
समाज व्यवस्था का आर्ष दृष्टिकोण
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समाज व्यवस्था को लेकर विश्व में कई मतवादों का प्रणयन हुआ है। व्यक्तिवाद, समूहवाद, समष्टिवाद, अराजकतावाद, राजतन्त्र, प्रजातन्त्र, समाजवाद, साम्यवाद आदि अनेकानेक विचारधाराओं का उद्भव और प्रचार हुआ। उपायों और व्यवस्था नियमों की दृष्टि से ये सब भिन्न-भिन्न हैं, पर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो इन सबका लक्ष्य एक ही रहा है कि समाज में व्यक्ति सुखी रहे, सब लोग समान रूप से समुन्नति करें तथा कोई किसी के अधिकारों का वंचन न करे भिन्न-भिन्न मार्गों से एक लक्ष्य तक पहुँचने की बात तो ठीक है, पर इन मार्गों को लेकर संसार में जो संघर्ष होते आये हैं, वे ही लक्ष्य तक पहुँचने में प्रमुख रूप से बाधक बन जाते हैं।
इन समस्त मतवादों से अलग रहते हुए भारतीय संस्कृति ने आदर्श समाज का जो स्वरूप रखा है वह हजारों साल पुराना होने के बाद भी आज भी इतना नवीन है कि विभिन्न मतवादों के बीच होते रहने वाले संघर्षों को देखकर आशा की दृष्टि वहीं जा कर टिकती है। वैदिक विचारधारा किसी समुदाय विशेष की हितकामना को ही प्रधानता न देते हुए विश्वभर के कल्याण की कामना करती है तथा एक दूसरे का परस्पर सहयोग द्वारा हित साधन का उपदेश देती है-
ज्याय रचन्तश्चित्तिनो मा वियौष्ट
सराधयन्तः सुधुरा श्चरन्तः।
अन्यो वल्गु वदन्त एत सूधी
चीनान् वः संमनस स्वृणोभिः॥
- अथर्व 3।30।5
अर्थ-हे मनुष्यों! तुम लोग एक दूसरे से बड़े और गुणों में श्रेष्ठ होकर भी समान चित्त होकर समान कार्य का साधन करते हुए एक ही प्रकार के भार उठाते हुए अथवा समान रूप से एक ही केन्द्र में विचरण करते हुए कभी एक दूसरे से विलग न होना। परस्पर एक दूसरे के प्रति मधुरभाषी होकर एक दूसरे का सहयोग करो।
इस मन्त्र में सूत्र रूप में विश्वशान्ति के लिए आवश्यक सभी स्तर की सतर्कताओं और मर्यादाओं का समावेश हो गया है। कलह, लड़ाई-झगड़ा, अशान्ति और इन्हीं घटनाओं के बड़े आकार के युद्ध तभी उत्पन्न होते हैं जबकि एक दूसरे को एक दूसरे से हानि हो या हितों पर आघात पहुँच रहा हो। वेदों ने विभिन्न आचार मर्यादायें स्थापित कर एक दूसरे के लिए हितैषी बनने तथा उन्नति करने का निर्देश दिया-
प्रति पन्थाम पद्म महि स्वस्ति गामनेहसम्।
येन विश्वाः परिद्विषो वृणामि विन्दतेवसु।
(यजु0 4।29)
अर्थ-हम लोग सुख-पूर्वक उत्तम लक्ष्य तक पहुँचाने वाले, उपद्रवों से रहित उस मार्ग पर चला करें जिससे मनुष्य सब दोषों को दूर करके नाना प्रकार के ऐश्वर्य प्राप्त करते।
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्या चन्द्रमसिव।
पुनर्ददसाधता जानता संमेमहि॥
ऋ॰ 5।51।15
अर्थ- हम लोग सूर्य और चन्द्रमा के समान सदा कल्याणमय मार्ग पर चलें और दानशील, अहिंसक तथा ज्ञानी लोगों की संगति करें।
तथा दुष्ट दुराचारी व्यक्तियों के पास तक न बैठने की हिदायत की गयी है-
मैतं पन्थामनुगा भीम एष येन पूर्व नेयथ तं व्रवीमि।
तम एतत् पुरुष मा प्रत्दा भयं परस्तादभयं तो अर्थाक्।
- अथर्व 8।1।10
“हे पुरुष ! इस खोटे और टेढ़े मार्ग का अनुसरण मत कर। यह मार्ग बहुत भयंकर है। जिस मार्ग पर तू पहले कभी नहीं चला उस अधर्म मार्ग के सम्बन्ध में कहता हूँ कि वह अन्धकारपूर्ण है। अतः कुपथ को छोड़कर सुपथ में चल तथा कुमार्गगामियों के पास में बैठ भी मत।”
सदाचार परायण व्यक्तिगत जीवन के साथ आदर्श गार्हस्थ्य जीवन के उपदेष्टा वेद के ऋषि ने गृहस्थ ही नहीं सद्गृहस्थ बनने की भी शिक्षा दी है। इस तरह के अनेक मन्त्र वेदों में है। पाणिग्रहण संस्कार में कन्या का पिता वर से कहता है-
एषा ते राजन् कन्या वधूर्नि धूयतां यम।
स मातुर्वध्यतां गृहेऽथो मातुरथो पितुः॥
- अथर्व 1।14।2
“हे ब्रह्मचारी! ज्ञान और ब्रह्मवर्चस् तेज से प्रकाशमान वर यह कन्या तेरी वधू रूप होकर गृहस्थ का आनन्द करे। वह कन्या नयी माता (सास), नये भाई (देवर) तथा नये पिता (ससुर) के गृहस्थ बन्धन में बँधे।”
दाम्पत्य-जीवन में सुख और सौजन्य के अवतरणार्थ यह भी आवश्यक समझा गया कि दाम्पत्य सम्बन्धों को स्निग्ध और मधुर बनाये रखने के लिए लड़की-लड़के एक दूसरे से सहमत हों-
यमगन् पतिकामा जनिकोऽहमागमम्।
अश्वः कनिक्रदद् यथा भगेनाहं सहागमम्॥
(अथर्व 2।30।5)
अर्थ-यह इच्छित स्त्री पति कामना से मेरे पास आ गयी है। हम दोनों ने एक दूसरे को पसन्द किया है। मैं भी उसकी कामना करता हुआ उसे प्राप्त हो गया। मैं धन के साथ इसके पास आया हूँ। जैसे श्रेष्ठ अश्व अपनी मादा के पास जाता है।
व्यक्तिगत रूप से सदाचार पारिवारिक जीवन में स्नेह सद्भाव में भी महत्वपूर्ण निर्देश दिये हैं। भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था तो प्रसिद्ध है ही इस सम्बन्ध में मुख्य भ्राँति यह फैली है कि वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म से समझा जाय अथवा कर्म से। वेद में इस तरह के अनेक प्रसंग आये हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं कर्म और स्वभाव से ही निर्धारित की गयी थी। यजुर्वेद के 31 वें अध्याय में कहा गया है :-
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद बाहू राजन्य कृतः।
उरु तदस्य यद्वैश्यं पद्भायम् शूद्रोऽजायत॥
इस स्पष्टीकरण के बाद जन्म से वर्ण की मान्यता बेमानी हो जाती है। समाज व्यवस्था का आर्थिक आधार वेदों में कई स्थानों पर स्पष्ट किया गया है। इसे वेदों का दूसरा प्रमुख प्रकरण कहा जाता है। धनवानों को अपने व्यापार में लगाने का निर्देश देते हुए वेद कहते हैं-
इन्हमहं वणिजं चोदयामि स न एतु पुरएतानोऽस्तु नुदम्म राति परिपत्थिनं मृग स इशानों धनदाअस्तु मह्यं।
(अथर्व 3।15।1)
अर्थ- मैं इन्द्र की वाणिज्य कर्त्ता के भाव से स्तुति करता हूँ। वह इन्द्र यहाँ आगमन करें और वाणिज्य की हिंसा करने वाले शत्रु, मार्ग रोकने वाले दस्यु, तथा व्याघ्र आदि को नष्ट करते हुए अग्रसर हों। वे इन्द्र मुझे व्यापार से होने वाले लाभ के रूप में धन प्रदान करें।’
इस लाभ से सबकी उन्नति चाही गयी है-
इदं हव्यं सविदामौ जुपेथाँ,
शनुं नो अस्तु चरित मुत्थितं च॥
‘‘तुम मेरी हवि (लाभ को सब लोगों में बाँट देने के रूप में यज्ञीय भावना) ग्रहण करो तथा मूलधन से बढ़ा हुआ लाभ का धन हम सब लोगों को सुखी, सम्पन्न और सन्तुष्ट करें।’’
समता मूलक समाज की रचना का लक्ष्य भी सर्वप्रथम वेदों में ही दिखाई देता है। कहा गया है-
समानी प्रया सह वोऽन्न भागः
समाने यो क्त्रे सह वो युनज्मि।
सम्यज्योऽग्नि सपर्यतारा नाभि मिवातिः॥
(अथर्व 3।30।6)
अर्थात्- तुम्हारा अन्न-पानी का उपभोग एक-सा हो। मैं तुम्हें प्रेम सूत्र के साथ-साथ बाँधता हूँ। जैसे पहिये के अरे नाभि के आश्रित होते हैं वैसे ही तुम सब एक ही सूत्र में आबद्ध रहो और ईश्वर की सेवा करो।
सध्रा चोनान वः समंसस्कृणो भ्यो कश्नुष्टी न्संवनेन सर्वांन्। देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायंप्रातः सौमनसों वो अस्तु (7)
‘मैं तुम्हें समान मन वाले बनाकर एक से कार्य में प्रवृत्त करता हूँ। स्वर्ग में अमृत की एक मत से रक्षा करने वाले इन्द्रादि देवताओं के मन जैसे श्रेष्ठ रहते हैं वैसे ही प्रातः सायं तुम्हारा मन सुन्दर, श्रेष्ठ और एक रहे।’
अलग-अलग चौके, चूल्हे में होने वाले समय और श्रम के अपव्यय को रोकते हुए कहा गया है-
सहभक्षा-स्याम्।
अर्थ- हम सब एक साथ भोजन करने वाले हों। साथ ही समानाधिकार के सिद्धांत का भी समर्थन किया गया है-
समानो अध्वा प्रवदता मनुष्यदे।(ऋ॰ 2।13।1)
अर्थ-सब चलने वालों का मार्ग पर समान अधिकार है।
केवल व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए ही नियोजित करने वालों की भी निन्दा की गयी है-
मोद्यमन्नं विन्दते अप्रचेतः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी॥
-ऋ॰ 10।117।6
अर्थ- जो व्यक्ति न तो ईश्वर के मार्ग पर दान देता है, न अपने राष्ट्र की वृद्धि के लिए खर्च करता है और न अपने मित्रों का पालन-पोषण करता है, ऐसा व्यक्ति व्यर्थ ही धन का संचय करता है। केवल मात्र अपना ही पोषण करने वाला व्यक्ति पाप ही खाता है और निस्सन्देह वह अन्न और धन उसके अधःपतन का कारण बनता है।
इस प्रकार वेदों ने आदिकाल से ही समता मूलक समाज की रचना का आधार रख दिया है और वह भी मनुष्य के नैतिक विकास द्वारा। इन दिनों जब सर्वत्र साम्यवाद के आतंकवादी स्वरूप की निन्दा की जा रही है, विचारशील वर्ग उसे व्यर्थ बता रहा है व्यक्ति के नैतिक विकास द्वारा समानतावादी समाज की ओर ही विश्व हो उन्मुख होना पड़ेगा।