
हम विराट विश्वात्मा के एक घटक मात्र हैं।
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मनुष्य अपने को एकाकी अनुभव करके स्वार्थान्ध रहने की भूल भले ही करता रहे, पर वस्तुतः इस विराट् ब्रह्म का- विशाल विश्व का- एक अकिंचन सा घटक मात्र है। समुद्र की लहरों की तरह उसका अस्तित्व अलग से दीखता भले ही हो, पर वस्तुतः वह समष्टि सत्ता का एक तुच्छ सा परमाणु भर है। ऐसा परमाणु जिसे अपनी सत्ता और हलचल बनाये रहने के लिए दूसरी महा शक्तियों के अनुदान पर निर्भर रहना पड़ता है।
अपनी पृथ्वी सूर्य से बहुत दूर है और उसका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध दिखाई नहीं पड़ता फिर भी वह पूरी तरह सूर्य पर आश्रित है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, दिन, रात्रि, जैसी घटनाओं से लेकर प्राणियों में पाया जाने वाला उत्साह और अवसाद भी सूर्य सम्पर्क से सम्बन्धित रहता है। वनस्पतियों का उत्पादन और प्राणियों की हलचल में जो जीवन तत्व काम करता है उसे भौतिक परीक्षण से नापा जाय तो उसे सूर्य का ही अनुदान कहा जायगा। असंख्य जीव कोशाओं से मिलकर एक शरीर बनता है, उन सबके समन्वित एवं सहयोग भरे प्रयास से जीवन की गाड़ी चलती है। प्राण तत्व से इन सभी कोशाओं को अपनी स्थिति बनाये रहने की सामर्थ्य मिलती है। इसी प्रकार इस संसार के समस्त जड़ चेतन वटकों को सूर्य से अभीष्ट विकास के लिए आवश्यक अनुदान सन्तुलित और समुचित मात्रा में मिलता है।
यह सूर्य भी अपने अस्तित्व के लिए महासूर्य के अनुग्रह पर आश्रित है और महा सूर्यों को भी अति सूर्य का कृपाकांक्षी रहना पड़ता है। अन्ततः सभी को उस महा केन्द्र पर निर्भर रहना पड़ता है, जो ज्ञान एवं शक्ति का केन्द्र है वह ब्रह्म है, सविता है। अति सूर्य, महासूर्य और सूर्य सब उसी पर आश्रित हैं।
प्राणियों, वनस्पतियों और पदार्थों की गतिविधियों पर सूर्य के प्रभाव का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनकी स्वावलम्बी हलचलें वस्तुतः परावलम्बी हैं। सूर्य की उँगलियों में बंधे हुए धागे ही बाजीगर द्वारा कठपुतली नचाने की तरह विभिन्न गतिविधियों की चित्र विचित्र भूमिकाएं प्रस्तुत करते हैं। यहाँ तक कि प्राणियों का मनुष्यों का चिन्तन और चरित्र तक इस शक्ति प्रवाह पर आश्रित रहता है। न केवल सूर्य वरन् न्यूनाधिक मात्रा में सौरमण्डल के ग्रह, उपग्रह तथा ब्रह्मांड क्षेत्र के सूर्य तारक भी हमारी सत्ता स्थिरता एवं प्रगति की प्रभावित करते हैं।
अमेरिका के पागल खानों में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि पूर्णिमा के दिन मानसिक रोगी अधिक विक्षिप्त हो जाते हैं, जबकि अमावस के दिन यह दौर सर्वाधिक कम होता है। विक्षिप्त ही नहीं, सामान्य मनुष्यों की चित्त दशा पर भी चन्द्रकलाओं के उतार-चढ़ाव का प्रभाव पड़ना सामूहिक मनश्चेतना का ही द्योतक है।
वनस्पति विज्ञानी वृक्षों के तनों में बनने वाले बर्तुलों द्वारा वृक्षों के जीवन का अध्ययन करते हैं। देखा गया है कि वृक्ष में प्रतिवर्ष एक वृत्ता बनता है, जो कि उसके द्वारा छोड़ी गई छाल से विनिर्मित होता है। हर ग्यारहवें वर्ष यह वृत्त सामान्य वृत्तों की अपेक्षा बड़ा बनता है। अमेरिका के रिसर्च सेन्टर ऑफ ट्री रिंग ने पता लगाया है कि ग्यारहवें वर्ष जब सूर्य पर आणविक विस्फोट होते हैं तो वृक्ष का तना मोटा हो जाता है और उसी कारण वृत्त बड़ा बनता है। स्पष्ट है कि सूर्य और चन्द्र के परिवर्तनों से मनुष्यों एवं पशु पक्षी तथा पेड़-पौधे भी प्रभावित होते हैं। तब क्या मात्र मनुष्यों में ही सामूहिक मनश्चेतना न होकर सम्पूर्ण सृष्टि में ही कोई एक समष्टि चेतना विद्यमान है, यह प्रश्न आज वैज्ञानिकों के सामने खड़ा उन्हें आकर्षित कर रहा है।
डॉ0 हेराल्ड श्वाइत्जर के नेतृत्व में आस्ट्रिया के वैज्ञानिकों ने सूर्यग्रहण के प्रभावों का निरीक्षण-परीक्षण कर यह निष्कर्ष निकाला कि पूर्ण सूर्यग्रहण के समय सामान्य कीट पतंगे भी विचित्र आचरण करने लगते हैं। अनेक पक्षी सूर्य ग्रहण के चौबीस घण्टे पूर्व ही चहचहाना बन्द कर देते हैं। चींटियां सूर्यग्रहण के आधा घण्टे पूर्व से भोजन की खोजबीन बन्द कर देती हैं और व्यर्थ ही भटकती रहती हैं। सदा चंचल बन्दर वृक्षों को छोड़कर जमीन पर आ बैठते हैं। बुड लाइस, बीटल्स, मिली पीड्स आदि ऐसे कीट-पतंग जो सामान्यतः रात्रि में ही बाहर निकलते हैं, वे भी सूर्य ग्रहण के दिन बाहर निकले देखे जाते हैं। दिशा ज्ञान में दक्ष चिड़ियाँ भी चकित हो जाती हैं और उन्हें दिशा बोध नहीं रह जाता। नीलकंठ, गौरैया जैसी कुछ चिड़ियों को छोड़कर शेष चिड़ियाँ चहकना भी भूल-सी जाती हैं।
जापान के प्रख्यात जैविकीविद् तोनातो के अनुसार हर ग्यारहवें वर्ष सूर्य पर होने वाले आणविक विस्फोटों के समय पृथ्वी पर पुरुषों के रक्त में अम्ल तत्व बढ़ जाते हैं और उनका रक्त पतला पड़ जाता है।
पृथ्वी का मात्र सूर्य से अथवा अपने ही उपग्रह चन्द्र से ही अन्तर्सम्बन्ध नहीं है। प्रोफेसर ब्राउन ने मंगल, शुक्र, वृहस्पति आदि ग्रहों का अध्ययन कर यह सिद्ध किया है कि इनकी गतियों और स्थितियों के परिवर्तन से पृथ्वी भी प्रभावित होती है। ये सभी सूर्य सन्तति ही तो हैं और जुड़वां बच्चों वाला सिद्धान्त यहाँ भी घटित होता है, तो आश्चर्य ही क्या है?
भारत में इसी तत्वदर्शन के अनुरूप अतीत में ज्योति-विज्ञान का विकास हुआ था। आर्यभट्ट का ज्योतिष सिद्धान्त, कालक्रिया पाद, गोलपाद और सूर्य सिद्धान्त फिर नारदेव, ब्रह्मगुप्त आदि द्वारा उन सिद्धान्तों का संशोधन-परिवर्धन, भाष्कराचार्य का महाभाष्कीय आदि ग्रन्थ उस महत् प्रयास के कुछ सुलभ अवशिष्ट परिणाम हैं। बाद में इस विशुद्ध विज्ञान का जो दुरुपयोग हुआ, उसे जातीय-जीवन क्रम के ह्रास-काल की अराजकता समझते हुए उसके मूल सिद्धान्त सूत्रों तथा निष्कर्ष संकेतों के आधार पर इस दिशा में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
भारतीय तत्व मनीषी हजारों वर्ष पूर्व इस तथ्य से परिचित थे कि जड़ता वस्तुतः कहीं है नहीं। वह हमारी स्थूल दृष्टि की ‘एपियरेन्स’ या आभास मात्र है। यथार्थतः सर्वत्र आत्मचेतना ही विद्यमान है। यह सर्वव्यापी चैतन्य सत्ता ही विश्वात्मा है। विश्वात्मा के साथ आत्मा की जितनी समीपता-घनिष्ठता होती है उसी अनुपात से उसे विशिष्ट अनुदान प्राप्त होते रहते हैं।