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Magazine - Year 1977 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्मोत्कर्ष के चार अनिवार्य चरण

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आगे बढ़ने का क्रम यह है कि एक कदम पीछे से उठा कर आगे रखा जाय और जो आगे रखा था उसे और आगे बढ़ाया जाय। इसी प्रकार चलने की क्रिया संपन्न होती है और लम्बी मंजिल पार की जाती है। आत्मिक प्रगति का मार्ग भी यही है। पिछड़ी योनियों में रहते समय जो पिछड़े संस्कार चेतना भूमि में जड़ जमाकर जहाँ-तहाँ बैठे हुए हैं उनका उन्मूलन किया जाय और दैवी प्रवृत्तियाँ, जो अभी तक समुचित परिणाम में प्राप्त नहीं हो पाई हैं, उन्हें प्रयत्न पूर्वक अपनाया और बढ़ाया जाय। किसान यही करता है। खेत को जोतता है, उसमें से पिछली फसल के पौधों की सूखी हुई जड़ों को हल चला कर उखाड़ता है। कंकड़ पत्थर बीनता है और नई फसल उगाने में जो भी अवरोध थे, उन्हें समाप्त करता है। इसके उपरान्त उर्वरता बढ़ाने के लिए खाद पानी का प्रबन्ध करता है और बीज बोने के उपरान्त नई फसल अच्छी होने की आशा करता है। आत्मिक प्रगति के मार्ग को कृषि कर्म के समतुल्य गिना जा सकता है। मनुष्य पद के लिए अनुपयुक्त पिछले कुसंस्कारों को उखाड़ कर उन्मूलन करना एक काम है और जो इस पद को सफल सार्थक बना सके ऐसे उत्कृष्ट स्तर के गुण कर्म स्वभावों को अभ्यास में लाना, यही है वह उभय-पक्षीय क्रिया-कलाप जिसमें आत्मिक प्रगति का उद्यान विकसित होते और फलते-फूलते देखा जा सकता है। प्रगतिशीलता अपनाने का उपाय एक ही है कि अवांछनीयताओं को निरस्त करते चला जाय और जो अभीष्ट आवश्यक है उसे अपनाने के लिए पूरे उत्साह का प्रयोग किया जाय। उत्कर्ष के उच्च शिखर पर चढ़ने के लिए इस रीति-नीति को अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग है नहीं।

आत्मिक प्रगति का भवन, चार दीवारों से मिल कर बनता है। इस तख्त में चार पाये हैं। चारों दिशाओं की तरह आत्मिक उत्कर्ष के भी चार आधार हैं। ब्रह्माजी के चार मुखों से निकले हुए चार वेदों में इसी ज्ञान-विज्ञान का वर्णन है। चार वर्ण-चार आश्रमों का विभाजन इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया है। इन्हें (1) आत्म-चिन्तन (2) आत्म-सुधार (3) आत्म-निर्माण और (4) आत्म विकास के नाम से पुकारा जाता है। इन्हें एक एक करके नहीं वरन् समन्वित रूप से सम्पन्न किया जाता है। रोटी, साग, चावल, दाल का आहार मिला-जुला कर करते हैं। ऐसा नहीं होता कि कुछ समय दाल ही पीते रहे-कुछ शाक खाकर रहे, फिर चावल खाया करे और बहुत दिन बाद केवल रोटी पर ही निर्भर रहे। स्कूली पढ़ाई में भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास की पढ़ाई साथ चलती है, ऐसा नहीं होता कि एक वर्ष भाषा दूसरे वर्ष गणित तीसरे वर्ष भूगोल और चौथे वर्ष केवल इतिहास ही पढ़ाया जाय। धोती, कुर्ता, टोपी, जूता चारों ही पहन कर घर से निकला जाता है। ऐसा नहीं होता कि कुछ वर्ष मात्र जूता पहन कर रहे और पीछे जब धोती पहनना आरम्भ करें तो उतना ही पर्याप्त समझें तथा जूता, कुर्ता, टोपी को उपेक्षित कर दें। लिखने में कागज, कलम, स्याही और उँगलियों का समन्वित प्रयोग होता है। एक बार में एक ही वस्तु का प्रयोग करने से लेखन कार्य सम्भव न हो सकेगा। शरीर में पाँच तत्त्व मिलकर काम करते हैं और चेतन को पाँचों प्राण मिल कर गति देते हैं। एक तत्त्व पर या एक प्राण पर निर्भर रहा जाय तो जीवन का कोई स्वरूप ही न बन सकेगा। भोजनालय में आग, पानी, खाद्य पदार्थ एवं बर्तन उपकरणों के चारों ही साधन चाहिए। इसके बिना रसोई पक सकना कैसे सम्भव होगा? आत्म-उत्कर्ष के लिए (1) अपनी अवांछनीयताओं को ढूँढ़ निकालना-(2) सुसंस्कारों के प्रति प्रबल संघर्ष करके उन्हें परास्त करना (3) जो सत्प्रवृत्तियाँ अभी स्वभाव में सम्मिलित नहीं हो पाई हैं उन्हें प्रयत्न पूर्वक सीखने का- अपनाने का प्रयत्न करना (4) उपलब्धियों का प्रकाश दीपक की तरह सुविस्तृत क्षेत्र में वितरित करना, यह चार कार्य समन्वित रूप से सम्पन्न करते चलने की आवश्यकता पड़ती है। इन्हीं चारों को तत्त्ववेत्ताओं ने आत्म-चिन्तन आत्म-सुधार आत्म-निर्माण और आत्म-विकास के नाम से निरूपित किया है। इन चारों प्रयोजनों को दो भागो में बाँट कर दो-दो के युग्म बनते हैं। एक को मनन दूसरे को चिन्तन कहते हैं। मनन से आत्म-समीक्षा का और अवांछनीयताओं का परिशोधन आता है। चिन्तन से आत्म निर्माण और आत्म-विकास की प्रक्रिया जुड़ती है।

इन दोनों को आत्म-साधना का अविच्छिन्न अंग माना गया है। प्रातः काल उठते समय अथवा अन्य किसी निश्चिंत, शान्त, एकान्त स्थिति में न्यूनतम आधा घण्टे का समय इस प्रयोजन के लिए निकाला जाना चाहिए। मनन को प्रथम और चिंतन को द्वितीय चरण माना जाना चाहिए। दर्जी पहले कपड़ा काटता है, पीछे उसे सीता है। डाक्टर पहले नश्तर लगाता है। पीछे मरहम पट्टी करता है। यों यह दोनों ही कार्य मिले जुले हैं और तनिक से अन्तर से साथ प्रायः साथ साथ ही चलते हैं, फिर भी यदि प्रथम द्वितीय का प्रश्न हो तो मनन को पहला और चिन्तन को दूसरा चरण कहा जाएगा इस प्रक्रिया के लिए पूजा उपचार की तरह कोई विशेष शारीरिक, मानसिक स्थिति बनाने की या पूजा उपचार जैसी कोई साधन सामग्री एकत्रित करने की आवश्यकता नहीं है। चित का शान्त और स्थान का कोलाहल रहित होना ही इसके लिए पर्याप्त नहीं हैं। प्रातः सायं का समय खाली न हो तो सुविधा का कोई अन्य समय निर्धारित किया जा सकता है। आधा घण्टा की सीमा भी अनिवार्य नहीं है। यह काम चलाऊ मापदण्ड हैं। इसे आवश्यकतानुसार कम या अधिक भी किया जा सकता है, पर अच्छा यही है कि उसमें कम समय का निर्धारण रहे। नियम समय पर नियमित रूप से अपनाई गई कार्यपद्धति अस्त व्यस्त एवं अव्यवस्थित क्रिया प्रक्रिया से कितनी अधिक फलदायक होती है इसे हर कोई जानता है। आत्म चिन्तन अपने आपकी समीक्षा है। अपने दोष दुर्गुणों को ढूँढ़ निकालने का प्रयास भी इसे कहा जा सकता है। प्रयोगशालाओं में पदार्थों का विश्लेषण वर्गीकरण होता है और देखा जाता है कि इस संरचना में कौन-कौन तत्त्व मिले हुए हैं? शवच्छेद की प्रक्रिया में देखा जाता है कि भीतर के किस अवयव की क्या स्थिति थी, उनमें कहीं चोट या विषाक्तता के लक्षण तो नहीं थे। रोगी की स्थिति जानने के लिए उसके मल, मूत्र, ताप, रक्त, धड़कन आदि की जाँच पड़ताल की जाती है। निदान के उपरान्त ही सही उपचार बन पड़ता है। ठीक यही बात आत्म-समीक्षा का यही उद्देश्य है।

एक सज्जन, शालीन, सम्भ्रान्त, सुसंस्कृत नागरिक का स्वरूप क्या होना चाहिए? उसके गुण, कर्म, स्वभाव में किन शालीनताओं का समावेश होना चाहिए। इसका एक ढाँचा सर्वप्रथम अपने मस्तिष्क में खड़ा किया जाय। मानवी मर्यादा और स्थिति क्या होगी? इसका स्वरूप निर्धारण कुछ कठिन नहीं है। दिनचर्या की दृष्टि से सुव्यवस्थित, श्रम की दृष्टि से स्फूर्तिवान्, मानसिक दृष्टि से सक्षम, व्यवहार की दृष्टि से कुशल, चिन्तन की दृष्टि से दूरदर्शी विवेकवान् आत्मानुशासन की दृष्टि से प्रखर, व्यक्तित्व की दृष्टि से आत्मानुशासन की दृष्टि से आत्मावलम्बी और सम्मानित हर श्रेष्ठ मनुष्य में यह विशेषताएँ होनी चाहिए। चरित्र की दृष्टि से उदार और स्वभाव की दृष्टि से मृदुल एवं हँसते-हँसाते रहने वाला उसे होना चाहिए। सादगी और सज्जनता मिले जुले तत्त्व हैं। आन्तरिक विभूतियाँ और बाह्य साधन सम्पत्तियों का सुव्यवस्थित सदुपयोग कर सकने वालों को सुसंस्कृति कहते हैं। अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को समझने वाले और उनके पालन को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर चलने वालों को सभ्य कहा जाता है। ऐसी ही विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्ति की सच्चे अर्थों में ‘मनुष्य’ कहा जा सकता है। ‘मनुष्यता’ से मानवी सद्गुणों से विभूषित व्यक्ति ही, मानव समाज का सभ्य सदस्य कहला सकता है। ऐसे सद्गुण सम्पन्न मनुष्य को मापदण्ड मान कर उसके साथ तुलना की जाय तो जो कुछ हम हैं वह भी आत्मिक श्रेष्ठता की अनुभूति होगी और यदि अत्यधिक उच्च स्थिति के महामानवों से तुलना की जाय तो सामान्य स्थिति रहते हुए भी अपनी स्थिति असंतोषजनक और गई-गुजरी प्रतीत होती रहेगी। नाप-तोल को बाँटा, गज, मीटर आदि की जरूरत पड़ती है। तुलनात्मक आधार अपनाने पर ही समीक्षा सम्भव होती हैं अन्यथा वस्तुस्थिति कितना रहना चाहिए, यह विदित रहने पर ही बुखार चढ़ने या शीत का ज्ञान रहने नर ही नापने वाला यह बता सकता है कि ब्लड प्रेशर’ घटा हुआ है या बढ़ा हुआ। इसी प्रकार एक सज्जनता एवं मानवतावादी मनुष्य का जीवन स्तर निर्धारित करने और उसके साथ अपने को तोलने में ही अपनी हेय, मध्यम एवं उत्तम स्थिति का विवेचन, विश्लेषण, निर्धारण सम्भव हो सकेगा।

हम जिन दुष्प्रवृत्तियों के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं उनमें से कोई अपने स्वभाव में सम्मिलित तो नहीं हैं, जिनके लिए हम दूसरों से घृणा करते हैं वैसी दुष्प्रवृत्तियाँ अपने में तो नहीं हैं? जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए नहीं चाहते वैसा व्यवहार हम दूसरों के साथ तो नहीं करते? जैसे उपदेश हम आये दिन दूसरों को करते रहते हैं वैसे आचरण अपने हैं या नहीं? जैसी कि हम प्रशंसा एवं प्रतिष्ठा चाहते हैं वैसी विशेषताएँ अपने में है या नहीं? ऐसे प्रश्न अपने आप से पूछने और सही उत्तर पाने की चेष्टा की जाय तो अपने गुण, दोषों का वर्गीकरण ठीक तरह हो सकना सम्भव हो जाएगा

यों यह कार्य है अति कठिन। हर मनुष्य में अपने प्रति पक्षपात करने की दुर्बलता पाई जाती हैं। आँखें बाहर पक्षपात को देखती हैं, भीतर का कुछ पता नहीं। कान बाहर के शब्द सुनते हैं, अपने हृदय और फेफड़ों से कितना अनवरत ध्वनि प्रवाह गुँजित होता है, उसे सुन ही नहीं पाते इसी प्रकार दूसरों के गुणों-अवगुण देखने में रुचि भी रहती है और प्रवीणता भी, पर ऐसा अवसर कदाचित ही आता है जब अपने दोषों को निष्पक्ष रूप में देखा और स्वीकारा जा सके। आमतौर से अपने गुण ही गुण दीखते हैं दोष तो एक भी नजर नहीं आता। जिस कार्य को कभी भी न किया हो वह बन ही नहीं पड़ता।

आत्मा-समीक्षा कोई कब करता हैं? अस्तु वह प्रक्रिया ही कुंठित हो जाती है। अपने दोष ढूँढ़ने में काफी कठोरता बरतने की क्षमता उत्पन्न हो जाय तो वस्तुस्थिति समझने और सुधार कि लिए प्रयत्न करने का अगला चरण उठाने में सुविधा होती है।

दोष दुर्गुणों के सुधार के लिए अपने आप से संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। गीता में जिन महाभारत का उल्लेख और जिसमें भगवान ने हठपूर्वक जो कार्य नियोजित किया था वह अन्तः संघर्ष ही था भगवान के अवतरण में अधर्म के नाश और धर्म के संस्थापन की प्रतिज्ञा जुड़ी हुई है। अवतार इसी प्रयोजन के लिए होते हैं अन्तःकरण में जब भी भगवान अवतरित होते हैं तब विचार और व्यवहार के साथ लिपट कर सम्बन्धियों जैसी प्रिय लगने वाली असुरता से लड़ने के लिए कटिबद्ध होना पड़ता है। अवतार को असुरों को परास्त करने और देवत्व को जिताने का कार्य अनिवार्य रूप से करना पड़ा है। इस प्रक्रिया को व्यक्तियों का जीवन की दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का संबोधन कह सकते हैं। ईश्वर की दिव्य ज्योति जिस भी अन्तरात्मा में प्रकट होगी उसमें प्रथम स्फुरणा यही होगी कि जीवन के जिस भी क्षेत्र में दुष्ट-दुर्बुद्धि छिपी पड़ी है और दुष्टकर्मों के लिए ललचाती है उसे ताड़का, सूर्पणखा, पूतना की तरह निरस्त कर दिया जाय।

बुरे विचारों को अच्छे विचारों से काटा जाता है और बुरी आदतों के स्थान पर नई आदतों को अभ्यास में लाना पड़ता है। इस कार्य में एक प्रकार से अन्तःयुद्ध जैसी परिस्थिति उत्पन्न होती है। यह परिवर्तन अनायास ही- इच्छा मात्र से- हो सकना सम्भव नहीं। प्रचण्ड मनोबल और संकल्पशक्ति का उपयोग करने से ही यह हेर-फेर होता है। विष को विष से मारा जाता है- काँटे को काँटे से निकाला जाता है और चाटे का जवाब घूँसे से दिया जाता है। सेना के साथ सेना लड़ती है। टैंक तोड़ने के लिए तोप के गोले बरसाने पड़ते हैं। संघर्ष में समतुल्य बल का प्रयोग करना पड़ता है। मस्तिष्क में भरे हुए कुविचारों की सद्विचारों से काटना पड़ता है। निकृष्टता की और आकर्षित करने वाले वातावरण के प्रभाव को निरस्त करने के लिए उत्कृष्टता के लोक में अपने को पहुँचाना होता है। यह कार्य स्वाध्याय और सत्संग की सहायता से ही यह सम्भव हो सकता है। अपने समीपवर्ती लोग प्रायः स्वार्थपरता और निकृष्टता की दिशा में ही प्रेरणा देते ही दीख पड़ने, ग्रहण करने का प्रयत्न करें। उनके जीवन चरित्र पढ़ें ओर आदर्शवादी प्रेरणाप्रद प्रसंगों एवं व्यक्तियों को अपने सामने रखें। उस स्तर के लोग प्रायः सत्संग के लिए के लिए सदा उपलब्ध नहीं रहते। यदि होते भी हैं तो उनके प्रवचन और कर्म में अन्तर रहने से समुचित प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी दशा में सरल और निर्दोष तरीका यही है कि ऐसे सत्साहित्य का नित्य-नियमित रुपं से अध्ययन किया जाय जो जीवन की समस्याओं को सुलझाने, ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता हो। ऐसा साहित्य न केवल पढ़ा ही जाय वरन् प्रस्तुत विचारधारा को व्यावहारिक जीवन में उतारने के लिए उत्साह भी उत्पन्न किया जाय और सोचा जाय कि इस प्रकार की आदर्शवादिता अपने में किस प्रकार उत्पन्न की जा सकती है। इसके लिए योजनाएँ बनाते रहा जाय और परिवर्तन काल में जो उलट-पुलट करनी पड़ेगी उसका मानसिक ढाँचा खड़ा करते रहा जाय। यही है आन्तरिक महाभारत की पृष्ठभूमि प्रत्यक्ष संग्राम तब खड़ा होता है जब अभ्यस्त गन्दे विचारों को उभरने न देने के लिए कड़ी नजर रखी जात है और जब भी वे प्रबल हो रहे हों तभी उन्हें कुचलने के लिए प्रतिपक्षी सद्विचारों की सेना सामने ला खड़ी की जाती है। व्यभिचार की ओर जब मन चले तो इस मार्ग पर चलने की हानियों का फिल्म चित्र मस्तिष्क में घुमाया जाय और संयम से हो सकने वाले लाभों का- उदाहरणों का- सुविस्तृत दृश्य आँखों के सामने उपस्थित कर दिया जाय। यह कुविचारों और सद्विचारों की टक्कर हैं यदि मनोबल प्रखर है और न्यायाधीश जैसा विवेक जागृत हो तो कुविचारों का परास्त होना और पलायन करना सुनिश्चित है। सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। आसुरी तत्त्व देखने में तो बड़े आकर्षक और प्रबल प्रतीत होते हैं, पर जब सत्य की अग्नि के साथ उनका पाला पड़ता है तो फिर उनकी दुर्गति होते भी देर नहीं लगती। काठ की हाँड़ी की तरह जलते और कागज की नाव की तरह गलते हुए भी उन्हें देखा जा सकता है।

अभ्यस्त कुसंस्कार आदत बन जाते हैं और व्यवहार में अनायास ही उभर-उभर कर आते रहते हैं। इनके लिए भी विचार संघर्ष की तरह कर्म संघर्ष की नीति अपनानी पड़ती है। थल सेना से थल सेना लड़ती हैं और नभ सेना के मुकाबले नभ सेना भेजी जाती है। जिस प्रकार कैदियों को नई बदमाशी खड़ी न करने देने के लिए जेल के चौकीदार उन पर हर घड़ी कड़ी नजर रखते हैं वहीं नीति दुर्बुद्धि पर ही नहीं दुष्प्रवृत्तियों पर भी रखनी पड़ती है। जो भी उभरे उसी से संघर्ष खड़ा कर दिया। बुरी आदतें जब कार्यान्वित होने के लिए मचल रही हों तो उसके स्थान पर उचित सत्कर्म ही करने का आग्रह खड़ा कर देना चाहिए और मनोबल पूर्वक अनुचित को दबाने दुर्बल होगा तो ही हारना पड़ेगा अन्यथा सत्साहस जुटा लेने पर श्रेष्ठ स्थापना से सफलता ही मिलती है। घर में बच्चे जाग रहे हों बुड्ढे खाँस रहे हों तो भी मजबूत चोर के पाँव काँपने लगते हैं और वह उलटे पैरों लौट जाता है। ऐसा ही तब होता है जब दुष्प्रवृत्तियों की तुलना में सत्प्रवृत्तियों को साहसपूर्वक अड़ने और लड़ने के लिए खड़ा कर दिया जाता है।

छोटी बुरी आदतों से लड़ाई आरम्भ करनी चाहिए और उनसे सरलतापूर्वक सफलता प्राप्त करते हुए क्रमशः अधिक कड़ी- अधिक पुरानी और अधिक प्रिय बुरी आदतों से लड़ाई आरम्भ करनी चाहिए। छोटी सफलताएँ प्राप्त करते चलने से साहस एवं आत्म-विश्वास बढ़ता है और इस आधार पर अवांछनीयताओं के उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्तियों के संस्थापन में सफलता मिलती चली जाती है। यह प्रयास देर तक जारी रहना चाहिए। थोड़ी-सी सफलता से निरास नहीं हो जाना चाहिए। लाखों योनियों के कुसंस्कार विचार मात्र से समाप्त नहीं हो जाते। वे मार खाकर अन्तःकरण के किसी कोने में जा छिपते हैं और अवसर पाते ही छापामारों की तरह घातक आक्रमण करते हैं। इनसे सतत् सजग रहने की आवश्यकता है। आजन्म यह सतर्कता अनवरत रूप से बरती जानी चाहिए कि कहीं बेखबर पाकर दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्ति की घातें फिर न पनपने लगें।

आत्म-निर्माण का तीसरा चरण इस प्रयोजन के लिए है कि श्रेष्ठ सज्जनों में गुण, कर्म, स्वभाव की जो विशेषताएँ होनी चाहिए उनकी पूर्ति के लिए योजनाबद्ध प्रयत्न किया जाय। दुर्गुणों की प्रतिष्ठापना भी तो होनी चाहिए। कटीली झाड़ियाँ उखाड़ कर साफ कर दी गई यह तो आधा ही प्रयोग पूरा हुआ। आधी बात तब बनेगी जब उस भूमि पर सुरम्य उद्यान लगाया जाय और उसे पाल-पोस कर बड़ा किया जाय। बीमारी दूर हो गई यह आधा काम है। दुर्बल स्वास्थ्य को बलिष्ठता की स्थिति तक ले जाने के लिए जिस परिष्कृत आहार-बिहार को जुटाया जाना आवश्यक है। उसकी ओर भी तो ध्यान देने और प्रयत्न करने में लगना चाहिए।

आलस्य दूर करने की प्रतिक्रिया श्रम-शीलता में समुचित रुचि एवं तत्परता के रूप में दृष्टिगोचर होना चाहिए। प्रमाद से पिण्ड छूटा हो- लापरवाही और गैर जिम्मेदारी हटा दी तो उसके स्थान पर जागरूकता, तन्मयता, नियमितता, व्यवस्था जैसे मनोयोग का परिचय मिलना चाहिए। मधुरता शिष्टता, सज्जनता, दूरदर्शिता, विवेकशीलता, ईमानदारी संयमशीलता, मितव्ययिता, सादगी, सहृदयता, सेवा भावना जैसी सत्प्रवृत्तियों में ही मानवी गरिमा परिलक्षित होती है। उन्हें अपनाने स्वभाव का अंग बनाने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहा जाना चाहिये। आमतौर से लोग धन उपार्जन को प्रमुखता देते हैं और उसी के लिये अपना श्रम, संयम, मनोयोग लगाये रहते हैं। उत्कर्ष के इच्छुकों को सम्मति से भी अधिक महत्त्व सद्गुणों की विभूतियों को देना चाहिए परिष्कृत व्यक्तित्व ही वह कल्प वृक्ष है जिस तक जा पहुँचने वाला भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों की सफलता प्राप्त करता है। धन उपार्जन में जितनी तत्परता बरतनी पड़ती है उससे कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही तत्परता सद्गुणों का, स्वभाव का अंग बनाने में बरतनी पड़ती है। धन तो उत्तराधिकार में- स्वरूप श्रम से- संयोगवश अथवा ऋण अनुदान से भी मिल सकता है, पर सद्गुणों की सम्पदा एकत्रित करने में तो तिल-तिल करके अपने ही प्रयत्न जुटाने पड़ते हैं। यह पूर्णतया अपने ही अध्यवसाय का प्रतिफल है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाये रहने पर यह सम्पदा क्रमिक गति से संचित होती है। चंचल बुद्धि वाले नहीं संकल्प-निष्ठ सतत् प्रयत्नशील और धैर्यवान् व्यक्ति ही इस वैभव का उपार्जन कर सकने में समर्थ होते हैं। चक्की के दोनों पाटों के बीच में गुजरने वाला अन्न ही आटा बनता है। सद्विचार और सत्कर्म के दबाव से व्यक्तित्व का सुसंस्कृत बन सकना सम्भव होता है। अपना लक्ष्य यदि आदर्श मनुष्य बनना हो तो इसके लिए आवश्यक उपकरण अलंकार जुटाये जाते रहेंगे इन्हीं प्रयत्नों का परिणाम समयानुसार आत्म-निर्माण के रूप में परिलक्षित होता दिखाई देगा।

आत्मोत्कर्ष की अन्तिम सीढ़ी आत्म-विकास है। इसका अर्थ होता है आत्मभाव की परिधि का अधिकाधिक विस्तृत क्षेत्र में विकसित होना। जिनका स्वार्थ अपने शरीर और मन की सुविधा तक सीमित है उन्हें नर-कीटक कहा जाता है। जो इससे कुछ आगे बढ़ कर ममता को परिवार के लोगों तक सीमाबद्ध किये हुए हैं, वे नर-पशु की श्रेणी में आते हैं। आमतौर से सामान्य मनुष्य इन्हीं वर्गों में गिने जाने योग्य चिन्तन एवं क्रिया-कलाप अपनाये रहते हैं। उनका स्वार्थ इस परिधि से आगे नहीं बढ़ता। जीवन सम्पदा का इसी कुचक्र में भ्रमण करते हुए कोल्हू के बैल जैसी जिन्दगी पूरी कर लेते हैं। मनुष्य का पद बड़ा है। अन्य प्राणियों की तुलना में ईश्वर ने उसे अनेकों असाधारण क्षमता दिव्य धरोहर की तरह दी है और अपेक्षा की है कि उन्हें इस संसार को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए प्रयुक्त किया जाय। मानवी कलेवर ईश्वर की इस संसार की सबसे श्रेष्ठ कलाकृति है। इसका सृजन उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुआ है। इस निर्माण के पीछे जो श्रम लगा है उसमें सृष्टा का यह उद्देश्य है कि मनुष्य उसके सहयोगी की तरह सृष्टि की सुव्यवस्था में संलग्न रह कर उसका हाथ बटाये। यदि इस जीवन रहस्य को भुला दिया जाय और पेट प्रजनन के लिए-लोभ-मोह के लिए-वासना-तृष्णा के लिए ही इस दिव्य अनुदान को समाप्त कर दिया जाय तो समझना चाहिए पिछड़ी योनियों के तुल्य ही बने रहा गया और जीवन का उद्देश्य नष्ट हो गया।

सृष्टि के मुकुटमणि कहे जाने वाले मनुष्य का गौरव इसमें है कि उसकी चेतना व्यापक क्षेत्र में सुविस्तृत हो। शरीर और परिवार का उचित निर्वाह करते हुए भी श्रम, समय, चिन्तन और साधनों का इतना अंश बचा रहता है कि उससे परमार्थ प्रयोजनों की भूमिका निबाही जाती रह सके। आत्मीयता का विस्तार होने से शरीर और कुटुम्बियों की ही तरह सभी प्राणी अपनेपन की भावश्रद्धा में बँध जाते हैं और सबका दुःख अपना दुःख और सबका सुख अपना सुख बन जाता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की विश्व परिवार की आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावनाएँ बलवती होने पर मनुष्य का स्वार्थ-परमार्थ में परिणत हो जाता है। जो अपने लिए चाहा जाता था वही सब को मिल सके ऐसी आकांक्षा जगती है। जो व्यवहार, सहयोग दूसरों से अपने लिए पाने का मन रहता है। उसी को स्वयं दूसरों के लिए देने की भावना उमड़ती रहती है। लोक-मंगल की- जन-कल्याण की- सेवा साधना की इच्छाएँ जगती हैं और योजनाएँ बनती है। ऐसी स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति ससीम न रह कर असीम बन जाता है और उसका कार्यक्षेत्र व्यापक परिधि में सत्प्रवृत्तियों को संवर्धन बन जाता है। ऐसे व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षाओं को पैरों तले कुचल कर फेंक देते हैं। अपनी आवश्यकताओं को घटाते हैं ओर निर्वाह को न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी करने के उपरान्त अपनी सत्प्रयोजनों में लगाये रहते हैं। देश, धर्म, समाज, संस्कृति के उत्कर्ष के लिए किये गये प्रयत्नों में उन्हें इतना आनन्द आता है जितना स्वार्थ परायण व्यक्तियों को विपुल धन प्राप्त करने पर भी नहीं मिल सकता। संसार के इतिहास में- आकाश में महामानवों के जो उज्ज्वल चरित्र झिलमिला रहें हैं वे सभी इसी आत्म-विकास के मार्ग का अवलम्बन करते हुए महानता के उच्च शिखर पर पहुँचे थे। सन्त सुधारक, शहीद यह तीन सामाजिक जीवन के सर्वोच्च सम्मान है। महात्मा, देवात्मा और परमात्मा यह तीन अध्यात्म जीवन की समग्र प्रगति के परिचायक स्तर हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए आत्मविकास के सिवाय और कोई मार्ग नहीं। व्यक्तिवाद को समूहवाद में विकसित कर लेना विश्वशान्ति को आधार माना गया है। अपनेपन को हम जितने व्यापक क्षेत्र में विस्तृत कर लेते हैं उतने ही विश्वास पूर्वक यह कह सकते हैं कि मनुष्य जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का सुनिश्चित मार्ग मिल गया।

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