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Magazine - Year 1976 - Version 2

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सादगी आत्मिक प्रगति का प्रमुख आधार

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जीवन−साधना का एक अति महत्वपूर्ण अंग है−सादगी। ‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ की उक्ति सोलह आने सत्य है। उच्च विचारों को जीवन−क्रम में स्थान मिल सके इसके लिए सादगी की नीति अपनाया जाना नितान्त आवश्यक है।

शेखीखोर, आडम्बरी, अपव्ययी, ठाट−बाट पसन्द व्यक्ति अपनी आवश्यकताएँ अत्यधिक बढ़ा लेते हैं। उन्हें पूरा करने के लिए ढेरों समय, ढेरों मनोयोग और ढेरों पैसा खर्च करना पड़ता है। कई बार तो यह भार अपनी स्थिति से बाहर हो जाता है, तब उसे पूरा करने के लिए अवाँछनीय अथवा अनैतिक कार्य करने पड़ते हैं। ठाट−बाट की जिन्दगी कितनी बोझिल होती है यह किसी से छिपा नहीं है। इस घोर महँगाई के जमाने में सीमित आय वाले अपना गुजारा ही ईमानदारी की कमाई से कर सकते हैं। विलासिता के साधन कितने महँगे होते हैं उसे कौन नहीं जानता? अमीरी की पहचान ही यह है कि जितने अधिक महंगे उपकरण सम्भव हों उन्हें उपयोग में लाया जाय। अधिक खर्चीले मनुष्य को ही अमीर माना जाता है और इन दिनों लोग अमीरी के प्रदर्शन में ही शान−शौकत, इज्जत समझते हैं। जैसे भी बन पड़े बिना नीति−अनीति का विचार किये−अधिक पैसा बटोरने में संलग्न रहते हैं ताकि ठाट−बाट बनाने और अमीरों जैसे खर्च कर सकने के साधन प्राप्त कर सकें।

कहना न होगा कि यह नीति शरीर, मन और धन की शक्ति को अधिकाधिक निचोड़ते रहने पर ही कार्यान्वित हो सकती है। बहुत करके तो उतना ईमानदारी से बन भी नहीं पड़ता, अस्तु प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बेईमानी का ही आश्रय लेना पड़ता है। फिर तृष्णा का कोई ठिकाना नहीं, अमीरी उपयोग की कोई सीमा नहीं, भौतिक महत्वाकाँक्षाओं का कहीं अन्त नहीं। जितना अधिक मिलता जाता है, उतनी ही हविश बढ़ती जाती है और बढ़ते−बढ़ते वह जलन का रूप धारण कर लेती है। उसमें झुलसते रहने वाला व्यक्ति हर समय अशान्त, उद्विग्न बना रहता है। इस स्थिति में उच्च आदर्शवादी चिन्तन कर सकना, योजना बनाना तथा कार्यान्वित कर सकना एक प्रकार से असम्भव ही हो जाता है।

अध्यात्म का एक अंग पूजा−पाठ भी है, पर उसे उतनी छोटी परिधि में सीमित नहीं किया जा सकता। वस्तुतः वह एक जीवन दर्शन है। उसके साथ अमीरी, विलासिता, महत्वाकाँक्षा प्राप्त करने जितना ही श्रम, समय एवं मनोयोग लगाना पड़ता है। यह तभी सम्भव है जब भौतिक आकर्षणों से उन्हें बचाया जा सके। अस्तु अध्यात्म जीवन में प्रवेश करने की एक अनिवार्य नीति सदा से यही चलती रही है कि उच्च विचारों के अध्यात्म मार्ग पर चलने वाला सर्वप्रथम यह निश्चय करे कि उसे सादगी की नीति अपनानी है और गुजारे भर के सादा जीवन में सन्तुष्ट रहना है। इसका अर्थ यह नहीं कि उसे पुरुषार्थ का परित्याग करके अकर्मण्य बनना होता है−अथवा दरिद्रता में सन्तोष करना पड़ता है। सच तो यह है कि अध्यात्मवादी को भौतिकवादियों से भी कहीं अधिक सजगता, सक्रियता एवं तत्परता बरतनी पड़ती है। उसका पुरुषार्थ और भी प्रचण्ड होता है। किन्तु यह सम्भव तभी होता है जब भौतिक महत्वाकाँक्षाओं से−अमीरी, ठाट−बाट और तृष्णा उद्विग्नता के जाल−जंजाल इतने बढ़े−चढ़े होते हैं कि उनकी पूर्ति में अपनी सारी शक्ति झोंक देने पर भी काम नहीं चलता। अनीति पर पूरी तरह उतारू हो जाने पर भी जो मिलता है वह भी उसी मिट्टी में जल जाता है, फिर भी कमी ही अनुभव होती है। इस विपन्न स्थिति में पड़े हुए अध्यात्म का जीवन−दर्शन अपनाने एवं तदनुरूप आचरण करने में सफल नहीं हो सकते।

हमें एक को प्रमुख और एक को गौण मानकर चलना होगा। यदि विलासिता, तृष्णा और अहंता की ही येन−केन प्रकारेण पूर्ति करनी है तो उसमें अध्यात्म का विडंबनापूर्ण राई−रत्ती स्थान इतना भर हो सकता है कि मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए जादू−मन्तर की तरह पूजा−पाठ करके देवी−देवताओं से मनोवाँछाएँ पूरी करने की मनौती मनाते रहा जाय। अभीष्ट मनोरथ पूरे न होने पर ऐसे ही लोभ पूजा−पाठ और भगवान के प्रति घोर अश्रद्धा व्यक्त करते भी देखे जाते हैं। सन्तों और सिद्ध पुरुषों के इर्द−गिर्द भी वे मनोकामना पूर्ति का वरदान पाने की दृष्टि से ही चक्कर कटाते और उन्हें प्रसाद पुष्प जैसे सस्ते उपहार देकर अपनी काम बना लेने की तरकीबें ढूँढ़ते रहते हैं। वस्तुतः उनकी पूजा−पत्री जैसी विडम्बनाएँ भी भौतिक उद्योगों की पूर्ति के लिए होती हैं। वास्तविक अध्यात्म का तो स्पर्श तक करने का साहस नहीं करते।

इसके विपरीत अध्यात्म−जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को यह सोचना पड़ता है कि उसे आत्मिक प्रगति एवं जीवन−लक्ष्य की पूर्ति के लिए अधिक सोचना एवं अधिक करना पड़ेगा। शक्तियाँ सीमित हैं। उन्हें एक दिशा में लगाया जायगा तो दूसरी दिशा में स्वभावतः कमी पड़ेगी। तराजू का एक पलड़ा भारी होगा तो दूसरा ऊपर उठ जायगा। महत्वाकाँक्षाएँ जिस भी दिशा में बहेंगी उससे विपरीत दिशा में स्वभावतः न्यूनता पड़ेगी। अध्यात्म जीवन धारा में बहने वालों के लिए सम्भव नहीं कि वे अमीरी ठाट−बाट का उपयोग कर सकें। एक तो लक्ष्य संलग्नता के कारण उन्हें इतना अवकाश ही नहीं मिलता कि ठाट−बाट के महंगे साधन जुटाये जा सकें और भविष्य की रावण, हिरण्यकश्यप जैसी महत्वाकाँक्षी योजनाएँ पूरी की जा सकें। दूसरे आध्यात्मिक व्यक्तियों के सामने एक बात यह भी आती रहती है कि वे अपने आस−पास बिखरे पड़े, पीड़ा और पतन के करुणा भरे दृश्य देखकर पिघल पड़ते हैं और अपने पास जो कुछ है उसे दयार्द्र होकर दुखियारों के दुःख दूर करने में लगा देने के बिना चैन ही नहीं पड़ता। दूसरों का दुःख बँटा लेने और अपना सुख बाँट देने की कसौटियाँ ही तो अध्यात्म जीवन की वास्तविकता को खरा−खोटा सिद्ध करती हैं ऐसी दशा में वे जो पाते हैं उसमें से निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकता भर के लिए अपने पास रखकर शेष सब कुछ परमार्थ−प्रयोजन में लगा देते हैं। इसके लिए उन्हें अपने साथ सख्ती बरत कर अपनी आवश्यकताओं में कटौती करके ही कुछ बचाना पड़ता है तभी तो ये पुण्य−प्रयोजनों का अपना कुछ श्रद्धा, अनुदान प्रस्तुत कर पाते हैं। स्वयं खर्चीली जिन्दगी जीने वालों के लिए परमार्थ में कुछ भी कर सकना सम्भव नहीं होता। वे मात्र कल्पना लोक के परमार्थ क्षेत्र में विचरण करने पर सन्तोष कर लेते हैं। कथा, भागवत पढ़ लेने या दूसरी कल्पना−उड़ानों से तीर्थयात्रा, पूजा−पत्री जैसे छुट−पुट क्रियाकृत्य ही उन्हें पर्याप्त लगते हैं और उतने भर से ही ईश्वरीय अनुग्रह बरस पड़ने की आशा लगाये बैठे रहते हैं। जबकि अध्यात्म वस्तुतः जीवन दर्शन और गतिविधियों के निर्धारण का एक विशिष्ट तरीका भर है।

अमीरी का ठाट−बाट भरा जीवन जीने और भविष्य में सम्पदा, विलासिता एवं महानता के लम्बे−चौड़े सपने पूरे करने में संलग्न व्यक्ति−अध्यात्म का आदर्शवादी चिन्तन एवं परमार्थ परायण जीवन−क्रम अपना नहीं सकता। दोनों में सन्तुलन करना हो तो इतना ही बन सकता है कि गरीब स्तर का आवश्यक निर्वाह प्राप्त करने की भौतिक आवश्यकता सीमित की जाय। कम समय, कम श्रम, कम मनोयोग और कम पैसों में सन्तोषपूर्वक गुजारा किया जाय और इसके बाद जो कुछ बचता है उसे आदर्शवादी रीति नीति अपनाने में प्रयुक्त करते रहा जाय ‘‘सादा जीवन−उच्च विचार’’ की ही रीति−नीति है। इसे अपनाने वाले को मितव्ययी, स्वल्प−सन्तोषी एवं ऐषणा रहित बनना पड़ता है। वह कम खर्चे में गुजारा चलता है, निर्वाह की अनिवार्य आवश्यकताओं तक सीमित रहता है और विलासी अपव्यय तीखी नजर से कटौती करके फैंक देता है। परिश्रमपूर्वक ईमानदारी के साथ जितना कमाया जा सकता है उसी परिधि में अपना बजट बनाता है और भविष्य के लिए आदर्शवादी सत्कर्म करने की इतनी अधिक योजनाएँ मस्तिष्क में भरी रहती हैं कि वित्तेषणा, पुत्रेषणा और लोकेषणा जैसी तुच्छ बाल−क्रीड़ाएँ अपनाने में अपनी महानता घटती दिखाई पड़ती है।

यह सोचना व्यर्थ है कि मितव्ययी सादा जीवन अपनाने वाला दरिद्र लगेगा और असम्मान का भाजन बनेगा। होता यह है कि अध्यात्म दृष्टिकोण के कारण सादगी अपनाने वाला व्यक्ति उस परिस्थिति में भी स्वच्छता और व्यवस्था के दो सद्गुण अपने छोटे−बड़े सभी कार्यों में पूरी तरह समाविष्ट किये रहता है। कपड़े सस्ते और कम होते हुए भी बहुत ही स्वच्छ करीने से सिले और ठीक ढंग से पहने हुए होते हैं। स्वच्छता, सतर्कता और सुरुचि का समन्वय एक अनोखा सौन्दर्य उत्पन्न करता है। यह वेश एवं परिधानों के साथ जुड़कर अपना विशिष्ट आकर्षण उत्पन्न करता है। गान्धी जी मोटे, सस्ते और थोड़े से कपड़े पहनते थे, पर उनकी स्वच्छता और पहने में बरती गई सतर्कता देखते ही बनती थी। आवश्यक नहीं कि बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से ही किसी का बड़प्पन प्रकट होता हो। मध्यकाल की वह मान्यता जिसके अनुसार राजा, रईस बहुमूल्य चित्र−विचित्र वस्त्राभूषण पहनकर अपने बड़प्पन की घोषणा करते थे, पर अब समय बदल गया। विकसित दृष्टिकोण ने उन अमीरों की पोशाकों को रंगमंच के नटों के लिए सीमित कर दिया है। दूसरे भले आदमी वैसे वस्त्र धारण में अपना उपहास अनुभव करते हैं। अब खर्चीले ठाट−बाट बनाने वाले अपव्ययी दुर्गुणी, दुश्चरित्र और उचक्के माने जाते हैं। सामान्य बुद्धि सोचती है उद्धत आकर्षण के लिए लालायित व्यक्ति छिछोरा ही हो सकता है। बेकार बातों में अधिक खर्च करने वाला, उपयोगी कामों के लिए कुछ बचा न पाता होगा और पिछड़ी परिस्थितियों में रहता होगा। अथवा हराम की कमाई से यह पैसे की होली फूँकता है। यह सभी बातें व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व को घटिया सिद्ध करती हैं। अब ठाट−बाट बनाने में निमग्न रहने वालों को खतरनाक समझा जाता है और लोग उनसे बचने का प्रयत्न करते हैं।

कोई व्यक्ति अपने शरीर से अपना रक्त निकाल कर स्वयं ही बहा रहा हो अपनी कमाई के नोट इकट्ठे करके स्वयं ही जला रहा हो−तो तर्क की दृष्टि से किसी के उसे रोकने की क्या जरूरत होगी? पर विवेक इस प्रकार के आचरण करने वाले के प्रति घृणा और आक्रोश उत्पन्न करेगा और यदि सम्भव हुआ तो उसे रोकने का भी प्रयत्न करेगा। ठीक इसी प्रकार अपना धन ठाट−बाट अमीरी का स्वाँग तथा दूसरे प्रकार के अपव्यय को देख कर किसी व्यक्ति के ओछेपन की ही मान्यता बनावेगा और अधिक नहीं तो उसका सहयोग करने सहयोग देने से तो बचेगा ही। अवाँछनीय गतिविधियाँ अपनाने वाले का साथ भी खतरे से खाली नहीं होता।

बात पैसे तक सीमित नहीं है और न खर्चीले ठाट−बाट तक बात समाप्त होती है। समय, श्रम एवं चिन्तन भी सम्पत्ति है। वस्तुतः असली सम्पत्ति तो यही तीन हैं। इनका अपव्यय जहाँ हो रहा होगा वहाँ भी लाँछन ही लगेंगे। आलसी, प्रमादी, हरामखोर, कामचोर, दीर्घसूत्री, गैरजिम्मेदार, लापरवाह जैसी गलतियाँ भी लगभग चोर, डाकू, ठग, बेईमान जैसे अपराध वर्ग के समीप ही जा पहुँचती हैं उच्च विचार मात्र कल्पना लोक में विचरण करके समाप्त नहीं हो जाते हैं उन्हें भी दुर्बुद्धि की तरह ही कार्य रूप में परिणित होने की बेचैनी रहती है। इसका अवसर उन्हीं को मिलेगा, जो अपनी शक्ति एवं साधनों को सदुद्देश्य में संलग्न कर सकेंगे। स्पष्ट है कि यह सब उसी के लिए सम्भव होगा जो क्षमताओं को अपव्यय से बचा कर सुरक्षित रख सकेगा। बचत का ही दूसरा नाम सादगी है। धन, समय, श्रम और मनोयोग को अवाँछनीय दिशा में खर्च करने को ही विलासिता, अमीरी ठाट−वाट, फिजूल खर्ची आदि के नामों से जाना जाता है। ऐसे लोभ जीवनोद्देश्य को पूरा कर सकने वाले कार्यों को कर सकने के लिये खाली हाथ होते हैं। उनके पास जो कुछ था वह तो खर्चीले ठाट−बाट बनाने में ही कम पड़ता रहता है।

यों बचत तो कृपण और संग्रही भी करते रहते हैं, पर उन्हें तो और भी अभागा कहा जायगा। संग्रह किसी विशेष उद्देश्य के लिए किया जा रहा हो तो बात दूसरी है अन्यथा लोभ वश जोड़ते जाना और मोहवश उत्तराधिकारियों के लिए लम्बी−चौड़ी सम्पत्ति छोड़ जाने में लगा रहना और भी बुरा है। अपव्ययी कम से कम क्षणिक शौक−मौज तो कर लेते हैं, कृपण लोग वह भी नहीं कर पाते और उत्तराधिकारियों को व्यसनी अकर्मण्य बनाने वाला विषवृक्ष रोप कर और भी बड़ा अनर्थ खड़ा कर जाते हैं। यहाँ ऐसी बचत की भी निन्दा की जा रही है। प्रशंसा मात्र उस बचत की है जो सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए निजी आवश्यकताओं में कटौती करके एकत्रित की गई है। इसी नीति को अपनाने का ही दूसरा नाम सादगी है। यदि वह सदुद्देश्य की पूर्ति के लिए अपनाई गई है तो निश्चित रूप से वहाँ आदर्शवादिता का आध्यात्मिकता का दर्शन किया जा सकता है आत्मोत्कर्ष और लोक मंगल के दोनों ही प्रयोजन अत्यधिक महान हैं और उनमें वासना, तृष्णा की पूर्ति में खर्च होने वाली शक्ति से भी कहीं अधिक साधन लगाने पड़ते हैं। एक ओर से रोकथाम करके ही दूसरी आवश्यकता पूरी होती है। ब्रह्मचर्य रखने से ही बलिष्ठ बना जा सकता है। कामुकता में शक्ति नष्ट करते रहने वालों के लिए पहलवान बन सकना कठिन है। इसी प्रकार अपनी सामर्थ्यों को वासना, तृष्णा, संग्रह, अहंता की पूर्ति में समाप्त करते चले जाना भी वैसा ही अपव्यय है जिसके रहते आत्मिक प्रगति की सम्भावनाएँ पूरी हो सकना असम्भव है। यह हजार बार समझ लिया जाना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के लिए समूचे जीवनक्रम को उच्चस्तरीय बनाने की समग्र साधना करनी पड़ती है। मात्र पूजा−पत्री की थोड़ी सी ‘हथ फेरी’ कर लेने जैसे तुच्छ प्रयत्न से उतना बड़ा लाभ नहीं मिल सकता जिसके आधार पर तुच्छ से नर कीटक को−महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा बनने की परमसिद्धि प्राप्त होती है। सामान्य लोग अपना जीवन भार भी शाँति से नहीं ढो पाते जब कि देवात्माएँ अपनी नाव में बिठा कर असंख्यों का बेड़ा पार करती हैं। इतनी बड़ी सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए जो तप करना पड़ता है उसका प्रवेश द्वार सादगी अपनाने को ही समझा जाना चाहिए।

निजी आवश्यकताएँ कम करने में सस्ते और स्वल्प साधनों से गुजर करने में बचकाने लोगों के बीच अपनी ‘हेटी’ अनुभव हो सकती है। इस प्रकार की ‘हेटी’ में भी प्रसन्न, संतुष्ट और गौरवान्वित रह सकने की मनःस्थिति को आत्मिक प्रगति का उत्साहवर्धक चिन्ह माना जा सकता है। आमतौर से मनुष्य की इच्छा विलासी साधनों का उपयोग करके अधिक सुख सुविधा पाने की रहती है। इस मनः स्थिति को बदल कर स्वल्प सन्तोषी एवं आम लोगों की दृष्टि में गरीब जैसी प्रक्रिया अपना कर, रहने का साहस लोकोत्तर कहा जा सकता है। यह आत्मबल के अभ्युदय का ही चिन्ह है। लोक प्रवाह से उलट कर चलने में तीक्ष्णता उत्पन्न होती है। मछली की सामर्थ्य का मूल्याँकन इसी आधार पर होता है कि वह पानी की प्रवाह−धारा चीरकर उलटी दिशा में भी बह सकती है। आत्मिक जीवन और भौतिक जीवन में मौलिक अन्तर है। एक में आदर्शों की पूर्ति के लिए कष्ट सहने का उत्साह रहता है, दूसरे में तृष्णा, वासना की पूर्ति को मानते हुए आदर्शों को ताक में रख देने तक में भी संकोच नहीं होता। सादगी का व्रत धारण करना इस बात का चिन्ह है कि लोक−प्रवाह से असहमति प्रकट करते हुए स्वतन्त्र रीति−नीति अपनाने का साहस उत्पन्न हो गया। यह परिवर्तन उसी प्रकार का है जैसा जंक्शन पर रेल की पटरियों के ‘केंची कटने’ का छोटा−सा प्रयोग गाड़ियों के दौड़ने की दिशा ही बदल देता है। अस्तु सादगी का अवलम्बन छोटी−आरम्भिक किन्तु आत्मिक प्रगति का अतीव उत्साहवर्धक चरण माना जा सकता है और उसका परिणाम निकट भविष्य में ही परम श्रेयस्कर होना समझा जा सकता है।

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