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Magazine - Year 1976 - Version 2

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उत्थान पतन की कुँजियाँ अपने हाथ में

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मनुष्य के कायिक और मानसिक संयंत्र में अद्भुत समताओं के एक से एक भण्डार भरे पड़े है। उनका सुव्यवस्थित सदुपयोग बन पड़े तो सामान्य समझा जाने वाला व्यक्ति भी ऐसी सफलताएँ प्राप्त कर सकता है जिन्हें चमत्कारी देव वरदानों की तरह गिना जाने लगे। दुर्भाग्य इसी बात का है कि मनुष्य बाहर की वस्तुओं का मूल्य और उपयोग तो जानता है, पर अपनी सामर्थ्य को उभारने तथा उसका सदुपयोग करने की जानकारी से प्रायः वंचित ही रहता है। पिछड़ी हुई दीन दयनीय परिस्थिति में पड़े रहने का प्रायः यही प्रधान कारण होता है।

अभीष्ट प्रगति के लिए साधन, परिस्थिति एवं सहयोग की भी आवश्यकता पड़ती है, पर उनका जुटाया जाना तथा जो उपलब्ध है उसे ठीक से काम में लाया जाना उन्हीं से बन पड़ता है जो अपने व्यक्तित्व को दिव्यवस्थित बनाने और अपनी क्षमताओं को परिष्कृत करने में सफल होते हैं। इतनी बात बने बिना सभी अनुकूलताएँ निरर्थक चली जाती हैं−कई बार तो सुविधा−साधनों का दुरुपयोग ही होता रहता है और उत्थान की अपेक्षा पतन का ही पथ−प्रशस्त होता है।

जितना ध्यान धन उपार्जन और वैभव प्रदर्शन का ताना−बाना बुनने पर दिया जाता है, उतना ही यदि आत्म−चिन्तन, आत्म−सुधार, आत्म−निर्माण और आत्म−परिष्कार की प्रक्रिया पर दिया जा सके तो निश्चय ही आत्म−विश्वास की मात्रा अनेकों गुनी बढ़ सकती है। प्रसुप्त शक्तियों को जगाने और बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित हो सके−अपने से लड़−झगड़कर शरीर और मन को आलस्य, प्रमाद त्यागने के लिए सहमत किया जा सके तो प्रतीत होगा कि किसी नये देव−दानव की सामर्थ्य अपने साथ जुड़ गई। बिखराव की बाल चंचलता यदि छोड़ी जा सके और निर्धारित लक्ष्य पर एकाग्र भाव से चला जा सके तो कठिन से कठिन कार्य भी सरल हो सकते हैं।

आत्म−ज्ञान की सामान्य भूमिका में जागृत होने वाले सामान्य मनुष्य आत्म−विश्वासी, स्वावलम्बी और स्वाभिमानी पाये जाते हैं। अहंकारी होना एक बात है और आत्म−विश्वासी होना बिलकुल दूसरी। अहंकारी उद्धत होता है, दूसरों को अपने से तुच्छ समझता है, आत्म−प्रशंसा के लिए आतुर होने के कारण चापलूसों द्वारा ठगा जाता रहता है, मतभेद अथवा असहमति को सहन कर सकना उसके लिए संभव नहीं होता उसे बात−बात में आग−बबूला होते और दूसरों के साथ उद्धत व्यवहार करते देखा जा सकता है। आत्म−विश्वासी में इस प्रकार की एक भी विकृति नहीं होती। उसका आत्मबोध सिखाता है कि ईश्वर की तरह ही उसके पुत्र मनुष्य को भी शालीनता, सज्जनता, पवित्रता, सरलता, नम्रता, सहिष्णुता जैसी सत्प्रवृत्तियों का उत्तराधिकारी होना चाहिए। इतना ही नहीं आत्म−विश्वासी सोचता है कि किसी भी दिशा में बढ़ चलने की प्रचण्ड सामर्थ्य मानवी सत्ता में भरी पड़ी है, उसका उपयोग ठीक से न बन पड़ना ही पिछड़ापन है। मनोयोग और एकाग्र पुरुषार्थ का समन्वय हो सका तो फिर हाथ में लिए हुए कार्य उत्कृष्ट स्तर के बनते चले जाएंगे और क्रम का चलते रहना एक दिन उच्चस्तरीय सफलता प्रस्तुत किये बिना रहेगा नहीं। अहंकारी केवल उन्हीं कार्यों में रस लेता है जो सस्ती वाहवाही दिला सके। आत्म−विश्वासी, आत्म−गौरव को ध्यान में रखकर उनके आदर्शवादी प्रयत्नों को अपनाता है जिनसे आत्मा−परमात्मा और विश्वात्मा को सन्तोष मिल सके। इसी अन्तर को देखते हुए अहंकारी की निन्दा और आत्म−विश्वासी की प्रशंसा होती है। यों अन्तर बारीकी से ही पकड़ में आता है अन्यथा कई बार मोटी दृष्टि से देखने वालों को अहंकारी एवं आत्मा−विश्वासी एक जैसे दीखने लगते हैं।

उच्चस्तरीय आत्मबोध में मनुष्य अपने आपको ईश्वर का तेजस्वी अंश विश्वात्मा का घटक समझता है और सुर−दुर्लभ मानव जन्म का लक्ष्य पूरा करने वाले व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाने वाले−लोक मंगल का प्रयोजन पूरा करने वाले कार्यों में ही हाथ डालता है। अन्य किसी भटकाव में उसका मन नहीं फिसलता। सामान्य स्तर का आत्म−विश्वास भी इसी आत्मबोध का प्रथम चरण है। इस प्रवेश द्वार में पैर रखते ही मनुष्य उत्थान और पतन के उत्तरदायित्वों को अपने कन्धे पर ओढ़ता है। दूसरों को दोष देने अथवा दूसरों से याचना करने की ओछी दृष्टि उसके पास नहीं फटकती। वह सोचता है संसार में शुभ अशुभ सभी कुछ है उसमें अपना चुम्बकत्व अनुकूल स्तर के व्यक्तियों तथा साधनों को एकत्रित करेगा। यदि अपना स्तर सुधार लिया जाय तो दूसरों के दोषों से अपनी हानि न्यूनतम मात्रा में ही होगी। इसी प्रकार अन्यों का सहकार तभी मिलेगा जब वे पात्रता की परख कर लेंगे। कुपात्रों और अप्रामाणिक व्यक्तियों को न तो कहने लायक संसार का सहयोग मिलता है और न देवी अनुग्रह। तथ्य को समझाते हुए वह अपने में वे विशेषताएँ उत्पन्न करने में संलग्न होता है, जिनके कारण सफलता खिंचती चली आती है, उन दुर्बलताओं से जूझता है जो अवरोधों और संकटों का प्रधान कारण बनी होती है।

आत्म−हीनता की ग्रन्थि से ग्रसित व्यक्ति अपनी दुर्बलताओं को समझने और उन्हें निरस्त करने का साहस नहीं जुटा पाते। गहराई में प्रवेश करके आत्म−निरीक्षण करना उनसे बन नहीं पड़ता, अस्तु सामने प्रस्तुत प्रतिकूलताओं का सारा दोष किन्हीं अन्य व्यक्तियों या परिस्थितियों पर थोपकर जी हलका करते हैं। कोई नहीं दीखता तो बेचारे ग्रह−नक्षत्रों को, भाग्य को, दैवी प्रकोप को, समय की विपरीतता को कोसने की आत्म प्रवंचना अपनाने लगते हैं। दूसरा काम उनका यह होता है कि अभीष्ट सफलताओं के लिए−जिस−तिस की कृपा प्राप्त करने के लिए उसके सामने दीनता भरी याचना करते फिरें। अपने पौरुष पर जिन्हें विश्वास नहीं उन्हीं को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में भिक्षावृत्ति का आश्रय लेते पाया जाता है। रोटी, पैसा आदि माँगने वाले समर्थ भिक्षुकों की निन्दा होती है यह जानते हुए भी कितने ही लोग सम्पन्न लोगों की चापलूसी अथवा देव−दानवों की पूजा−पत्री में कई प्रकार के अनुदान वरदान पाने की अपेक्षा करते रहते हैं। ऐसे लोगों का कितना मनोरथ पूरा होता है यह कहना कठिन है, पर यह निश्चित है कि इससे आत्म−गौरव और आत्म−विश्वास को भारी क्षति पहुँचती है। दीनताग्रस्त व्यक्ति यदि कहीं से कुछ प्राप्त कर भी ले तो परावलम्बन अपनाने के कारण अन्ततः घाटे में ही रहता है। प्रगति की अगणित संभावनाएं, आत्म−विश्वास के साथ जुड़ी होती हैं, यदि उस गरिमा को दुर्बल बना दिया गया तो फिर छुट−पुट उपलब्धियों का क्या मूल्य रह गया? सुविधाएँ आती और चली जाती हैं, पर जो भावनात्मक क्षति पहुँचती है उसकी तुलना में अनुदान, वरदान का लाभ तुच्छ ही बैठता है।

संसार में आदान−प्रदान का नियम तर्क संगत, नैतिक और व्यावहारिक है। पात्रता के अनुरूप सफलताएँ और उपलब्धियाँ मिलने का शाश्वत नियम अनादिकाल से चलता आ रहा है, हमें उतने से ही सन्तुष्ट रहना चाहिए। किसी से कुछ पाना हो तो उसका मूल्य चुकाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। सेवा के बदले में यश पाया जाय तो हर्ज नहीं। ऐसे ही धक्केशाही के बल पर नेता बन बैठना अनुचित है। अपनी योग्यता, कुशलता और श्रमशीलता का स्तर बढ़ाते हुए धन उपार्जन का औचित्य है, पर यदि जेबकटी का धन्धा अपनाया जा रहा हो तो उसे उपार्जन नहीं कह सकते। इसी प्रकार व्यक्तित्व के परिष्कार एवं लोक−मंडल में निरत रहने की ऋषि भूमिका निबाहने वाले दैवी अनुग्रह के अधिकारी हो सकते हैं, पर मन्त्र−तन्त्र की तरकीबें भिड़ाकर जो दैवी शक्तियों की अनुकम्पा चाहते हैं, वे यथार्थता को समझते नहीं और सस्ते जादुई लाभ का सपना देखते हैं। यही बात सिद्ध पुरुषों का अनुग्रह, आशीर्वाद प्राप्त करने के सम्बन्ध में भी है। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को, समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को, चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को, गाँधी ने जवाहरलाल को अपना सच्चा आशीर्वाद दिया था, पर देने से पहले उन्होंने यह विश्वास भली प्रकार कर लिया था कि उनके अनुदान का उपयोग किसी कुपात्र द्वारा व्यक्तिगत स्वार्थ साधन के लिए तो नहीं किया जायगा। कहना न होगा कि परिष्कृत व्यक्तित्व से कम कीमत पर कभी किसी समर्थ सिद्ध पुरुष की वास्तविक अनुकम्पा मिल नहीं सकती।

इन तथ्यों पर जितना अधिक विचार किया जाय उतना ही यह निष्कर्ष निकलेगा कि अपनी भावनात्मक, बौद्धिक एवं क्रियापरक स्थिति को जितना प्रखर बनाया जा सकेगा उसी अनुपात से जन−साधारण का अथवा दैव शक्तियों का सहयोग मिलता चला जायगा। संसार में जितने भी ऐतिहासिक महामानव हुए हैं उनमें से प्रत्येक की प्रगति एवं महानता का विश्लेषण करने पर इसी एक निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उनने अपने गुण, कर्म, स्वभाव में असाधारण उत्कृष्टताएँ उत्पन्न कीं और साथियों की तुलना में अपने को अधिक सत्पात्र सिद्ध करके विशिष्ट जन सहयोग एवं सम्मान प्राप्त कर सके। यही है उन सब की प्रगति का प्रधान रहस्य।

अपनी क्षमताओं का दुरुपयोग करके−दुष्प्रवृत्तियों से ग्रसित होकर ही हम अनेकानेक कठिनाइयों के शिकार बनते हैं। चटोरेपन, असंयम और अस्त−व्यस्त, रहन−सहन अपनाने पर ही पाचन तन्त्र और रक्त शुद्धि का सन्तुलन बिगड़ता है। यहीं से अनेकानेक शरीरगत रोगों का सिलसिला चल पड़ता है। सृष्टि के प्रकृति अनुगामी जीव−जन्तुओं की मृत्यु तो समयानुसार होती है, पर उन्हें बीमारियों की व्यथा नहीं भोगनी पड़ती। असंयम की कीमत पर रुग्णता खरीदी जाती है। यदि आहार−विहार की अस्त−व्यस्तता सुधार ली जाय तो खोया हुआ स्वास्थ्य पुनः वापस लौटाया जा सकता है। इस मोटी बात को मानने के लिए लोग तैयार नहीं होते, असंयम नहीं छोड़ते मात्र दवादारु के जादुई प्रयोगों से स्वस्थ रहने की अपेक्षा करते हैं। राजमार्ग को छोड़कर सस्ते में बड़े लाभ पाने के इच्छुक पगडंडियों में भटकते तो रहते हैं पर पाते कुछ नहीं।

चिन्तन का सही तरीका मालूम न होने से लोग जीवन समस्याओं पर उथले, ओछे और गलत ढंग से विचार करते हैं फलतः कठिनाइयों के समाधान तो मिलते नहीं उलटे चिन्तन की विकृति से ऐसी गतिविधियाँ बन पड़ती हैं जो विपत्ति को और अधिक बढ़ा देती हैं। चिन्ता, निराशा, उद्वेग, आवेश, भय, आशंका, सनक जैसे विकृत चिन्तन एवं काम−क्रोध, लोभ−मोह, मद−मत्सर जैसे दुर्गुण मिल कर किसी का भी मस्तिष्क अर्द्धविक्षिप्त जैसा बना सकते हैं, ऐसे व्यक्तियों का सोचना और करना प्रायः अनुपयुक्त ही होता है। फलतः उनके व्यवहार एवं प्रयासों की उलटी प्रतिक्रिया होती है। और झल्लाहट से ग्रसित व्यक्ति प्रायः इसी प्रकार के बड़बड़ाये मानसिक स्तर के होते हैं।

अच्छी मोटर भी अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में जाकर दुर्घटना ग्रसित हो जाती है और उसमें बैठी सवारी को यात्रा को जल्दी और सुविधापूर्वक पूरी करने के स्थान पर उलटे चोट लगने का संकट सहना पड़ता है। शारीरिक मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक स्तर पर आये दिन जो संकट सामने खड़े रहते हैं, उनमें से संयोगवश तो कुछ अपवाद स्वरूप ही आते हैं अधिकाँश ऐसे होते हैं, जिन्हें दुर्बुद्धिजन्य ही पाया जायगा। यदि पारस्परिक सद्व्यवहार निर्वाह के सूत्र अभ्यास में रह सके होते तो प्रत्येक गृहस्थ में पारस्परिक स्नेह सद्भाव का स्वर्गीय वातावरण बना हुआ होता और सब लोग स्वल्प साधनों में भी प्रचुर आनन्द, उल्लास का लाभ ले रहे होते। यदि दोनों पक्ष सज्जन हो तब तो कहना ही क्या, पर यदि एक समझदार हों तो दूसरे नासमझ को निभा सकता है पारिवारिक स्नेह सौजन्य के निर्वाह में प्रायः शालीन सज्जनता का अभाव ही कलह बन कर खड़ा रहता है और उस आग में घर के हर सदस्य को जलना पड़ता है गरीबी या दूसरे कारण उतने विक्षोभकारी नहीं होते जितना कि उच्चस्तरीय दृष्टिकोण एवं व्यक्तित्व का अभाव।

सन्तानों के सम्बन्ध में आमतौर से लोगों को यही शिकायत रहती है कि उनके बालक कुसंस्कारी सिद्ध हो रहे हैं, उनके कारण समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं। आयु वृद्धि के साथ बच्चे घर वालों की सहायता करने के स्थान पर उलटे संकट खड़े करते हैं। इसमें अन्य कारण कम और घरेलू वातावरण में भ्रष्ट परम्पराओं का घुसे होना मुख्य होता है। बच्चे उपदेश नहीं सुनते अनुकरण करते हैं, उनमें वातावरण के भीतर काम कर रही विचारणाओं और भावनाओं को पकड़ने की अद्भुत क्षमता होती है परिवार के लिए कितने ही सुविधा साधन एकत्रित कर दिये जाएं पर यदि कुसंस्कारी वातावरण भरा पड़ा है तो दुष्टता ही पनपेगी और उससे अन्ततः कौटुम्बिक विनाश के दृश्य ही सामने जाएंगे।

यही बात अर्थ सन्तुलन के सम्बन्ध में है। आलसी एवं अयोग्य व्यक्ति थोड़ा सा ही कमा पाते हैं जो कमाते हैं उसे भी अनुपयुक्त ढंग से खर्च करते हैं, फलतः दरिद्रता सदा ही घेरे रहती है। अधिक उपार्जन करने वाले भी दुर्बुद्धिग्रस्त होने के कारण प्राप्त धन का अपव्यय एवं दुरुपयोग करते हैं और सम्पत्ति का सुख पाने की अपेक्षा उलटे उससे विपत्ति खरीदते हैं।

कुशलता, कला, प्रतिभा, उच्च पद आदि पाने पर भी दुष्प्रवृत्ति ग्रस्त व्यक्ति उन विभूतियों का समुचित लाभ नहीं ले सकता वरन् अपना और दूसरों का विनाश ही अधिक करता है। स्पष्ट है कि आन्तरिक स्थिति गई−गुजरी हो तो साधन सुविधाओं की प्रचुरता भी सुख−शान्ति नहीं दे सकती, इसके विपरीत सद्गुणी व्यक्ति स्वल्प साधन होने पर भी उनके सदुपयोग से प्रगति का पथ-प्रशस्त करते चलते हैं।

शारीरिक असमर्थता के कारण व्यक्ति उतने दुःखी नहीं रहते जितने कि आन्तरिक दुर्बलताओं से ग्रस्त होने पर। कितने ही दुर्बल, रुग्ण एवं अपंग व्यक्ति आन्तरिक प्रखरता के कारण उतना कार्य कर सके जितना सशक्त शरीर वालों के लिए भी सम्भव नहीं। वस्तुतः अन्धे हैं; जिन्हें अज्ञान अविवेक ने घेर रखा है। अहंकारी और दीर्घसूत्री ही बहरे हैं जो अन्तःकरण की पुकार और इतिहास के निष्कर्षों पर कान नहीं धरते। गूँगे वे हैं जो कुण्ठा ग्रस्त हैं जो आन्तरिक अभिव्यक्तियों को व्यक्त नहीं कर सकते। दूसरों के सहारे जीने वाले परावलम्बी व्यक्ति मृतक कहे जा सकते हैं। जीवित तो अपने पैरों खड़े होते−अपने सहारे चलते हैं तथा दूसरों का बोझ भी अपने कन्धों पर उठा कर चलते हैं, जो अपने बोझ को आप न उठा सकें दूसरों का सहारा तकें उन्हें तात्विक दृष्टि से मृतक समझा जा सकता है। शरीरों का अन्तर कोई अन्तर नहीं−साधनों के न्यूनाधिक होने से भी कुछ बनता बिगड़ता नहीं। वास्तविक अन्तर तो मनःस्थिति का है। तुच्छता और महानता उसी पर अवलंबित रहती है।

कस्तूरी का हिरन सुगन्ध की तलाश में चारों ओर दौड़ता है, पर समाधान तभी होता है जब उसका केन्द्र अपनी ही नाभि में होने की बात समझ में आ जाती है। संसार में सौन्दर्य और देखने योग्य बहुत कुछ है, पर अपनी आँख की पुतली सही होने पर ही यह सारे दृश्य देखे जा सकते हैं। संसार में प्रेरक और आकर्षक शब्दों की कमी नहीं पर वे सुने तभी जा सकते हैं जब अपने कानों की झिल्ली सही हो। अपना मस्तिष्क खराब हो जाय तो फिर संसार में सब कुछ बेतुका और अटपटा ही लगेगा। यह तथ्य बताते हैं कि बाहर बहुत कुछ होते हुए भी उसका लाभ उसी को मिल सकता है, जिसकी अपनी गृहण शक्ति ठीक हो।

संसार में कौन व्यक्ति या पदार्थ प्रिय हैं, इसका कोई निर्णय नहीं हो सकता। अपनी आत्मीयता एवं रुचि जिस पर भी आरोपित हो जायगी वही प्रिय लगने लगेगा। टार्च की रोशनी जिस पर भी फेंकी जाती है वही चमकने लगती है। अपनापन जिस पर भी आरोपित कर दिया जाय वही प्रिय लगने लगेगा। इसे समेट लेने पर वही सब कुछ उपेक्षणीय लगने लगेगा।

घास खाकर गाय दूध बनाती है−घोड़ा लीद बनाता है−सुअर चर्बी उत्पन्न करता है। एक ही वस्तु कई तरह के परिणाम उत्पन्न करती है, यह उन प्राणियों की पाचन तन्त्र की स्थिति में भिन्नता के कारण ही होता है। बीमारियों के बारे में सोचा जाता है कि वे बाहर से आती हैं, पर वास्तविकता यह है कि वे भीतरी सड़न एवं गतिरोध के कारण ही पैदा होती और पनपती हैं। जीवनी शक्ति से भरे पूरे लोग छूत वाले विषाणुओं के सम्पर्क में रहते हुए भी निरोग बने रहते हैं।

परमात्मा अपनी विशाल दुनिया का मालिक है, पर आत्मा को भी अपने सत्ता क्षेत्र में पूर्ण आधिपत्य प्राप्त है मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है अपनी दुर्बुद्धि से उसे बिगाड़ सकता है और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाकर बना भी सकता है। अपने कमरे में सूर्य की धूप एवं पवन देव अपनी मर्जी के बिना प्रवेश नहीं कर सकते। यदि दरवाजे खिड़कियाँ बन्द कर दिये जाएं तो प्रचण्ड धूप एवं तेज हवा का प्रवेश भी भीतर न हो सकेगा। केवल वही स्टेशन अपने रेडियो पर सुना जाता है जिस पर हम सुई लगाते हैं। अन्य स्टेशनों के ब्रॉडकास्ट हमारे कानों तक नहीं आ सकते भले ही वे कितने ही जोरदार प्रसारण चला रहे हों।

इतिहास के पृष्ठ ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि आन्तरिक प्रखरता के बस पर लोगों ने अभावग्रस्त एवं विपरीत परिस्थितियों को चीरते हुए प्रगति के पथ−प्रशस्त किये हैं और अनेकानेक अवरोधों को चीरते हुए उन्नति के उच्च तक पहुँचे हैं। इसके विपरीत हर प्रकार की सुविधाएँ होते हुए भी ऊपर उठने की बात तो दूर उलटे नीचे ही गिरते चले गये हैं।

एक साधक अपनी श्रद्धा के बल पर धातु और पत्थर से बनी प्रतिमाओं से चमत्कारी प्रतिक्रिया उत्पन्न कर लेता है, दूसरा अपनी अनास्था के कारण जीवन्त देव मानवों के अति समीप रहने पर भी कोई लाभ नहीं ले पाता। एकलव्य ने मिट्टी से बनी द्रोणाचार्य प्रतिमा से वह अनुदान प्राप्त कर लिया था जो पाण्डव सचमुच के द्रोणाचार्य से भी प्राप्त नहीं कर सके थे। मीरा के ‘गिरधर गुपाल’ और रामकृष्ण परमहंस की ‘काली’ में जो चमत्कारी शक्ति थी वह उनके श्रद्धारोपण से ही उत्पन्न हुई थी और उन्हीं के लिए फलप्रद सिद्ध होती रही। उन्हीं प्रतिमाओं से अन्य वैसा लाभ नहीं उठा सकते। यन्त्र−तन्त्रों की सिद्धि में विधि विधानों की इतनी भूमिका नहीं होती जितनी साधक के श्रद्धा विश्वास की। भूत−प्रेतों से लेकर देवी−देवताओं तक के जो परिचय सामने आते हैं उनमें व्यक्ति के अपने विश्वास ही फलित हुए पाये जाते हैं। अमुक चिकित्सा से लाभ होना अथवा अमुक चिकित्सक का सफल होना बहुत करके रोगी के विश्वास पर निर्भर रहता है।

विपुल वर्षा होने पर भी पत्थर की चट्टानें एक बूँद पानी भी नहीं सोख पातीं। इसके विपरीत रेगिस्तानी गर्मी में हरे रहने वाले पेड़−पौधे कहीं से भी अपने निर्वाह के लिए आवश्यक नमी उसी उष्ण वातावरण में से उपलब्ध करते रहते हैं। स्वाति की वर्षा से केवल वे ही सीपें लाभ उठा पाती हैं जिनके मुँह खुले होते हैं। सरकारी छात्रवृत्ति उन्हीं को मिलती है जो परिश्रमपूर्वक पढ़ते और अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होते हैं। बाहरी सहायता उपलब्ध होना न होना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि व्यक्ति की निजी पात्रता एवं प्रखरता का होना।

आत्मबोध का तात्पर्य है अपने में सन्निहित शक्ति एवं सम्भावना से परिचित होना। आत्मिक प्रगति का अर्थ है आन्तरिक दोष दुर्गुणों को निरस्त करके सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को समुन्नत बनाने के उपक्रम में निरन्तर निरत रहना। इन सत्प्रयत्नों से मानवी और दैवी दोनों प्रकार की सहायताएँ अनायास ही उपलब्ध होती रहती हैं।

ब्रह्म−विद्या का सबसे महत्वपूर्ण निर्देश यह है कि अपने आपको जानो, अपने को समझो और अपने को सुधारो। ‘आत्मा वारे श्रोतव्य, ज्ञातव्य, निदिध्मसितव्य’ की उक्ति में यही उद्बोधन भरा पड़ा है। गीता कहती है− ‘‘अपना उद्धार आप करो’’ अपने आपको गिराओ मत। ‘उद्धरेत् आत्मनात्मनं−नात्मानं अवसादयेत्’ की सूक्ति में यही ब्रह्म वाक्य गूँजता है। मित्रों को ढूँढ़ने और शत्रुओं को भगाने के लिए अन्यत्र कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है वे अपने ही भीतर डेरा डाले बैठे हैं− ‘‘आत्मैव आत्मन बन्धु आत्मैव रिपुरात्मन’’ का गीता कथन अक्षरशः सत्य है। अपने पौरुष पुरुषार्थ से अपनी विवेकशीलता और दूरदर्शिता से ही प्रगति के द्वार खुलते हैं। अपनी ही अकर्मण्यता, अदूरदर्शिता और अनास्था ही हमें ले डूबती है अपने उत्थान परिष्कार की तथा पतन पराभव की कुंजियां अपने ही हाथों में हैं, दोनों में से चाहे जिसका द्वार स्वेच्छापूर्वक खोला जा सकता है। यह तथ्य समझ में आ सके तो प्रतीत होगा कि अपना आपा ही कल्प−वृक्ष है जिसकी जिस कामना से उपासना की जाय, उसी के अनुरूप वरदान मिलते चले जायेंगे। अन्य किसी देवता की उपासना भले ही निष्फल चली जाय, पर जीवन देवता की आत्म−निर्माण साधना निश्चित रूप से अभीष्ट सिद्धि देकर ही रहती है।

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