हैं।

शरीर द्वारा काम को बहुत धीमी गति से, बेगार भुगतने की तरह, रो-झींक कर आधा-अधूरा करने- उसे बीच में ही अधूरा छोड़ देने का नाम आलस्य है- यह शरीरगत दोष है। मन द्वारा किसी बात पर बिना पूरा सोच विचार किये-बिना भावी कठिनाइयों एवं आवश्यकताओं का स्वरूप तथा समाधान सोचे-कुछ भी करने लग जाना प्रमाद है। प्रमादी लोग भी किसी प्रकार ठेल-ठाल करने पर कुछ करने तो लगते हैं, पर जैसे ही पीछे को ढकेल हलकी पड़ती है वैसे ही ठण्डे हो जाते हैं। जरा से किये काम को पहाड़ की बराबर बताते हैं और अड़चन उत्पन्न करने वाले एक तिनके का बखान पर्वत जितना करते हैं। कुछ बहाना मिला नहीं कि काम अधूरा छोड़कर चम्पत हुए। जब वह काम पिछड़ गया और कान खिंचे तो परिस्थितियों की उलटी-पुलटी व्याख्या करके अपने को निर्दोष सिद्ध करते हैं। पर इस आत्म प्रवंचना से सन्तोष किसी को नहीं होता। अपना ढीठपन अपनी अन्तरात्मा जानती है इसलिए मन कितनी ही बहाने बाजी क्यों न गढ़ ले अन्तःकरण का समाधान नहीं होता वह कोसता ही रहता है। दूसरे आदमियों पर भी उस बकवास का कोई असर नहीं पड़ता। मुस्तैदी, जिम्मेदारी से और ईमानदारी से किया हुआ काम अपनी गवाही आप देता है। भले ही असफल रहना पड़े, पर हर जानकार यही कहेगा करने वाला निर्दोष है। परिस्थितियों ने जिसके गले असफलता बाँध दी है उसके प्रति सबको सहज सहानुभूति होती है और कठिनाई से उबारने में सहायता देने के लिए हर किसी का मन करता है। यों सफलता असफलता का 90 प्रतिशत परिणाम कर्ता के तीखे श्रम और गहरे मनोयोग पर निर्भर रहता है।

चमत्कारी काया-कल्प के बारे में बहुत कुछ पढ़ने-सुनने को मिलता रहता है। बूढ़ों के जवान बनने-अपंगों के क्रियाशील होने और मुर्दों के जी पड़ने की कितनी ही किम्वदन्तियाँ सुनने को मिलती रहती हैं, उनमें से कम ही सही होती हैं, पर यह तथ्य निश्चित रूप से सत्य है कि जिसने अपने शरीर से आलस्य और मन से प्रमाद को मार भगाया, जिसने उत्साह से, पूरे परिश्रम से, पूरे मनोयोग से सोचने एवं काम करने की आदत डाली, उसकी तेजस्विता आंखों से, चेहरे से और शरीर के अंग प्रत्यंगों से चमकने लगी। उसके हाथ-पैर नर्तकों की तरह स्फूर्तिवान रहने लगे। मस्तिष्क की प्रखरता इस तेजी से बढ़ी कि वह साथियों को योजनों पीछे छोड़कर दूरदर्शी बुद्धिमानों की अग्रिम पंक्ति में जा बैठा। इस प्रखर प्रगतिशीलता का किसे कितना उपहार मिला है, इसकी परीक्षा एक ही बात से हो सकती है कि उसकी व्यवस्था बुद्धि कितनी सक्रिय एवं कितनी व्यावहारिक बन चुकी है।

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