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Magazine - Year 1976 - Version 2

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कष्ट-कठिनाइयाँ अच्छे लोगों के लिए क्यों?

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सुकरात आजीवन नैतिक आदर्शों के दृढ़ अनुयायी रहे और उनकी चरित्र-निष्ठा तथा सदाचार परायणता भी असंदिग्ध रही। परन्तु उनकी मृत्यु जबरन विष पिलाये जाने के कारण हुई। ईसा मसीह जीवन भर लोगों को नैतिकता और सदाचार का शिक्षण देते रहे। कई दुष्ट प्रकृति के लोगों को उन्होंने अनुचित मार्ग से हटाया और सत्कर्म में लगाने की सफलता प्राप्त की। इसे उनकी व्यापक करुणा और लोकमंगल की भावना ही कही जायेगी। परन्तु आजीवन श्रेष्ठ कर्मों में निरत रहते हुए भी उन्हें फाँसी पर लटकाया गया। शंकराचार्य 28-30 वर्ष की आयु में भगन्दर रोग के कारण काल कवलित हुए। रामकृष्ण परमहंस गले में कैंसर से मरे। विवेकानन्द की मृत्यु भी छोटी आयु में ही भयंकर रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण हुई। श्रद्धानन्द और महात्मा गाँधी की मृत्यु गोली का शिकार बनकर हुई।

इन तथ्यों को देखकर सन्देह होने लगता है कि जब सुख-शाँति का जीवन सन्मार्ग पर चलते हुए ही व्यतीत किया जा सकता है तो जीवन भर सन्मार्ग पर चलते रहने के बावजूद भी समाज जिन्हें आदर्श पुरुष मानता है वे दुःखी और क्लान्त क्यों होते हैं ? भारतीय दर्शन इसके पीछे पूर्व जन्म के पापों को कारण रूप में देखता है।

पिछले जन्म के कर्म परिणाम इस जीवन में प्राप्त होने की बात को गलत सिद्ध करते हुए कहा गया है कि हम आग को छूते हैं तो तत्काल जलते हैं, पानी में कूदते हैं तो तत्काल डूबते हैं और शिकंजे में हाथ फँसाते हैं तो तुरन्त हमारा हाथ दब जाता है। ये भी कर्म हैं और इनका परिणाम तुरन्त ही मिल जाता है तो पिछले जन्मों का कर्मफल इस जीवन में मिलने की बात कहाँ तक सही सिद्ध होती है।

बात ठीक भी लगती है क्योंकि कर्मों का फल इस जन्म का अगले जन्म में मिलना हो तो उसका उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम उससे कुछ सीखें और सीखने के लिए आवश्यक है कि हमारी समझ का कुछ विकास हो चुका हो। परन्तु बच्चा जो न कुछ जानता है और न ही किसी प्रौढ़ व्यक्ति की तरह कुछ अनुभव कर पाता है तो उसे इस तरह के कष्ट और यातनाएँ क्यों मिलती हैं ? इस जन्म की सत्प्रवृत्तियाँ पिछले जन्म के सुसंस्कारों से ही तो उद्भूत होती हैं। इसका अर्थ है कि अब जो व्यक्ति सदाचारी दिखाई देता है वह पिछले जन्मों में एकदम ही दुराचारी तो नहीं रहा होगा।

विपरीत इसके कि अच्छे लोग सुख पायें, बुरे और दुराचारी व्यक्तियों को उनकी अपेक्षा अधिक सुखी, साधन और सुविधा सम्पन्न देखा जाता है। चोर, डाकुओं और बेईमान भ्रष्टाचारियों को सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक सुखी पाया जाता है। इसका क्या कारण है?

अच्छे लोग दुःखी क्यों पाये जाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर पाने से पूर्व उपरोक्त तर्कों पर विचार किया जाना आवश्यक है। जैसा कि कहा गया है आग छूने का प्रतिफल तुरन्त जल जाने के रूप में मिलता है, उसी प्रकार कर्मों का परिणाम भी तत्काल ही मिल जाना चाहिए। कर्म का फल तत्काल ही मिल तो जाता है परन्तु यह कोई जरूरी नहीं है कि वह तत्काल मिल ही जाय। आग छूने के बाद भी बहुत देर तक जलन और काफी समय तक घाव बना रहता है। यहाँ कर्म परिणाम अपना निरन्तर चलने वाला प्रभाव उत्पन्न करता है। कहीं बीज डालते ही कोई वह तुरन्त अंकुरित नहीं हो जाता न ही फल-फूल देने लगता है। चलने का परिणाम भी कदम उठाते ही मंजिल पर पहुँचने के रूप में तत्काल नहीं मिल जाता। विद्यार्थी पढ़ते समय अपने कार्य को भले ही नीरस और बेतुका समझे परन्तु अर्जित की गई शिक्षा समय पर ही अपने सत्परिणाम प्रस्तुत करती है। दण्ड-बैठक शुरू करते ही कोई हनुमान या भीम जैसा पहलवान नहीं बन जाता और काफी समय तक अपथ्य खाते रहने या अनुपयुक्त आहार करने के कारण शरीर भी कुछ दिनों बाद ही जर्जर होता है। आग छूकर तुरन्त जलने की बात अपनी जगह पर ठीक है और बीज बोने के बाद समय लेकर उसके अंकुरित होने तथा पुष्प पल्लव देने का भी अपना महत्व है।

जब यह कहा जाता है कि कर्मों का फल प्रकृति को उस समय देना चाहिए जबकि व्यक्ति उससे कुछ सीख ग्रहण करे या उससे सम्हले। यहाँ कुछ प्रकृति के नियमों को जान लेना चाहिए। प्रकृति अपने न्याय और नियमों में रत्ती भर भी रियायत नहीं करती। पागल हो या विद्वान किसी ऊँचाई से कोई भी गिरे तो चोट दोनों को ही बराबर लगती है। अनुभव दोनों को भले ही कम या ज्यादा हो सकता है। इस सम्बन्ध में बाइबल ने स्पष्ट करते हुए लिखा है-परमेश्वर प्रकृति के द्वारा किसी भी व्यक्ति का लिहाज नहीं करता। उसका सूर्य पापी और पुण्यात्मा दोनों के लिए तपता है, उसका बादल न्यायी और अन्यायी दोनों के लिए समान रूप से बरसता है। अर्थात् कारण और कार्य का सिद्धान्त बच्चे हों या बूढ़े दोनों पर समान रूप से लागू होता है। बुरे कार्यों का दण्ड मात्र इसी उद्देश्य से नहीं मिलता कि उससे कोई सीख ले। सीख ली जा सकती है इस बात का अपना महत्व है, परन्तु प्रकृति एक उचित और नियत अवधि में कार्यों के परिणाम प्रस्तुत करती है।

यही बात रोग, मृत्यु और कष्ट-कठिनाइयों के सम्बन्ध में भी लागू होती है कष्ट सन्त हो या असन्त दोनों को निसर्ग के नियम तोड़ने पर मिलते हैं। छूत की बीमारियों का प्रभाव अच्छे और बुरे सभी व्यक्तियों को मिलता है। स्वास्थ्य के नियमों को तोड़ने से अच्छा व्यक्ति भी उसी प्रकार बीमार हो जाता है-जिस प्रकार कि बुरा आदमी। ईसा, सुकरात और गाँधी को अपनी उपलब्धियों का मूल्य प्राण देकर चुकाना पड़ा। प्रकृति उचित मूल्य लेकर ही कुछ उपलब्धियाँ देती हैं और प्राणों के बलिदान का यही अर्थ है कि लोग यह जान सकें कि जिन आदर्शों के लिए वे नरपुँगव जीये वे जीवन की तुलना में भी अधिक मूल्यवान हैं। जन-सामान्य भले ही इसे घाटे का सौदा समझे, परन्तु जो समझ पाते हैं वे उन आदर्शों को प्राप्त करके ही रहते हैं।

अच्छे लोगों को अच्छे काम करते हुए भी दुःख पाने का एक कारण यह है कि उन्हें वे ही अवस्थाएँ रहने को मिलती हैं जो अन्य लोगों को प्राप्त हैं। जैसे वातावरण या मौसम का ही प्रभाव लें। शरीर की क्षमता अथवा अशक्तता के कारण उन्हें भी मौसम की वे ही प्रतिकूलताएँ सहनी पड़ती हैं, जो उसी स्थिति के बुरे व्यक्ति को सहनी पड़ती हैं। लेकिन इसमें दुःखानुभूति की मात्रा कम या ज्यादा हो सकती है। बुरे आदमी कष्ट-कठिनाइयों और विपत्तियों को रो-धोकर सहन करते हैं वे ही या उसी स्तर की कठिनाइयाँ अच्छे आदमी धैर्य और प्रसन्नतापूर्वक खुशी-खुशी उठा लेते हैं।

अन्य अवस्थाओं में असफलता का एक कारण उसके नियमों और तौर-तरीकों से अनभिज्ञता है। ईमानदारी बरतने वाला व्यक्ति भी असफल हो सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ईमानदारी कोई गलत गुण है, वरन् सफलता के लिए ईमानदारी के साथ अन्य सद्गुणों की भी आवश्यकता है। जैसे परिश्रम, पुरुषार्थ और संगठित शक्तियाँ इन गुणों के कारण जहाँ बुरे लोग अपने गलत कार्यों में भी सफल हो जाते हैं वहीं अच्छे लोगों को आलस्य, सुस्ती, प्रमाद और विश्रृंखलताओं के कारण दुःखी क्लान्त तथा असफल हो जाना पड़ता है और विडम्बना यह बन जाती है कि ईमानदार लोग भूखे मरते हैं का फतवा देने लगते हैं। जबकि सचाई कुछ और ही होती है।

अच्छे लोगों को असफल, दुःखी या कष्ट झेलते समय हमें तुरन्त यह फैसला नहीं दे देना चाहिए कि अच्छाई का जमाना नहीं रहा। सफलता, सुख, स्वास्थ्य और सम्पन्नता आदि उपलब्धियाँ एक वैज्ञानिक रीति से काम करते हुए ही अर्जित की जा सकती हैं। इनमें चूक होते ही प्रकृति का न्याय दण्ड अनिवार्य रूप से मिलता है-जिसमें बुरे व्यक्ति भी दुःख पाते हैं और अच्छे भी।

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