• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • अभीष्ट की उपलब्धि भीतर से ही होगी।
    • ब्रह्म वर्चस् साधना और उसका ज्ञान विज्ञान
    • पंच कोशों की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि
    • Quotation
    • हमारा शरीर अत्यन्त विलक्षण
    • जीव सत्ता की प्रचण्ड शक्ति सामर्थ्य
    • अन्नमय-कोश और चमत्कारी हारमोन ग्रन्थियाँ
    • Quotation
    • हमारे शरीर के रहस्यमय घटक जीन्स
    • Quotation
    • अन्नमय कोश में जीन प्रक्रिया का परिवर्तन
    • (अन्नमय कोश) अन्नमय कोश का परिष्कार सम्भव भी है आवश्यक भी
    • प्राण संस्थान कितना स्पष्ट, कितना अद्भुत?
    • Quotation
    • मानवी विद्युत का प्रचण्ड प्रवाह-प्राण शक्ति में
    • प्राण शक्ति एक जीवन्त ऊर्जा
    • प्राण तत्व और श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया
    • मनः संस्थान का समूची जीवन सत्ता पर प्रभाव
    • Quotation
    • मनोमय कोश-मस्तिष्कीय परिष्कार
    • VigyapanSuchana
    • मनोमय कोश प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र
    • Quotation
    • विज्ञानमय कोश और जीवन साधना
    • विज्ञानमय कोश की अतीन्द्रिय सामर्थ्य
    • हमारे उच्च चेतन ही अद्भुत क्षमताएँ
    • Quotation
    • VigyapanSuchana
    • आनन्दमय कोश-शिव शक्ति का संगम
    • गायत्री-सावित्री और कुण्डलिनी
    • कुण्डलिनी काम बीज का परिष्कार
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • अभीष्ट की उपलब्धि भीतर से ही होगी।
    • ब्रह्म वर्चस् साधना और उसका ज्ञान विज्ञान
    • पंच कोशों की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि
    • Quotation
    • हमारा शरीर अत्यन्त विलक्षण
    • जीव सत्ता की प्रचण्ड शक्ति सामर्थ्य
    • अन्नमय-कोश और चमत्कारी हारमोन ग्रन्थियाँ
    • Quotation
    • हमारे शरीर के रहस्यमय घटक जीन्स
    • Quotation
    • अन्नमय कोश में जीन प्रक्रिया का परिवर्तन
    • (अन्नमय कोश) अन्नमय कोश का परिष्कार सम्भव भी है आवश्यक भी
    • प्राण संस्थान कितना स्पष्ट, कितना अद्भुत?
    • Quotation
    • मानवी विद्युत का प्रचण्ड प्रवाह-प्राण शक्ति में
    • प्राण शक्ति एक जीवन्त ऊर्जा
    • प्राण तत्व और श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया
    • मनः संस्थान का समूची जीवन सत्ता पर प्रभाव
    • Quotation
    • मनोमय कोश-मस्तिष्कीय परिष्कार
    • VigyapanSuchana
    • मनोमय कोश प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र
    • Quotation
    • विज्ञानमय कोश और जीवन साधना
    • विज्ञानमय कोश की अतीन्द्रिय सामर्थ्य
    • हमारे उच्च चेतन ही अद्भुत क्षमताएँ
    • Quotation
    • VigyapanSuchana
    • आनन्दमय कोश-शिव शक्ति का संगम
    • गायत्री-सावित्री और कुण्डलिनी
    • कुण्डलिनी काम बीज का परिष्कार
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1977 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


हमारा शरीर अत्यन्त विलक्षण

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 4 6 Last
मानवी शरीर यों उपेक्षित परिभाषा में एक ‘चलता फिरता पेड़ है। भौतिक दृष्टि से उसकी और कुछ व्याख्या हो भी नहीं सकती। वनस्पतियों में पाये जाने वाले रसायन ही न्यूनाधिक मात्रा में उसमें भी पाये जाते हैं। जन्म वृद्धि और मरण के चक्र में घास-पात की तरह मनुष्य भी भ्रमण करता है। आहार और साँस लेने की क्रिया ही पौधों की तरह उसे भी जीवित रखती है।

पिछले दिनों वैज्ञानिक इसी स्तर में प्रतिपादन करते रहे है। इससे किस सिद्धान्त की पुष्टि हो सकी-किसकी न हो सकी यह पीछे की बात है, पर मानवी सत्ता का अवमूल्यन निश्चित रूप से हुआ है। उसकी आत्मिक विशेषता को अस्वीकार कर देने पर मनुष्य वनस्पति वर्ग का रह जाता है। अधिक से अधिक उसे कृमि-कीटकों की तरह कुछ अधिक विकसित स्तर का काय-पिण्ड कह सकते हैं। इस स्थिति में उसके विशेष आदर्श कृतवय और उत्तरदायित्व मानने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती। नैतिक मर्यादाओं में भी उसे क्यों बाँधा जाय? तब सेवा, उदारता, आत्मीयता, सहकारिता के आदर्शों का विस्तार करने की बात भी क्यों सोची जाय? त्याग, बलिदान की-तप और संयम की आवश्यकता भी क्यों मानी जाय? नास्तिक दर्शन में भस्मी भूत देह का पुनरागमन न होने की मान्यता अपनाने के उपरान्त ‘यावज्जीवेत् सुखंजीवेत् की नीति मान्य ठहराई गयी है। उसे ऋणं कृत्वाँ घृतं पिबेत् की ही नहीं, शोषण, उत्पीड़न और रक्तवान की भी पूरी छूट है। विचारणीय है कि यदि मनुष्य चलता-फिरता पौधा हो ठहरा दिया गया तो फिर उस पर कोई नैतिक उत्तरदायित्व न लादे जा सकेंगे ओर आदेशों के नाम पर आत्म संयम बरतने एवं परमार्थ कृत्यों से उत्साह रखने का औचित्य सिद्ध न किया जा सकेगा। इस दिशा में बढ़ते हुए हम संचित मानवी सभ्यता, संस्कृति और आदर्शवादिता को तिलाञ्जलि दे देंगे।

पौधे और मनुष्य के बीच पाये जाने वाले अन्तर पर दृष्टिपात करने से हमें दोनों के बीच हर क्षेत्र में मौलिक अन्तर दृष्टिगोचर होता है। विशिष्टता मानवी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र काय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या-पिछड़े स्तर के प्राणि शरीरों में भी वे विशेषताएँ नहीं मिलती जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित है। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंका है।

शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। यह सोद्देश्य होना चाहिए। अन्यथा एक ही घटक पर कलाकार का इतना श्रम और कौशल नियोजित होने की क्या आवश्यकता थी, यह मात्र संयोग नहीं है और न इसे रचनाकार का कौतुक-कौतूहल कहा जाना चाहिए। मनुष्य को विशेष प्रयोजन के लिए बनाया गया। इस विशेष को सम्पन्न करने के लिए उसका प्रत्येक उपकरण इस योग्य बनाया गया है कि उसके कण-कण में विशेषता देखी जा सकें। इन साधन उपकरणों के सहारे ही वह आत्म-कल्याण जैसे महान् प्रयोजन सम्पन्न कर सकने में समर्थ हो सकता है। सृष्टा ने इसी साज-सज्जा से अलंकृत करके उसे इस संसार में अभीष्ट कर्तव्यों का निर्वाह करने के लिए भेजा है।

हृदय की धड़कन में सिकुड़ने की-सिस्ट्रोल और फैलने की-डायेस्टोल क्रिया होती रहती है। इसी क्रिया के कारण रक्त संचार होता है। और जीवन के समस्त क्रिया-कलाप चलते हैं। यह रक्त प्रवाह नहीं नाले की तरह नहीं चलता, वरन् पम्पिंग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। पम्प में झटका मारने की क्रिया होती है। उससे गति मिलती है। नीचे की दिशा में तो प्रवाह अपने आप भी होता है, पर ऊपर की ओर ले जाना हो तो उसके पीछे शक्ति का दबाव होना आवश्यक है। आकुंचन-प्रकुञ्चन से झटका लगता है और उसके दबाव से रक्त-चक्र नीचे जाने और ऊपर आने की दोनों आवश्यकताएँ पूरी कर लेता है। हृदय की धड़कन रक्त के परिभ्रमण में काम आने वाली गति की व्यवस्था करती है।

कोई यन्त्र लगातार काम करने के गरम हो जाता है। श्रम के साथ विश्राम भी आवश्यक है। श्रम में शक्ति का व्यय होता है, विश्राम उसको फिर से जुटा देता है। हृदय के आकुंचन-प्रकुञ्चन से जहाँ झटके द्वारा शान्ति उत्पादन की आवश्यकता पूरी होती हैं वहाँ इन दोनों क्रियाओं के बीच मध्यान्तर की अवधि में विश्राम का लाभ भी उसे मिलता रहता है। एक धड़कन एक मिनट के 72 वें भाग में सेकेण्ड के पाँच बटे छह भाग में सम्पन्न होती है। इस अल्प अवधि में ही असंख्य विद्युत तरंगें उस संस्थान को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम के माध्यम से रिकार्ड करके हृदय की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है। नवजात शिशु की प्रगति आवश्यकता के अनुरूप उन दिनों हृदय एक मिनट में 140 बार धड़कता है किन्तु वह जरूरत कम होते जाने से यह चाल भी घटती है। 3 वर्ष के बच्चे का एक मिनट में 100 बार और युवा मनुष्य का मात्र 72 बार धड़कता है। समर्थता की न्यूनाधिकता के अनुरूप धड़कन घटी-बढ़ी रहती है। चूहे का हृदय 500 बार, चिड़ियों का 250 बार, मुरगी का 200 बार, खरगोश का 65 बार, घोड़े का 50 बार और हाथी का 40 बार एक मिनट में धड़कता है। मनुष्य के शिशु और प्रौढ़ के बीच समर्थता वृद्धि के अनुपात से हृदय की धड़कन भी घटती जाती है।

पुरुष के हृदय का औसत वजन 330 ग्राम ओर स्त्री कास 260 ग्राम होता है। यह सम्पूर्ण अवयव परिकार्डियम नामक झिल्ली की थैली में बन्द रहता है। हृदय एक होते हुए भी उसके मध्य भाग में खड़ी रोप्टम नामक माँस पेशी उसे दो भागों में बाँट देती है। यह दो भाग भी दो-दो हिस्सों में बँट कर चार हो जाते हैं। इनमें से ऊपरी भाग को आरिकिल और नीचे के भाग को वेक्ट्रिकिन कहते हैं। हृदय से फुफ्फुसीय धमनी में जाने की प्रक्रिया को मध्यवर्ती वाल्व नियन्त्रित करते हैं।

हृदय के समान ही फेफड़े भी आजीवन कभी विश्राम नहीं करते। 20 से 30 धन इंच हवा को वे बार-बार भरते और शरीर तो ताजगी प्रदान करते रहते हैं। बच्चों की श्वास गति 25 से 40 तक होती है। क्योंकि यह उनका विकास काल होता है।

शरीर में उत्पन्न दूषित वायु कार्बन-डाई-आक्साइड गैस को बाहर निकालना और शुद्ध वायु आक्सीजन को शरीर पोषण के लिए उपलब्ध कराना यह दुहरा उत्तरदायित्व फेफड़ों का निबाहना पड़ता है। फेफड़ों में आँख से भी न दीख पड़ने वाला बहुत पतली वायु नलिकाएँ बहती है। इन 40 नलिकाओं के मिलने से एक वायुकोष्ठ एयरसैक बनता है। यही सघन होकर फेफड़े का रूप लेते हैं। इनकी संख्या प्रायः 1600 होती हैं। इन्हें श्वास विभाग के सफाई कर्मचारी भी कहा जा सकता है। इन वायुकोष्ठों की लचक अद्भुत है। इन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर मिले तो वे समूचे शरीर से 55 गुने विस्तार में फैल सकते हैं।

साधारणतया उपलब्ध आक्सीजन का 4.5 प्रतिशत अंश ही शरीर ग्रहण कर पाता है। यदि श्वास लम्बी और गहरी लेने का अभ्यास डाल लिया जाय तो तीन गुनी अर्थात् 13.5 तक आक्सीजन ग्रहण की जा सकती है। इस उपार्जन का लाभ भी शरीर पोषण के लिए तीन गुना अधिक प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार सफाई का कार्य तीन गुना अधिक बढ़ सकता है। जिस अनुपात से गहरी साँस द्वारा आक्सीजन अधिक ग्रहण की जा सकती है उसी प्रकार कार्बन-डाई-आक्साइड को भी 45 प्रतिशत के स्थान पर 13.5 के अनुपात से बाहर निकाला जा सकता है। कहना न होगा कि शक्ति प्राप्त करने और विषाक्तता निकालने के अनुपात बढ़ जाये तो उससे आरोग्य वृद्धि में अत्यधिक लाभ मिलेगा। गहरी और लम्बी साँस लेने की सामान्य प्रणाली, डीप ब्रीदिंग, भौतिक विज्ञान की प्राणायाम प्रक्रिया कहलाती है। इसमें आध्यात्मिक आधारों को भी मिला दिया जाए तो फेफड़े स्वास्थ्य संवर्धन में अद्भुत भूमिका निभाने लगते हैं।

हृदय के समान ही फेफड़े भी आजीवन बिना विश्राम लिये काम करते रहते हैं। 20 से 30 धन इंच हवा वे बार-बार भरते और शरीर को ताजगी प्रदान करते रहते हैं। प्रति मिनट वे 17 बार के हिसाब से धोंकनी धोकते हैं। बच्चों की श्वास गति तो 25 से 40 तक होती हैं

हृदय और फेफड़े ही नहीं अन्य छोटे दीखने वाले अवयव भी अपना काम अद्भुत रीति से सम्पन्न करते हैं। गुर्दे की गांठें देखने में मुट्ठी भर आकार की-भरे कत्थई रंग की-सेम की बीच जैसे आकृति की-लगभग 150 ग्राम भरी है। प्रत्येक गुर्दा प्रायः 4 इंच लम्बा, 2.5 इंच चौड़ा और 2 इंच मोटा होता है। जिस प्रकार फेफड़े साँस को साफ करते हैं। उसी प्रकार जल अंश की सफाई इन गुर्दों के जिम्मे है। गुर्दे रक्त में धुले रहने वाले नमक, पोटैशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, आदि पर कड़ी नजर रखते हैं। इनकी मात्रा जरा भी बढ़ जाय तो शरीर पर घातक प्रभाव डालते ही है। शरीर में जल की भी एक सीमित मात्रा होनी चाहिए। रक्त में क्षारीय एवं अम्लीय अंश न बढ़ने पाये इनका ध्यान भी गुर्दे को ही रखना पड़ता है। छानते समय इन सब बातों की सावधानी वे पूरी तरह रखते हैं गुर्दे एक प्रकार की छलनी है। उसमें 10 लाख से भी अधिक नलिकाएँ होती है। इन सबको लम्बी कतार में रखा जाय तो वे 110 किलोमीटर लम्बी डोरी बन जायेगी। एक घण्टे में गुर्दे इतना रक्त छानते हैं। जिसका वजन शरीर के भार से दूना होता है। विटामिन अमीनो अम्ल, हारमोन, शकर जैसे उपयोगी तत्त्व रक्त को वापिस कर दिये जाते हैं। नमक ही सबसे ज्यादा अनावश्यक मात्रा में होता है। यदि हम यह रुकना शुरू कर दे तो सारे शरीर पर सूजन चढ़ने लगेगी। गुर्दे ही है जो इस अनावश्यक को निरन्तर बाहर फेंकने में लगे रहते हैं।

दोनों गुर्दे में परस्पर अति सघन सहयोग है। एक खराब हो जाय तो दूसरा उसका बोझ अपने ऊपर उठा लेता है। गुर्दे प्रतिदिन प्रायः दो लीटर मूत्र निकालते हैं। मनुष्य अनावश्यक और हानिकारक पदार्थ खाने से बाज़ नहीं आता। इसका प्रायश्चित्त गुर्दों को करना पड़ता है। नमक, फास्फेट, सल्फेट, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, लोहा, क्रिएटाइनिन, यूरिया, अमोनिया, यूरिक एसिड, हिप्पूरिक एसिड, नाइट्रोजन आदि पदार्थों की प्रचलित आहार पद्धति में भरमार है। गुर्दे इस कचरे को मूत्र मार्ग से बाहर करने और स्वस्थ सन्तुलन बनाये रखने का उत्तरदायित्व निबाहते हैं। यदि वे अपने कार्य में तनिक भी ढील कर दें तो मनुष्य ढोल की तरह फूल जाएगा और देखत-देखते प्राण गँवा देगा।

आमाशय का मोटा काम भोजन हजम करना माना जाता है पर यह क्रिया कितनी जटिल ओर विलक्षण है। इस पर दृष्टिपात करने से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। इसे छोटी थैली की एक अद्भुत रसायन शाला को संज्ञा दी जाती है। जिसमें सम्मिश्रण के आधार पर कुछ से कुछ बना दिया जाता रहता है। कहाँ अन्न और कहाँ रक्त? एक स्थिति को दूसरी में बदलने के लिए उसके बीच इतने असाधारण परिवर्तन होते है- इतने अधिक रासायनिक सम्मिश्रण मिलते हैं कि इस स्तर के प्रयोगों की संसार भर में कही भी उपमा नहीं ढूँढ़ी जा सकती। आमाशय में पाये जाने वाले लवणास्त, पेप्सीन, रेन्नेट आदि भोजन को आटे की तरह गूंथते हैं। लवणाम्ल खाद्य-पदार्थों में रहने वाले रोग कीटाणुओं का नाश करते हैं। पेप्सीन के साथ मिलकर वे प्रोटीन से ‘पेप्टोन’ बनाते हैं। पेन्क्रयाज में पाये जाने वाले इन्सुलिन आदि रसायन शकर को सन्तुलित करते हैं और आँतों के काम को सरल बनाते हैं। इतने अधिक प्रकार के- इतनी अद्भुत प्रकृति के-इतनी विलक्षण प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करने वाले रासायनिक प्रयोग मनुष्यकृत प्रयोग प्रक्रिया द्वारा सम्भव हो सकते हैं, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। आमाशय की रासायनिक प्रयोगशाला क्या-क्या कौतुक रचती है और क्या से क्या बना देती है? इसे किसी बाजीगर की विलक्षण जादूगरी से कम नहीं कहा जा सकता।

यों तो कर्ता की कारीगरी का परिचय रोम-रोम और कण-कण में दृष्टिगोचर होता है, पर आँख कान जैसे अवयवों पर हुई कारीगरी तो अपनी विलक्षण संरचना से बुद्धि का चकित ही कर देती है। आँख जैसा कैमरा मनुष्य द्वारा कभी बन सकेगा। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कैमरों में नाभ्यान्तर-फोकस लेन्थ-को बदला जा सके ऐसे कैमरे कहीं नहीं बनें। फोटो लेने के लिए अच्छे कैमरों के लेन्स भी पहले एक निश्चित नाभ्यान्तर पर फिट करने होते हैं। फिल्मों तक में फोटो दृश्य और कैमरे की दूरी का सन्तुलन मिलाकर फोकस सही करना पड़ता है। इस व्यवस्था को बनाये बिना अभीष्ट फोटो खिंच ही नहीं सकेगा। किन्तु नेत्र संरचना में ऐसा कुछ साथ करना पड़ता। वे निकट से निकट और दूर से दूर को भी-आँखों का बिना आगे-पीछे हटाये-मजे में देखते रह सकते हैं। प्रिज़्म या थ्रीडाईमेंशनल कैमरे अद्भुत माने जाते हैं। पर वे भी रगों का वर्गीकरण उस तरह नहीं कर सकते जैसा कि आँखें करती है। सुरक्षा सफाई का प्रबन्ध जैसा आँखों में है वैसा किसी कैमरे में नहीं होता। कैमरे पहले उलटा फोटो लेते हैं, फिर दुबारा प्रिंट करके उन्हें सीधा करना पड़ता है। किन्तु आँखें सीधा एक ही बार में सही फोटो उतार लेती है।

कान जैसा ‘साउण्ड’ यन्त्र कभी मनुष्य द्वारा बन सकेगा, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। रेडियो ओर वायरलैस की आवाजें एक निश्चित-फ्रीक्वेंसी पर ही सुनी जा सकती है। कानों के सामने इस प्रकार की काई कठिनाई नहीं है। वे किसी भी तरफ की-कोई भी ऊँची हलकी आवाज सुन सकते हैं। कई आवाजें एक साथ सुनने या कोलाहल के बीच अपने ही व्यक्ति की बात सुन लेने की क्षमता हमारे ही कानों में होती है। ध्वनि साफ करने के लिए “रेक्टीफायर” का प्रयोग किया जात है। कुछ यन्त्रों में ‘वैकुऊम’ के साथ ‘ग्रिड’ जोड़ना पड़ता है तब कही एक सीमा तक आवाज साफ होती है। किन्तु कान की तीन हड्डियाँ स्टेयिम, मेलियस ओर अंकस में इतनी स्वच्छ प्रणाली विद्यमान् है कि वे आवाज को उसके असली रूप में बिना किसी कठिनाई के सुन सकें। न मात्र सुनने की है उस सन्देश के अनुरूप अपना चिन्तन और कर्म निर्धारित करने के लिए प्रेरणा देनी वाली विद्युत प्रणाली कानों में विद्यमान् है। साँप की फुफकार सुनते ही यह प्रणाली खतरे से सावधान करती है और भाग चलने की प्रेरणा देने के लिए रोंगटे खड़े कर देती है। ऐसी बहुद्देशीय संरचना किन्हीं ध्वनि-ग्राहक यन्त्रों में सम्भव नहीं हो सकती।

शरीर पैर चमड़ी का क्षेत्रफल प्रायः 250 वर्ग फुट और वजन 6 पौण्ड होता है। एक वर्ग इंच त्वचा में 72 फुट लम्बाई वाला तंत्रिका जाल और 12 फुट से अधिक लम्बाई खाली रक्त नलिकाएँ बिछी बिखरी होती है। त्वचा के रोमकूपों से प्रायः एक पौंड पसीना बाहर निकलता है। शरीर का एयरकन्डीशन’ बनाये रखने के लिए त्वख फैलने और सिकुड़ने की क्रिया द्वारा कूलर और हीटर दोनों का प्रयोजन पूरा करती है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं का एक लाइन में रख दिया जाए तो वे 45 मील लम्बे होंगे। इन तन्तुओं द्वारा प्राप्त अनुभूतियाँ मस्तिष्क तक पहुँचती है और टेलीफोन तारों जैसा उद्देश्य पूरा होता है। त्वचा से ‘कोरियम’ नामक एक विशेष प्रकार का तेल निकलता रहता है। यह सुरक्षा और सौंदर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। यह सुरक्षा और सौंदर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। उसकी रंजक कोशिकाएँ ‘नेलानिक’ रसासन उत्पन्न करती है। यही चमड़ी को गोर, काले, पीले आदि रगों से रंगता रहता है।

शरीर पूरा जादू घर है। उसी कोशिकाएँ, तन्तुजाल किस प्रकार जीवन-मरण की गुत्थियाँ स्वयं सुलझाते हैं और समूची काया को समर्थ बनाये रहने में योगदान करत हैं यह देखते ही बनता है। जीवन सामान्य है, पर उसे सुनियोजित एवं सुसंचालित रखने में एक छोटा ब्रह्माण्ड ही जुटा रहता है। पिण्ड मानवी काया का नाम क्रिया-प्रक्रिया का छोटा रूप ही कहा जा सकता है।

अन्नमय कोश जिसे स्थूल शरीर भी कहते हैं। परमेश्वर का विचित्र कारीगरी से भरा-पूरा है। उसके किसी भी अवयव पर दृष्टिपात किया जाय उसमें एक से एक बढ़ी-चढ़ी अपने-अपने ढंग की विलक्षणताएँ प्रतीत होगी। सामान्यतया इसे खाने-सोने में ही खपा दिया जाता है। पर यदि इस दृष्टि के सर्वश्रेष्ठ अनुदान के सदुपयोग की बात सोची जाय, उसकी प्रसुप्त क्षमताओं को जागृत किया जाय तो इतना कुछ कर गुजरना सम्भव हो सकता है जिससे मनुष्य जन्म को सच्चे अर्थों में सार्थक हुआ कहा जा सके।

First 4 6 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • अभीष्ट की उपलब्धि भीतर से ही होगी।
  • ब्रह्म वर्चस् साधना और उसका ज्ञान विज्ञान
  • पंच कोशों की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि
  • Quotation
  • हमारा शरीर अत्यन्त विलक्षण
  • जीव सत्ता की प्रचण्ड शक्ति सामर्थ्य
  • अन्नमय-कोश और चमत्कारी हारमोन ग्रन्थियाँ
  • Quotation
  • हमारे शरीर के रहस्यमय घटक जीन्स
  • Quotation
  • अन्नमय कोश में जीन प्रक्रिया का परिवर्तन
  • (अन्नमय कोश) अन्नमय कोश का परिष्कार सम्भव भी है आवश्यक भी
  • प्राण संस्थान कितना स्पष्ट, कितना अद्भुत?
  • Quotation
  • मानवी विद्युत का प्रचण्ड प्रवाह-प्राण शक्ति में
  • प्राण शक्ति एक जीवन्त ऊर्जा
  • प्राण तत्व और श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया
  • मनः संस्थान का समूची जीवन सत्ता पर प्रभाव
  • Quotation
  • मनोमय कोश-मस्तिष्कीय परिष्कार
  • VigyapanSuchana
  • मनोमय कोश प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र
  • Quotation
  • विज्ञानमय कोश और जीवन साधना
  • विज्ञानमय कोश की अतीन्द्रिय सामर्थ्य
  • हमारे उच्च चेतन ही अद्भुत क्षमताएँ
  • Quotation
  • VigyapanSuchana
  • आनन्दमय कोश-शिव शक्ति का संगम
  • गायत्री-सावित्री और कुण्डलिनी
  • कुण्डलिनी काम बीज का परिष्कार
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj