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Magazine - Year 1976 - Version 2

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अपनों से अपनी बाल

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साधना वर्ष के साधकों से चार अनुरोध

स्वर्ण−जयन्ती साधना वर्ष में अखण्ड−ज्योति के सभी सदस्यों से गायत्री महाशक्ति की संक्षिप्त, सरल किन्तु अति महत्वपूर्ण साधना करने के लिए, अनुरोध किया गया है। प्रसन्नता की बात है कि उसका महत्व समझा गया और परिजनों में से अधिकाँश ने इस साधन शृंखला की सदस्यता स्वीकार कर ली है। जिनकी सूचना मिली है उनके नाम नोट कर लिये गये हैं। उनका उपासना क्रम ठीक तरह चले इस पर आवश्यक ध्यान रखा जा रहा है और उन्हें प्रगति की दिशा में अग्रसर करने वाला आवश्यक सहयोग दिया जा रहा है। आशा की जानी चाहिए कि इस साधना उपक्रम से उतना लाभ उठाया जा सकेगा जितना कई वर्षों की−कई घण्टे की उपासना से ही सम्भव होता है। भूमि की उर्वरता और बीज की प्रखरता का महत्व तो है ही, पर साथ ही अनुभवी माली का सहयोग मिल जाय तो पौधे के सुविकसित होने की सम्भावना और भी अधिक सुनिश्चित रहती है। इस वर्ष के साधना−क्रम में सौभाग्य से ऐसा ही संयोग जुड़ गया है।

जिनने अपनी साधना आरम्भ नहीं की है, उन्हें बसन्त पर्व के बाद भी करने की छूट है। 5 फरवरी 76 से अपना साधना वर्ष आरम्भ हो गया। ठीक एक वर्ष में 77 के बसन्त पर इसकी पूर्णाहुति हो जायगी। बीच के महीनों से भी इस साधन शृंखला की सदस्यता अपनाई जा सकती है और जब भी अवसर मिले तब से भी इसमें सम्मिलित हुआ जा सकता है, पर उसकी समाप्ति हर हालत में 77 के बसन्त को ही करनी होगी। बीच में−देर से सम्मिलित होने वालों की साधना पूरे वर्ष न चलकर उतने समय कम चलेगी जितने कि वे देर में सम्मिलित हुए। तीन महीने पीछे सम्मिलित होने वाले मात्र 9 महीने में विशिष्ट सहयोग का लाभ उठा सकेंगे। पीछे उपक्रम को जारी तो आजीवन रखा जा सकता है, पर सूत्र सम्बद्धता का सिलसिला टूट जायगा।

पैंतालीस मिनट हर दिन की साधना का उपक्रम गत अंक में समझाया जा चुका है। इस अंक में यह अनुरोध है कि जिनकी निष्ठा, साधना में अधिक परिपक्व हो तथा जिन्हें सुविधा हो वे सन् 76 की दोनों नवरात्रियों की अनुष्ठान, तपश्चर्या में भी सम्मिलित होने का साहस करें। चैत्र की नवरात्रि 1 अप्रैल से और आश्विन की नवरात्रि 24 सितम्बर से आरम्भ होगी और पूरे 9-9 दिन चलेंगे। इसमें ढाई−तीन घण्टे जप तथा ब्रह्मचर्य उपवास आदि के नियम, पालन जिनके लिए सम्भव हों वे इस तपश्चर्या का भी लाभ उठायें। इसमें सम्मिलित होने वालों को अलग से सूचना देनी चाहिए ताकि उनकी इस अतिरिक्त साधना का−अतिरिक्त संरक्षण कर सकना सम्भव हो सके।

एक लाख साधकों को ही इस शृंखला में सम्मिलित किया जा सकेगा। यह संख्या पूरी होने पर अन्य लोग इच्छा और सुविधानुसार इस साधना क्रम को अपनायें तो प्रसन्नतापूर्वक अपनायें, पर उन्हें विशेष संरक्षण की सुविधा न मिल सकेगी। उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर आधी संख्या 5 फरवरी 76 के बसन्त पर्व पर ही पूरी हो चुकेगी। शेष आधी के पूरा होने में सम्भवतः चार महीने और लग सकते हैं। आगामी गायत्री जयन्ती 7 जून की है। उस दिन निश्चित रूप से साधन की शृंखला सदस्यता का प्रवेश बन्द कर दिया जायगा। जो आठ महीने भी सम्मिलित न रह सकेंगे, उन्हें विशिष्ट साधकों के स्तर का लाभ न मिल सकेगा। अस्तु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि जिनने अभी प्रवेश प्राप्त नहीं किया है उन्हें इसी अवधि में अपना साधना−क्रम आरंभ कर देना है।

यहाँ एक विशेष बात ध्यान में आती है कि हमें पिछले 27 वर्ष से गायत्री उपासना का प्रचार और मार्ग−दर्शन करना पड़ रहा है। इस अवधि में कितने ही लोगों ने यह साधना−क्रम आरम्भ किया था और किसी न किसी रूप में हमारा सहयोग लिया था। इनमें से कुछ तो निष्ठापूर्वक हमारे कदम से कदम मिलाकर बढ़ते चले आये हैं और आत्मिक प्रगति की दृष्टि से आज वहाँ हैं जिस पर वे और हम दोनों ही सन्तोष व्यक्त कर सकते हैं। किन्तु कितने ही ऐसे भी रहे हैं जिनका उत्साह देर तक स्थिर न रह सका। कारणवश उनमें शिथिलता आई और वह प्रयास छूट गया। अच्छा होता वे गिरते−उठते किसी प्रकार उस क्रम को जारी रखे रहते और पूरा न सही अधूरा लाभ तो पा लेते।

विचार यह आया है कि इन लोगों को भी साधना वर्ष का लाभ लेने के लिए कहा जाय। इससे वे कम समय में अधिक उत्साह पा सकेंगे और भविष्य में अपना साधन क्रम बिना किसी बाहरी सहायता के अपने ही उपयोगी अनुभव के आधार पर जारी रख सकेंगे। अभी एक लाख की सदस्यता पूरी होने में थोड़ी गुंजाइश भी है और चार महीने का समय भी। इस बीच उन पिछड़े साधकों तक सूचना पहुँच सके तो निश्चित रूप से उनमें से अधिकाँश पुनः अपना उत्साह सजग करेंगे और इस अलभ्य अवसर का लाभ ले सकेंगे।

कठिनाई यह है कि ऐसे छूटे हुए साथी अखण्ड−ज्योति की सदस्यता भी खो बैठे होंगे। उन तक हमारा सन्देश इतनी जल्दी नहीं पहुँच सकेगा। एक दूसरे से चर्चा होने पर भी बात आगे बढ़ती है, पर यह सिलसिला दूर तक देर तक नहीं चलता। अस्तु अच्छा उपाय यही है कि जिन साधकों ने साधना वर्ष की सदस्यता स्वीकार की हो वे मिशन के सन्देश वाहक का एक अतिरिक्त उत्तरदायित्व भी उठायें और अपनी पहुँच के सम्पर्क क्षेत्र में यह तलाश करें कि ऐसे कौन लोग थे जिनका कभी गायत्री उपासना में उत्साह था, पर अब वह छूट गया। ऐसे लोगों तक स्वर्ण−जयन्ती वर्ष की−साधन शृंखला की जानकारी पहुँचाई जानी चाहिए। यह कार्य उन्हें जनवरी, फरवरी के अखण्ड−ज्योति अंकों का साराँश बताकर समझाई जा सकती है। इससे यदि उनका उत्साह जगे तो उनका मार्ग−दर्शन करने का कार्य प्रविष्ट सदस्यों द्वारा स्वयं ही उठाया जा सकता है। चूँकि वे पत्रिका नहीं पढ़ते इसलिए भविष्य में भी आवश्यक निर्देश उन तक पहुँच न सकेंगे। बीच−बीच में भी उपयोगी मार्ग−दर्शन तो चलता ही रहेगा। उसकी जानकारी भी इन लोगों को मिलती रहनी चाहिए। यह तभी सम्भव हो सकता है जब शृंखला में सम्मिलित लोग अपना एक छोटा सम्पर्क मण्डल बना लें और उन लोगों का व्यक्तिगत रूप से स्वयं−दर्शन करते रहें।

कितने ही अशिक्षित, स्वल्प शिक्षित, नेत्र दृष्टि से दुर्बल अथवा आर्थिक कारणों से पत्रिका न पढ़ पाते होंगे किन्तु उनकी अध्यात्म−निष्ठा सराहनीय स्तर की हो सकती है। ऐसे लोग इस अवसर का लाभ न ले सकें तो यह खेदजनक ही होगा। इन्हें लाभान्वित करने का एक ही तरीका है कि प्रस्तुत निष्ठावान सदस्य अपनी−अपनी एक छोटी मंडली बना लें और उसके मार्ग−दर्शन का उत्तरदायित्व स्वयं उठायें। साप्ताहिक गोष्ठियाँ बुलाने का सत्संग क्रम चलाया जा सकता है और मंडली के सदस्यों की जिज्ञासाओं का समाधान तथा आवश्यक मार्ग−दर्शन करते रहा जा सकता है। मण्डली में नये सदस्य भी सम्मिलित किये जा सकते हैं। इस प्रकार एक स्थानीय साधक मण्डली हर जगह चल सकती है।

यह लोग साधन शृंखला के एक लाख सीधे सदस्यों की गणना में तो नहीं गिने जायेंगे, पर उन्हें अनुसदस्य मान लिया जायगा और यदि उनकी सूची हरिद्वार पहुँचा दी गई होगी तो संरक्षण उनकी साधना का भी अतिरिक्त रूप से होता रहेगा।

यह स्वाभाविक भी है। सीधे सम्पर्क के लोगों को साधना, उपासना का तत्वज्ञान, स्वरूप, आधार और प्रयोग हर महीने विस्तारपूर्वक समझाया जा सकता है। पर अनुसदस्य तो केवल उपासना प्रक्रिया ही जान पायेंगे और इस सन्दर्भ का तत्वज्ञान उन तक छन−छनकर ही थोड़ा बहुत पहुँच पावेगा। स्कूल में नियमित रूप से पढ़ने वाले छात्रों में और घर पर ही अभ्यास करके परीक्षा देने वाले छात्रों में कुछ तो अन्तर रहता ही है। वह कमी तो यहाँ भी रहेगी फिर भी न कुछ से कुछ अच्छा की उक्ति के अनुसार यह स्थानीय साधना मंडलियाँ भी कुछ उपयोगी ही कार्य करेंगी और उतने से भी बहुतों का बहुत कल्याण होगा। अस्तु जहाँ भी−जिनके लिए भी जो सम्भव हो वह प्रयत्न उन्हें अपनी स्थिति और सुविधा के अनुसार आरम्भ कर देना चाहिए और स्थानीय साधना मंडली की व्यवस्था यथासम्भव जल्दी ही बना लेनी चाहिए।

स्वर्ण−जयन्ती वर्ष की साधक शृंखला का और स्थानीय साधना मण्डलियों का−क्रम हर हालत में गायत्री जयन्ती 7 जून 76 तक पूर्ण हो जाना है। इसके उपरान्त सम्बद्ध सूत्रों का सिलसिला नहीं चलेगा। अनुसदस्यों को भी मार्ग−दर्शन, संरक्षण के लिए अपनी सूची में इससे आगे सम्मिलित न किया जा सकेगा।

शांति−कुंज में चलने वाले सत्रों में कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे। छोटे बच्चों वाली महिलाओं को उनमें प्रवेश नहीं मिलता था। बीड़ी, सिगरेट के आदी तथा दूसरी शारीरिक असमर्थताओं के कारण भी प्रतिबन्ध थे। किन्तु वह सभी लोग उन अनुदानों के अधिकारी थे जो आत्मिक दृष्टि से स्वस्थ होने के कारण उन्हें मिलने चाहिए थे। शांति−कुंज की अपनी कठिनाइयाँ और अपनी मर्यादाएँ हैं। उन्हें भी अनुचित और अनावश्यक नहीं कहा जा सकता। जो हो इन उभय पक्षीय कठिनाइयों ने नियमित निष्ठावान साधकों में से तीन−चौथाई को उस लाभ से वंचित रखा जो उन्हें मिलना चाहिए था, फिर इस वर्ष जो साधना का पुनर्जागरण हो रहा है उनके सदस्यों को सम्पर्क जन्य लाभ किस प्रकार मिल पावेगा?

यह विशेष व्यवस्था इसी वर्ष की है। अस्तु चैत्र की नवरात्रियों में इन सत्रों के लिए आमन्त्रण माँगे गये हैं। जहाँ आवश्यकता समझी जाय वहाँ के साधक 10 अप्रैल रामनवमी तक अपने आमन्त्रण पत्र भेज दें। इन पर विचार करके यह कार्यक्रम बनेगा कि एक प्रतिनिधि किन−किन सत्रों का संचालन करने के लिए किस रास्ते जाय और कितना चक्र पूरा करते हुए कितने समय में कब तक वापस लौटे। यह कार्यक्रम 30 अप्रैल से पूर्व ही निर्धारित करके 1 मई से स्थानीय सत्र श्रृंखलाएँ चालू कर दी जायेंगी। अगली 77 की बसन्त पंचमी से पहले ही यह शृंखला समाप्त कर दी जायगी। इस प्रकार आठ नौ महीनों में ही जितने चार दिवसीय सत्र जहाँ−जहाँ सम्भव होंगे वहाँ सम्पन्न कर दिये जायेंगे। सभी माँगों को पूरा कर सकने के लिए उतने प्रतिनिधि जुटाये नहीं जा सके तो कई स्थानों के लिए असमर्थता भी प्रकट की जा सकती है। जहाँ पहुँचने के मार्ग दुर्गम होंगे वहाँ पहुँचना भी शायद न हो सके। अस्तु यह नहीं कहा जा सकता कि सभी आमन्त्रणों पर सत्र व्यवस्था बन ही जायगी। फिर भी इसके लिए आमन्त्रण तो भेजे ही जा सकते हैं। भेजते समय रेलवे स्टेशन सड़क आदि का नक्शा तथा पहुँचने सम्बन्धी इतनी जानकारी एक अलग कागज पर देनी चाहिए जिसके सहारे अपरिचित प्रतिनिधि बिना कठिनाई के उस स्थान पर पहुँच सके। प्रतिनिधि को कुछ देने के लिए सत्र संयोजक बाधित नहीं है। मार्ग व्यय आदि की दृष्टि से कुछ देना बन पड़े तो मिशन के लिए कुछ दिया जा सकता है और उसकी रसीद प्राप्त की जा सकती है।

सत्रों में कार्यक्रम क्या रहेगा यह अलग से छपी सूचना द्वारा भेज दिया जायगा। अच्छा यह है कि चार दिन के लिए साधक पूरा अवकाश ले लें और अपनी शारीरिक, मानसिक गतिविधियों को पूरी तरह इस विशेष अनुदान का लाभ लेने में निरत रखें। पर जिन्हें अनिवार्य काम होंगे अवकाश सम्भव न होगा, उन्हें दस से चार के बीच छह घण्टे की अतिरिक्त छुट्टी भी दी जा सकेगी। रात्रि को एक जगह ही सब साधक रहें और सब का खान−पान एक जगह ही चले इसका प्रबन्ध होना चाहिए। साधना स्थल का वातावरण शांति−कुंज से मिलता जुलता बन सके इसके लिए उपयुक्त स्थान पहले से ही चुना जाना चाहिए और आवश्यक व्यवस्था बनाने में पहले से ही पूरा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

नियमित साधकों के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी प्रातःकाल तीन घण्टे की उपासना में तथा रात्रि के प्रवचनों में सम्मिलित किया जा सकेगा, फिर भी प्रतिबन्ध तो रहेंगे ही। हर किसी को इन विशेष आयोजनों में घुस पड़ने और अव्यवस्था फैलाने की छूट न रहेगी इसलिए साधना एवं प्रवचनों में सम्मिलित रहने के लिए सत्र संचालकों से विशेष अनुमति लेने की आवश्यकता रहा करेगी।

संक्षेप में स्वर्ण−जयन्ती साधना वर्ष में परिजनों से (1) 45 मिनट के उपासना क्रम में स्वयं सम्मिलित होने (2) दोनों नवरात्रियों की तपश्चर्या करने (3) अनुसाधक तलाश करके उनकी स्थानीय मण्डली चलाने एवं (4) चार दिवसीय सत्र व्यवस्था बनाने के चार कार्यों का अनुरोध किया गया है। इसके लिए आरम्भ के दो महीने कुछ अधिक सोचने, करने और तैयारी का ढाँचा बिठाये में लगेंगे। इसके बाद तो निश्चिन्ततापूर्वक शेष वर्ष की साधना प्रक्रिया में ही निरत रहना होगा। स्मरण रखने योग्य यह है कि 45 मिनट की उपासना एवं नवरात्रि आदि की तपश्चर्या पर जितना ध्यान दिया जाना है उतना ही जीवन साधना का आश्रय लेकर अपने गुण, कर्म, स्वभाव का दृष्टिकोण एवं क्रिया−कलाप का भी परिमार्जन, परिशोधन किया जाना है। जीवन साधना को−उर्वरा भूमि की और उपासना को बीजारोपण की उपमा दी जा सकती है, इसे बन्दूक और कारतूस का समन्वय भी कहा जा सकता है। उभय−पक्षीय व्यवस्था बन पड़ने पर ही आत्मिक प्रगति का रथ ठीक तरह अग्रसर होता है। दोनों पहिये समान आकार−प्रकार के और सही सुदृढ़ होने चाहिएं।

आशा की जानी चाहिए कि साधना वर्ष में प्रतिदिन 24 करोड़ गायत्री पुरश्चरण सम्पन्न होते चलने की- एक लाख संकल्प निष्ठ साधकों की तपश्चर्या का प्रभाव सूक्ष्म जगत के परिशोधन में अपनी असाधारण भूमिका सम्पन्न करेगा। इसमें सम्मिलित रहने वाले साधक इतने ही समय में की जा सकने वाली सामान्य साधनाओं की अपेक्षा अनेक गुने परिमाण में− अनेक गुना उच्चस्तरीय लाभ उठा सकेंगे।

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