
बुद्धिमान मनुष्य की मूर्खतापूर्ण प्रगति
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बढ़ती हुई आबादी अब बड़े शहरों की ओर भाग रही है। देखने में चुहल-चपाटा, मनोरंजन के साधन तथा सुविधा सामग्री गाँवों की अपेक्षा शहरों में अधिक हैं। वहाँ पैसा भी आसानी से और अधिक कमाया जा सकता है, उपभोग की आकर्षक वस्तुएं भी वहाँ अधिक मिल जाती हैं। ऐसी सुविधाओं का गाँवों में अभाव अनुभव किया जाता है। अस्तु शहरों की - उनके आस-पास के इलाकों की आबादी हर जगह तेजी से बढ़ रही है। छोटे गाँव कस्बे बन रहे हैं और कस्बे शहरों में परिणत हो चले हैं। शहरों में भरी हुई आबादी के निर्वाह, एवं यातायात के लिए स्वभावतः कितने ही छोटे-बड़े कारखाने बनते हैं। बड़े उद्योगों की स्थापना भी उसी क्षेत्र में अधिक होती है। इस घचापच से कितनी ही ऐसी व्यवस्थाएं चल पड़ती हैं जो हवा और पानी जैसे जीवन धारण के लिए आवश्यक तत्वों को विषाक्त करती है। कोलाहल भी कम घातक नहीं है। इन सब का सम्मिश्रित परिणाम मनुष्य जाति के सामने भयंकर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करता चला जा रहा है। स्थिति यही बनी रही तो दम घुटने से एवं विषाक्त अन्न जल के कारण दुर्बलता तथा रुग्णताजन्य विभीषिकाएं मनुष्य को अकाल मृत्यु के मुख में धकेल देंगी।
कल कारखाने-रेलवे इंजन-ताप बिजली घर-मोटरें-वायुयान इन की संख्या द्रुत गति से बढ़ती जा रही है। इनमें जलने वाले पेट्रोल, डीजल, कोयले से निकलने वाली कार्बन मोनोऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड जैसी भयंकर गैसें वायुमण्डल को दिन-दिन अधिक विषाक्त करती जा रही हैं। नगरों की बढ़ती हुई जनसंख्या, वाहनों की धमा चौकड़ी, कारखानों की रेल-पेल, घरों में ईंधन का अधिक खर्च, हरियाली की कमी आदि कारणों से हवा में हानिकारक तत्वों का परिमाण बढ़ता ही चला जा रहा है। धूलि एवं धुंऐ में इनका बाहुल्य रहता है। साँस के साथ वे शरीरों में प्रवेश करती हैं और उन्हें दुर्बल एवं रुग्ण बनाती चली जाती हैं।
कार्बन मोनोऑक्साइड गैस यदि हवा में सातसौवें भाग में होगी तो उसमें साँस लेने वाला मर जायेगा। यदि उसका लाखवाँ भाग होता तो उस क्षेत्र के प्राणी बीमार पड़ जायेंगे।
औद्योगिक शहरों के ऊपर छाई धुन्ध कभी भी देखी जा सकती है। उसमें कार्बन, सल्फेट, नाइट्रेट, सीसा, हाइड्रो-कार्बन के यौगिकों की भरमार रहती है। धूलि और धुँआ मिलकर एक ऐसी ‘स्माग’ चादर तानते हैं जिसके नीचे रहने वाले न केवल मनुष्यों का वरन् पेड़-पौधों का भी दम घुटने लगता है। उनका स्वाभाविक विकास बुरी तरह अवरुद्ध हो जाता है।
पानी के जहाज जिधर से निकलते हैं उधर ही समुद्र को गन्दा करते हैं। कुछ समय पूर्व टोरीकेन्यन नामक जलयान ने गलती से इतना तेल बखेर दिया कि इंग्लैण्ड की नौसेना को उसमें भारी तादाद में बारूद गिराकर आग लगानी पड़ी। तेल निथारने के लिए जो डिटरजेंट इस्तेमाल किया गया वह भी कम घातक सिद्ध नहीं हुआ। इस उपद्रव ने उस क्षेत्र का जल ही दूषित नहीं किया वरन् जलचरों का भी सफाया कर दिया।
फसल की रक्षा के लिए छिड़के गये कीट रसायन कितने कीड़ों को मारते हैं और कितना अनाज बचाते हैं यह अन्वेषण का विषय है, पर यह सही है कि उस छिड़काव क्षेत्र के पक्षी वहाँ के कीड़े-मकोड़ों अथवा दानों को खाने के बाद बेमौत मरते हैं। स्पष्ट है कि पक्षियों से बढ़कर फसल का रक्षक और कोई नहीं, छोटे-मोटे पक्षी उन कीड़ों का सफाया करने में निरन्तर लगे रहते हैं जो पौधों को क्षति पहुँचाते हैं। पक्षियों के मर जाने से इन कीड़ों को स्वच्छन्द वंशवृद्धि का अवसर मिलता है। फलतः विष छिड़काव से जितने कुछ कीड़े बचे रहते हैं वे ही कुछ समय में मृतकों की तुलना से कहीं अधिक बढ़कर हमारी बुद्धिमता को धूलि में मिला देते हैं।
नदियों के किनारे बसे हुए शहर तो उनके जल का लाभ उठाते हैं, पर नदियों को इन शहरों से गन्दगी ही प्राप्त होती है जिससे वे अपनी उपयोगिता खोती चली जाती हैं। बरौनी का तेल बहकर गंगा में जा पहुँचने और मुँगेर के पास पानी में आग लगने का समाचार अभी बहुत पुराना नहीं हुआ। ऑल इंडिया इन्स्टीट्यूट आफ हाइजीन एण्ड पब्लिक हेल्थ द्वारा किये गये सर्वेक्षण से दिल्ली और आगरा के बीच बहने वाला जमुना का पानी बहुत गन्दा पाया गया। बिहार की दहा और सोन नदियों में अब मछलियों का वंश नष्ट होता जा रहा है, गुजरात जिले की महिसागर नदी का पानी कुछ समय पूर्व हरा हो गया था। जिसे देख कर उस क्षेत्र के लोग बुरी तरह घबरा गये थे। गंगा, यमुना, काली, हुगली आदि नदियाँ कभी भीतरी और बाहरी पवित्रता प्रदान करने वाली मानी जाती थीं, अब वे गन्दगी को ढोने वाली निराशाजनक नहरें मात्र बनती जा रही हैं।
सर्वविदित है कि जलाशयों की भीतरी सफाई का सारा उत्तरदायित्व मछली जैसे छोटे जलचरों का है। वे अपनी खुराक उस गन्दगी को ही बनाते हैं जो पानी इधर-उधर से जमा होती है। मछलियाँ न हों तो पानी बहुत जल्दी सड़ जायेगा। कीटनाशक दवाएं वर्षा के साथ घुल कर नदियों में पहुँचती हैं और वहाँ जाकर मछलियों के प्राण लेती हैं। इन दूरवर्ती दुष्परिणामों को देखते हुए हेंगरी-स्वीडन और डेनमार्क आदि देशों ने डी0डी0टी0 पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। रूस में एल्ड्रिन और डाइल्ड्रिन पर रोक है। यह दवाएं फसल के कीड़े तो मारती हैं, पर दूसरे ऐसे उपद्रव खड़े करती हैं जो कीड़ों से भी अधिक हानिकारक होते हैं। जापान में माताओं के दूध में शिशुघाती जहरीला डाएल्ड्रिन पाया गया। निश्चित रूप से यह फसलों पर छिड़के जाने के बाद अन्न, शाक, फल अथवा पशु-पक्षियों के माँस द्वारा माताओं के पेट एवं दूध में पहुँचा था।
ऐल्फैल्फा, निकोटिन, मेटसिस स्टोक्स आदि रसायनों के बारे में यह अनुमान लगाया गया था कि वे शत्रु पक्षी कीटकों को मारती हैं और मित्र पक्ष को बचा लेती हैं, पर यह अनुमान गलत साबित हुआ। विनाश कार्य से शत्रु और मित्र पक्ष को लगभग समान क्षति पहुँची और वे सुरक्षात्मक परिणाम नहीं निकले जिनकी कि आशा की गई थी।
शहरों में सड़कों पर दौड़ने वाले द्रुतगामी वाहन, बिजली का प्रयोग, थोड़ी जगह में अधिक मात्रा में जलने वाली आग, घिचपिच में साँस और शरीरों की गर्मी, कल कारखाने आदि कारणों से तापमान ग्रामीण क्षेत्र की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ा रहता है। बिजली के पंखे तापमान नहीं गिराते केवल हवा हो इधर से उधर घुमाते हैं चुस्त एवं एक के ऊपर एक कपड़े लादने के फैशन ने शरीरों के इर्द-गिर्द की गर्मी और भी अधिक बढ़ा दी है। सड़कों और बसों की घमस से गर्मी बढ़ी-चढ़ी रहती है। पक्के मकान और पत्थर की सड़कों में तपन रहती ही है। इस बढ़े हुए तापमान में शहरों के निवासी अपनी स्वाभाविक शारीरिक क्षमता को गंवाते ही चले जाते हैं।
कोलाहल का अन्य प्राणियों पर क्या असर होता है इसका पता लगाने के लिए किये गये अनेक प्रयोगों में से एक कैलीफोर्निया की जीवन अनुसंधान संस्था द्वारा शार्क मछलियों पर किया गया था। संस्था के निर्देशक थियोब्राडन ने बताया कि पानी में लाउडस्पीकरों के द्वारा तेज आवाज दौड़ाई गई तो मछलियाँ उसे सुन कर आतंकित और विक्षिप्त हो उठीं। वे एक दूसरे को इसका कारण समझकर आपस में हमला करने लगी और जब ध्वनि उन्हें असह्य हो गयी तो चट्टानों से सिर पटक कर आत्महत्या कर बैठीं। ऐसे ही प्रयोग फ्राँसीसी कौलीनीशिया केरिगिरोजा एटौस में भी किये गये। उनका भी निष्कर्ष यही था कि जल जीव असाधारण कोलाहल के बीच सामान्य जीवन नहीं बिता सकते।
मोटरों की-कारखानों की- लाउडस्पीकरों की चिल्लियाँ शहर को ऐसे शोरगुल से भरती जा रही हैं जिसके परिणाम से, इण्डियन कोन्सिल आफ मेडीकल रिसर्च के कथनानुसार, लोग धीरे-धीरे बहरे होते चले जायेंगे। उनसे मानसिक, स्नायविक और हृदय सम्बन्धी रोग बढ़ सकते हैं।
अंग्रेज लेखिका श्रीमती एल्सपैथ हक्सले ने डी0डी0टी0 प्रभृति कीटनाशक विषाक्त औषधियों के प्रयोग के खतरे से जन-साधारण को सावधान किया है, उनका कथन है पौधों पर छिड़के हुए रसायन अन्न, शाक एवं माँस के माध्यम से अन्ततः मनुष्य के शरीर में जा पहुँचते हैं और ऐसी हानि की जड़ जमाते हैं जो आरम्भ में तो थोड़ी दीखती है पर पीछे भयानक सम्भावनाओं को जन्म दे सकती है। यह विषाक्त रसायन वर्षा के साथ घुलकर नदी तालाबों और कुँओं में पहुँचते हैं। तटवर्ती समुद्र के निकट यह जल पहुँचता है तो उस क्षेत्र की मछलियों में भी वह विष उत्पन्न हो जाता है। इन्हें खाने वाले लोग उस दुष्प्रभाव से बच नहीं सकते। श्रीमती हक्सले ने अपनी बात को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए पानी के, माँस के तथा अन्य प्रकार के सबूत संग्रह करके अपनी पुस्तकों में प्रकाशित किये हैं। वे एक कृषि फार्म चलाती हैं, पर कभी भी कीट-नाशक दवाओं का प्रयोग नहीं करतीं।
राष्ट्र संघ के तत्वाधान में वातावरण को जीवन योग्य बनाये रहने की समस्या पर विचार करने के लिए जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन स्टाक होम में हुआ था उसका सम्मिलित स्वर यही था-‘हमारे पास एक ही पृथ्वी है। इसे जीने लायक बनाये रखना चाहिए।’ सम्मेलन का सुझाव था प्राकृतिक भण्डारों का मितव्ययिता को पुनः काम के लायक बनाया जाय, बढ़ते हुए शोर को रोका जाय और वायु एवं जल के बढ़ते हुए प्रदूषण को रोका जाय।
जिस क्रम से हमारी तथाकथित ‘प्रगति’ प्राकृतिक सन्तुलन को बिगाड़ रही हैं, उसे दूर दृष्टि से देखा जाय तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि तात्कालिक लाभ में अन्धे होकर हम भविष्य को घोर अन्धकारमय बनाने के लिए आतुर हो रहे हैं।
मनुष्य की बुद्धिमत्ता शहरों की वृद्धि-साधनों की आबादी की वृद्धि में इस तरह अविवेकपूर्वक लगी हुई है कि इस तथाकथित प्रगति का अन्त रोमाँचकारी संकट को विषाक्त करके जो प्रगति खरीदी जा रही है वह कल कितनी महंगी पड़ेगी इसका अनुमान न जाने क्यों नहीं लगाया जा रहा है बुद्धिमान मानव जाने क्यों इतनी अदूरदर्शिता का परिचय दे रहा है।