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Magazine - Year 1976 - Version 2

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आत्म ज्ञान सबसे बड़ी उपलब्धि

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व्यक्ति स्वयं क्या है? जीवन का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है? जीवन के साथ जुड़ी हुई विभूतियों का सही उपयोग क्या है? इन प्रश्नों को उपेक्षा के गर्त में डाल देने से एक प्रकार की आत्म−विस्मृति छाई रहती है। अन्तःकरण मूर्च्छित स्थिति में जा पहुँचता है और जीवन नीति का गम्भीर निर्धारण हो नहीं पाता। इन्द्रियों की उत्तेजना ही प्रेरणा बनकर रह जाती है। प्रचलित ढर्रे का अनुकरण ही स्वभाव बन जाता है। अहंता की तृप्ति के इर्द−गिर्द ही तथाकथित प्रगति कामना चक्कर काटती रहती है। अन्य कीट−पतंगों की तरह नर−पशु भी पेट और प्रजनन के लिए किसी प्रकार जीवित रहता है मौत के दिन पूरे करता है। कटी पतंग और पेड़ से टूटे पत्ते हवा के झोंके के साथ दिशाविहीन स्थिति में जिधर−तिधर उड़ते और छितराते रहते हैं। हमारे जीवन भी इसी प्रकार जीने के लिए जीते रहते हैं। कोई उच्च उद्देश्य सामने न रहने और उस दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रयास न वन पड़ने पर जीवन का आनन्द मिल नहीं पाता। ऐसे ही रोते−कलपते, हारी−थकी जिन्दगी कट जाती है। बहुत बार तो अधिक सुख की आतुरता में नीति, मर्यादा, औचित्य और विवेक को भी उठाकर ताक में रख दिया जाता है और ऐसा मार्ग पकड़ा जाता है, जिसमें न केवल अपना वरन् सम्बद्ध व्यक्तियों और पूरे समाज का भी अहित होता है।

बाह्य−ज्ञान की तरह अन्तःज्ञान भी आवश्यक है। सुख−साधनों की अभिवृद्धि की तरह उपभोक्ता की विवेक दृष्टि का प्रखर होना भी आवश्यक है, अन्यथा सुख−साधनों का दुरुपयोग ही बन पड़ेगा और उससे विपन्नताएँ एवं समस्याएँ ही उत्पन्न होंगी। आत्म−ज्ञान की आवश्यकता भौतिक ज्ञान से भी अधिक है। अच्छी मोटर खरीदने के साथ−साथ अच्छे मोटर ड्राइवर की भी व्यवस्था करनी चाहिए अन्यथा पैदल चलने से भी अधिक कठिनाई अनाड़ी द्वारा चलाई जा रही मोटर में बैठने से उत्पन्न हो सकती है।

आत्म−ज्ञान की आवश्यकता यदि अनुभव की जा सके तो सबसे पहले यह विचार करना होगा कि हम हैं क्या ? और आखिर क्यों जी रहे हैं? इस तथ्य पर आत्मवेत्ता महामनीषियों ने अपने गम्भीर चिन्तन से जो निष्कर्ष निकाले हैं वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। उन्हें भारत को अपनाया था और उस आधार पर सर्वतोमुखी उत्कर्ष का लाभ उठाया था।

अणु क्या है? सुविस्तृत पदार्थ वैभव का एक छोटा सा घटक। आत्मा क्या है? परमात्मा सत्ता का एक छोटा−सा अंश। अणु की अपनी स्वतन्त्र सत्ता लगती भर है, पर जिस ऊर्जा आवेश के कारण उसका अस्तित्व बना है तथा क्रिया−कलाप चल रहा है, वह व्यापक ऊर्जा तत्व से भिन्न नहीं है। एक ही सूर्य की अनन्त किरणें दिग्−दिगन्त में फैली रहती हैं। एक ही समुद्र में अनेकानेक लहरें उठती रहती हैं। देखने में यह किरणें और लहरें स्वतन्त्र और एक दूसरे से भिन्न हैं। तो भी थोड़ी गम्भीर दृष्टि का उपयोग करने पर यह जाना जा सकता है कि यह भिन्नता कृत्रिम और एकता वास्तविक है। अलग−अलग बर्तनों के बीच रहने वाले आकाश में अपनी सीमा में बँधे होने के कारण अलग−अलग लगते हैं तो भी उनका अस्तित्व निखिल आकाशीय सत्ता से भिन्न नहीं है। पानी में अनेकों बुलबुले उठते और विलीन होते रहते हैं। बहती धारा में भँवर पड़ते हैं, दीखने में बुलबुले और भँवर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट कर रहे होते हैं, पर यथार्थ में वे प्रवाहमान जलधारा की सामयिक हलचल मात्र हैं। जीवात्मा की सत्ता स्वतंत्र दीखती भर है, पर न केवल वह उसका अस्तित्व एवं स्वरूप भी व्यापक चेतना का एक अंश मात्र है

अध्यात्मवाद के इस एकता सिद्धान्त से यह निष्कर्ष निकलता है कि हम विश्व चेतना के एक अंश मात्र हैं। समष्टि ही आधारभूत सत्ता है, हम उसकी छोटी चिनगारी भर हैं। एकता को शाश्वत समझा जाय पृथकता को कृत्रिम। सब में अपने को और अपने को सब में समाया हुआ, देखा, समझा और माना जाय। सबके हित में अपना हित सोचा जाय। सबके दुःख में अपना दुःख माना जाय− सबके सुख में अपना सुख। सबका उत्थान अपना उत्थान, सबका पतन अपना पतन। यह मानकर चलने से सीमित परिधि में खुशी होने की क्षुद्रता घटती है और व्यापक क्षेत्र में सुख सम्वर्धन की योजना सामने आती है।

सीमा संकीर्णता को अवास्तविक मानने से व्यक्तिवाद पर अवलम्बित स्वार्थपरता घटती चली जाती है। अपने को बड़ी मशीन का एक छोटा पुर्जा भर समझने से यह बात ध्यान में रहती है कि उसकी निजी उपयोगिता भी पूरी मशीन का अंग बनकर रहने में ही है। अलग निकलकर अलग से−अलग बड़प्पन और सुखोपभोग की बात सोची जायगी तो यह पृथकता अपनाकर कुछ लाभ नहीं उठाया जा सकेगा। हानि ही होगी। घड़ी से अलग निकल कर एक पुर्जा बाजार में बिकने चला जाय तो उसे कोई दो कौड़ी का न पूछेगा और मिलने पर उपेक्षापूर्वक इधर−उधर पटक देगा, पर यदि वह पूरी घड़ी के साथ हो तो घड़ी को मिलने वाले सम्मान में वह भी समान रूप से भागीदार बना रहेगा। पृथकतावादी स्वार्थपरता पर अंकुश लगाने और समूहवादी गतिविधियाँ अपनाने में यह एकता का दर्शन बहुत काम करता है।

अपनापन ही प्यारा लगता है। यह आत्मीयता जिस पदार्थ अथवा प्राणी के साथ जुड़ जाती है, वही आत्मीय परमप्रिय लगने लगता है। अपनेपन का दायरा छोटा हो तो मात्र शरीर की−बहुत हुआ तो परिवार की सुख सुविधा सोची जाती रहेगी। वह थोड़ा −सा क्षेत्र ही अपना प्रतीत होगा और उतने तक ही प्रिय लगने की परिधि सीमित बनकर रह जायगी। यह क्षेत्र जितना अधिक बढ़ेगा, उतनी ही प्रियता की परिधि विस्तृत होती चली जायगी। सभी अपने लगेंगे तो अपना परिवार अत्यन्त सुविस्तृत बन जायगा। प्रिय पात्रों की मात्रा जितनी ही बढ़ती है उतना ही सुख सन्तोष मिलता है यदि व्यापक क्षेत्र में आत्मीयता विस्तृत करली जाय तो अपनेपन का प्रकाश बढ़ता जायगा और उस सारे क्षेत्र का वैभव परमप्रिय लगने लगेगा। उन्नति में−वृद्धि और विस्तार में हर किसी को गर्व गौरव अनुभव होता है। बड़े उत्तरदायित्व समझना ही बड़प्पन का चिन्ह है, यह अनुभूतियाँ उन्हें सहज ही मिल सकती हैं जो सीमा बन्धनों की तुच्छता को निरस्त करके समष्टि के साथ जुड़े हुए कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए कटिबद्ध होता है।

एकता का दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि अंशी के सारे गुण सूक्ष्म रूप से अंश में विद्यमान रहते हैं अस्तु, परमात्मा की समस्त विशेषताएँ तथा सम्भावनाएँ आत्मा में विद्यमान और उन्हें विकसित करने के साधन जुटाकर उच्चतम स्तर का पहुँचाया जा सकता है। चिनगारी में वे सभी सम्भावनाएँ मौजूद रहती हैं जो दावानल में पाई जाती हैं। विशाल वृक्ष का सारा ढाँचा बीज के भीतर मौजूद है। प्राणी की आकृति और प्रकृति का अधिकाँश स्वरूप उस नन्हें से शुक्राणु में पूरी तरह मौजूद रहता है जो आँखों से दिखाई तक नहीं पड़ता। ब्रह्माण्ड के वह−नक्षत्र जिस नीति−रीति पर अपना क्रियाकलाप चला रहे हैं उसी का अनुकरण सौर−मण्डल करता है और उसी लकीर पर अणु−परमाणुओं के परिभ्रमण प्रयास चलते हैं। छोटे से परमाणु के भीतर एक पूरे सौर मण्डल का नक्शा देखा जा सकता है। एटम के भीतर काम कर रहे−इलेक्ट्रॉन, प्रोटान, न्यूट्रोन आदि की भ्रमण गतियाँ तथा कक्षाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी कि सौर मण्डल के ग्रह−उपग्रहों की।

इस तथ्य को समझ लेने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव की मूलसत्ता−गुणों की दृष्टि से ईश्वर के समतुल्य ही है। इस सम्भावना को विकसित करना मनुष्य जीवन में ही सम्भव हो सकता है। अस्तु उच्च पद प्रदान करने में नियोजित की जाने वाली प्रतियोगिताओं की तरह ही अपना मनुष्य जीवन मिला हुआ है। परीक्षा में भाग लेने का अवसर जिन्हें मिला है वे अपनी प्रतिभा और पुरुषार्थ का परिचय देकर उत्तीर्ण होने का प्रमाण पत्र प्राप्त करते और प्रतियोगिता जीतकर उच्च पद प्राप्त करते हैं। ऐसा ही अवसर मनुष्य जीवन के रूप में भी मिला हुआ है। उसकी सार्थकता इसमें है कि अपने छोटे−से जीवात्मा स्तर को विकसित करके महात्मा−देवात्मा की कक्षाएँ पार करते हुए परम आत्मा−उत्कृष्टतम आत्मा बनने की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करे। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श की उदात्त रीति−नीति अपनाने वाले ही इस महान् जीवन−लक्ष्य को प्राप्त करते देखे जाते हैं।

मनुष्य जीवन भगवान का प्राणी को दिया गया सबसे बहुमूल्य उपहार है। इससे अधिक महत्वपूर्ण चेतन संरचना उसके भण्डार में और कोई नहीं है। इसे अनुपम और अद्भुत कह सकते हैं। बोलना, सोचना, शिक्षा, कला, आजीविका−उपार्जन, भोजन निश्चिन्तता, वस्त्र, निवास, चिकित्सा, वाहन, परिवार, समाज, शासन, कृषि, पशु पालन, वैज्ञानिक उपकरण एवं अनेकानेक सुख−साधनों की सुविधा सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को प्राप्त नहीं है। यहाँ वह प्रश्न उठता है कि सभी प्राणी ईश्वर के पुत्र हैं। एक समदर्शी पिता को अपनी सन्तानों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए और समान अनुदान देने चाहिए। फिर ऐसा क्यों हुआ कि मनुष्य को ही इतना अधिक दिया गया और अन्य प्राणी उससे वंचित रखे गये? यदि यह सब विभूतियाँ मात्र मौज मजा करने के लिए ही मनुष्य को मिली होतीं तो निश्चय ही इसे अन्याय और पक्षपात कहा जाता किन्तु परमात्मा न तो ऐसा है और न ऐसी नीति अपना सकता है जो उसके महान गौरव पर उँगली उठाने का अवसर देती हो। मनुष्य को अधिक विश्वस्त−अधिक प्रामाणिक और अधिक समझदार बड़ा पुत्र माना गया है और उसके हाथ में वे अतिरिक्त साधन सौंपे गये हैं, जिनके सहारे वह ईश्वर के इस सुरम्य उद्यान संसार को अधिक सुन्दर, अधिक सुविकसित, अधिक समुन्नत और अधिक सुसंस्कृत बना सके।

खजांची के पास ढेरों सरकारी रुपया रहता है, शस्त्र भाण्डागार का स्टोरकीपर सेना के हथियार और गोला−बारूद अपने ताले में रखता है, मिनिस्टरों को अनेकों सुविधा साधन एवं अधिकार मिले होते हैं। यह सब विशुद्ध रूप से अमानतें हैं। इन्हें निजी लाभ के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। खजांची, स्टोरकीपर, मिनिस्टर आदि यदि अपने अधिकार की वस्तुओं को निजी उपयोग में खर्च करने लगें तो यह उनका अपराध माना जायगा और दण्ड मिलेगा। ठीक इसी प्रकार मनुष्य को जो मिला है वह संसार को अधिक सुखी, समुन्नत बनाने के लिए मिली हुई धरोहर के रूप में है। उसमें से औसत नागरिक के स्तर का निर्वाह भर अपने उपयोग में लिया जा सकता है इसके अतिरिक्त समय, श्रम, ज्ञान एवं धन के, पद प्रभाव आदि के रूप में जो वैभव मिला है, उसका जितना अंश शेष रह जाता है उसे लोक−मंगल के लिए नियोजित किये रहना मनुष्य जीवन का दूसरा प्रयोजन है।

पूर्णता प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हुए अनुकरणीय, आदर्श एवं पवित्रतम देव जीवन जिया जाय और शारीरिक, मानसिक एवं भौतिक उपलब्धियों में से न्यूनतम अंश अपने लिए लेकर शेष का परमार्थ प्रयोजनों में उपभोग किया जाय यही है ईश्वर प्रदत्त सुर−दुर्लभ मानव जीवन के अलभ्य अवसर का श्रेष्ठतम उपयोग। राजघरानों में यह प्रथा थी कि बड़े बेटे को राजगद्दी पर बिठाया जाता था और वह युवराज ही समयानुसार पिता के सारे उत्तरदायित्वों को वहन करता था। छोटे भाई−बहिनों की सुव्यवस्था का भार उसी के कन्धे पर रहता था समझा जाना चाहिए कि राजाधिराज परमेश्वर का ज्येष्ठ पुत्र−युवराज−मनुष्य है उसे अन्य जीवधारियों की तुलना में जितना कुछ अधिक मिला है वह सब विशेष उद्देश्य लिए है। उसे विलासिता, संग्रह, अहंकार के उद्धत प्रदर्शन एवं औलाद के लिए मुफ्त का धन छोड़ जाने जैसे हेय प्रयोजनों में खर्च नहीं किया जाना चाहिए। अमानत को- धरोहर को उसी प्रयोजन में लगाया जाना चाहिए जिसलिए वह मिली है।

शरीर और मन जीवन रूपी रथ के दो पहिये- दो घोड़े हैं। इन्हें काम करने के दो हाथ−आगे बढ़ने के दो पैरों से उपमा दी जा सकती है। अन्तःकरण की आस्था एवं आकाँक्षा के अनुरूप यह दोनों ही स्वामिभक्त सेवक से कार्य करने के लिए तत्पर रहते हैं। शरीर की स्वतन्त्र कोई सत्ता या इच्छा नहीं। वह जड़ है। इन्द्रियां भी जड़ पंचतत्वों से बनी हैं। अन्तःकरण में जैसी उमंगे उठती हैं, उसी दिशा में शरीर की क्रियाशीलता चल पड़ती है। इसी प्रकार मन भी अपनी मर्जी से कुछ नहीं करता। उसमें सोचने का गुण तो है, पर क्या सोचना चाहिए? वह निर्धारण करना अन्तःकरण का काम है। सज्जनों का चिन्तन एवं कर्त्तृत्व एक तरह का होता है और दुर्जनों का दूसरी तरह का। इसमें दोनों के शरीर और मन सर्वथा निर्दोष होते हैं। अन्तः प्रेरणा का निर्देश बजाते रहना भर उनका काम है। इसलिए शरीर को दुष्कर्म करने या मन को दुर्बुद्धिग्रस्त होने का जो दोष दिया जाता है वह अवास्तविक है। इन दोनों वाहनों को प्रेरणा एवं दिशा देने का काम अन्तःकरण रूपी सारथी का है।

शरीर में क्रिया, मन में विचारणा और अन्तरात्मा में भावना काम करती है। भावनाओं को ही श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, मान्यता आदि के नाम से जाना जाता है। इन्हीं सबके समन्वय से आकाँक्षा उभरती है और फिर उसी की निर्देशित दिशा में शरीर और मन के सेवक काम करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं।

आत्म−ज्ञान का अर्थ है अन्तरात्मा के गहन स्तर में वह अनुभूति एवं आस्था उत्पन्न करता रहे कि हम सत्, चित्त, आनन्द परमात्मा सत्ता के अविच्छिन्न अंग हैं। हमें पूर्णता प्राप्ति के लिए श्रेष्ठतम जीवन−क्रम अपनाना है और जो उपलब्ध है उसे लोकहित के लिए प्रयुक्त करना है। आत्म−ज्ञान की भूमिका में जगा हुआ जीवात्मा संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि को लाँघकर सब में अपने को और अपने में सबको देखता है, इसलिए उसके सामने व्यक्तिवादी, आपाधापी फटकने भी नहीं पाती, जो सोचता और करता है उसमें व्यापक लोकहित की−सदुद्देश्यों को कार्यान्वित करने की−भावना काम करती है। कहना न होगा कि आत्मबोध से लाभान्वित आत्माओं को प्रत्येक विचारणा और प्रत्येक क्रिया−पद्धति में मात्र आदर्शवादिता ही उभरती, छलकती दिखाई पड़ती है। ऐसे लोग अभावग्रस्त और संकटग्रस्त हो सकते हैं, पर अन्तःकरण में उन्हें असीम आनन्द और सन्तोष की अनुभूति हर घड़ी होती रहती है।

भगवान बुद्ध को जिस दिन आत्म−ज्ञान हुआ, उसी दिन से दिव्य मानव बन गये। जिस वट−वृक्ष के नीचे उन्हें आत्मबोध हुआ था उसकी टहनियाँ काट−काटकर उनके अनुयायी अपने−अपने क्षेत्रों में ले गये और वहाँ उसकी मूर्तिमान देवता के रूप में स्थापना की। इसका तात्पर्य है बुद्ध को सामान्य राजकुमार से भगवान बना देने का श्रेय उस आन्तरिक जागरण को ही दिया गया, जिसे आत्मबोध के रूप में पुकारते हैं। यह उपलब्धि जिसे भी मिल सकेगी वह उसी मार्ग पर चलने वाला और वैसा ही सत्परिणाम प्राप्त करने का अधिकारी माना जायगा।

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