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Magazine - Year 1976 - Version 2

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उपवास शरीर शोधन की महत्वपूर्ण प्रक्रिया

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स्वर्णिम अतीत से ही उपवास भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। विदेशों में भी विद्वानों ने इसे जाना और माना है तथा इस के महत्व को समझकर समुचित आदर दिया है। यूरोप में ईसा से 1500 वर्ष पूर्व ल्यूगीकोरनारो द्वारा आयु बढ़ाने के लिए उपवास किया गया। अरब में हकीम एबीसीना उपवास द्वारा चिकित्सा करता था। वर्तमान काल में सारे विश्व ने उपवास को न केवल चिकित्सा के रूप में स्वीकार कर लिया है, वरन् सभी धर्मों की धार्मिक पुस्तकों, वेदों, स्मृतियों, बाईबल, कुरान, महावीर चरितम, धम्पद में उपवास रखना मनुष्य का धार्मिक कर्त्तव्य बताया गया है।

उपवास की कोई संक्षिप्त परिभाषा दे सकना कठिन है क्योंकि भिन्न-भिन्न विद्वानों ने इसे भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखा है, और इस पुनीत पद्धति का प्रयोग विभिन्न प्रयोजनों के लिए किया है। वर्नार्ड मेकफेडन का कहना है, ‘उपवास का अर्थ ठोस और तरल प्रत्येक प्रकार के भोजन का पूर्णतया त्याग करना है।’ चार्ल्स एननडेल के अनुसार ‘भोजन की सामान्य मात्रा को बन्द कर देना ही उपवास है।’ चरक ने कहा है-‘किसी भी प्रकार के भोजन का किंचित मात्र अंश शरीर में न पहुँचना लंघन है। उपवास उसी की उपशाखा है।’ इस प्रकार लगभग सभी विचारकों ने भोजन के त्याग को ही उपवास माना है।

जीव विज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि मानव शरीर अत्यन्त सूक्ष्म कोषों से मिल कर बना है। परिश्रम से ये कोष टूटते हैं। इसीलिए व्यायाम से थकान मालूम होती है और भोजन के रस से आराम, निद्रा या उपवास के समय नये कोषों का निर्माण होता है। इसीलिए आराम के पश्चात् स्फूर्ति का अनुभव होता है।

शरीर में दो प्रकार की क्रियाएँ होती हैं। पाचन और निष्कासन। पाचन द्वारा रस बनता है जिससे नये कोष बनते हैं और शरीर का निर्माण होता है। पसीना, कफ, मल और मूत्र द्वारा टूटे हुए कोष निष्कासित किये जाते हैं। यह विजातीय द्रव्य हैं जिसका शरीर से बाहर निकल जाना स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त आवश्यक है, नहीं तो शरीर के अन्दर यह विष क्षुधा नाश, अजीर्ण, भारीपन, मलबन्ध, ज्वर, यकृत वृद्धि, अम्ल पित, आमवात, गठिया तथा नाना प्रकार के त्वचा रोग पैदा कर देता है। यदि हम निरन्तर खाते ही रहें और शरीर से पाचन का काम लेते रहें तो दिन भर कोष टूटते ही रहेंगे, उनके द्वारा विजातीय द्रव्य बनता रहेगा जिसको निस्सारक अंग बाहर नहीं निकाल सकेंगे और हम रोगी हो जाएंगे। इसीलिए भोजन से अवकाश या उपवास स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। एक बात और है कि सृष्टि के सहयोग के नियम के अनुसार जब शरीर का एक अंग रोगी हो जाता है तो शेष अंग उसकी सहायता में जुट जाते हैं। इसीलिए जब पाचन में गड़बड़ी होती है तो निष्कासन में बाधा पड़ती है और जब निष्कासन अंग रोगी हो जाते हैं तो पाचन अंग भी अपना कार्य ठीक से नहीं कर पाते। दोनों क्रियाओं में सन्तुलन के लिए उपवास आवश्यक है।

इस प्रकार उपवास के तीन आधारभूत सिद्धान्त हैं:-

1- बाह्य शक्तियों, साधनों और औषधियों की सहायता के बिना भी मानव शरीर स्वचिकित्स्य है।

2- तीव्र रोग में भोजन न लेना और पाचन के श्रम द्वारा कोषों को न टूटने देना बुद्धिमत्ता है।

3- किसी अंग विशेष की रोगावस्था में दूसरे अंगों को उसकी सहायता का अवसर देना चाहिए।

इतिहास बताता है कि केवल रोग निवारण और स्वास्थ्य रक्षण के लिए ही उपवास की आवश्यकता अनुभव नहीं की जाती रही है। वैदिक काल में व्रत के पूर्व और ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश के पूर्व संकल्प और संयम में दृढ़ता लाने के लिए उपवास की आवश्यकता माना गया था। स्मृतियों में पापों के प्रायश्चित के लिए उपवास करना बताया गया है। चरक और वाग्भट्ट ने रोगों की निवृत्ति के लिए और शल्य के पूर्व उपवास को आवश्यक बताया है। डॉ0 डेवी इन्हीं का समर्थन करते हुए कहते हैं - ‘रोगी को भूखा रखकर आप रोग को भूखा मार सकते हैं।’

सातवलेकर ने भारतीय दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हुए कहा है-‘पेट को आराम देने के लिए, विजातीय द्रव्य शरीर से बाहर निकालने के लिए, विषय विकारों की निवृत्ति के लिए, नैतिक और आध्यात्मिक प्रगति के लिए, नैसर्गिक बुद्धि के उदय के लिए, रोग निवारण के लिए, आत्म-विश्वास की प्राप्ति के लिए, प्रेम की विशालता की दिव्य अनुभूति के लिए, विराट के साथ आत्म-सामंजस्य आदि के लिए महत्वपूर्ण साधन उपवास ही है।’

वर्तमान समय में जबकि लोग खाने के रोग से पीड़ित हैं, सभ्यता और मलबन्ध का साथ हो गया है। असंयम का बोल-बाला है, दिन में कई बार खाना एक फैशन बन गया है, अप्राकृतिक, अखाद्य और गरिष्ठ वस्तुओं का प्रयोग बढ़ गया है, पाचन क्रिया अत्यधिक पाचन श्रम के कारण निर्बल हो गई है और मशीनों ने मानसिक श्रम बढ़ाकर स्वाभाविक शारीरिक श्रम बहुत कम करके सन्तुलन बिगाड़ दिया है, रोग पीड़ित मानवता के लिए उपवास एक आवश्यक आवश्यकता बन गया है।

इतना ही नहीं, महात्मा गाँधी ने उपवास का एक नवीन और अद्भुत प्रयोजन बताया है। वे कहते हैं-‘अपने निकट के आत्मीय को सुधारने उसे गलत काम करने से रोकने और उसमें पश्चात्ताप जागृत करने के लिए सत्याग्रही के अन्तिम अस्त्र के रूप में उपवास अचूक है क्योंकि उपवासकर्त्ता की आत्मपीड़ा अत्याचारी के अन्तर को स्पर्श करके उसका हृदय परिवर्तन कर देती है।’

इस प्रकार उपवास का उपयोग रोग निवारण से लेकर, भौतिक, नैतिक, आध्यात्मिक और संघर्षात्मक सिद्धियों तक के लिए किया जाता रहा है। परन्तु यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि उपवास स्वयं में कोई शारीरिक शक्ति बढ़ाने वाली क्रिया नहीं है। निम्नलिखित दशाओं में उपवास का निषेध भी किया गया है-

1 यदि पाचकाग्नि ठीक हो और यकृत, फेफड़े आदि ठीक काम कर रहे हों।

2 यदि रोगी क्षय या अन्य किसी ऐसे रोग से पीड़ित हो जिस में शरीर के कोष बड़ी मात्रा में नष्ट हो गये हों और जीवन शक्ति का ह्रास इस सीमा तक हो गया हो कि वह पुनर्निर्माण करने में असमर्थ हो।

3 शरीर की प्रकृति को बिना समझे नासमझी से उपवास करना खतरनाक हो जाता है।

उपवास एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसे सावधानी से करने से लाभ होता है और असावधानी से करने से इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। इसकी विधि को चार अंशों में वर्णन किया जा सकता है-

(1) उपवास के पूर्व (2) उपवास के दिनों में (3) उपवास की समाप्ति-कब और कैसे (4) उपवास के पश्चात सावधानियाँ।

बहुत से लोग यह समझते हैं कि उपवास के दिन खाने की छुट्टी रहेगी। सम्भव है इससे शरीर कमजोर पड़ जाये। इसलिए उपवास के पूर्व वे ठूँस-ठूँस कर भोजन करते हैं, ऐसा विचार भ्रमात्मक और हानिकारक है। एक दो दिन के उपवास के पूर्व कोई विशेष सावधानी की आवश्यकता नहीं है। केवल हल्का और सुपाच्य भोजन ही ठीक है। परन्तु यदि लम्बा उपवास रखना हो तो उपवास के पूर्व दो या तीन दिन तक केवल फलों के रस पर रहना चाहिए, ताकि शरीर में मल न रहे। उपवास शरीर का नवीनीकरण कर सके जिस प्रकार बर्तन का मैल साफ करके उस पर कलई अच्छी तरह होती है और बर्तन चमकदार और नया-जैसा हो जाता है। पेट सम्बन्धी तथा समविकार सम्बन्धी पुरानी बीमारियों में लम्बे उपवास विशिष्ट रूप से आवश्यक होते हैं। एक सप्ताह का - दस दिन का - उपवास आसानी से किया जा सकता है।

उपवास के दिनों में रोगी को बन्द कमरे में लेटा नहीं रहना चाहिए। एनीमा से आँतों को और जल तथा धूप स्नान से त्वचा को साफ रखना चाहिए ताकि विजातीय और विषैला द्रव्य निस्सारक अंगों और त्वचा से बाहर निकल जाय। इसके अतिरिक्त भोजन के स्थान पर शुद्ध-वायु, शुद्ध जल, और सूरज की रोशनी से शरीर को शक्ति देनी चाहिए।

परन्तु उपवास की अवधि समाप्त होने का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण लक्षण सच्ची भूख का लगना है जबकि रोगी अपने को नियन्त्रण में रखना कठिन समझता है और कुछ भी खाने को अपनी प्रबल इच्छा प्रकट करता है।

इस प्रकार उपवास की अवधि समाप्त होने पर शरीर हल्का और फुर्तीला मालूम होता है। यही समय है जब रोगी के लिए भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए।

उपवास का सबसे महत्वपूर्ण भाग उपवास के पश्चात उचित भोजन की व्यवस्था करना है। इसमें थोड़ी-सी असावधानी भी रोगी के लिए घातक हो सकती है। इस सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध सूत्र है, जो तीन-तीन दिन करके दस दिन के लिए है। रस-दूध+पानी-दूध-हल्का भोजन। अर्थात् पहले तीन दिन सन्तरा, अंगूर या सेब का रस, चौथे, पाँचवें और छठे दिन हल्का भोजन जैसे दूध और डबलरोटी या सब्जी और रोटी का छिलका देना चाहिए और फिर क्रमशः सामान्य भोजन पर ले आना चाहिए। भोजन देने का यह क्रम निरापद है।

कुछ लोग पहले दिन तीन-चार बार रस, दूसरे दिन सन्तरा, अंगूर या अनार और तीसरे दिन हल्का भोजन देने लगते हैं।

वास्तव में भोजन देने का कोई भी क्रम पहले से निश्चित करना उचित नहीं है भोजन की वस्तु, मात्रा और समय खाने वाले के स्वास्थ्य और पाचक शक्ति पर निर्भर करती है। देखना केवल यह होगा कि भोजन व्यक्ति के लिए हो, व्यक्ति भोजन के लिए न हो जाय, क्योंकि डॉ0 डेवी के मतानुसार अधिक भोजन करने से मरने वालों की संख्या, भूख से मरने वालों की संख्या की अपेक्षा बहुत अधिक होती है।

कुछ भी हो उपवास का हमारे जीवन में निश्चित रूप से बड़ा महत्व है। सभी महापुरुषों ने इसे अपनाया है, सभी धर्मों ने इस की प्रेरणा दी है, पशु-पक्षी भी रोग की दशा में इसे अपनाते हैं और सभी अच्छे चिकित्सक इसके गुण गाते हैं। सात्विक भोजन का उपवास के साथ समावेश उपवास की उपयोगिता में वृद्धि निश्चित रूप से करेगा।

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