
ध्यान साधना की प्रचण्ड सामर्थ्य
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आत्म-विकास के साधनों में भारतीय मनीषियों ने जप और ध्यान को बहुत अधिक महत्व दिया है। आत्मविकास का अर्थ केवल स्वर्ग और मुक्ति की प्राप्ति परलोक और मरणोत्तर जीवन की पूर्णानुभूति तथा अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास ही नहीं आता अपितु उन समस्त गुणों की अभिवृद्धि भी आती है जो हमारे भौतिक जीवन को भी शक्ति, सामर्थ्य और सक्रियता प्रदान करती है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, श्रद्धा, विश्वास, परिश्रम, पुरुषार्थ, व्यवहार-कुशलता, निरालस्य यह गुण न हों तो अपार भौतिक सम्पदाओं का स्वामी भी कालान्तर में निर्धन छूँछ हो सकता है, सामाजिक आत्मीयता से अलग अलग पड़ कर अपनी मानसिक शान्ति गंवा सकता है। स्पष्ट है कि हमारी आध्यात्मिक भौतिक सभी आवश्यकताएँ आत्म-विकास पर ही आधारित हैं, अतएव उससे मात्र एकांगी पक्ष की बात नहीं विचारनी चाहिए।
साम्यवाद के कट्टर समर्थक उपासना को समय की बर्बादी कहकर उसे बुर्जुआ संस्कार बताते और उसके लिए जन-जीवन में अथवा अश्रद्धा उत्पन्न करते हैं। उनका तर्क यह होता है कि यदि इतने समय का उपयोग पुरुषार्थ और परिश्रम में किया जाये तो उससे औद्योगिक विकास और राष्ट्रीय सम्पत्ति बढ़ती है और प्रकारान्तर से उसका लाभ सारे देश और समाज को ही मिलता है।
एक पक्षीय चिन्तन की संकीर्णता न होती तो बात किसी हद तक तब भी ठीक हो सकती थी जब आत्मविकास को अध्यात्मवादी दिशा को उपेक्षणीय मान लिया जाता, किन्तु इस चिन्तन के घोर दुष्परिणाम अपने भौतिक जीवन को भी प्रभावित किये बिना मानते नहीं। रेल चौबीस घंटे चलती रहे यह अच्छी बात है, पर यदि उसे कुछ स्टेशनों के बाद रोक कर पानी न भरा जाये, ईंधन न डाला जाय तो क्या गाड़ी चलती रह सकेगी? शिफ्टें बदल कर मजदूर लगाते रहे जायें, पर मशीन का पहिया न रुके तो मशीन कितने दिन तक चल सकती है। विश्राम के ही क्षण ले लें, यदि उस अवधि में क्रीड़ा, मनोविनोद मन-बहलाव की सुविधा न हो तो ऊब और मानसिक थकावट के कारण व्यक्ति का आयुष्य आधा रह जायेगा। सर्वेक्षणों से पता चला है कि विवाहितों की अपेक्षा विधुरों की मृत्यु का अनुपात अधिक है यह इस बात का प्रतीक है कि जीवन की शुष्कता चाहे किसी भी क्षेत्र में मारक प्रतिफल उत्पन्न करती है जब कि अनेक क्षेत्रों में बौद्धिक अभिव्यक्ति से दीर्घायुष्य और स्वस्थ मनोबल का विकास होता है। अतएव साम्यवाद की उक्त कल्पना कुछ समय के लिए व्यावहारिक हो सकती है पीछे तो वह एक ऐसा भार बन जाती है कि उस वातावरण का हर प्रणी अपने आपको, दबा, पिसा और घुटा हुआ अनुभव करता है। साम्यवादी देशों से बुद्धिजीवियों के व्यापक पलायन की घटनाएं इसी तथ्य का समर्थन करती हैं।
उपासना का सुनिश्चित वैज्ञानिक आधार न होता तब तो उपरोक्त मान्यता में कुछ सार भी हो सकता था, किन्तु जब हम उसे अंतरंग जीवन की अपरिहार्य आवश्यकता के रूप में पाते हैं तब उसे बुर्जुआ संस्कार कह कर उपेक्षा करना व्यक्ति, समाज और विश्व समुदाय किसी के लिए भी हितकारक नहीं।
उपासना में ‘उप’ और ‘आसना’ यह दो शब्द हैं। ‘उप’ उपसर्गपूर्वक ‘आस’ उपवेशने’ धातु से ‘युत्र’ प्रत्यय करने पर ‘टाप् प्रत्यान्त’ ‘उपासना’ शब्द बना। ‘उप’ का अर्थ हुआ ‘समीप’, ‘आसना’ का अर्थ है स्थिति। उपास्य, आराध्य की स्थिति से जितनी ही अधिक समीप अपनी स्थिति विनिर्मित कर ली जाये उसके जितना अधिक अनुकूल-समतुल्य बना जाये उसकी क्षमताएं, शक्तियाँ, सामर्थ्य उसी अनुपात में अपने अंदर आती और अपने चेतन व भौतिक गुणों से लाभान्वित करती चली जायेंगी। भले ही वह वस्तु काल्पनिक ही क्यों न हो? भूत का कोई अस्तित्व नहीं किन्तु उसकी मान्यता और विश्वास के आधार पर अंधकार से साकार भूत आ धमकता है और उसे व्यक्ति को कितना भयभीत कर देता है यह हर कोई जानता है- कल्पना का यह भूत यदि किसी को विक्षिप्त, पागल और मार सकता है तो दिव्य गुणों से, दिव्य क्षमताओं से ओत-प्रोत आराध्य हमारे जीवन को दिव्य न बनाये ऐसा कैसे हो सकता है?
आइये अब तथ्यों की खोज पर उतरते हैं। ‘दि ह्यूमन सेन्सेज’ के रचयिता वैज्ञानिक डॉ. गेल्डार्ड ने अपनी पुस्तक में बताया है कि नक्षत्रीय गतिविधियाँ, मनुष्य की मानसिक व शारीरिक गतिविधियों को प्रभावित करती हैं। इस सिद्धांत के समर्थन में उन्होंने एक वैज्ञानिक प्रयोग का उदाहरण देकर यह समझाया है कि मनुष्य की कोशिकाओं में अनुकूल तत्वों को आकर्षित करने, अवशोषण कर अपने में धारण करने और इस आधार पर शरीर से टूटने वाली ऊर्जा की कमी को पूरा करने की अद्भुत सामर्थ्य है। इसकी जाँच तब हुई जब शरीर के जीवित अंश को काट कर अलग रखा गया उस स्थान पर पहले से एक विषाक्त रसायन रखा था। मस्तिष्कीय प्रक्रिया से संबंध विच्छेद होने पर भी उस जीवित टुकड़े के अणु उस घातक वस्तु से दूर हटने की कोशिश करने लगे। वैज्ञानिक इस बात को देखकर आश्चर्यचकित रह गये तुरंत उन्होंने उस विष को वहाँ से हटा दिया और अब उस स्थान पर लाभदायक औषधि रखी तो उन कोषाणुओं का गुण पूरी तरह बदल गया, वे उस औषधि की ओर खिंचने का गुण दिखाने लगे। डॉ. गेल्डार्ड ने अपनी समीक्षा में बताया है कि प्रत्येक जीवाणु एक लघु उपस्टेशन है जो मुख्य स्टेशन मस्तिष्क से जुड़ा रहता है। मस्तिष्क में जो भी भाव-तरंग उठी उसका तत्काल स्पष्ट प्रभाव इन जीवाणुओं में झलक पड़ता है। इसी आधार पर मनुष्य आकाश की अदृश्य शक्तियों से तो प्रभावित होता ही है मन की चुम्बकीय शक्ति के द्वारा वह दूरस्थ नक्षत्र पिण्डों से शक्ति प्रवाह भी अपने अंदर आकर्षित कर धारण कर सकता और अपनी अंतरंग क्षमताओं को विकसित कर सकता है। प्राचीन भारतीय मनीषियों ने इन्हीं शक्ति प्रवाहों को सूक्ष्म दैवी शक्तियों के रूप में माना था, उनके गुणों की पृथकता के आधार पर उन्हें पृथक-पृथक देव शक्तियों की संज्ञा देकर उनकी उपासना की विधियाँ विकसित की थीं और उनके अभ्यास द्वारा अपनी क्षमताओं को विकसित कर प्रचुर भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष उपलब्ध किया था आज तो उन्हें मनगढ़न्त-सा माना जाने लगा है, पर अध्ययन यह निष्कर्ष देते हैं कि वह कल्पनाएँ नहीं यथार्थ हैं आज वैज्ञानिक उनकी पुष्टि करते हैं।
क्वांटम थ्योरी ने परिपूरक सिद्धांत के रूप में यह स्वीकार किया है कि पदार्थ अपनी ठोस अवस्था से तरल, तरल से गैस, गैस से प्लाज्मा तथा इसी तरह के और भी उन्नत किस्म के प्रकाश-कणों में परिवर्तित हो जाता है। उसी तरह उच्चस्तरीय चेतन कण क्रमशः एक स्थिति में पदार्थ के रूप में भी व्यक्त हो सकते हैं। इसी तरह का प्रतिपादन वैज्ञानिक हाइजन वर्ग ने भी किया है। वे लिखते हैं कि अन्तरिक्ष में एक स्थान आता है जहाँ पदार्थ को छोड़ दिया जाये तो वह स्वतः ऊर्जा में परिणत हो जाता है जिस तरह पदार्थ सत्ता परिधि काल और रूप के ढाँचे में बंधी रहती है, उसी तरह मनःसत्ता अनुभूति स्मृति विचार और बिम्ब के रूप में व्यक्त होती है इतना होने पर भी दोनों में अत्यधिक घनिष्ठता है। यह एक दूसरे को प्रभावित ही नहीं करते अपितु परस्पर आत्मसात भी होते रहते हैं। उपासना का, ध्यान का अर्थ इस प्रक्रिया को ही अत्यधिक प्रगाढ़ बनाकर उन शक्तियों से लाभान्वित होना है।
प्रख्यात प्राकृतिक चिकित्साविद् डॉ. हेनरी लिन्डल हर ने अपनी पुस्तक ‘प्रैक्टिस ऑफ नेचुरल थेरोप्युटिक्स में मानवीय मनोभावों को सर्वव्यापी ब्रह्मसत्ता किसी देवसत्ता, अदृश्य देवदूत, सिंह पुरुष, महान् सद्गुरु यहाँ तक कि लौकिक दृष्टि से किसी प्रेमी के मनोभावों से जोड़कर उनकी विचारणाओं, अनुभूतियों को आत्मसात कर न केवल उनकी भावनाएँ समझने की बात स्वीकार की है अपितु यह भी माना है कि इष्ट की भौतिक परमाणु या शारीरिक अनुभूतियाँ भी उस स्थिति में विलक्षण रूप में आकर्षित होती हैं। गंगा के पानी को एक नहर काट कर अन्यत्र ले जाया जाये तो उस जल के सभी गुण वहाँ तक खिंचे चले जावेंगे जहाँ तक नहर जायेगी। इस तरह अपनी शरीर मन, भावनाओं का तेजी से विकास होता है।
गुरुजनों के स्मरण, देवताओं की आराधना और इस तथ्य के समर्थन में दो घटनायें प्रमाण और साक्ष्य रूप में प्रस्तुत है। ‘साइकोलॉजी ऑफ रिलीजन’ पुस्तक के लेखक श्री थूलेस ने सेन्ट कैथराइन का प्रामाणिक विवरण दिया है। जब वह समय आता था, जब कि ईसामसीह क्रास पर कील से ठोंके गये थे, उस समय सेन्ट कैथराइन अपने शरीर के विभिन्न स्थलों में वैसी ही पीड़ा का अनुभव करती थीं, जैसी शरीर में कीलें ठोकने पर होती है। ऐसी अवस्था में एक डॉक्टर को उनकी देखभाल करनी होती थी। डाक्टरी जाँच से पाया गया कि कैथराइन की पीड़ा की अनुभूति वास्तविक थी।
यह उपास्य से उपासक के गहरे तादात्म्य का ही परिणाम है। न केवल चेतन परमाणु अपितु जड़, पिण्ड और वह भी काल और ब्रह्माण्ड की सीमा के परे इस तादात्म्य में जोड़े जा सकते हैं और इस तरह असम्भव लगने जैसी भूत और भविष्य की घटनाओं की भी जानकारी ली जा सकती है।
वैज्ञानिकों ने भी मन की शक्ति को नाप-तौल करने का प्रयत्न किया है। उनके मतानुसार मन भौतिक शरीर की चेतन शक्ति है-आइन्स्टीन के शक्ति सिद्धांत के अनुसार न कुछ भार वाले एक परमाणु में ही प्रकाश की गति गुणित प्रकाश की गति अर्थात् 186000 गुणित 186000 कैलोरी शक्ति उत्पन्न होगी। 14 लाख टन कोयला जलाने से जितनी शक्ति मिलती है उतनी ही शक्ति की मात्रा 1 पौण्ड पदार्थ की शक्ति की होती है। यदि इस शक्ति को पूरी तरह शक्ति में बदलना संभव होता तो एक पौण्ड कोयले में जितना द्रव्य होता है यदि उसे शक्ति में परिवर्तित कर दिया तो संपूर्ण अमेरिका के लिए 1 माह तक के लिए बिजली तैयार हो जायेगी।
ध्यान की अवस्था पर किये गये कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान भी इन तथ्यों का आश्चर्यजनक प्रतिपादन करते हैं। ध्यान की अवस्था में कम ऑक्सीजन में भी शरीर का काम चलता रहता है। हृदय व नाड़ियों की गति मंद पड़ने से रक्त-विकार कम होते हैं शयनकाल के बाद शरीर में जो ताजगी आती है वह ध्यानावस्था में ही उपलब्ध होती है। प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में ‘उत्सर्जन’ की क्रिया अनिवार्य है सूर्य, चन्द्रमा ही नहीं हमारे शरीर में भी विकरण क्रिया चलती और उससे शक्ति क्षरण होता रहता है यह आश्चर्य की बात है कि ध्यान की अवस्था में विकीर्ण होने वाली तरंगें अपना गुण बदल देती हैं और वे शरीर के विष शोधन, नई संरचना में जुट जाती हैं। ध्यान से मिलने वाली ताजगी, आयुष्य आदि में इस सिद्धांत के साथ अवधारण क्रिया के द्वारा देव शक्तियों से प्राप्त शक्ति भी सहायक होती है। अपने यहाँ हर मंत्र का देवता होता है। गायत्री का देवता सविता अर्थात् गायत्री उपासना के समय सूर्य के ध्यान की व्यवस्था है। उसका अर्थ सूर्य की अदृश्य शक्तियों किरणों को उपरोक्त वैज्ञानिकों, सिद्धांतों के आधार पर शरीर में धारण करना और उसके आत्मिक व वैज्ञानिक लाभों से लाभान्वित होना है। हमारी प्रगाढ़तम ध्यानावस्था हमारी मनश्चेतना को ‘सूर्य’ बना देती है उस शक्ति, सामर्थ्य और अनुभूति की कल्पना की जा सके तो सहज ही अनुभव किया जा सकता है कि गायत्री सिद्धि के क्या चमत्कार हो सकते हैं? प्रत्येक उपासना के लिए यही बात, यही सिद्धाँत लागू होता है।