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Magazine - Year 1976 - Version 2

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नवरात्रि पर्व और गायत्री की विशेष तप−साधना

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सर्दी और गर्मी की ऋतु के मिलन काल को अश्विन और चैत्र की नवरात्रि कहा जाता है। रात्रि और दिन का मिलन प्रातःकालीन और सायंकालीन संध्या के नाम से प्रख्यात है। इस मिलन बेला का विशेष महत्व कालचक्र के अनुसार आँका गया है। प्राणायाम में रेचक और पूरक का अपना स्थान है, पर चमत्कार कुम्भक में ही देखे जाते हैं। मिलन की बेला हर क्षेत्र में उल्लास भरी होती है। मित्रों का मिलन, प्रणय मिलन, आकाँक्षाओं का सफलता के साथ मिलन, कितना सुखद होता है, उसी आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि आत्मा और परमात्मा का मिलन कितना सुखदायक होना चाहिए। पुराने वर्ष की विदाई और नये वर्ष का आगमन वाला दिन नव−वर्षोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कृष्ण−पक्ष और शुक्ल−पक्ष के परिवर्तन के दो दिन अमावस्या, पूर्णिमा पर्व के नाम से जाने जाते हैं और उस दिन विशेष धर्मोत्सवों की व्यवस्था की जाती है। अपने पर्व त्यौहारों में से अधिकाँश इसी संधि बेला में मनाये जाते हैं। दिवाली, होली, गुरुपूर्णिमा, श्रावणी, हरियाली अमावस्या, शुक्ल−पक्ष पर ही होते हैं। नवरात्रि की ऋतु संध्या का महत्व भी इसी प्रकार है। ऋतु परिवर्तन की बेला में कई तरह की सूक्ष्म हलचलें होती हैं। देखा गया है कि मलेरिया, दस्त, जुकाम, चेचक आदि का दौर आश्विन और चैत्र में आता है।

ऋतु परिवर्तन के इन दिनों में शरीर के भीतर अनायास ही ज्वार−भाटे जैसी हलचलें उत्पन्न होती हैं और जीवनी शक्ति प्रयत्नपूर्वक देह में जमी हुई विकृतियों को हटाने के लिए एक विशेष तूफान उत्पन्न करती हैं, इसी को वैद्य, हकीम लोग उभार काल कहते हैं। जुलाब देकर पेट की सफाई शरीर शोधन को वमन, विरेचन आदि पंचकर्म पुराने चिकित्सक इन्हीं दिनों कराते थे। काया−कल्प के विविध प्रयोग करने के लिए रोगियों को इसी अवसर की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

वर्षा के अन्त और सर्दी के आगमन पर गेहूँ, जौ, चना जैसी प्रधान फसलें बोने का ऋतुकाल आश्विन में आता है इन्हीं दिनों प्राणियों की गर्भ धारण स्थिति उभरती है। न केवल मनुष्यों में वरन् सृष्टि के समस्त प्राणियों में यही क्रम चलता है कि आधे गर्भाधान आश्विन और चैत्र के दूसरे पक्षों में होते हैं और शेष आधी प्रक्रिया पूरे वर्ष को मिलाकर पूरी होती है। यह शारीरिक और मानसिक स्थिति में विशेष परिवर्तन के चिन्ह हैं। महत्वपूर्ण वृक्षों के उद्यान भी प्रायः इन्हीं दिनों लगाये जाते हैं चैत्र की नवरात्रि आरम्भ होते ही विक्रमी सम्वत् बदलता है और उन नौ दिनों का अन्त होते ही राम जन्मोत्सव रामनवमी मनाई जाती है। इसके चार−पाँच दिन बाद ही चैत्री पूर्णिमा की हनुमान जयन्ती है। आश्विन अमावस्या को पित्र अमावस्या कहते हैं और उसके दूसरे दिन से ही नवरात्रि पर्व आरम्भ हो जाता है। इसके समाप्त होते−होते दुर्गा अष्टमी और विजयादशमी आ जाती है। उसके चार−पाँच दिन बाद ही शरदपूर्णिमा है। पर्वों की यह विशिष्ट शृंखला अकारण ही नहीं है। कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाताओं ने प्रकृति के अन्तराल में चल रहे विशेष उभारों को ध्यान में रखते हुए यह सोचा है कि उन दिनों की हुई आध्यात्मिक साधनाएँ भी विशेष रूप से सफल होती हैं। तदनुसार चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष आरम्भ होते ही नौ−नौ दिन के नवरात्रि पर्व मनाये जाते हैं।

तम और सत् दो ही गुण इस प्रकृति के हैं। तम अर्थात् जड़−सत् अर्थात् चेतन। दोनों अपनी स्थिति में पूर्ण हैं। पर इन दोनों का जब मिलन होता है तो एक नई हलचल उठ खड़ी होती है, जिसे रज कहते हैं। इच्छा आकाँक्षा, भोग, तृप्ति, अहंता, संग्रह, हर्ष, स्पर्धा आदि चित्त को उद्विग्न किये रहने वाले और विविध क्रिया−कृत्यों में जुटाये रहने वाले प्रवाह रज की ही प्रतिक्रियाएँ हैं। साधना की आवश्यकता इस रज के निविड़ बन्धनों से छुड़ाने के लिए ही की जाती हैं। तम से बना जड़ शरीर समय आने पर आसानी से मर जाता है और उसे जला, सड़ाकर देखते देखते समाप्त कर दिया जाता है। चेतन आत्मा ईश्वर अंश होने से निर्मल है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से बनी जड़−चेतन मिश्रित जीवन चेतना ही हर घड़ी अशान्त रहती है और कृत्य−कुकृत्य करने में जुटी रहती है। परिमार्जन इसी का करना पड़ता है। योगसाधना एवं तपश्चर्या का उद्देश्य जीव संध्या का परिमार्जन करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

नारी का नारीत्व उसकी रज चेतना पर टिका हुआ है। रजस्वला होने के उपरान्त उसमें यौवन का उभार आरम्भ होता है। यह रज तत्व ही गर्भ धारण और सृष्टि विस्तार का आधार है। ‘रयि’ और ؉‘प्राण’ के बीच रहने वाला चुम्बकत्व ही नर−नारी के बीच कामुक आकर्षण का आधार बनता है। प्राणि वर्ग में पेट भरने के उपरान्त दूसरी हलचलें प्रजनन कर्म की प्रेरणा के फलस्वरूप ही विनिर्मित होती हैं। यह ‘रज’ तत्व का चमत्कार है। आखिर यह ‘रज’ है क्या? सत् और तम का सम्मिश्रण। इस मिश्रण में उत्पादन की अद्भुत शक्ति है। ऋतुमती मादा गर्भ धारण करती है। प्राणियों के ऋतु कालों में कालचक्र के अनुसार समय का अलग−अलग निर्धारण है। ऋतुएं वर्ष में दो बार ऋतुमती होती हैं। सर्दी−गर्मी प्रधानतया दो ही ऋतुएं हैं। दोनों के समय छह−छह महीने के हैं वर्षा इनके बीच−बीच में ही आँखमिचौनी खेलती रहती है। इन दिनों प्रधान ऋतुओं का ऋतुकाल नौ−नौ दिन का होता है। नवरात्रि इन्हीं दिनों को कहते हैं।

यों सारा ही समय भगवान का है और सभी दिन पवित्र हैं। शुभ कर्म करने का हर घड़ी शुभ मुहूर्त है और अशुभ कर्म के लिए काल राहु, दिशाशूल, योगिनी, विपरीत चन्द्रमा आदि के अनेकानेक बन्धन प्रतिरोध हैं। सामान्य या विशेष करने में कभी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। शुभ कर्म के लिए कभी कोई मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी कालचक्र की प्रतिक्रिया से लाभ उठाने में बुद्धिमत्ता ही है। बसन्त ऋतु में बसन्त पंचमी पड़ती है। उन दिनों उत्सव के साथ जुड़ी हुई भावनाओं के अनुरूप सूक्ष्म प्रवाह वातावरण में बह रहे होते हैं, अस्तु उनकी सहायता से यह पर्व मनाने के लिए उपयुक्त मनःस्थिति स्वतः ही बन जाती है।

नवरात्रि पर्व में विभिन्न उपासनाएँ चलती हैं। राम भक्त उन दिनों रामायण पारायण और कृष्ण भक्त गीता पारायण करते हैं। देवी उपासकों में दुर्गा पाठ के विभिन्न उपचार चलते हैं। इन दिनों व्रत, उपवास करते हैं।

तन्त्र विधान में सब साधन, कुमारी पूजन, कुण्डलिनी जागरण, चक्रबेधन आदि की साधना विशेष रूप से इन्हीं दिनों सम्पन्न की जाती है। मध्य काल में तन्त्र प्रयोजनों की मान्यता बहुत थी इसलिए देवी आराधना के विभिन्न उपचारों के लिए इन्हीं दिनों वैयक्तिक एवं सामूहिक रूप से विशेष क्रिया−कृत्य किये जाते थे। अभी भी जहाँ−जहाँ देवियों के मन्दिर हैं, वहाँ−वहाँ छोटे−बड़े तान्त्रिक आयोजन होते हैं। यों सतोगुणी साधनाओं के लिए भी यह समय अधिक उपयुक्त है, पर प्रचलन इन दिनों दुर्गा पूजा के नाम से ही चल पड़ा है। बंगाल, आसाम, उड़ीसा, मणिपुर, नेपाल, भूटान एवं गुजरात में दुर्गा पूजा के विशेष समारोह होते हैं। बंगाल में तो उन दिनों सरकारी छुट्टियाँ भी रहती हैं। इन प्रचलनों से यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि प्राचीन काल में साधना की दृष्टि से नवरात्रियों को कालचक्र के अनुसार कितना अधिक महत्व दिया गया था और वह प्रथा किसी न किसी रूप में अभी भी भिन्न−भिन्न स्थानों में भिन्न−भिन्न प्रकार से चलती हुई पाई जाती है।

गायत्री महाशक्ति अध्यात्म जगत् में सर्वोपरि है। उसे भारतीय तत्वज्ञान और साधना विज्ञान की रीड़ कह सकते हैं। ज्ञान दृष्टि से देखा जाय तो स्पष्ट है कि इन्हीं चौबीस अक्षरों की व्याख्या से चारों वेद रचे गये। वेदमाता नाम से प्रख्यात इस महामन्त्र के सम्बन्ध में यही माना जाता है कि भारतीय धर्म और अध्यात्म का कल्प−वृक्ष जिस बीज के कारण , बढ़ा और सुविस्तृत हुआ वह गायत्री मन्त्र ही है। चारों वेद गायत्री के चार चरणों के चार व्याख्यान हैं ॐ भूर्भुवः स्वः यह शीर्ष है और तत्सवितुर्वरेण्यं−भर्गो देवस्य धीमहि−धियो योनः प्रचोदयात्−यह तीन चरण हैं। इन चारों को मिलाकर ही पूर्ण गायत्री मन्त्र बनता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार ब्रह्माजी ने अपने चार मुखों से चार वेदों के चार व्याख्यान किये। अर्थात् ब्रह्म−ईश्वर ने −ज्ञान की चार धाराएँ चेतना जगत में प्रवाहित करके मनुष्यों का मार्ग−दर्शन किया। इसी तथ्य की पुष्टि इस कथा से भी होती है कि सृष्टि के आदि में ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। वे कमल पुष्प पर बैठे असमंजस कर रहे थे कि हम क्या हैं? और क्यों हैं? आकाश से आकाशवाणी हुई कि तुम सृष्टिकर्त्ता हो। अपना कार्य पूरा करने के लिए शक्ति प्राप्त करो। शक्ति साधना के लिए गायत्री उपासना में संलग्न होना चाहिए। उसी समय आकाशवाणी ने ब्रह्माजी को गायत्री मन्त्र सुनाया। ब्रह्मा ने उसकी उपासना की। शक्ति पाई। सृष्टि रची और ज्ञान की धारा गायत्री और विज्ञान की धारा सावित्री को प्रवाहित करके जीवधारियों के लिए सुख−शांतिदायिनी गंगा−यमुना बहाई। गंगा और यमुना के मिलन−संगम पर तीर्थराज बना है। सर्दी−गर्मी की ऋतुओं के मिलने की तरह ही ज्ञान-विज्ञान की दो धाराओं का समन्वय गायत्री है।

गायत्री भारतीय धर्म का प्राण है। उसी को शिखा और सूत्र के रूप में धर्म प्रतीक की मान्यता मिली है। हिन्दू धर्मानुयायियों के सिर के सर्वोच्च शिखर पर समारोहपूर्वक मुण्डन संस्कार कराते हुए शिला रूपी ज्ञान ध्वजा की स्थापना की जाती है, इसे गायत्री स्वरूप माना गया है। हिन्दू धर्म का दूसरा प्रतीक चिन्ह है यज्ञोपवीत। यह भी गायत्री मन्त्र का ही प्रतीक है। गायत्री के तीन चरण−यज्ञोपवीत की तीन लड़ें। गायत्री के नौ शब्द यज्ञोपवीत के नौ धागे। गायत्री में तीन व्याहृतियाँ− यज्ञोपवीत में तीन गाँठे। गायत्री में ‘ॐ’- यज्ञोपवीत में बड़ी ब्रह्म ग्रन्थि। इस प्रकार गायत्री एक−एक प्रतीक प्रतिनिधि की स्थापना यज्ञोपवीत को कलेवर में जोड़कर उसे धारण करने का विधान बना है। उसमें सन्निहित उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व को अपनाये रहने का निर्देश हुआ है। कन्धे पर, हृदय पर, कलेजे पर, पीठ पर चारों ओर से काया के महत्वपूर्ण भाग को लपेटा जाता है। इसका अर्थ है। मानवता के उच्चस्तरीय आदर्शों का भार कन्धे पर वहन किया जायगा, हृदय में धारण किया जायगा, कलेजे में समा लिया जायगा, पीठ पर लादा जायगा। सद्ज्ञान की शिला शरीर किले के सर्वोच्च स्थान पर−शिर पर फहराती रहे और यज्ञीय जीवन जीने का−व्रत निबाहने को स्मरण दिलाते रहने वाला यज्ञोपवीत धारण किया जाय−वह प्रतीक प्रेरणा का उपयुक्त माध्यम है। इस देव स्थापना में शरीर को देव मन्दिर बनाया जाय और प्रयत्न किया जाय कि मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने वाली श्रेष्ठ गतिविधियाँ ही अपनाई जाती रहें। यही है−शिखा सूत्र धारण का प्रयोजन। दूसरे शब्दों में इन धर्मोपचारों का उद्देश्य जीवन को उच्चस्तरीय आदर्शों के अनुरूप जीने का प्रेरणाप्रद निर्देश कहा जा सकता है। वस्तुतः गायत्री मन्त्र में इसी स्तर का तत्वज्ञान भरा पड़ा है।

गायत्री का विज्ञान और भी अधिक महत्वपूर्ण है उसके शब्दों का गुँथन स्वर शास्त्र के अनुसार सूक्ष्म विज्ञान के रहस्यमय तथ्यों के आधार पर हुआ है। इसका जप ऐसे शब्द कंपन उत्पन्न करता है जो उपासक की सत्ता में उपयोगी हलचलें उत्पन्न करे−प्रसुप्त दिव्य शक्तियों को जगाये और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने की उमंग उत्पन्न करे। गायत्री जप के कम्पन साधक के शरीर से निसृत जाकर समस्त वातावरण में ऐसी हलचलें उत्पन्न करते हैं जिनके आधार पर संसार में सुख−शान्ति की परिस्थितियां उत्पन्न हो सकें।

भारतीय धर्म की उपासना में प्रातः सायं की जाने वाली ‘संध्या विधि’ मुख्य है। संख्या कृत्य यों सम्प्रदाय मद में कई प्रकार किये जाते हैं, पर उन सब में गायत्री का समावेश अनिवार्य रूप से होता है। गायत्री को साथ लिए बिना संध्या सम्पन्न नहीं हो सकती। गायत्री को गुरु मन्त्र कहा गया है। यज्ञोपवीत धारण करते समय गुरु मन्त्र देने का विधान है। देव मन्त्र कितने ही हैं। सम्प्रदाय भेद से कई प्रकार के मन्त्रों के उपासना विधान हैं पर जहाँ तक गुरु मन्त्र शब्द का सम्बन्ध है वह गायत्री के साथ ही जुड़ा हुआ है। कोई गुरु किसी अन्य मन्त्र की साधना सिखाये तो उसे गुरु का दिया मन्त्र तो कहा जा सकता है, पर जब भी गुरु मन्त्र शब्द को शास्त्रीय परंपरा के अनुसार प्रयुक्त किया जायगा तो उसका तात्पर्य गायत्री मन्त्र से ही होगा। इस्लाम धर्म में कलमा का −ईसाई धर्म में बपतिस्मा का जो अर्थ है वही हिन्दू धर्म में अनादि गुरु मंत्र गायत्री को प्राप्त है।

साधना की दृष्टि से गायत्री को सर्वांगपूर्ण एवं सर्व समर्थ कहा गया है। अमृत, पारस, कल्प−वृक्ष और कामधेनु के रूप में इसी महाशक्ति की चर्चा हुई है। पुराणों में ऐसे अनेकानेक कथा प्रसंग भरे पड़े हैं जिनमें गायत्री उपासना द्वारा भौतिक ऋद्धियाँ एवं आत्मिक सिद्धियाँ प्राप्त करने का उल्लेख है। साधना विज्ञान में गायत्री उपासना को सर्वोपरि माना जाता रहा है। उसके माहात्म्यों का वर्णन सर्वसिद्धिप्रद कहा गया है और लिखा है कि तराजू के एक पलड़े पर गायत्री को और दूसरे पर समस्त अन्य उपासनाओं को रखकर तोला जाय तो गायत्री ही भारी बैठती है। राम, कृष्ण आदि अवतारों की−देवताओं और ऋषियों की उपासना पद्धति गायत्री ही रही है। उसे सर्वसाधारण के लिए उपासना अनुशासन माना गया है और उसकी उपेक्षा करने वाली की कटु शब्दों में भर्त्सना हुई है। सामान्य दैनिक उपासनात्मक नित्यकर्म से लेकर विशिष्ट प्रयोजनों के लिए की जाने वाली तपश्चर्याओं तक में गायत्री को समान रूप से महत्व मिला है। गायत्री, गंगा, गीता, गौ और गोविन्द हिन्दू धर्म के पाँच प्रधान आधार माने गये हैं, इनमें गायत्री प्रथम है। बाल्मीक रामायण और श्रीमद्भागवत में एक−एक शब्द का सम्पुट लगा हुआ है। इन दोनों ग्रन्थों में वर्णित रामचरित्र और कृष्णचरित्र को गायत्री का कथा प्रसंगात्मक वर्णन बताया जाता है इन सब कथनोपकथनों का निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री मन्त्र के लिए भारतीय धर्म में निर्विवाद रूप से सर्वोपरि मान्यता मिली है। उसमें जिन तथ्यों का समावेश है उन्हें देखते हुए निकट भविष्य में मानव जाति का सार्वभौम मन्त्र माने जाने की पूरी−पूरी सम्भावना है। देश धर्म, जाति समाज और भाषा की सीमाओं से ऊपर उसे सर्वजनीय उपासना कहा जा सकता है। जब कभी मानवी एकता से सूत्रों को चुना जाय तो आशा की जानी चाहिए गायत्री को महामन्त्र के रूप में स्वीकारा जायगा। हिन्दू धर्म के वर्तमान बिखराव को समेटकर उसके केन्द्रीकरण की एक रूपता की बात सोची जाय तो उपासना क्षेत्र में गायत्री को ही प्रमुखता देनी होगी।

हमारा निज का अनुभव एवं विश्वास भी गायत्री उपासना के साथ जुड़ा हुआ है। जीवन भर उसी के सम्बन्ध में चिन्तन−मनन किया गया है। साधना के नाम पर हमारे जीवन का जो भी बहुमूल्य समय लगा है उसका प्रत्येक क्षण गायत्री को आधार मानकर ही प्रयुक्त किया गया है। इस प्रयोग में जो अनुभव हुए हैं उनने व्यक्तिगत रूप से भी हमारी निष्ठा को क्रमशः अधिकाधिक परिपक्व ही किया है। ऐसी दशा में हमारा परामर्श भी अपने विश्वास एवं अनुभव के आधार पर ही हो सकता है। दैनिक सामान्य उपासना के लिए तथा विशेष शक्ति संचय के लिए गायत्री उपासना ही हमें सर्वश्रेष्ठ लगी है तदनुसार जिनने भी हमारा परामर्श एवं सहयोग माँगा है, उन्हीं के लिए कहा है। अन्य कोई मार्ग देखा ही नहीं तो उसका मार्ग−दर्शन किया भी कैसे जा सकता है।

स्वर्ण−जयन्ती साधना वर्ष के उपलक्ष में अखण्ड−ज्योति परिवार के जिन परिजनों ने एक वर्ष की गायत्री साधना आरम्भ की हो उनको हमारा एक परामर्श यह भी है कि यदि सम्भव हो तो वे इस वर्ष आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में 9-9 दिन के गायत्री अनुष्ठान करने के लिए समय निकालने के लिए प्रयत्न करें। यह विशेष तपश्चर्या उनके लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होगी।

पूर्व तैयारी के रूप में इतना ही जानना पर्याप्त है कि उन 9 दिनों में हर दिन 45 मिनट के स्थान पर प्रायः 3 घण्टे समय लगाना होगा। यह प्रातःकाल एकबार में न मिलता हो तो दो घण्टे प्रातः और एक घण्टा रात्रि को भी हो सकता है। प्रातः सूर्योदय से दो घण्टे रात्रि जाने तक भी शेष साधना को निपटा लिया जाना चाहिए। समय लगाने के अतिरिक्त उपवास अथवा संयत स्वल्प एवं सात्विक भोजन का नियम अपनाना पड़ेगा। ब्रह्मचर्य उन नौ दिनों में अनिवार्य रूप से आवश्यक है। कुछ और भी छुट−पुट प्रतिबन्ध हैं जिनकी चर्चा अगले पृष्ठों पर अंकित है।

चैत की नवरात्रि 31 मार्च 76 बुधवार से आरम्भ होकर 8 अप्रैल गुरुवार तक चलेगी। आश्विन की 24 सितम्बर 76 शुक्रवार से आरम्भ होकर 2 अक्टूबर शनिवार तक चलेगी। यह विधान पूरे नौ दिन का होता है। नौ रात्रियाँ इस साधना में संलग्न रहते बीतनी चाहिएँ। तिथियों की घट−बढ़ अक्सर होती रहती है उनका कोई प्रभाव इन पूरे नौ दिनों पर नहीं पड़ता।

जिन्हें यह नवरात्रि विशेष साधना करनी हो, वे दोनों बार समय से पूर्व उसकी सूचना हरिद्वार भेज दें। ताकि उन दिनों साधक को सुरक्षात्मक, संरक्षण और उस क्रम में रहने वाली भूलों के दोष परिमार्जन का लाभ मिलता रहे। विशेष साधना के लिए विशेष मार्ग−दर्शन एवं विशेष संरक्षण मिल सके तो उससे सफलता की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है। वैसे प्रत्येक शुभ कर्म का संरक्षण भगवान स्वयं ही करते हैं।

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