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Magazine - Year 1983 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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स्वास्थ्य संरक्षण में मनोबल का योगदान

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वर्कले कैलीफोर्निया के डायरेक्टर कैनेथ पैलिटियर ने कहा है कि अगले दिनों मात्र काय चिकित्सा पद्धति पर रोग उपचार को अवलम्बित न रखा जा सकेगा। उसके साथ मानसिक परिशोधन और परिशोधन के प्रयोग भी जोड़ने होंगे। मनुष्य मात्र शरीर नहीं है। उसमें मन की सत्ता का भी बाहुल्य है। मन ही है जो शरीर को उठाने गिराने की भी भूमिका निभाता है। इसलिए शरीर की मात्र रासायनिक संरचना मानकर औषधियों पर ही पूरी तरह निर्भर रहना उचित न होगा। हर रोगी की मानसिक स्थिति में भी सामयिक परिवर्तन करने की बात सोची जानी चाहिए।”

इसी तरह की उक्ति अलबर्ट श्वीटसर की भी थी। वे रोगियों का औषधि उपचार तो करते थे पर साथ ही उन्हें प्रार्थना, परिशोधन एवं प्रसन्न रहने की भी शिक्षा देते थे। वे अक्सर कहा कहते थे कि मनुष्य के भीतर भी एक डाक्टर है यदि उसका साथ लेकर चिकित्सक अपना उपचार क्रम चलाये तो निश्चय ही अधिक मात्रा में और अधिक जल्दी रोगों से निवृत्ति मिलेगी।

इन दिनों चिकित्सा क्षेत्र में एक से एक बढ़कर प्रयोग हो रहे हैं और नित नये निष्कर्ष हस्तगत हो रहे हैं। किन्तु उसमें विचार विद्या का समावेश, रहने से जैसी चाहिए वैसी सफलता मिल नहीं रही है।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय की एक शोध मण्डली ने अपने अनुसंधानों से चिकित्सा जगत में खलबली मचा दी। उनने एक जैसी स्थिति के रोगियों के दो वर्ग किये। एक को औषधि विशारदों द्वारा किये जाने वाले बहुमूल्य उपचारों के अंतर्गत रखा गया और दूसरे वर्ग को मात्र गुण रहित औषधियों के सहारे रखकर बहलाया जाता रहा। किन्तु देखा गया कि दोनों की प्रगति में कोई खास अन्तर नहीं था। गुण रहित औषधियों से तात्पर्य है नमक का पानी या शकर की गोलियाँ अथवा सामान्य खाद्य पदार्थों का औषधि जैसा रूपांतरण।

गुण रहित औषधियाँ भी मारक उत्तेजक औषधियों जैसा गुण क्यों दिखाती हैं। इस संबंध में जाँच-पड़ताल से पता चला कि मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाला एक विशेष तत्व ‘ऐंडोर्फीन’ न केवल पीड़ा हलकी करता है वरन् रोगों से मुक्ति दिलाने के भी काम आता है। उसे अधिक मात्रा में उत्पन्न करने में मनुष्य का मानसिक विश्वास या उत्साह अधिक काम करता है। यदि रहित औषधियाँ भी रोगी की मनःस्थिति को जल्दी अच्छी होने का विश्वास दिला सकें तो यह तत्व अधिक मात्रा में उत्पन्न होगा और रोगी आन्तरिक स्थिति के अनुरूप स्वयमेव अच्छा होने लगेगा।

‘कमेटी फार दि इनवेस्टिगेशन ऑफ क्लेम्स ऑफ पैरानार्मल’ के प्रतिनिधि डा. लेवाक मार्टिन गार्डडर ने अनेक प्रयोग परीक्षणों से यह सिद्ध किया है कि प्रसन्न चित्त, उत्साही तथा आत्म विश्वासी प्रायः बीमार ही कम पड़ते हैं और यदि पड़ते हैं तो उनकी बीमार न तो लम्बी चलती है और न अधिक कष्ट ही देती है। शोधकर्ता वैज्ञानिकों से लेकर गम्भीर उत्तरदायित्व वहन करने वाले सेनापतियों तक में अधिक सफल वे लोग हुए हैं जो अधिक प्रसन्नचित्त रहते थे और चिन्ता उद्विग्नता के दबाव से बचे रहते थे।

अमेरिकन साइको सोमेटिक सोसायटी के अध्यक्ष राबर्ट ऐडर का कथन है कि अधिक महत्वपूर्ण और अधिक परिमाण में काम करने वाली व्यस्तताग्रस्त नहीं रही हैं। उनने हलका-फुलका स्वभाव बनाया है और हँसना-हँसाना सीखा है। इस प्रकार दबाव रहित मनोभूमि के द्वारा ही अधिक सूझ-बूझ का परिचय दे सकना सम्भव होता है वे जहाँ अधिक सफल होते हैं वे शारीरिक दृष्टि से भी निरोग रहते हैं।

वाल्टर रीड आर्मी मेडिकल सेन्टर ने सैनिकों की रुग्णता और चिकित्सा के संदर्भ में जो निष्कर्ष निकाले हैं उनसे पता चला है कि जिन्हें भय, आशंका और खिन्नता घेरे थी उनकी सामान्य-सी चोटें भी देर में अच्छी हुई। इसी प्रकार जिन्हें घर की याद सताती रही उनकी जीवन शक्ति कमजोर हुई और जुकाम, गला बैठना, अनिद्रा, अपच जैसी शिकायत बनी ही रही इसके विपरीत अलमस्त स्वभाव के सिपाही अधिक गहरी चोट या रुग्णता से ग्रसित होने पर भी अपेक्षाकृत जल्दी अच्छे हो गये।

माडण्द सिताई स्कूल ऑफ मेडिसिन-न्यूयार्क के अध्यक्ष मार्टिन स्टाइन ने कहा है कि विषाणु तो हवा में ही हर जगह इतनी अधिक संख्या में मंडराते रहते हैं कि उनके बच सकना उनके लिए भी सम्भव नहीं जो सफाई या रोकथाम का बहुत ध्यान रखते हैं। वे तो साँस के द्वारा भी शरीर में घुस सकते हैं। प्रश्न यह है कि उनके कारण जिन्हें कितनी क्षति पहुँचती है? किस पर वह आक्रमण कितना हल्का या भारी होता है? उसके उत्तर में आमतौर से रक्त कणों में पाई जाने वाली जीवनी शक्ति का कारण जाना जाता है। किन्तु नये निष्कर्ष यह बताते हैं कि मानसिक स्थिति के कारण घटने-बढ़ने वाली विद्युत शक्ति ही वस्तुतः रोग निरोध का काम करती है। उसका सहयोग पाये बिना रक्त कण भी निर्बल रहते हैं और अपने काम का अंजाम ठीक तरह नहीं दे पाते। इसके विपरीत मनस्वी लोग शरीर के अथवा रक्त भाग के दुर्बल होते हुए भी रोगों के आक्रमण से बचे रहते हैं। आक्रान्त होने पर देर तक उनके चँगुल में फँसे नहीं रहते।

प्रसिद्ध पत्रिका ‘सटरडे रिव्यू’ के सम्पादक नार्मन कर्जिस ने अपनी भयंकर बीकारी के दिनों का संस्मरण लिखा है और बताया है कि सत्रह वर्ष लगातार बीमार पड़े रहने के कारण वे निढाल हो गये थे और निराश रहने लगे थे। भविष्य अँधेरे से भरा और मृत्यु के निकट दीखता था। इन दिनों उनके एक हितैषी ने हँसने-हँसाने का उपाय आजमाने की सलाह दी। वे बिस्तर पर पड़े-पड़े ही हास्य विनोद की पुस्तक पढ़ते फलतः बार-बार हँसने मुस्कराने का अवसर मिलता। यही था वह उपचार जिसने उनकी अनिद्रा दूर की। रुग्णता घटाई और सुधारते-उभारते उन्हें इस योग्य बनाया जिसमें फिर से समर्थ लोगों की तरह काम कर सकें।

राक फेलर युनिवर्सिटी न्यूयार्क को शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक अनुसंधान विभाग के अध्यक्ष नील मिलर ने लिखा है। अब वह समय चला गया जब सभी रोगों की प्रकृति विपर्यय या विषाणु आक्रमण के कारण उत्पन्न हुए माना जाता था और उनकी चिकित्सा के लिए मात्र औषधियों का ही सहारा लिया जाता था। अब हम बहुत आगे आ गये हैं और ऐसे अगणित तथ्य दीखते हैं जो मन की स्थिति को स्वस्थता के साथ जोड़ते हैं। अनुसंधान बताते हैं कि मानसिक दृष्टि से उद्विग्न व्यक्ति शारीरिक व्यथाओं के चंगुल में फँसा ही रहेगा। स्थिर स्वास्थ्य के लिए प्रस्तुत प्रमाणों के आधार पर मानसिक सन्तुलन और उत्साह को नितान्त आवश्यक पाया जाता है।

हार्बर्ट मेडिकल स्कूल के डा. बेन्सन का कथन है कि मानसिक विश्रान्ति पर चिर यौवन और दीर्घजीवन अवलम्बित है। जो लोग उद्विग्न रहते हैं वे पौष्टिक आहार या अन्यान्य सुविधा साधन प्राप्त करने पर भी निरोग रह नहीं पाते। ऐसी विश्रान्ति मानसिक संयम का अभ्यास करने पर सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सकती है। इस संदर्भ में डेविड ब्रेस्लर ने अनेकों हृदय रोगियों पर परीक्षा करके पाया कि उनकी निराशा दूर करने से इतना अधिक लाभ हुआ जितना कि बहुमूल्य उपचार से भी उन्हें उपलब्ध नहीं हो रहा था।

सान फ्राँसिस्को के हृदय रोग अनुसंधान में निरत डा. मेयर फ्रीडमेन ने कहा है-लम्बे पर्यवेक्षण के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि हृदय रोगियों को आत्मविश्वास उत्पन्न करने तथा निराशा आशंका से पीछा छुड़ाने की शिक्षा दी जानी चाहिए। उनकी व्यथा दूर करने में मात्र औषधियों पर अवलम्बित रहने से काम न चलेगा।

लार ऐजोलस के डा. फील्डिंग का कहना है कि सुधारी हुई नवीनतम चिकित्सा पद्धति में शारीरिक रुग्णता मिलाने के लिए औषधियों के प्रयोग में एक पक्ष और जुड़ना चाहिए कि रोगी का आत्मविश्वास कैसे जगाया जाय और उसमें आशा भरा उत्साह किस प्रकार बँटाया जाय।

यौवन अक्षुण्ण रखा जा सकता है। यौवन का अर्थ चेहरे की चमक बनाये रहना या त्वचा पर झुर्री न पड़ने देना ही है वरन् स्फूर्ति एवं कार्य क्षमता को अक्षुण्ण बनाये रहना है। इसके दो आधार है-एक मनोबल एवं उत्साह, दूसरा लगन एवं पराक्रम। यह दोनों ही गुण प्रधानतया मानसिक है। मनोबल बढ़ा रहे तो यह व्यवस्था हर आयु में बनी रह सकती है। शर्त एक है कि रुग्णता का आक्रमण शरीर पर न हो और मस्तिष्क पर मनोविकारों की आक्रामकता न चढ़ दौड़े।

यह दोनों ही उपाय अपना सकना मनुष्य के अपने हाथ में हैं। आत्म विश्वास और साहस बनाये रहने के लिए ऐसी दिनचर्या से भी कार्यपद्धति अपनानी चाहिए जिसमें सरलतापूर्वक सफलता मिलती रहे और मनोबल क्रमिक गति से निरन्तर बढ़ता रहे। यही बात आरोग्य के संबंध में है इसके लिए कोई विशेष उपचार तलाश करने की आवश्यकता नहीं है। आहार-विहार को प्रकृति के अनुरूप बनाये रहा जाय। जीवनक्रम में शालीनता का अनुशासन रखे रहा जाय तो न दुर्बलता से पाला पड़ेगा और न रोगों का शिकार होना पड़ेगा। वृद्धावस्था में शक्तियाँ घटती हैं तो तद्नुसार शारीरिक मानसिक श्रम का भार और स्तर हलका रखा जा सकता है। इतनी-सी सावधानी बरतने पर मनोबल और शरीर बल दोनों ही अपने-अपने स्थापन पर सही बने रह सकते हैं।

कष्टकारक बुढ़ापा जीवनक्रम को अस्त-व्यस्त; अव्यवस्थित रखने की अवाँछनीय परिणति है। यदि शरीर और मन को सरल सौम्य ढंग से रहने दिया जाय और उन्हें अनौचित्य के रस्सों से बाँधकर खाई खंदकों में घसीटने पटकने की अव्यवस्था न फैलाई जाय तो बिना किसी अतिरिक्त उपाय के आरोग्य एक उत्साह का अक्षुण्ण बनाये रखा जा सकता है। यही है यौवन जो मरण पर्यन्त सदा साथ देता और सहायता करता रह सकता है।

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