
तपस्वी बनाम कर्मयोगी
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एक तपस्वी थे। पेड़ के नीचे बैठे थे। ऊपर से चिड़िया ने बीट कर दी। तपस्वी ने क्रोध से ऊपर देखा तो चिड़िया जलकर भस्म हो गई और नीचे आ गिरी उन्हें अपनी तप शक्ति का चमत्कार प्रथम बार देखने को मिला, गर्व से सीना फूल गया।
वे नगर चले। एक गृहस्थ के दरवाजे पर भिक्षा की याचना की। किवाड़ बन्द थे। गृह स्वामिनी ने उत्तर दिया-“थोड़ी देर बाहर विराज लीजिये। अपनी योग साधना पूरी करके भिक्षा दूँगी।” योग साधना में बोलना कैसा? किवाड़ के छेद में झाँककर देखा तो वह अपने पति की सेवा में निरत थी। “ऐसा ही होता है-योग। मेरे साथ ठिठोली कर रही।” तपस्वी की आँखें लाल हो गई।
गृह स्वामिनी ने दरवाजा खोला। नमन किया, भिक्षा थाल आगे रखा और नम्रतापूर्वक कहा-क्रोध न करें। यहाँ कोई चिड़िया नहीं रहती।
क्रोध आश्चर्य में बदल गया। “चिड़िया क्रोध इसे क्या पता?” गृह स्वामिनी ठिठक गयी। बोली-“योगी त्रिकालदर्शी होते हैं। मैं भी तो योग करती हूँ। कर्त्तव्य धर्म का पालन भी योग है। पति सेवा भी। उसकी भी तो सिद्धि है। चिड़िया वाली घटना जानने की क्षमता मुझमें क्यों न होती?”
तपस्वी ने भोजन तो ग्रहण किया पर साथ ही जिज्ञासु भाव से यह भी पूछा-आपके कर्मयोग की साधना तो सरल भी है। मुझे इसका दर्शन और विधान समझादें।
गृहिणी बोली-“मैंने गुरु वचन पर अनन्य श्रद्धा रखी। जो उनने बताया सो करने लगी न मुझे तत्वदर्शन आता है न विधि-विधान। गुरु वचन में पति सेवा को योग कहा गया सो ही मैं निष्ठापूर्वक करती आ रही हूँ।”
तो फिर अपने गुरु का पता बता दें, जो मुझे कर्मयोग समझा दें-तपस्वी ने कहा।
गृहिणी ने पता बता दिया-ब्रह्मावर्त नगर के तुलाधार वैश्य। तपस्वी चल दिये। रास्ता नापते नियत स्थान पर जा पहुँचे। तुलाधार की छोटी दुकान थी। ग्राहकों को सतर्कतापूर्वक निपटा रहे थे।
दुकान के सामने तपस्वी को खड़ा देखकर नमन किया। सत्कारपूर्वक आसन दिया। बोले-“कर्मयोग का रहस्य पूछने आये हैं न? आपको गृह स्वामिनी ने भेजा है न? आप चिड़िया जलाने वाले सिद्ध पुरुष है न?”
इतनी जानकारी? बिना कुछ पूछे बताये? तपस्वी का असमंजस दूर करते हुये तुलाधार ने कहा-“मैं योगी हूँ। त्रिकालदर्शी भी। व्यवसाय कर्म को श्रद्धापूर्वक करना भी कर्मयोग का एक अंग है। आपकी शंका का निवारण तो मैं कर नहीं सकूँगा। गुरु वचन पर अगाध विश्वास करके मैं व्यवसाय साधना में लग पड़ा। बिन पढ़ा हूँ। शास्त्र नहीं जानता। कुछ पूछना हो तो मेरे गुरुदेव के पास चले जाइये।” सन्त के आश्चर्य का ठिकाना न था। उनने इतना ही कहा-तब अपने गुरुदेव का पता बतादें।
तुलाधार ने काशी के श्वेतार चाण्डाल का पता बता दिया। वे उस कर्मयोगी को प्रणाम करके काशी की राह चल पड़े। काशी आने से पूर्व ही एक व्यक्ति सम्मुख आया। तपसी को साष्टाँग दण्डवत करके बोला-मेरा नाम श्वेतार चाण्डाल है। गंदी बस्ती में रहता हूँ। मुझे कोई जानता नहीं। पता पूछने और पहुँचने में आपको कष्ट होता सो मैं पहले ही आ पहुँचा। अब आप बैठे मैं नियत योगाभ्यास करलूँ तब आपकी जिज्ञासा का समाधान करूंगा। चाण्डाल मल-मूत्र ढोने और नालियाँ साफ करने लगा। समीप बैठे इस कौतुक को देखने वाले तपस्वी से चाण्डाल ने कहा-‘देव! ऊँचे उद्देश्य रखकर सामान्य कार्यों को भी यदि मनोयोगपूर्वक जीवन साधना का अविच्छिन्न अंग मानकर करते रहा जाय तो वह कर्म-योग भी एक तपस्या है। उसका प्रतिफल भी अन्यान्य योगाभ्यासों के समान ही होता है। त्रिकालदर्शी होने की सिद्धि मुझे इसी आधार पर मिली है।
तपस्वी का समाधान हो गया। वे स्वार्थ-परमार्थ का समन्वय करने वाले कर्मयोग को श्रेष्ठ मानकर भविष्य के लिए उसी साधना में निरत हो गये।