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Magazine - Year 1977 - Version 2

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हमारे शरीर के रहस्यमय घटक जीन्स

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अन्नमय कोश की-दृश्यमान शरीर की-स्थूल संरचना तो अन्य प्राणियों जैसी ही है। पर उसके अन्तराल में प्रवेश करने पर पता चलता है कि पग-पग पर उसमें विलक्षणतायें भरी पड़ी है। इनके स्वरूप और उपयोग को जाना जा सकें तो तिलस्म के वे पर्दे उठ सकते हैं जिनके भीतर रहस्यमय सिद्धियों के अनन्त भाण्डागार भरे पड़े है। काय-कलेवर में प्रजनन क्षमता की सूत्रधार अत्यन्त छोटी इकाई है-जीन्स। यह आँख से दृष्टिगोचर न होने वाले शुक्राणु और डिंबाणुओं के अन्तराल में रहने वाले अत्यन्त ही क्षुद्र घटक है। इतने पर भी उसकी क्षमता देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह नहीं सोचना चाहिए कि हारमोन जा जीन्स ही रहस्यमयी क्षमताओं से सुसम्पन्न है। सच तो यह है कि पूरी काया ही तिलस्मी रहस्यों से भरी पूरी है। दुर्भाग्य सही है कि हम न तो उसकी सामर्थ्य को समझ पाते हैं और न उसके सदुपयोग का ही साहस जुटाते हैं।

हम जानते हैं कि हमारी काया का स्थूल भाग अन्नमय कोश छोटी-छोटी कोशिकाओं (सैल्स) से बना हैं इन कोशिकाओं के अन्दर एक द्रव ‘साइटोप्लाज्म’ (बसामय पीला सा द्रव) पदार्थ भरा रहता है। इसके बीच में अवस्थित होता है, कोशिका का नाभिक अथवा केन्द्रक (न्यूक्लिमस)। पुरुष की शुक्राणु कोशिका अथवा नारी की अण्डाणु या डिम्बाणु कोशिका के नाभिक में छोटे छोटे धागे जैसे गुण सूत्र (क्रोमोसोम) होते हैं। एक नाभिक में इनके 23 या 24 जोड़े होते हैं इन्हीं से लाखों की संख्या में ‘जीन्स’ चिपके रहते हैं। नये मनुष्य शरीर के निर्माण तथा उनमें अनुवांशिक गुण धर्मों का विकास इन्हीं पर निर्भर करता है।

यह जीन्स क्या है? कैसे यह अपनी आश्चर्यजनक भूमिका पूरी करते है? कैसे यह अपनी आश्चर्यजनक भूमिका पूरी करते है? इस रहस्य पर से विज्ञान अभी पर्दा उठा नहीं सका हैं। उनके सम्बन्ध में बड़ी तेजी से शोध कार्य चल रहे है, बहुत से रहस्य खुले भी है, फिर भी वह नहीं के बराबर है।

अभी तक के अध्ययन के आधार पर ‘जेन्स’ छोटे से विधुन्मय पुटपाक या पुड़िया (पैकेट) है। माना जाता है कि इनकी रचना कई तरह से न्यूक्लियल अम्लों के संयोग से हुई है। उनमें से अभी केवल दो के बारे में जाना जा सका है। वे है (1) डी0एन0ए0 (डी0आक्सी राइबो न्यूक्लिक एसिड) (2) आर0एन0ए0 (राइबो न्यूक्लिक एसिड)।

जीन्स की संरचना के बारे में अभी तक नहीं जाना जा सका है, किन्तु यह जानकारियाँ निश्चित रूप से हो गयी है कि शरीर के अंग-प्रत्यंग की विशिष्ट रचना से लेकर अनेक परम्परागत स्वभावों, रोगों तथा गुणों के विकास की आश्चर्यजनक क्षमता इनमें है। इनके गुणों और कार्य कलापों को वैसे नियन्त्रित किया जाय वह पता विज्ञान अभी नहीं लगा सका है, किन्तु यह माना जाने लगा है कि यदि ‘जीन्स’ के गुणों और कार्य-प्रणाली का प्रभावित किया जा सके, तो आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ प्राप्त हो सकती है। यह अन्नमय कोश के छोटे-छोटे घटक एक कोशिका के नाभिक में रहने वाले नगण्य आकार वाले विद्युतमय पैकेट मनुष्य के आसपास के वातावरण से लेकर उसके विचारों और भावनात्मक विशेषताओं के संस्कार ग्रहण करने में समर्थ है।

मनुष्य के विकास के सम्बन्ध में भारतीय मान्यता यह रही है कि उस पर अनुवांशिकता के साथ-साथ मान्यता यह रही है कि उस पर अनुवांशिकता के साथ-साथ बाह्य वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। पहले इस मान्यता के प्रति उपेक्षा बरती जाने लगी थी।

यह स्पष्ट हो गया है कि अपने वातावरण तथा अपनी चेष्टा द्वारा व्यक्ति जिन स्वभाव गुणों को अर्जित करता है, वे वंशानुक्रम से प्राप्त नहीं होते और न ही कोई व्यक्ति उन अर्जित विशेषताओं को वंशानुक्रम द्वारा अपने बच्चों को प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति ने अनेक भाषाएँ सीखी है, तो वह उस भाषा-ज्ञान को अपने बच्चों को वंशानुक्रम द्वारा नहीं दे सकता। बच्चों को भी भाषा-ज्ञान की प्रचलित विधियों को ही अपनाना होगा तथा मेहनत करनी पड़ेगी। वही दूसरी ओर यह भी स्पष्ट हो गया है कि वंशानुक्रम का निश्चित प्रभाव सन्तान पर पड़ता है। आनुवांशिकी (जेनेटिक्स) का सारा ढाँचा ही इसी आधार पर खड़ा है यह सही है कि कोई भी व्यक्ति जंगली बेर के बीज बोकर उनसे गुलाब के फूलों की आशा नहीं कर सकता। गौरैया के अण्डों को सेकर उनमें से मोर के बच्चे कौन निकाल सकता है? लेकिन जिन पौधों के बीज बोये जाते हैं, उनसे उन्हीं जैसे पौधे आखिर क्यों उगते है? चूहों से चूहा और बिल्ली से बिल्ली ही क्यों पैदा होती हैं? इसका उत्तर है, आनुवांशिकता अर्थात् नियमित वंश परम्परा, जिसके कारण ही ऐसा होता है। जो वस्तु जिस वंश की होगी, उसका बीज डाले जाने पर वैसा ही फल होगा। आनुवांशिकता में काम करने का ढंग भी शामिल है और चीजों का कद तथा रंग भी। उदाहरण के लिये बया पक्षी को बढ़िया लटकने वाला घोंसला बनाना किसी को सिखाना नहीं पड़ता है।

आनुवांशिकता अपने पूर्वजों से मिलने वाली विशेषताओं का ही दूसरा नाम है। वैज्ञानिक जानते हैं कि जीवों में जो विशेषताएँ होती हैं, वे उन्हें अपने माता-पिता से अत्यन्त सूक्ष्म कणों के रूप में मिलती हैं। इस सूक्ष्म कणों को ‘जीन’ कहा जाता है। हमार शरीर बहुत-सी कोशिकाओं के ‘जीन’ अपने फलने-फूलने लगेगी। उसकी कोशिकाओं के ‘जीन’ अपने पहले के पेड़ की ही भाँति होगे। ठीक उसी तरह जिस तरह किसी स्पंज के टुकड़े में वैसे ही छिद्र होते हैं, जैसे उस स्पंज में थे जिसमें से कि टुकड़े को तोड़ा गया है।

अधिकांश पौधों और जीवों की उत्पत्ति नर और मादा से होती हैं कुछ ‘जीन’ नर से और कुछ मादा से मिलते हैं। झरबेरी झाड़ी के बीज गुलाब तो नहीं, लेकिन ऐसा पौधा अवश्य उगा सकते हैं, जिसमें एक की बजाय दो तरह से फूल हों। काली बिल्ली का बच्चा एकदम सफेद हो सकता है। यदि कोई पौधा या जानवर दो तरह की विशेषता के “जीन” अनुवांशिकता द्वारा प्राप्त करता है, और दोनों का प्रभाव बराबर रहता है। तो दोनों के मिलने से तीसरी विशेषता उत्पन्न होती है। अगर लाल गाय और सफेद रंग का साँड़ हो तो उनका बछड़ा न तो सफेद होगा और न लाल। वह भूरा, यानी दोनों के बीच के रंग का हो सकता है ऐसा हो जाने के नियम की वैज्ञानिक व्याख्या अनुवांशिकता के सिद्धान्त के आधार पर की जाती हैं। ‘जीन’ ही इस अनुवांशिकता के वाहक है और अनुवांशिकता की बुनियादी इकाई है। अभी तक किये गये परीक्षणों से यही जाना जा सका है कि व्यक्ति की शारीरिक विशेषताएँ जैसे रंग, रूप, नेत्र, त्वचा खून का प्रकार लम्बाई, ठिगनापन आदि सब ही अनुवांशिक और पित्रागत होते हैं। ये शारीरिक गुण भी मात्र माता-पिता से नहीं प्राप्त होते, वरन् वे दादा, परदादा तथा अन्य पूर्वजों से क्रमशः संक्रमित होकर आते हैं। वंशानुगत गुणों में माता-पिता का दाय प्रत्येक गुण में आधा होता है। यानी माँ का एक चौथाई और पिता का एक चौथाई उनके पूर्व के चार पितरों में प्रत्येक का दाय प्रत्येक गुण का सोलहवाँ भाग होता है। अर्थात् चारों पितरों का कुल दाय एक चौथाई भाग होता है। शेष 1 चौथाई और पुरानी पीढ़ियों से आते हैं।

व्यक्ति के संस्कार तो उसके जन्म-जन्मान्तरों की संचित सम्पदाएँ और साधन है। किन्तु उसके उपयुक्त उपकरण-अन्नमय कोश, के निर्माण के घटक जीन्स-क्रोमोसोम्स का भी स्वरूप-निर्धारण कितनी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं के आधार पर होता है, यह आनुवांशिकी की आधुनिक खोजो द्वारा भी स्पष्ट होता है। भारतीय मनीषी इन सूक्ष्मताओं से परिचित थे तभी वे सुसन्तति के लिए माता-पिता का चरित्रबल, तपस्वी-संयमी होना अनिवार्य बतलाते थे। इन्द्रिय लिप्साओं की खुजली को शान्त करते रहने की कुचेष्टाओं के साथ सुसन्तति की आकांक्षा करते रहना एक असम्भव कल्पना मात्र है। उसके सफल होने की कदापि कोई भी सम्भावना नहीं है। अन्नमय कोश की इन सूक्ष्मताओं के परिचित होकर, अपना जीवनक्रम हर प्रकार व्यवस्थित कर व्यक्ति न केवल सुयोग्य सन्तति का जनक-जननी बनने की क्षमता से, अपितु उन अनेक विशिष्ट क्षमताओं, विभूतियों से सम्पन्न बनता है, जिनसे मनुष्य शरीर की सार्थकता और गरिमा है। अन्नमय कोश की साधना स्वयं की इन क्षमताओं के विकास का ही नाम है।

अनुवांशिकता का प्रभाव बिलकुल सीधा और स्थूल नहीं होता। उदाहरण के लिए किसी माता-पिता में से दोनों को या किसी एक को टी०बी० रोग (क्षयरोग) हो तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को जन्म से ही टी०बी० (क्षय रोग) हो, अपितु इसका सिर्फ यह अर्थ है कि बच्चे के शरीर में ऐसी वृत्ति या तत्परता विद्यमान् है कि क्षय रोग के कीटाणु शरीर में पहुँचते ही वहाँ जड़ पकड़ लेंगे।

इसी प्रकार मान लीजिए कि कोई बढ़ई है, जो अपने काम में बड़ा दक्ष है। यह कार्य दक्षता बच्चे में जन्मजात रूप से नहीं उत्पन्न होती। अपितु यदि बच्चे को भी कुशल बढ़ई बनाना है, तो उसे बढ़ईगिरी का काम सिखाना ही होगा। हाँ, उस बच्चे के हाथ ऐसे हो सकता है, जिनके द्वारा कि उन औजारों का अधिक अच्छा उपयोग सम्भव हो, जो बढ़ईगिरी के काम आते हैं।

इसीलिए अनुवांशिकता और पर्यावरण दोनों को समान महत्त्व दिया जाता है। अनुवांशिकता द्वारा अर्जित गुण नहीं प्राप्त होते। कुछ जन्मजात गुणों का आधार ही अनुवांशिकता को माना जाता है। ये जन्मजात गुण वंशानुक्रम के आधार पर प्राप्त होते हैं। क्रोमोसोम्स में होते हैं-जीन जो व्यक्ति के “करेक्टरिस्टिक्स” का निर्माण करते हैं।

‘जीन’ का व्यवहार या आचरण से सीधा सम्बन्ध नहीं होता। जीन शरीर के उत्तक तथा अण्डों के विकास को निर्देशित नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार वे शरीर की क्रियाशीलता को भी नियन्त्रित करते हैं। शरीर की ये उस रूप में जीन्स का सम्बन्ध व्यवहार से भी होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वंशानुक्रम से छोटी, टाँगे, ठूँठदार अंगुलियाँ या बहरे कान प्राप्त करता है तो निश्चय ही कुछ क्षेत्रों में उसकी योग्यता सीमित हो जायेगी। इसी प्रकार शारीरिक क्रियाओं में भाग लेने वाले हजारों रासायनिक तत्त्व भी जीन्स द्वारा ही निर्धारित होते हैं। जैसे दृष्टि के लिए प्रकाश संवेदी तत्त्व याक्रिरक्त के जमने में कई रासायनिक तत्त्व योग देते हैं। इन तत्त्वों की उपस्थिति सशक्तता या दुर्बलता का सम्बन्ध जीन्स से ही होता है। ऐसे अनेक लक्षण वंशानुक्रम से सम्बन्धित होते हैं।

वंशानुक्रम के आधारभूत घटकों, जीन्स और क्रोमोसोम्स के अध्ययनों के निष्कर्ष इस तथ्य के द्योतक है कि अन्नमय कोश में निर्माण का सूक्ष्म आधार कितना व्यापक और जटिल होता है। पौष्टिक भोजन मात्र से अन्नमय कोश सुदृढ़ नहीं हो जाता। इसके विपरीत अन्नमय कोश की सुदृढ़ता ही भोजन के परा-परिपाक का कारण व आधार बनती है। बढ़िया खाने-पहनने की चिन्ता करते रहने को ही जीवन का पुरुषार्थ मान बैठने वाले अन्नमय कोश के निर्माण के आधारों से अनभिज्ञ रहकर उसे अस्त-व्यस्त और दूषित, विकृत बनाते रहते हैं। और भावी सन्तति को भी उस विकृति का अभिशाप दे जाते हैं।

एक जीन, युग्म शरीर के किसी विशेष ‘करेक्टरिस्टिक’ के विकास का निर्देश करता है आँखें, भूरी हैं या नीली, बाल घने काले हैं या हल्के स्वर्णिम हैं अथवा लाल, घुँघराले हैं या सीधे, सामान्य बाल हैं या गंजापन है, दृष्टि सामान्य है, या रतौंधी ज्यादा होने की सम्भावना है, श्रवण-शक्ति सामान्य है या जन्मजात बहरापन है, रक्त सामान्य है या कि “हेमोफीलिया” का दोष है, रंग-बोध स्पष्ट है या वर्णान्धता दोष है, उँगलियों या अँगूठों की संख्या सामान्य है या कम-अधिक है, किसी जोड़ में कोई उँगली छोटी-बड़ी तो नहीं है, सभी अवयव सामान्य है या कुछ अवयव विरूप है, आदि सभी शारीरिक “करेक्टरिस्टिक्स’ जीन-युग्मों पर ही निर्भर करते हैं।

फ्राँसीसी दार्शनिक मान्टेन को 45 वर्ष की आयु में पथरी की बीमारी हुई। उनके पिता को यह रोग 25 वर्ष की आयु में आरम्भ हुआ। जबकि मान्टेन के जन्म के समय उनके पिता सिर्फ इक्कीस वर्ष के थे। उस समय उन्हें यह रोग नहीं था। लेकिन उनके जीन्स में इस रोग के आधार विद्यमान् थे। मान्टेन की पित्ताशय की पथरी की बीमारी कई पीढ़ियों से चली आ रही थी।

बालकों का ‘गैलेक्टो सीमियाँ’ रोग जीन्स से ही सम्बन्धित होता है। वह जीन, जब “जीरों डायल ट्रान्सफरे एन्जाइम नहीं बनते देता, तो बच्चे दूध में रहने वाली मिठास-गैलेक्टोस-को पचा नहीं पाते। फलतः वह खून में जमा होती रहती है और जिगर में इकट्ठी होकर बच्चे का पेट खराब कर देती है तथा मृत्यु का भी कारण बन बैठती।

“एक्रोडमे टाइटिस ऐटेरोपैथिका” नामक रोग का कारण भी मुख्यतः जीन्स की विकृतियाँ ही होती है। आँख का कैन्सर-रेटीनों ब्लास्टीमा-जीन्स-दोष का ही परिणाम है। जीन्स की एक्रोड्रोप्लास्या-विकृति के कारण बच्चे अविकसित रह जाते हैं। वे जल्दी मरते हैं। बच गये तो भी वंश-वृद्धि में असमर्थ होते हैं। ऐसे दोष वाली महिलाएँ गर्भवती होने पर स्वयं की भी प्राण-रक्षा नहीं कर पाती बच्चे की जान तो खतरे में होती ही है।

‘राइजोंवियम’ नामक जीवाणु की जान का यदि धान, गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि फसलों की जड़ों में पलने वाले किसी जीवाणु में प्रत्यारोपित करना सम्भव हो तो इन फसलों के लिए अधिक उर्वरक नहीं खर्च करना पड़ेगा। भारत समेत विश्व भर की आनुवांशिकी प्रयोगशालाओं में इस हेतु प्रयास हो रहा है।

स्थूल दृष्टि से उपेक्षणीय लगने वाले इस अन्नमय कोश के अति सूक्ष्म घटक ‘जीन्स’ के साथ मनुष्य के उत्कर्ष की कितनी धारायें, कितनी सम्भावनायें जुड़ी है, इसे देखकर इसके रचयिता उस महान् कलाकार की कलाकारी को शत शत नमन ही करते बनता है। अन्तर में बार-बार यही हूक उठती है कि क्या हो अच्छा होता कि हम इन महत् शक्तियों के जागरण और उपयोग की विधि जान पते, सीख पाते और अपना पाते?

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