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Magazine - Year 1983 - Version 2

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कामुक उच्छृंखलता के दूरगामी दुष्परिणाम

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सुप्रजनन की दृष्टि से संयमी लोग ही सफल एवं सक्षम होते हैं। कामुकों में रति-कौशल हो सकता है, किन्तु वे बीज निर्माण के क्षेत्र में सर्वथा पिछड़े हुए पाये जाते हैं। ऐसे लोगों द्वारा व्यक्तित्व सम्पन्न सन्तान की आशा नहीं की जा सकती। बलिष्ठ और सुन्दर लोग अपनी अनुकृति को जन्म दे सकते हैं। इसी प्रकार प्रज्ञा, प्रतिभा और सुसंस्कारिता के क्षेत्र में भी उसी स्तर के सृजनकर्ताओं की आवश्यकता पड़ती है। इस संदर्भ में संयम, सदाचार को जितना महत्व दिया जा सके, देना चाहिए।

प्रजनन विशेषज्ञ जॉन मैक्लाइड की गणना के अनुसार स्वस्थ मनुष्य के एक मिलीमीटर वीर्य में 1 करोड़ 70 लाख शुक्राणु होने चाहिए, पर इन दिनों औसत अमेरिकी में वे घट कर साठ-सत्तर लाख से अधिक नहीं पाये जाते हैं। किसी-किसी वर्ग या क्षेत्र में तो उनकी संख्या और भी कम होकर 40 लाख से भी कम रह गई। इसका प्रभाव न केवल प्रजनन पर पड़ता है, वरन् रति कर्म में शारीरिक अक्षमता के रूप में भी देखा जाता है। मानसिक कामुकता चिन्तन एक बात है; उसे तो वृद्धजन भी करते रहते हैं, किन्तु शारीरिक क्षमता विशुद्ध रूप से उस क्षेत्र के स्नायविक, रक्त-प्रवाह एवं ऊर्जा प्रदान करने वाले उन तत्वों पर निर्भर है, जो शुक्राणुओं में पाये जाते हैं।

इन दिनों कामुकता निस्सन्देह बढ़ रही है। उसे अश्लील साहित्य तथा फिल्म-चित्रों ने विशेष रूप से भटकाया है। ऐसे क्लब और चकले भी आग में घी का काम करते हैं और मानसिक प्रवाह को घसीटकर कहीं से कहीं ले जाते हैं। इतने पर भी यह देखने योग्य है कि क्या इस चिन्तन में निरन्तर निरत रहने वाले शारीरिक दृष्टि से भी रति कर्म के लिए उपयुक्त क्षमता बनाये हुए हैं। उसकी जाँच-पड़ताल के स्थिति क्रमशः निराशाजनक बनती जा रही है, क्रमशः मनुष्य नपुँसकता की ओर बढ़ रहे हैं। यह तथ्य न केवल पुरुषों पर लागू होता है, वरन् नारियों पर भी यही छाया घिरी हुई है। इसी कमी के कारण प्रजनन की उपलब्धियाँ भी शिथिल स्तर की होती है। सन्तानें दुर्बल, निस्तेज और आलसी होती जाती है। जवानी में बुढ़ापा घिर जाने का यह स्वाभाविक परिणाम है।

अब तक बढ़ती हुई नपुँसकता का कारण मनोवैज्ञानिक समझा जाता था और अनुमान लगाया जाता था कि यह लज्जा, भय, संकोच एवं आत्महीनताजन्य है। कई प्रसंगों में असफल रहने वालों की मान्यता बन जाती है कि वे अपना पौरुष गँवा बैठे। बस इतने भर से वैसा मन ढल जाता है और सचमुच ही नपुँसकता आ घेरती है। ऐसे लोगों का उपचार मनोबल बढ़ाने, उत्साह प्रदान करने एवं सफलता की अनुभूति कराने वाले उपायों के द्वारा किया जा सकता है, किन्तु जब चूल्हे में ईंधन कम पड़े, भण्डार चुकने लगे, तो उन उपचारों से भी क्या बनेगा। वृद्धता आने पर शारीरिक शिथिलता बढ़ जाने पर उत्तेजना देने वाले अवसर प्राप्त रहने पर भी कुछ प्रत्यक्ष पुरुषार्थ बन नहीं पड़ता।

घटते हुए पौरुष का न केवल दम्पत्ति सन्तोष पर, वरन् सन्तानोत्पादन की अक्षमता के रूप में भी देखा जाता है। इतना ही नहीं उससे मनुष्य की कर्मशीलता, स्फूर्ति, तत्परता, क्षमता, दक्षता पर भी प्रभाव पड़ता है। बूढ़ों की तरह पौरुषहीन भी अपनी घटी हुई क्षमता के कारण इच्छा रहते भी कहने लायक पराक्रम किसी भी क्षेत्र में नहीं कर पाते। यह प्रकारान्तर से समर्थता का अवमूल्यन है।

शुक्राणु की घटती हुई संख्या के साथ घटते हुए पौरुष का संकट क्यों बढ़ता जा रहा है-इसके कई कारण बताये जाते हैं। फसलों पर विषैले रसायनों का छिड़काव घूम फिर कर आहार द्वारा रक्त में मिलता और कीटाणुओं की तरह शुक्राणुओं को भी मारता है-यह एक अनुमान है। इसके अतिरिक्त स्वाद प्रेरित व्यंजनों में पोषण तत्व की न्यूनता रहना भी इसका कारण है। चिन्ता, आशंका, अनिश्चितता, निराशा, खीज, असफलता जैसे कारणों से भी उद्वेग रहने पर बढ़ा हुआ मानसिक तनाव शरीर की हर क्षमता को घटाता है। उसी घटोत्तरी में शुक्राणुओं की कमी एवं शिथिलता भी एक कारण हो सकता है। ऐसे-ऐसे और भी कई कारण सोचे जा रहे हैं, उनके कारण के परामर्श दिये जा रहे हैं, ताकि बढ़ती हुई सर्वतोमुखी अक्षमता की रोकथाम सम्भव हो सके।

सर्दी-गर्मी से सर्वथा बचे रहने वाले, एयर कंडीशन घरों में रहने वाले लोग भी प्रकृति प्रदत्त ऋतु उत्तेजनाओं से वंचित रह जाते हैं। सुविधा बढ़ने पर भी दक्षता में कमी आती है। इस दृष्टि से वन प्रदेश के वनवासी भाग्यवान हैं जो सर्दी-गर्मी सहने के अभ्यस्त रहने से अपनी स्वास्थ्य-सम्पदा अक्षुण्ण बनाये रहते हैं।

साधारणतया एकबार का खाली किया गया वीर्य भण्डार भरने में प्रायः 48 घण्टे लगते हैं। जो भण्डार भरे रहने की आवश्यकता नहीं समझते और उत्पादन की तुलना की आवश्यकता नहीं समझते और उत्पादन की तुलना में खर्च अधिक बढ़ा देते हैं, ब्रह्मचर्य का अनुबंध नहीं पालते, उन्हें भी अपनी भूल का जल्दी ही पता चल जाता है और वे क्रमशः क्षमता गँवाते चले जाते है।

शुक्राणुओं की संख्या ही नहीं, उनकी सजीवता, संरचना, स्फूर्ति भी पौरुष को अक्षुण्ण रखने के लिए आवश्यक होती है। संख्या घटना ही नहीं, उससे प्रखरता घटना भी पौरुष घटने का एक बड़ा कारण है। यह कमी क्यों पड़ती है? इसका कारण क्षेत्रीय नहीं, समूचे शरीर की समर्थता पर निर्भर है। शरीर बलिष्ठ परिपुष्ट हो तो उनके शुक्राणुओं समेत अन्यान्य घटक समर्थ पाये जायेंगे। रोगी और दुर्बल काया का हर घटक इसी स्थिति में देखा जाता है; उसकी दक्षता में उसी अनुपात में कमी पड़ती है। इस दृष्टि से मात्र शुक्राणुओं की शिथिलता, न्यूनता दूर करने का काम स्थानीय उपचार कारगर नहीं हो सकता। इसलिए पौरुष बढ़ाने वाली दवाओं की ढूँढ़-खोज करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि स्वास्थ्य संवर्धन की समूची समस्या पर विचार किया जाय और उसमें जिन कारणों से भी व्यवधान पड़ता हो, उन सभी का निराकरण किया जाय।

परिस्थितियों का मनुष्य के स्वभाव पर प्रभाव पड़ता है-यह बात आँशिक रूप से ही सत्य है। कितने ही विलक्षण व्यक्ति संसार में ऐसे हुए हैं जिन्होंने परिवार या संपर्क क्षेत्र के प्रचलनों का उल्लंघन करके अपनी परिस्थितियों में पले हुए व्यक्ति सामान्य स्तर के ही बने रहे।

कहा जाता है कि व्यक्तित्व का निर्माण कच्ची उम्र में होता हैं। स्वभाव का बहुत बड़ा भाग बचपन में ही बन चुका होता है। जो कमी रहती है वह किशोरावस्था में पूरी हो जाती है। इसके बाद पच्चीस की आयु तक पहुँचते-पहुँचते ऐसी मनःस्थिति बन जाती है, जिसमें किसी बड़े परिवर्तन की आशा बहुत ही कम रह जाती है यह मान्यता अधिकाँश लोगों पर तो लागू होती है पर उन प्रसंगों को भी झुठलाया नहीं जा सकता जिसमें अनेकों ने परिपक्व आयु में भी ऐसा पलटा खाया जिसकी पिछली लम्बी अवधि से चले आ रहे ढर्रे के साथ कोई संगति नहीं बैठती। यदि उपदेश परामर्श मिलने की बात को इसका कारण बताया जाय तो भी वह गले नहीं उतरती, क्योंकि इस प्रकार के उपदेश उसने पहले भी अनेकों बार सुने होते हैं। ऐसे अप्रत्याशित परिवर्तनों में किसी देवता या सिद्ध-पुरुष का कोई बड़ा हाथ नहीं रहा होता, वरन् तथ्यतः वे उभार भीतर से ही उमंगे होते हैं। भले ही श्रेय देने के लिए उन्हें किसी व्यक्ति विशेष का अनुदान परामर्श कहकर मन समझा लिया जाय।

एक ही माता-पिता के जन्मे; एक ही वातावरण में पले, एक जैसे घटनाक्रमों से होकर गुजरे बच्चों के स्वभाव में क्यों अन्तर पाया जाता है? उनमें से किसी का व्यक्तित्व प्रखर और किसी का मन्दमति, कुसंस्कारियों जैसा पिछड़ा क्यों होता है? इसका उत्तर सामान्य बुद्धि के लिए दे सकना कठिन है। अटकलें लगाने पर भी वे समाधान कारक नहीं होती। फिर इसे भाग्य विधान, विधाता के लेख, ग्रह दशा आदि कहकर मन समझाया जाय? बात इससे भी नहीं बनती, क्योंकि दूसरे ही क्षण यह प्रश्न उठता है कि विधाता ऐसा पक्षपात क्यों करता है? किसी का भाग्य औंधा, किसी का सीधा लिखने में उसे क्या मजा आता है? ग्रह-नक्षत्र अकारण किसी पर प्रसन्न और किसी पर अप्रसन्न ही क्यों होते हैं? किसी को उठाने किसी को गिराने में उन्हें क्यों अपना समय लगाने और झंझट उठाने का शौक चर्राता है।

वर्कले युनिवर्सिटी के जीव विज्ञानी जैक लॉक ने सैंकड़ों व्यक्तियों के बचपन से लेकर बुढ़ापे तक के उतार-चढ़ावों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया है। वे कहते हैं कि परिस्थितियों के साथ-साथ मनुष्य का दृष्टिकोण और व्यवहार तो बदलता है, पर मूल प्रकृति में नगण्य सा ही अन्तर हो पाता है। बचपन के हँसोड़ जीवन के अन्त तक प्रायः वैसे ही बने रहे। इसी प्रकार एकान्त प्रिय के झेंपू, शर्मीले लोगों की वह आदत गयी ही नहीं। झगड़ालू आदत भी ऐसी ही है, जो व्यक्तित्व के साथ इस प्रकार गुँथी रहती है, मानो वह जन्म के समय से ही साथ आयी हों।

स्वभाव के परिवर्तन में कोई बड़े आघात तो कभी-कभी अपना प्रभाव दिखाते भी हैं, पर सामान्यतया उसमें कोई बड़ा अन्तर नहीं आता। किसी घनिष्ठ की मृत्यु-भारी हानि-लाभ, मानापमान, भयंकर रोग, दुर्घटना स्थान या व्यवसाय में भारी हेर-फेर जैसे बड़े कारणों में कई बार जीवन की दिशा बदलती देखी गई है और साथ ही प्रकृति में भी परिवर्तन होते पाया गया है। किन्तु वैसी घटनाओं को अवसाद ही कहा जा सकता है। साधारणतया तो स्थिति ऐसी ही रहती है मानो व्यक्ति जन्म से ही किसी ढाँचे में ढला हुआ आया हो। धातुएँ खदान से अपनी विशेषताएँ साथ लाती हैं। बाद में तो उन्हें गलाने, पीटने में आकृतियाँ ही बदलती रहती हैं। प्रकृति में अन्तर नहीं हो पाता।

फ्रान्सिस गाल्टन ने सन् 1896 में अपनी विश्वविख्यात पुस्तक ‘हेरीडिटी जीनियस’ प्रकाशित कराई थी। उनका दावा था कि बुद्धिमान और व्यक्तित्व सम्पन्न माता-पिता ही अपने जैसी विशेषताओं वाली सन्तान को जन्म दे सकते हैं। ग्रन्थ प्रकाशित होने के कुछ समय बाद ही उस प्रतिपादन को संदिग्ध बताने वाले अन्य वैज्ञानिक सामने आये और उनने ऐसे अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये जिनसे मूर्धन्य लोगों की सन्तानें गई-गुजरी निकली और पिछड़े लोगों के घरों में प्रतिभावान जन्मे।

वंश विज्ञान के अनुसंधानी एफ.ए. बुड्स ने बीज की महत्ता बताते हुए कहा कि “प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति प्रायः राजघरानों में ही जन्मे हैं और वैज्ञानिकों का उद्भव व्यवसायी परिवारों में हुआ है।” कार्लपियर्सन ने वातावरण का महत्व तो माना है पर साथ ही यह भी कहा है कि वातावरण की तुलना में वंश बीज का प्रभाव प्रायः सात गुना अधिक होता है।

सन्तान को श्रेष्ठता का जो उपहार सामान्य दम्पत्ति दे सकते हैं, वह यह है कि वे अपने व्यक्तित्व को निरन्तर इस महान प्रयोजन का उत्तरदायित्व वहन कर सकने की साधना में लगाये रहें। प्रकारान्तर से यह मनःक्षेत्र में सुसंस्कारिता परिपक्व करने की प्रक्रिया है। इसमें कामुकता अश्लील चिन्तन एवं अवाँछनीय क्षरण से बचाव करने का ध्यान तो रखना ही होगा। साधना, उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों का सान्निध्य, तीर्थसेवन, वातावरण संपर्क इसी निमित्त किये जाते रहे हैं। स्वाध्याय की महत्ता भी इसीलिए मानी गयी है। गर्भाधान की अवधि में माता को श्रेष्ठता का ही वातावरण मिले, उसके लिये आवश्यक है कि अमर्यादित प्रजनन तो रुके ही; साथ ही ऐसा वातावरण भी बने जिससे कामुकता को प्रश्रय न मिलकर सत्प्रवृत्ति संवर्धन श्रेष्ठता का महत्व मिले। दायित्व न केवल व्यक्ति एवं परिवार का है वरन् सारे समाज का है। यह मात्र आस्तिकता एवं आध्यात्मिकता का वातावरण बनने पर ही सम्भव है। सत्साहित्य का प्रचार, विस्तार एवं लोकरंजन के श्रेष्ठ माध्यम भी कामुकता विरोधी वातावरण बना सकते हैं। तभी श्रेष्ठ व्यक्तित्वों का विकास हो सकता है।

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