
मंत्र में शब्द, चरित्र और भावना की समन्वित शक्ति
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मन्त्र शक्ति में प्रथम आधार है ध्वनि प्रवाह का सही होना। शब्द वस्तुतः एक तरह की कम्पन-तरंगों ही हैं। मस्तिष्क में यह जानकारी व अभ्यास संचित है कि किन स्वर-यन्त्रों में किस तरह की हलचल करने से बाह्य-जगत में कौन से शब्द तथा विचार सम्प्रेषित होंगे। व्यक्ति की इच्छा-शक्ति से प्रेरित होकर उच्चारण-मन्त्रों में पूर्वाभास के अनुसार उभार पैदा होता है, उस उभार से मुँह में भरी हुई वायु को तथा बाहर की वायु को आघात लगता है और ध्वनि तरंगें पैदा होने लगती हैं। सुनने वाले व्यक्ति के कान इन ध्वनि-तरंगों को सुनकर उनका मस्तिष्कीय जानकारी एवं अभ्यास के आधार पर विश्लेषण कर उन शब्दों का अर्थ व प्रयोजन निश्चित करते हैं। इस तरह इच्छा से गति तथा गति से तरंगों उत्पन्न होती हैं। ये ध्वनि-कम्पन वायु के भीतर रहने वाले एक सूक्ष्म तत्त्व ‘ईश्वर’ से होते हैं। ईश्वर तत्त्व के परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म और अति संवेदनशील हैं तथा एक सेकेण्ड में 34 अरब तक कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं। यद्यपि हमारे कान एक सेकेण्ड में 32 से 68 तक ही कम्पन सुन समझ सकते हैं। 32 से कम नहीं और 68 से अधिक नहीं। जब ईश्वर तत्त्व के परमाणुओं द्वारा उत्पन्न कम्पन चरम सीमा पर अर्थात् 34 अरब के प्रति सेकेण्ड के आस पास पहुँचते हैं, तो उनसे एक अखण्ड प्रकाश की किरणें प्रवाहित होने लगती है। यही प्रकाश-किरणें एक्सरे कहलाती हैं। ये किरणें अद्भुत गतिशील होती हैं, एक सेकेण्ड में ये प्रायः एक करोड़ मील चल लेती हैं। इसी आधार पर रेडियो, टेलीविजन बने हैं। वायु के कम्पन नष्ट हो जाते हैं, किन्तु ईश्वर के कम्पन कभी भी नष्ट नहीं होते। हाँ, पुराने होने पर वे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की सतह पर जाकर स्थिर हो जाते हैं। वहाँ वे बलिष्ठ हो जाने पर अपने समानधर्मी अन्य कम्पनों को अपनी ओर खींचते हैं और दुर्बल होने पर समानधर्मी किन्तु शक्तिशाली अन्य कम्पनों की ओर खिंच जाते हैं। इस तरह संघ-शक्ति के आधार पर वे एक चुम्बकत्व का सृजन कर सकते हैं। यह चुम्बकत्व एक चेतना जैसा होता है, जो समानधर्मी चेतना वाले मनुष्यों को प्रभावित करता है। जिन मनुष्यों के मस्तिष्क की स्थिति उन प्राचीन, सुसंगठित शब्दों की कम्पन शक्ति से मिलती जुलती होगी, उन पर इस चुम्बकत्व शक्ति का, इस चेतना का सीधा प्रभाव पड़ेगा। यदि स्थिति समान न हुई, तो समान शब्दों का उच्चारण उस प्रभाव की उपस्थिति का परिचय तो दे सकता है, किन्तु उस पर गहरा प्रभाव नहीं डाल सकता। इसीलिए मन्त्र-जपकर्ता की अन्तश्चेतना का परिष्कार अत्यावश्यक है। सभी पूर्वज ऋषियों की चेतना से उसकी सम्वेदना जुड़ सकती है।
ध्वनि एक प्रत्यक्ष शक्ति है। अणु-शक्ति विद्युत-शक्ति ताप-शक्ति आदि की तरह ही शब्द शक्ति का भी उपयोग सम्भव है।
शब्द से कम्पन होता है। मुख अथवा किसी पदार्थ विशेष में शक्ति का प्रयोग होने से शब्द, प्रवाह निःसृत होता है। इस प्रकार शब्द अपने आप में कम्पन प्रवाह की एक स्थिति विशेष है। बाह्य वायु से आन्तरिक वायु की टक्कर होने से ध्वनि का यह कम्पन प्रवाह प्रारम्भ होता है।
मन्त्रों के शब्द प्रवाह का जो चित्र बनता है, उसी के आधार पर उनके अधियनता देवताओं की आकृति का आकलन किया गया है।
शब्दों की भावोत्तेजक क्षमता सुविदित है। साथ ही उनमें वह सामर्थ्य भी विद्यमान् हैं जो स्वयं को भी तथा अन्यों को- सम्पूर्ण सूक्ष्म जगत को प्रभावित कर सकें। मन्त्र विज्ञान में इसी सामर्थ्य का उपयोग होता है।
जिस प्रकार सितार के तारों पर एक निश्चित क्रम से उँगलियाँ रखने पर सुनिश्चित स्वर लहरियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार शब्दों के उच्चारण का एक लयबद्ध क्रम विशिष्ट कम्पनों को उत्पन्न करता है, जो विशेष शक्तिशाली व प्रभावोत्पादक होते हैं।
इसीलिए मन्त्रों में महत्त्व मात्र शब्दार्थ का नहीं। हमारे मुख के तार षट्चक्रों, दिव्य-ग्रन्थियों आदि सूक्ष्म शरीर संस्थानों से जुड़े है। टाइपराइटर की चाबियाँ दबाते चलने से अक्षरों के टाइप होते चलने की ही तरह विशद वैज्ञानिक प्रक्रिया से विनिर्मित मन्त्र गुम्फन मनुष्य के सूक्ष्म शरीर संस्थानों पर सीधा असर डालते हैं और वहाँ एक अतिरिक्त शक्ति प्रवाह उत्पन्न करते हैं। भीतर गूँजते हुए मन्त्र कम्पन स्वयं मन्त्र विज्ञानी को लाभ पहुँचाते हैं और बाहर निकलने पर वे वातावरण को सम्भावनाओं का सृजन करते हैं तथा चाहे जाने पर किसी व्यक्ति विशेष को भी प्रभावित करते हैं।
शब्द शक्ति का चिन्तन मनन उसकी महत्ता व गरिमा का स्मरण कराता है। आज चारों ओर बढ़ रहे शोर से प्रदूषण उत्पन्न होने की चिन्ता चारों और व्यक्त की जा रही है तथा इस शोर को सामाजिक तनाव, बेचैनी और विकृति के कारणों में से एक कहा- बताया जा रहा है। ध्वनियों के अप्रत्याशित आश्चर्यजनक परिणामों की लगातार जानकारी मिल रही है। सभी जानते हैं कि वर्तमान यांत्रिक सभ्यता का शोर सम्पूर्ण मानव जाति पर गहरा दुष्प्रभाव डाल रहा है।
संगीत के प्रभाव पर भी इधर अधिकाधिक खोजे हुई हैं। पशुओं का दूध बढ़ाने, पौधों की विकास, बच्चों में अनुशासन का विकास, समूह में विशिष्ट भावोत्तेजना की सृष्टि आदि के लिए संगीत की प्रभावों की बात अब सर्वविदित है। संगीत वस्तुतः ध्वनि प्रवाह का एक क्रम विशेष मात्र है। उसकी शक्ति शब्द व ध्वनि की ही शक्ति है।
मन्त्र भी इसी शक्ति के पुंज है। उनके अक्षरों का चयन क्रम एवं उच्चारण की अनुशासित व्यवस्था, दोनों का समन्वित प्रभाव साधक को अतिरिक्त विशेषताओं से सम्पन्न बनाता है। उसके आत्मबल को प्रखर प्रबल बनाता है और अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। मन्त्रों के शब्दों का चयन गुँथन विशिष्ट होता है। वे ध्वनि विज्ञान के विशेष नियम-क्रम के अनुरूप गढ़े होते हैं। इसी से उनको देर तक एक ही प्रवाह से उच्चारण करने पर एक विशेष स्तर की ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा विकसित होने पर साधक को उसकी विशिष्ट अनुभूति स्वाभाविक व अनिवार्य है। यह कई तरह की हो सकती है। शरीर मन में स्फूर्ति, उत्साह, विश्वास की वृद्धि होती है। किसी किसी को मन्त्र देवता का साक्षात्कार होता है और सफलता का आशीर्वाद सुनाई पड़ता है। ये अनुभूतियाँ सूक्ष्म इन्द्रियों द्वारा ही होती हैं, तो भी प्रबलता एवं प्रखरता की स्थिति में कई बार स्थूल दर्शन श्रवण जैसे अनुभव हो सकता है, यद्यपि यह हर एक के साथ होना अनिवार्य नहीं। किन्तु विश्वास एवं निष्ठा को परिपक्वता, उत्साह तथा मनोबल की अनुभूति का आधार अवश्य मिलता है। मन्त्र की भाव भूमिका चुम्बकत्व उत्पन्न करती और स्फोट इस चुम्बकत्व को कई गुना विस्तृत एवं सशक्त बनाता है। निष्ठावान् साधक इन उपलब्धियों को प्राप्त कर बढ़ता जाता है।
मन्त्र साधना के साथ-साथ कई प्रकार के व्रत नियमों का पालन करना पड़ता है। साधक को आहार विहार का संयम बरतना पड़ता है। ब्रह्मचर्य से रहना पड़ता है तथा ऐसी मर्यादाओं का पालन करना होता है जो साधक को चरित्रवान, सज्जन, सद्गुणी बनाने के लिए प्रेरणा प्रदान करती है। क्रोध, द्वेष आदि दुर्गुणों का निषेध इसीलिए किया जाता है कि मन्त्र शक्ति उत्पन्न करने वाले शरीर तथा मन को कषाय-कल्मषों से रहित होना चाहिए। मैले कपड़े पर रंग नहीं चढ़ता। रँगाई से पहले धुलाई आवश्यक होती है। मन्त्र की शक्ति का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए साधक के इन्द्रिय समूह तथा अन्तः करण चतुष्टय का परिष्कृत होना आवश्यक है। देखा जाता है कि चरित्रवान साधक स्वल्प जप तप से ही आशाजनक सफलता प्राप्त कर लेते हैं जब कि दोष, दुर्गुणों को चरितार्थ करते रहने वालों की लम्बी और कष्टसाध्य भी निरर्थक चली जाती है।
मन्त्र विज्ञान में जिव्हा के साथ साथ हृदय की शक्ति के समावेश का भी वर्णन है। कहा गया है मन्त्र की प्रखरता के स्त्रोत हृदय से भी उद्भूत होते हैं। यहाँ हृदय से तात्पर्य रक्त संचार करने वाली उस थैली से नहीं है जो अहिर्निशं धड़कती और कण कण को पोषण प्रदान करती है। यों शरीर में जीवन की विभिन्न गतिविधियों के संचालन में प्रयुक्त होने वाली ऊर्जा इसी बिजली घर से मिलती है और उसका प्रभाव अध्यात्म क्षेत्र पर भी पड़ता है। इसीलिए फेफड़ों के माध्यम से हृदय को प्रभावित करने वाले प्राणायामों का विधान बनाया गया है और उसे साधना प्रयोजनों का आवश्यक अंग माना गया है। इतने पर भी मन्त्र शक्ति को प्रखर बनाने में जहाँ हृदय के उपयोग की चर्चा है, वहाँ उसका प्रयोजन भावना शक्ति से है। शरीर विज्ञान में ‘हृदय ’रक्त संचार में संलग्न बाई पसलियों के मध्य अवस्थित मुट्ठी जितने आकार की थैली को कहा जाता है, पर आध्यात्मिक विवेचना में ‘उसे’ भाव संस्थान समझा जाना चाहिए। भावना का- श्रद्धा सम्वेदना का जितना उच्चस्तरीय समावेश मन्त्र साधना में होता है, अश्रद्धा, उपेक्षा और अन्य आमनस्क भाव से बेगार टालने की तरह किसी प्रकार अमुक अक्षरों को रटते रहा जाय तो उससे न तो जिव्हा की शक्ति का उपयोग हुआ माना जाएगा और न हृदय शक्ति का समावेश हुआ कहा जाएगा
जिव्हा की शक्ति को अन्तरिक्ष में बलपूर्वक उड़ाया है, इसका तात्पर्य वाक् शक्ति से है, जो सस्वर, उच्चारण और पवित्र सिंचन से उत्पन्न होती है। पवित्र सिंचन का अर्थ है अनीति उपार्जित अभक्ष्य आहार और कटुभाषण असत्य एवं गिराने वाले परामर्श का परित्याग। जिस जिव्हा से कुधान्य नहीं खाया जाता और पशु प्रवृत्तियों को नहीं भड़काया जाता, उससे उच्चारण की हुई वाणी वाक् कह लाती है और वह प्रत्यक्ष सरस्वती बनकर मन्त्र की शक्ति को प्रचण्ड बना सकने में समर्थ होती है।
हृदय स्थान पर प्रकाश का ध्यान करने-वहाँ न्यास कृत्य करके पवित्रता की आस्था जमाने एवं प्राणायाम के माध्यम से सशक्त बनाने का जो उपक्रम किया जाता है उसे स्थानीय उपचार नहीं समझना चाहिए, वरन् यह तात्पर्य समझ लेना चाहिए कि भावना को उत्कृष्ट बनाने के लिए अंगुलि निर्देश किया जा रहा है। ‘सहृदय’ उसे नहीं कहा जाता जिसकी छाती में हृदय की थैली हो वह तो हर मनुष्य में होती ही है। इससे तो हर व्यक्ति सहृदय कहा जा सकता है। इसी प्रकार ‘हृदय हीन’ का अर्थ निष्ठुर भावना रहित को कहा जाता है, ऐसा तो कोई भी व्यक्ति न होगा जिसके वक्षस्थल में रक्त संचार करने वाली ‘हार्ट’ नामक थैली न हो, वरन् ऐसा भावना के केन्द्र बिन्दु से है। प्रामाणिक उच्चस्तरीय स्तर पर विनिर्मित-स्वर विज्ञान के अनुरूप व्यवहृत-पवित्र जिव्हा द्वारा उच्चरित और सद्भाव सम्पन्न अन्तःकरण द्वारा सुसंस्कारित मंत्राराधन अभीष्ट प्रयोजन में सफल होकर रहता है यह निश्चित है।