
उज्ज्वल भविष्य के लिये सुविकसित सन्तान की आवश्यकता
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अच्छा बीज अच्छी जमीन में बोया जाय तो उससे मजबूत पौधा उगेगा और उस पर बढ़िया फल-फूल आवेंगे इस तथ्य से क्या शिक्षित, क्या अशिक्षित सभी परिचित हैं। जिन्हें कृषि एवं उद्यान से अच्छा प्रतिफल पाने की आकांक्षा है वे इस तथ्य पर आरम्भ से ही ध्यान रखते हैं जुटाया जाय और उनका स्तर ऊँचा रखा जाय।
यों विवाह एक निजी मामला समझा जाता है और संतानोत्पादन को भी व्यक्तिगत क्रिया-कलाप की परिधि में सम्मिलित करते हैं। पर वस्तुतः यह एक सार्वजनिक सामाजिक एवं सार्वभौम प्रश्न है। क्योंकि भावी पीढ़ियों के निर्माण की आधारशिला यही है। राष्ट्र और विश्व का भविष्य उज्ज्वल एवं सुसम्पन्न बनाने की प्रक्रिया धन समृद्धि पर टिकी हुई नहीं हैं, वरन् इस बात पर निर्भर है कि भावी नागरिकों का शारीरिक, बौद्धिक एवं चारित्रिक स्तर कैसा होगा? धातुएँ, इमारतें या हथियार नहीं, किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा वहाँ के नागरिक ही होते हैं। वे जैसे भी भले या बुरे होंगे, उसी स्तर का समाज, समय एवं वातावरण बनेगा इसलिए भावी प्रगति की बात सोचने में हमें सुसंतति के निर्माण की व्यवस्था जुटाने की बात भी ध्यान में रखनी चाहिए।
घरेलू पशुओं यहाँ तक कि पालतू कुत्ते, बिल्लियों तक के बारे में हमारे प्रयास यह होते हैं कि पुरा करने में रुग्ण, दुर्बल अथवा अयोग्य समझते हैं उनका प्रजनन प्रतिबन्धित कर देते हैं। इस प्रतिबद्धता प्रोत्साहन में उचित वंश-वृद्धि की बात ही सामने रखी जाती है। क्या मानव प्राणी की नस्लें ऐसे ही अस्त-व्यस्त बनने दी जानी चाहिए, जैसी कि इन दिनों बन रहीं हैं? क्या इस संदर्भ में कुछ देख-भाल करना या सोचना-विचारना समाज का कर्तव्य नहीं है? क्या बच्चे मात्र माता-पिता की ही सन्तति हैं।
क्या उनका स्तर समाज को प्रभावित नहीं करता? इन बातों होगा कि किसी राष्ट्र या समाज का भविष्य उसकी भावी पीढ़ियों पर निर्भर हैं। यदि सुयोग्य नागरिकों की जरूरत हो तो भोजन, चिकित्सा अथवा शिक्षा का प्रबन्ध भर कर देने से काम नहीं चलेगी। इस सुधार का क्रम सुयोग्य जनक-जननी द्वारा सुविकसित सन्तान उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व निबाहने से होगा। यह तैयारी विवाह के दिन से ही आरम्भ हो जाती है। यदि पति-पत्नी की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति सुयोग्य सन्तान के उत्पादन तथा भरण-पोषण के उपयुक्त नहीं है तो उनके द्वारा की जाने वाली वंश-वृद्धि अवांछनीय स्तर की ही बनेगी और उसका दुष्परिणाम समस्त समाज को भुगतना पड़ेगा।
वंशानुक्रम विज्ञान की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। जनम से पाये जाने वाले गुण-सूत्रों को भावी पीढ़ियों के निर्माण का सारा श्रेय दिया जा रहा है। इन जीव कणों में हेर-फेर करके ऐसे उपाय ढूँढ़े जा रहे हैं जिनके आधार पर मनचाहे आकार-प्रकार की सन्तानों को जन्म दिया जा सके। इस अत्युत्साह में अभी तक आँशिक सफलता ही मिली है। क्योंकि गुणों सूत्रों ने आकृति तक में अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत नहीं किया फिर प्रकृति के परिवर्तन की तो बात ही क्या की जाय?
प्रयोगशालाओं में- रासायनिक पदार्थों की अथवा विद्युत उपचार की ऐसी विधि-व्यवस्था सोची जा रही है जिससे अभीष्ट स्तर की सन्तान पैदा की जा सकें। इस दिशा में जी तोड़ प्रयत्न हो रहे हैं और सोचा जा रहा हैं कि बिना माता का स्तर सुधारे अथवा बिना वातावरण की चिन्ता किये वैज्ञानिक विद्या के आधार पर सुसन्तति उत्पादन की व्यवस्था यांत्रिक क्रिया-कलाप द्वारा सम्पन्न कर ली जाएगी
जनन-रस में पाये जाने वाले गुण-सूत्र में एक व्यक्ति रूप डामिनेंट है। दूसरा अव्यक्त रूप है- रिसेसिव व्यक्त भाग को भौतिक माध्यमों से प्रभावित किया जा सकता है और उस सीमा तक भले या बुरे प्रभाव सन्तान में उत्पन्न किये जा सकते हैं। पर अव्यक्त स्तर को केवल जीव की निजी इच्छा-शक्ति ही प्रभावित कर सकती है। महत्त्वपूर्ण परिवर्तन इस चेतनात्मक परिधि में ही हो सकते हैं इसके लिए रासायनिक अथवा चुम्बकीय माध्यमों से काम नहीं चल सकता इसके चिन्तन को बदलने को बदलने वाली अन्तः स्फुरणा अथवा दबाव भरी परिस्थितियाँ होनी जाने लगा है कि माता-पिता का स्तर सुधारे बिना सुसन्तति की समस्या प्रयोगशालाओं द्वारा न हो सकेगी। वनस्पति अथवा पशुओं में सुधार उत्पादन सरल है, पर मनुष्यों में पायें जाने वाले चिन्तन तत्त्व में उत्कृष्टता भरने की आवश्यकता यांत्रिक पद्धति कदाचित ही पूरी कर सकेंगी।
गुण-सूत्रों में हेर-फेर करके तत्काल जिस नई पीढ़ी का स्वप्न इन दिनों देखा जा रहा है, उसे मेडीटेशन के संदर्भ में पिछले दिनों पैवलव, मैकडुगल, मारगन, मुलर, प्रकृति जीव विज्ञानियों ने अनेक माध्यमों और उपकरणों से विविध प्रयोग किये हैं। जनन रस को प्रभावित करने वाली उनने विद्युतीय और रासायनिक उपाय अपनाये सोचा यह गया था कि उससे अभीष्ट शारीरिक और मानसिक क्षमता सम्पन्न पीढ़ियाँ उत्पन्न होंगी, पर उनसे मात्र शरीर की ही दृष्टि से थोड़ा हेर-फेर हुआ। विशेषतया बिगाड़ प्रयोजन में ही सफलता अधिक मिली, सुधार की प्रगति अति मन्द रही। गुणों में पूर्वजों की अपेक्षा कोई अतिरिक्त सम्भव न हो सका।
एक जाति के जीवों में दूसरे जति के जीवों की कलमें लगाई गई और वर्णशंकर सन्तानें उत्पन्न की गई। यह प्रयोग उसी जीवधारी तक अपना प्रभाव दिखाने में सफल हुए। अधिक से अधिक एक पीढ़ी कुछ बदली-बदली सी जन्मी इसके बाद वह क्रम समाप्त हो गया। घोड़ी और गधे के संयोग से उत्पन्न होने वाले खच्चर अगली पीढ़ियों को जन्म देने में असमर्थ रहते हैं।
वर्णशंकर सन्तान उत्पन्न करके पूर्वजों की अपेक्षा अधिक सशक्त और समर्थ पीढ़ियाँ उपजाने का उत्साह अब क्रमशः घटता चला जा रहा है। इस संदर्भ में प्रथम आवश्यकता तो यही रहती है कि प्रकृति एक ही जाति के जीवों में संकरण स्वीकार करती है। मात्र उपजातियों से ही प्रत्यारोपण सफल हो सकता है। यदि शरीर रचना में विशेष अन्तर होगा तो संकरण प्रयोगों में सफलता न मिलेगी, दूसरी बात यह है कि काया की दृष्टि से थोड़ा सुधार इस प्रक्रिया में हो भी सकता है। गुणों में नहीं वर्णशंकर गायें मोटी, तगड़ी तो कोई, पर अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक दुधारू न बन सकीं। इन प्रयोगों विकास-क्रम के साथ जुड़ी हुई है, वह बाहरी उलट-पुलट करके विकसित नहीं की जा सकती।
सुसन्तति के सम्बन्ध में वैज्ञानिक प्रयोग अधिक से अधिक इतना ही कर सकते हैं कि रासायनिक हेर-फेर करके शारीरिक दृष्टि से अपेक्षाकृत थोड़ी मजबूत पीढ़ियाँ तैयार कर दें, पर उनमें नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक उत्कृष्टता भी होगी इसकी गारण्टी नहीं दी जा सकती। ऐसी दशा में उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकने वाले नागरिकों का सर्वतोमुखी सृजन कहाँ सम्भव होगा?
उस चला है और सोचा जा रहा है कि अभिभावकों को ही सुयोग्य बनाने पर ध्यान दिया जाय। एक ओर अयोग्य व्यक्तियों को अवांछनीय उत्पादन से रोका जाय, दूसरी ओर सुयोग्य, सुसंस्कृत एवं समुन्नत लोगों को प्रजनन के लिए प्रोत्साहित किया जाय। विवाह निजी मामला न रहे, वरन् सामाजिक नियन्त्रण इस बात का स्थापित किया जाय कि समर्थ व्यक्तियों को विवाह बन्धन में बँधने और सन्तानोत्पादन के लिए स्वीकृति दी जाय।
जर्मनी के तीन प्रसिद्ध जीव विज्ञानियों ने वंशानुक्रम विज्ञान पर एक संयुक्त ग्रन्थ प्रकाशित कराया है नाम है- “ह्यूमन हैरेडिटी’। लेखकों के नाम हैं डा० आरवेन वेवर, डा० अयोजिन फिशर और डा० फ्रिट्ज लेंज। उन्होंने वासना के उभार में चल रहे अन्धाधुन्ध विवाह सम्बन्धों के कारण सन्तान पर होने वाले दुष्प्रभाव को मानवी भविष्य के लिए चिन्ताजनक बताया है। लेखकों का संयुक्त मत है कि- अनियन्त्रित विवाह प्रथा के कारण पीढ़ियों का स्तर बेहतर गिरता जा रहा है, उनने इस बात को भी दुःखद बताया है कि निम्न वर्ग की सन्तानें बढ़ रही हैं और उच्चस्तर के लोगों की संख्या तथा सन्तानें घटती चली जा रही है।
पीढ़ियों में आकस्मिक परिवर्तन म्यूटेशन-के विशेष शोधकर्ता टर्नियर का निष्कर्ष यह है कि मानसिक दुर्बलता के कारण गुण सूत्रों में ऐसी अशक्तता आती है जिसके कारण पीढ़ियाँ गई-गुजरी बनती है। इसके विपरीत मनोबल सम्पन्न व्यक्तियों की आन्तरिक स्फुरणा उनके जनन रस में ऐसा परिवर्तन कर सकती है जिससे तेजस्वी और गुणवान् ही नहीं शारीरिक दृष्टी से भी परिपुष्ट सन्तानें उत्पन्न हों। वशं परम्परा से जुड़े हुए कष्ट, उपदंश, क्षय, दमा, मधुमेह आदि रोगों की तरह विधेयात्मक पक्ष यह भी है कि मनोबल के आधार पर उत्पन्न चेतनात्मक समर्थता पीढ़ी आगे बढ़े और उसका सत्परिणाम शरीर, मन अथवा दोनों पर प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो सके। चमत्कारी आनुवंशिक परिवर्तन इसी आधार पर सम्भव है मात्र रासायनिक परिवर्तनों के लिए भौतिक प्रयास इस प्रयोजन की पूर्ति नहीं कर सकते। यह तथ्य हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि जिस प्रकार परिवार नियोजन के द्वारा अवांछनीय उत्पादन रोकने का प्रयास किया जाता है उसी प्रकार समर्थ और सुयोग्य सन्तानोत्पादन के लिए आवश्यक ज्ञान, आधार-साधन एवं प्रोत्साहन उपलब्ध कराया जाय।
अनियन्त्रित विवाह व्यवस्था के सम्बन्ध में दूरदर्शी विचारशील व्यक्ति भारी चिन्ता व्यक्त कर रहे है और यह सोच रहे है कि इस सम्बन्ध में विवेक सम्मत नियन्त्रण व्यवस्था किये बिना काम नहीं चलेगा। हिन्दू समाज में इन दिनों विवाह व्यवस्था कितनी भौंड़ी क्यों न हो गई हो, उस पर समाज का आधा-सीधा नियन्त्रण अवश्य है। नियन्त्रण का स्वरूप क्या हो, यह अलग प्रश्न है, पर भौतिक समस्या का हल हिन्दू समाज में अभी भी विद्यमान् है कि विवाह प्रक्रिया पर समाज का नियन्त्रण होना चाहिए। इस भारतीय परम्परा की ओर विश्व के विचार शील वर्ग का ध्यान गया है और यह सोचा जा रहा है कि विवाह पर सामाजिक नियन्त्रण का अनुकरण समस्त संसार में किया जाना चाहिए।
बीमा कम्पनियाँ इस बात की पूरी पूछ ताछ करती है कि बीमा कराने वाले के पूर्वज किस आयु में मरे थे। क्योंकि अन्वेषण से यही पाया जाता गया है कि पूर्वजों की आयु से मिलती जुलती अवधि तक ही सामान्यतः उनकी पीढ़ियाँ भी जिया करती हैं। डा० रेमण्ड पर्ल ने बहुत शोधों के उपरान्त इस बात पर जोर दिया है कि सन्तान का दीर्घजीवन यदि अभीष्ट हो तो उसका प्रयोग जनक जननी को पहले अपने ऊपर से प्रारम्भ करना चाहिए।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जे० बी० हाल्डेन ने आशा व्यक्त की है कि अगले दो सौ वर्षों के भीतर योरोप और अमेरिका में भी हिन्दुओं की तरह वर्ण व्यवस्था स्थापित होगी और विवाहों के संदर्भ में उसका विशेष रूप से ध्यान रखा जाएगा जापान में वंश परम्परा के आधार पर जोड़ो का चुनाव कराने में सहायता देने वाली एक सुगठित संस्था स्थापित हुई है- ग्राण्ड यूजेनिक कौसिक।
वंशानुक्रम विज्ञान के आधार पर वर्ण व्यवस्था समाज व्यवस्था बनाने की रूप रेखा प्रस्तुत करने के लिए विज्ञान की एक स्वतन्त्र शाखा का विकास हुआ है, जिसका नाम है- यूजेनिक
मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य का प्रश्न बहुत कुछ सुसन्तति निर्माण की प्रक्रिया पर निर्भर है। इसके विभिन्न पक्षों पर विचार पड़ेगा और आवश्यक आधार जुटाना पड़ेगा। उपयुक्त जोड़े ही विवाह बन्धन में बँधे और उपयोगी उत्पादन करें। इस संदर्भ में विवाह बन्धन में बँधे और उपयोगी उत्पादन करें। इस संदर्भ में विवाह पद्धति पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक नियन्त्रण रहना चाहिए। यौन विनोद के लिए विवाह की छूट और अरोग्य उत्पादन की स्वतन्त्रता को अवरुद्ध करने के लिए भी कुछ तो करना ही पड़ेगा।