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Magazine - Year 1978 - Version 2

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अन्तःकरण चतुष्टय और साधना विज्ञान

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अन्तःकरण चतुष्टय चेतना की क्रिया पद्धति है। यों चेतन सत्ता एक है, उंगलियों की तरह उसके पृथक-पृथक खंड एवं स्वरूप नहीं हैं और न उसके कार्य विभाजित हैं। वह एक ही शक्ति कई समय पर कई काम करती है। जब वह जो काम करती है तब उसे उस नाम से संबोधित किया जाता है। एक ही व्यक्ति वक्ता विद्यार्थी, अभिनेता, खिलाड़ी, रोगी, मित्र, शत्रु, ग्राहक, विक्रेता आदि की कई भूमिकाएँ समय-समय पर निभाते हुए देखा जा सकता है। जब वह जो काम कर रहा होगा तब उसे उसी रूप में कैमरा चित्रित करेगा और संबोधन कर्ता नाम देगा। चेतना की चार संज्ञाएं मिलने की बात ऐसी ही समझी जानी चाहिए। उन्हें चार स्वतंत्र सत्ताएँ मानने और पृथक्-पृथक् काम करने के लिए नियुक्त नहीं मानना चाहिए।

(1) मन का काम है-कल्पनाएँ करना। अन्तःवर्ती इच्छाओं एवं अनुभूतों में जहाँ सरसता की अनुभूति का उसे ज्ञान है उसी परिधि में प्रायः मन की उड़ानें उड़ती हैं। आकर्षण के अतिरिक्त दूसरा पक्ष है-भय। हानि से आत्म रक्षा भी अग्रगमन और रसास्वादन की ही तरह प्रभावोत्पादक है। सुख की उपलब्धि और दुख की निवृत्ति एक दूसरे की पूरक हैं। मन इन दोनों ही ज्वार-भाटों में उछलता रहता है। कल्पना के वह अनेक पक्ष और दृश्य उपस्थित करता है, जिसके सहारे चेतना की अगली परत बुद्धि को उचित-अनुचित का संभव-असंभव का निर्णय करने में सुविधा रहे। इन दोनों उभारों के बीच एक विनोदी, मनमौजी पक्ष भी है, जिसे निरर्थक अस्त-व्यस्त कह सकते हैं। कई बार अप्रासंगिक विचार भी उठते रहते हैं। यों उनका भी कहीं न कहीं किसी पूर्व स्मृति से संबंध होता है। सर्वथा नवीन एवं अपरिचित प्रसंग के विचार कदाचित ही कभी आते हैं। वे अपनी पूर्व ज्ञान भूमिका में ही विचरण करते रहते हैं।

(2) बुद्धि वह तत्व है जिसे विशालकाय विचार क्षेत्र में से उपयोगी अनुपयोगी का निर्णय करना पड़ता है। उसे न्यायाधीश कह सकते हैं। अनेकों गवाहों, वादी, प्रतिवादियों, वकीलों और सिफारिशी लोगों ने अपनी-अपनी बातें अपने समय और ढंग से कहीं होती है। न्यायाधीश अपने विवेक से इस जाल-जंजाल में से औचित्य तलाश करता है और तद्नुसार फैसला करता है। बुद्धि प्रायः यही भूमिका निभाती है। उसे स्वार्थ को प्रधानता देनी पड़ती है। सामान्य स्थिति में शक्य और स्वार्थ का समन्वय ही उसकी न्याय संहिता होती है। परिष्कृत बुद्धि जिसे गायत्री मंत्र में धी और तत्व दर्शन में ऋतम्भरा कहा गया है वह स्वार्थ की परिधि से ऊपर उठकर मात्र औचित्य और आदर्श को ही प्रधानता देती है। बुद्धि का स्तर जो भी हो निर्णय तो तदनुरूप ही होंगे, पर काम उसका निर्णय करना ही होगा।

(3) चित्त को निर्धारण कह सकते हैं। मन की कल्पनाओं में से ग्राह्य ठहरा देने का निर्णय करना बुद्धि का काम है, पर आवश्यक नहीं कि वे निर्णय क्रिया रूप से परिणित होने के निश्चय तक जा पहुँचे। आकाँक्षा, संकल्प और साहस के समन्वय से ही वह मनोभूमि बनती है, जिसमें कुछ करने के लिए कदम उठते हैं। मंजिल पर चलने के लिए अनेक साधन जुटाने पड़ते हैं और अवरोधों को निरस्त करने के अनेक उपाय सोचने पड़ते हैं। इसकी तैयारी किसी सुनिश्चित निर्धारण के उपरान्त ही होती है। विचार को प्रयास में परिणित करने वाले संस्थान को व्यावहारिक प्रयोजनों में चित्त कहते हैं।

चित्त को वैज्ञानिक भाषा में अचेतन कहा जाता है। असंख्य शरीर में रहने के कारण उसे काय संचालन की मूलभूत क्रिया-प्रक्रिया का परिचय है। अस्तु वह अपने अनुभवों के आधार पर रक्त संचार, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास, ग्रहण-विसर्जन, निद्रा-जागृति आदि के क्रिया-कलापों को अनवरत गति से सम्पन्न करता रहता है। स्वसंचालित एवं अनैच्छित, शरीर संचालन की कार्य सिद्धि इस चित्त संस्थान के माध्यम से ही सम्पन्न होती है।

भले-बुरे संस्कार इसी चित्त में जमे रहते हैं। आदतों की जड़ इसी भूमि में घुसी रहती है। तप साधनाओं का उद्देश्य इस चित्त की दिशा धारा मोड़ने, मरोड़ने, भुलाने, सिखाने का अति महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करके व्यक्तित्व का निर्माण करना ही होता है।

(4) अहंकार-चेतना की वह परत है, जिसमें अपने आपे के सम्बन्ध में मान्यताएँ जमी रहती हैं। अहंकार का अर्थ घमण्ड भी होता है, पर तत्व चर्चा में इस शब्द को आत्म अस्तित्व-ईगो- के संदर्भ में ही प्रयुक्त किया जाता है। तमोगुण का एक अर्थ क्रोधी स्वभाव भी है, पर तत्व चर्चा में उसे आलस्य, प्रमाद, निराशा जैसी चेतनात्मक जड़ता के लिए ही प्रयुक्त किया जाता है। अहं का तात्पर्य स्व सत्ता की अनुभूति, का स्तर ही समझा जाना चाहिए।

व्यक्ति अपने सम्बन्ध में मान्यता स्वयं निर्धारित करता है। इस आधार पर उसकी आकांक्षा उभरती है और दृष्टिकोण बनता है। आस्था, निष्ठा इसी क्षेत्र का उत्पादन है। इसे व्यक्तित्व का बीज भी कह सकते हैं। बाह्य जीवन इसी की प्रतिक्रिया है। आत्म मान्यता के आधार पर ही व्यक्ति की- आकांक्षा, विचारणा एवं क्रिया को दिशा एवं गति मिलती है। बाह्य जीवन में मनुष्य जैसा भी कुछ है उसे अन्तःस्थिति की प्रतिच्छाया मात्र समझा जा सकता है। योगाभ्यास इसी परत को प्रभावित करने के लिए किये जाते हैं। श्रद्धा और भक्ति के भाव संचार ही अहंता का स्तर बदल सकने में समर्थ होते हैं।

चिन्तन को इन चारों परतों का समन्वय करने से समग्र ज्ञान साधना का उद्देश्य पूर्ण होता है। इनमें से एकाध का ही उपयोग किया जाय तो बात अधूरी रह जाएगी और विचार शक्ति का जो लाभ मिलना चाहिए वह मिल न सकेगा।

कल्पना के आधार पर किसी तथ्य के मानसिक चित्र तैयार किये जाते हैं। जिस प्रकार किसी इमारत के लिए कागजी नक्शे या अच्छी तस्वीर के लिए पेन्सिल-स्केच तैयार किये जाते हैं उसी प्रकार कल्पना की तूलिका अभीष्ट प्रयोजन का एक अनगढ़ चित्र तैयार करती है। मन का यही काम है वह तरह-तरह की उड़ानें उड़ता रहता है। आकांक्षाओं के अनुरूप मानस पटल पर तस्वीर बनाता रहता है। अगला काम विवेक बुद्धि का है वह इसमें से उपयुक्त-अनुपयुक्त की काट-छांट करती है। फिल्म खींचते समय कैमरा द्वारा ढेरों फिल्म खिंचती हैं। डायरेक्टर उसमें से उपयुक्त अनुपयुक्त की कांट-छांट करता है। बेकार भाग को निकाल कर फेंक देता है और उपयोगी अंशों को इधर से उधर जोड़ गाँठ करके उसका कारगर ढाँचा खड़ा करता है। बच्चे कुछ भी कहते-कुछ भी माँगते रहते हैं, बड़े उसमें से काम की और बेकाम की बातों का अंतर करते हैं और उनके लिए क्या करना चाहिए इसका निर्णय करते हैं। बुद्धि की कसौटी पर खरे खोटे की परख होती रहती है। कल्पना में से उपयोगी अंश छाँट निकालना उसी का काम है।

विचारों का कार्यों के साथ चिरकाल तक समन्वय बना रहने से वैसा स्वभाव बन जाता है और अनायास ही उस प्रकार की इच्छा उठने और क्रिया होने लगती है। इसी को संस्कार या चित्त कहते हैं। इच्छा, ज्ञान, अभ्यास, वातावरण, समर्थन आदि अनेक कारणों से जीवात्मा के ऊपर एक आवरण बनता है। यही अहंकार है। यह है तो आत्मा से पृथक मान्यताओं और गतिविधियों से विनिर्मित पर चेतना के साथ अत्यधिक घनिष्ठ हो जाने से वह उसी का अंश लगने लगता है। साँप की केंचुल या बल्ब के काँच की उसे उपमा दी जा सकती है। इस अहंकार को ही व्यक्तित्व कह सकते हैं। ईश्वर और जीव की पृथकता की प्रमुख दीवार यही है। उपासना द्वारा ईश्वर को आत्म समर्पण करके इसी अहं को मिटाया जाता है। तप साधना द्वारा कुसंस्कारों का उन्मूलन और सुसंस्कारों का संस्थापन किया जाता है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन द्वारा विवेक बुद्धि परिष्कृत होती है और इन्द्रियनिग्रह द्वारा मन चले मन को सत्संकल्प करने वाले उपयोगी चित्र गढ़ने वाला बनाया जाता है। यही है आत्म-साधना की पृष्ठभूमि और संक्षिप्त रूप रेखा।

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Version 2
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