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Magazine - Year 1977 - Version 2

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साधन तो जुटाएँ पर साध्य का स्तर बढ़ाएँ

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बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्य इसलिए उपेक्षा के गर्त में पड़े रह जाते हैं कि उनकी ओर ध्यान ही नहीं जाता। उपेक्षावृत्ति के कारण न उन कामों की उपयोगिता प्रतीत होती है और न यह पता चलता है कि इसके न करने से कितनी हानि उठानी पड़ेगी। जिनका अभ्यास पड़ जाता है वे निरर्थक काम भी बड़े उत्साह पूर्वक किये जाते रहते हैं और जिनके प्रति उपेक्षा बरती गई है- जिनका महत्त्व नहीं समझा गया है वे कार्य अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी हाथ में नहीं लिए जाते। होना यह चाहिए कि हम विवेकपूर्वक यह देखें कि उपयोगिता की दृष्टि से किन कार्यों का कितना महत्त्व है। इसी क्रम से प्रमुखता दी जाने लगे तो यह बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण नीति होगी और जितना समय व्यतिक्रम के कारण नष्ट होता है उतने में ही श्रम को सार्थक बनाने वाली उपलब्धियाँ समझी जाती है इसके बाद शारीरिक स्वास्थ्य की तो नहीं इन्द्रिय लिप्साओं की पूर्ति को प्रमुखता मिलती है। यह स्थूल बुद्धि का चिह्न है कि साधनों को महत्त्व दिया जा और साध्य के प्रति उपेक्षा बनी रहे। धन व्यक्तित्व के-उसके साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए आवश्यक होता है। इसलिए उसका उपार्जन उचित है। पर यहाँ भी अतिवाद नहीं बरता जाना चाहिए। सन्तुलन बरता जाना चाहिए और विवेक से काम लिया जाना चाहिए। देखा जाता चाहिए कि उपार्जन में इतनी अधिक ललक तो नहीं बढ़ गई है कि जिन व्यक्तित्व के विकास एवं उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए यह सब किया जा रहा है उन मूल आधारों को ही तो विस्मृत नहीं कर दिया गया। आमतौर से लोग अर्थ-लोलुपता में अत्यधिक ग्रस्त रहते हैं, उसमें इतने तन्मय रहते हैं कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा वृद्धि तक की बात भुला दी जाती है। धन बढ़ा किन्तु व्यक्तित्व गिर गया तो फिर उस उपार्जन की अतिवादिता को किस प्रकार सराहा जा सकेगा। साधन के साथ साध्य का भी ध्यान रखकर चला जाना चाहिए और दोनों क्षेत्रों में सन्तुलित उत्साह बनाये रहने की समन्वयात्मक नीति अपनानी चाहिए।

व्यक्तिगत सुख साधन की बात सोचने में भी एक मौलिक भूल रह जाती है कि इन्द्रिय लिप्साओं की पूर्ति को ही सुखोपलब्धि मान लिया जाता है। जीभ के चटोरे पन के लिए ढेरों पैसा और ढेरों श्रम, समय खर्च किया जाता है। उसके लिए तरह तरह की योजनाएँ बनती रहती हैं। इसी प्रकार कामुक चिन्तन और आचरण में में इतना समय एवं मनोयोग लगता है कि उतनी सामर्थ्य वैज्ञानिक अनुसंधान जैसे किसी उपयोगी कार्य में लगा देने पर उच्चस्तरीय सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं। जितनी दिलचस्पी अश्लील यौनाचार के इर्द-गिर्द घुमड़ती रहती है, उतनी को ही कला साधना में नियोजित किया जा सके तो उतने भर से मनुष्य अपनी रुचि की संगीत, साहित्य आदि किसी भी कलाकारिता में प्रवीण एवं पारंगत बन सकता है। यही बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में है। वे अपनी ललक लिप्साओं के रसास्वादन में भटकती रहती है। यह स्मरण ही नहीं रहता कि उपभोग की समर्थता बनाये रहने के लिए इन्द्रिय शक्ति के संयम और सुनियोजन की कितनी अधिक आवश्यकता है। विलासी अतिवाद इन्द्रिय शक्ति को क्रमशः क्षीण करता चला जाता है और एक समय ऐसा आता है कि स्वाद की अनुभूति ह कुण्ठित हो जाती है।

सामान्य स्वाद से जिव्हा की तृप्ति ही नहीं होता। अधिक तीक्ष्ण मसाले एवं गन्ध का समन्वय किये बिना उत्तम आहार भी रुचिकर नहीं लगता। यह जिव्हा इन्द्रिय के स्वाद तन्तुओं की क्षीणता ही है जिसके कारण सामान्य आहार से ही जो प्रसन्नता एवं तृप्ति हो सकती है, उसका आधार ही समाप्त हो जाता है। अति उत्तेजना का साधन जुटाने में भी यदि तीक्ष्णता का अनुपात बढ़ता चले तो ही किसी प्रकार जिव्हा को सन्तोष होगा अन्यथा वह नाक-भौं चढ़ाती रहेगी। कामुकता के सम्बन्ध में भी यही बात है। संयमी दृष्टि रहने और ओजस् का अपव्यय न करने वालों को दम्पत्ति जीवन का सामान्य सहचर ही पर्याप्त उत्साह और सन्तोष देता रहता है, पर लम्पट व्यक्ति समस्त मर्यादाओं का अतिक्रमण कर जाने पर भी अतृप्ति ही अनुभव करते रहते हैं। एक समय आता है कि उनकी क्षमता बेहतर कुण्ठित हो जाती है और फिर मानसिक व्यभिचार के अतिरिक्त और कुछ सम्भव ही नहीं रह जाता। अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनकी लोलुपता तृप्त करते रहने पर अपव्यय के फलस्वरूप दिवाला निकल जाने का दुष्परिणाम सामने आता है। जिन्हें उपभोग का सुख देने के लिए तरह तरह के समाधान जुटाये गये थे वे उस कुचक्र में अपनी साध्य नष्ट हुआ तो ऐसा बरताव किस प्रकार बुद्धिमत्तापूर्ण ठहराया जाय?

धन कमाया सो तो ठीक हुआ, पर अनावश्यक मात्रा एकत्रित करने की ललक में यदि शारीरिक, मानसिक स्वस्थता के लिए आवश्यक सुव्यवस्था भुला दी गई और दुर्बलता, अस्वस्थता के गर्त में गिरते चले गये तो फिर वह धन संग्रह किस काम का रहा? संग्रह का लालच बढ़ता रहा और उसे उपार्जन में व्यक्तित्व के समग्र विकास में न लगाया जा सका तो फिर इस संचय के अतिवाद से क्या प्रयोजन सधा? सदुपयोग की बात न सोची जाय और ऐसे ही उद्धत अपव्यय में पैसा उड़ाया जाता रहे तो उसके फलस्वरूप सर्वनाशी दुष्प्रवृत्तियाँ ही गले बँधेगी आदतें बिगड़ेगी और उसकी छूत से परिवार तथा संपर्क क्षेत्र को दुष्प्रवृत्तियों का शिकार होने के कारण दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। धन लिप्सा की अति की प्रतिक्रिया आर्थिक अनाचार अपनाने और तरह तरह के क्रूर कर्म करने की प्रवृत्ति बनकर सामने आती है। ऐसे व्यक्ति अपनी प्रामाणिकता खो बैठते हैं। उनके न मित्र शेष रहते हैं न सहयोगी, न प्रशंसक। घृणा, तिरस्कार एवं असहयोग बरसते रहने के कारण ऐसे लोग अन्ततः भारी घाटे में रहते हैं। अनीति की कमाई फुलझड़ी की तरह जलकर थोड़े ही समय में समाप्त हो जाती है और कुकर्मकर्ता के शिर पर लदा हुआ पाप का भार उसके लोक-परलोक को नष्ट करके रख देता है।

प्रसंग यहाँ साधन जुटाने के अत्युत्साह में साध्य की उपेक्षा करने पर उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों का चल रहा है। यह अनात्म बुद्धि की प्रतिक्रिया है। बहिरंग पर आसक्त होकर अन्तरंग को भुला देना-साधनों की लिप्सा से चिपक कर साध्य की उपेक्षा करने लगना-ऐसी अदूरदर्शितापूर्ण नीति है जिसे आमतौर से वही लोग अपनाते हैं जो बुद्धिमान कहलाते हैं और अपनी समझदारी पर दर्प करते हैं। कहने और मानने को तो कुछ भी कहा या माना जा सकता है, पर वस्तुस्थिति का पता तो परिणामों की कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त हो चलता है। देखा जाता है कि अधिक उपार्जन और अधिक उपभोग का दावा करने वाले सम्पन्न और विलासी लोग बहिर्मुखी दृष्टिकोण अपनाये रहने के कारण भारी घाटे में रहते हैं। जिस ‘स्व को सुखी समुन्नत बनाने के लिए यह तत्परता बरती गई थी, यदि वह मूलतत्त्व ही उलटा विनाश होने लगा तो इसमें बुद्धिमत्ता कहाँ रही?

तात्कालिक लाभ पाने के लालच में असंख्यों अदूरदर्शी भयंकर दुष्परिणाम भुगतते रहते हैं। यदि वही नीति समझदार कहलाने वाले लोग भी अपनाने लगे तब इसे विवेक का दिवाला ही कहा जाएगा लोभ वश कबूतर जाल में फँसते हैं, मछलियाँ काँटा निगलती हैं, मक्खियाँ चासनी में फँसती हैं, चूहे पिंजड़े में फँसते हैं- आरम्भिक लालच अन्त में उन्हें अत्यन्त महंगा पड़ता है। उसी मार्ग पर यदि मनुष्य भी चलता रहे तो उसे विचारशील कैसे कहा जा सकेगा?

स्वार्थ सिद्धि में निरत रहने वाले आमतौर से बुद्धि मान समझे जा जाते हैं। क्षण भर के लिए ऐसा ही मान लिया जाय, तो भी इतना तो देखना ही होगा कि वह दूर वर्ती और चिरस्थायी परिणाम उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। ऐसा स्वार्थ तो अनर्थ ही कहा जाएगा जो क्षणिक लोभ के छलावे में जकड़ कर भविष्य को अन्धकारमय बनाकर रख दे। नशेबाजी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। उस बुरी आदत को अपनाने वाले आरम्भ में कुछ सुरसरी, गुदगुदी अनुभव करते हैं और उस कुटेव पर टूट पड़ते हैं। परिणाम सामने आता जाता है। नशेबाज अपना स्वास्थ्य, धन सम्मान, परिवार दिन दिन क्षीण करते चले जाते हैं और अन्ततः बेमौत मरते हैं। जिसमें दूरगामी परिणामों की उपेक्षा कर दी जाय और क्षणिक आकर्षण को ही सब कुछ मान लिया जाय, उसे बुद्धि नहीं दुर्बुद्धि ही कहा जाएगा स्वार्थ सिद्धि के नाम पर प्रायः ऐसा ही किया जाता रहता है। उसकी संकीर्ण परिधि मात्र तात्कालिक लाभ ही सोच पाती है इसलिए लाभ के लोभ में अत्यधिक हानि उठानी पड़ती है। स्वार्थ यदि अदूरदर्शी हो तो उस संकीर्ण सीमा बन्धन के कारण वह अनर्थ बन जाता है। यदि स्वार्थ के साथ दूरगामी सत्परिणामों को जोड़कर रखा जो सकें, तो उसी का रूप ‘परमार्थ’ जैसा बन जाएगा

लोक व्यवहार में धन उपार्जन शरीर सुख के बाद-तीसरा नम्बर परिवार का आता है। ‘स्व’ की परिधि ‘पर’ तक विस्तृत होने की प्रक्रिया परिवार के रूप में परिणित होती है। इसके लिए प्रकृति प्रेरणा के रूप में कामवासना की ललक को प्राण के स्वभाव में सम्मिलित किया गया है। युवावस्था आते ही जोड़ीदार की तलाश होती है और विवाह बन्धन बँध जाते हैं। बच्चे होने लगते होती है और स्नेह, सहयोग का सिलसिला चल पड़ता है। एक साथ रहने से घनिष्ठता बढ़ती है और आदान-प्रदान है। एक साथ रहने से घनिष्ठता बढ़ती है और आदान-प्रदान लोक मर्यादा एवं उत्तरदायित्वों के समन्वय से परिवार बन जाता है ‘स्व’ की परिधि इस दायरे से फैलती है तो परिवार के सदस्यों का सुख-दुःख भी अपना बन जाता है और उनके उत्थान-पतन सम्मान-असम्मान में भी अपने जैसी सम्वेदना अनुभव होने लगती हैं। अनुलोम में माता-पिता जेष्ठ भ्राता, भवन भुआ आदि बड़ों को गिना जाता है। परिवार में अनुलोम और प्रतिलोम दोनों ही पक्ष के सदस्य सम्मिलित होते हैं। भरण-पोषण तो सभी का होता है किन्तु उनमें से जिनके प्रति जितना ‘स्व’ सघन होता है उनके साथ उतनी ही प्रीति घटती-बढ़ती रहती है। बच्चे अपनी माता को अधिक प्यार करते हैं, पर बड़े होने पर उसका केन्द्र बदल कर पत्नी पर जा टिकता है। इसी प्रकार पिता की उपेक्षा होने लगती और पुत्र के प्रति अधिक आकर्षण रहता है। यह परिवार की संरचना का प्रकृति प्रेरित आधार हुआ। इसमें भी प्रायः संकीर्ण स्वार्थ ही आधार बना रहता है। परिवार के लोगों की शरीर सुख पहुँचाने और मन को प्रसन्न करने की बात ही संचालक के मस्तिष्क में प्रधान रूप से रहती है। दूरगामी हित साधन यहाँ भी उपेक्षित ही पड़ा रहता है। सुविधाएँ जुटाने मात्र की दृष्टि रह जाती है। इस नीति को अपनाये रहते हैं, पर दूरदर्शिता के अभाव में इस नीति के कारण उनकी आदतें बिगाड़ देते हैं। वे बिगड़ी हुई आदतें जो लाड़ दुलार के नाम पर उत्पन्न की गई थीं, अन्ततः उन्हीं परिजनों के लिए दुष्परिणाम प्रस्तुत करती है, जिन्हें लाभान्वित करने की बात सोची गई थी। साधन को प्रमुख और साध्य को गौण मानकर चलने की प्रतिक्रिया अन्ततः ऐसी हो होती है।

परिवार में मनुष्य रहते हैं, मनुष्यों का निर्वाह साधनों से होता है, यह ठीक है, पर व्यक्ति मात्र निर्वाह भर के लिए ही तो नहीं। रोटी खाकर जीवित रहा जाता है, पर रोटी के लिए ही तो जीवन नहीं है। परिवार के लोगों को सुविधाएँ जुटा दी जाएँ, परन्तु उनके व्यक्तित्व का मूल्य बढ़ाने वाले गुण, कर्म, स्वभाव, चरित्र एवं दृष्टिकोण पर निर्भर हैं। शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ और मानसिक दृष्टि से सभ्य मनुष्य ही प्रगति करते, सम्मान पाते और सफल जीवन जीते देखे गये हैं। वे ही अपनी चन्दन जैसी सुगन्ध से सभी पवती वातावरण को सुगन्धित करते हैं। उन्हीं के द्वारा देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति की कोई महत्त्वपूर्ण सेवा बन पड़ती है। ऐसे ही लोग नर रत्न कहलाते हैं। परिवार वे ही सराहें जा सकते हैं, जिन्हें नररत्न उत्पन्न करने वाली खदान कहलाने का श्रेय प्राप्त हो सकें।

परिवार को ऐसे ही नर्सरी के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। जिसमें उगाई हुई पौध दूर दूर तक सुरम्य उद्यानों के रूप में विकसित होने का श्रेय प्राप्त कर सकें। परिजनों का सच्चा हित साधन इसी में है कि वे आत्म निर्भर और आत्म सम्मान खरीद सकने जितनी सम्पदा से सुसम्पन्न बनें। सम्पदा के सहारे खड़ा हुआ बड़प्पन अतीव दुर्बल होता है, वह कभी भी बालू की दीवार की तरह ढह सकता है। स्थायित्व तो उनमें है जिनमें प्रचण्ड प्रतिभा, प्रखर पुरुषार्थ और उज्ज्वल चरित्र के तत्त्व अभीष्ट परिमाण में विद्यमान् है। यदि किसी को अपने परिवार से वस्तुतः प्रेम हो-आत्मीयता शुभेच्छा में गहराई हो तो इसी तथ्य पर ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए कि कुटुम्बियों का व्यक्तित्व किसी प्रकार अधिकाधिक परिष्कृत होता चला जाय।

यह कार्य श्रम-साध्य और कष्ट-साध्य है। इसके लिए घर के लोगों को जितना सिखाना है, उससे कहीं अधिक अपने को साधना पड़ता है। कहने सुनने की, समझने समझाने की सामर्थ्य अत्यन्त स्वल्प है। किसी को ऊँचा चढ़ाने और आगे बढ़ाने की शिक्षा अपना अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करके ही दी जा सकती है। अपना निज का व्यक्तित्व इस प्रकार ढाला जाना चाहिए जिसमें ठप्पे में ढलने वाले खिलौनों की तरह सम्पर्क क्षेत्र के लोग विशेषतया अपने परिवार के सदस्य अनायास ही ढलते चले जाएँ यह सब संभव तभी हो सकता है जब परिवार संस्था के सदस्यों को आत्माएँ माना जाय और उनके उज्ज्वल भविष्य की झाँकी सुविधा संवर्द्धन में नहीं, वरन् व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के साथ सम्बद्ध समझी जाय।

समाज हित के बारे में आमतौर से इतनी ही सोचा जाता है कि गरीबी, बीमारी, अशिक्षा आदि अभावों को दूर करने भर से पिछड़ापन दूर हो जाएगी यहाँ यह समझा जाना चाहिए कि समृद्धि संवर्धन की आवश्यकता स्वीकार करने और उन प्रयासों के प्रोत्साहन का समर्थन करते हुए भी इतने भर को पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। सज्जनता, शालीनता, दूरदर्शिता, सहकारिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को सुविकसित न किया जा सका तो फिर भौतिक दृष्टि से कितनी ही अधिक उन्नति कर लेने पर भी कोई देश या समाज सच्चे अर्थों में बलिष्ठ न बन सकेगा। जहाँ चारित्रिक दुर्बलता, संकीर्ण स्वार्थपरता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ पनप रही होंगी वहाँ सम्पन्नता के रहते हुए भी किसी को चैन न मिल सकेगा और दरिद्रता से भी गई गुजरी स्थिति बनी रहेगी।

लोक-सेवा के लिए साधारण की असुविधाओं को दूर करना एवं सुख साधनों को बढ़ाना आवश्यक तो है, पर उतने मात्र से अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। लोग वस्तुतः व्यक्तित्वों का समूह भर हैं। व्यक्ति के उत्थान पतन का मूलभूत कारण उसकी मनः स्थिति है। इस क्षेत्र को सँभाले, सुधारे बिना प्रचुर साधन जुटा देने पर भी यदि मनुष्य दुर्बुद्धि युक्त है तो उन साधनों का दुरुपयोग करके और भी अधिक विपत्ति मोल लेगा और दरिद्रता से भी गई गुजरी स्थिति में जा पहुँचेगा। अस्तु साधन जुटाने के साथ साध्य को- व्यक्ति को गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से परिष्कृत, सुसंस्कृत, सद्भाव सम्पन्न बनाने पर ध्यान देना होगा। यहाँ भी साध्य को प्रमुखता देने की आवश्यकता है। यदि चेतना का स्तर बढ़ाने की बात को व्यर्थ समझा जाता रहा और साधनों के लिए दौड़-धूप चलती रही तो असंख्य सुविधाएँ बढ़ जाने पर भी पिछड़ापन दूर न हो सकेगा और वे सुसम्पन्न विपत्तियों में जा फँसेंगे जो अपेक्षाकृत और भी अधिक कष्टकारक सिद्ध होंगे।

यही भूल आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में होती रही है। उपासना परक कितने की चित्र विचित्र कर्मकाण्डों की भरमार की जाती रहती है। साधन का स्वरूप क्रिया कृत्यों तक सीमित रहता है। उतने को ही पर्याप्त मानकर सिद्धि चमत्कार की, स्वर्ग मुक्ति की, आत्म-साक्षात्कार ईश्वर दर्शन की अपेक्षा की जाती रहती है। यहाँ भी साधना परक साधनों को ही सब कुछ मान लिया गया है। साध्य आत्मा है। आत्मा को निर्मल एवं प्रखर बनाया जाय। उसकी भावनात्मक, विचारात्मक एवं क्रियात्मक दिशा धाराओं को उत्कृष्टता के साथ नियोजित करके देवत्व स्तर पहुँचाया जाय, इसकी ओर उपेक्षा बरती जाती है। फलतः वह लक्ष्य प्राप्त नहीं होता जिसके लिए अध्यात्म साधनाएँ की जाती हैं।

हम साध्य को प्रमुखता दें। उसे परिपुष्ट बनाने का ध्यान रखें। साधनों की आवश्यकता साध्य का परिपोषण करने के लिए करें। तो प्रयत्न करते हुए भी कुछ पल्ले न पड़ने की आज की स्थिति का अन्त हो जाएगा और सच्चे अर्थों में प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे, जिसे व्यक्ति और समाज की समान प्रगति कहा जा सकता है।

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