• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • पाठकों से आग्रह भरा अनुरोध
    • उत्कर्ष का राजमार्ग
    • गिलहरी का आदर्शवादी पुरुषार्थ
    • आत्मबोध से लक्ष्यप्राप्ति
    • सद्वाक्य
    • बुद्धि-क्षेत्र से परे अपरोक्षानुभूति
    • आत्मा का स्वरूप (कहानी)
    • दुर्बुद्धि एवं सद्द्बुद्धि
    • तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीराः
    • सद्वाक्य
    • इंद्रियनिग्रह और धमर्धारणा
    • पंडित दीनदयाल उपाध्याय (कहानी)
    • व्यामोह का मायाजाल
    • पानी कुछ नहीं बोला (Kahani)
    • विचारों की असाधारण सामर्थ्य और परिणति
    • भूलभुलैया में भटके हुए हम ......
    • तृतीय नेत्र : एक शक्तिशाली ऊर्जाकेंद्र
    • सद्वाक्य
    • सिद्धियाँ कब फलीभूत होती हैं?
    • मौन की व्याख्या (कहानी)
    • नादयोग द्वारा आत्मपर्यवेक्षण
    • जीवन की पग-पग पर परीक्षा की (कहानी)
    • अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
    • लक्ष्मीजी का निवास (कहानी)
    • वाक्सिद्धि और मौन व्रत
    • गहन परिवर्तन की आवश्यकता
    • यह ब्रह्मांड न तो अनगढ़ है, न बेतुका
    • वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
    • प्रतिकूलताएँ कभी बाधक नहीं बनतीं!
    • सद्वाक्य
    • स्वप्न की सत्ता का वैज्ञानिक विवेचन
    • अंतर्ग्रही प्रभावों के घेरे में मनुष्य एवं पर्यावरण
    • कर्त्तव्यपालन— एक योगाभ्यास
    • काय-ऊर्जा के सुनियोजन से प्रखरता का विकास
    • हजरत मूसा (कहानी)
    • कीर्तिमानों की सनक
    • आकृतियों की असाधारण प्रभाव क्षमता
    • अपने स्वार्थ के लिए (कहानी)
    • जीवन : सीमित अवधि के लिए मिला पारस
    • वह जो कभी आपने देखा नहीं
    • सद्वाक्य
    • पृथ्वी से परे भी जीवन विद्यमान है!
    • विज्ञापनसुचना
    • बढ़ती अनैतिकता और डायनी महौल
    • सद्वाक्य
    • विनाश की संभावना भूलें नहीं
    • मत्स्य भगवान (कहानी)
    • नवसृजन हेतु कटिबद्ध प्रज्ञापरिवार की नूतन गतिविधियाँ
    • सद्वाक्य
    • अपनों से अपनी बात— हम बौने बनकर न रह जाएँ!
    • आएगा ऐसा वसन्त
    • आएगा ऐसा वसंत (कविता)
    • आवेशग्रस्त होने का परिणाम (कहानी)
    • आएगा एसा
    • test
    • आएगा ऐसा बसंत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • पाठकों से आग्रह भरा अनुरोध
    • उत्कर्ष का राजमार्ग
    • गिलहरी का आदर्शवादी पुरुषार्थ
    • आत्मबोध से लक्ष्यप्राप्ति
    • सद्वाक्य
    • बुद्धि-क्षेत्र से परे अपरोक्षानुभूति
    • आत्मा का स्वरूप (कहानी)
    • दुर्बुद्धि एवं सद्द्बुद्धि
    • तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीराः
    • सद्वाक्य
    • इंद्रियनिग्रह और धमर्धारणा
    • पंडित दीनदयाल उपाध्याय (कहानी)
    • व्यामोह का मायाजाल
    • पानी कुछ नहीं बोला (Kahani)
    • विचारों की असाधारण सामर्थ्य और परिणति
    • भूलभुलैया में भटके हुए हम ......
    • तृतीय नेत्र : एक शक्तिशाली ऊर्जाकेंद्र
    • सद्वाक्य
    • सिद्धियाँ कब फलीभूत होती हैं?
    • मौन की व्याख्या (कहानी)
    • नादयोग द्वारा आत्मपर्यवेक्षण
    • जीवन की पग-पग पर परीक्षा की (कहानी)
    • अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
    • लक्ष्मीजी का निवास (कहानी)
    • वाक्सिद्धि और मौन व्रत
    • गहन परिवर्तन की आवश्यकता
    • यह ब्रह्मांड न तो अनगढ़ है, न बेतुका
    • वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
    • प्रतिकूलताएँ कभी बाधक नहीं बनतीं!
    • सद्वाक्य
    • स्वप्न की सत्ता का वैज्ञानिक विवेचन
    • अंतर्ग्रही प्रभावों के घेरे में मनुष्य एवं पर्यावरण
    • कर्त्तव्यपालन— एक योगाभ्यास
    • काय-ऊर्जा के सुनियोजन से प्रखरता का विकास
    • हजरत मूसा (कहानी)
    • कीर्तिमानों की सनक
    • आकृतियों की असाधारण प्रभाव क्षमता
    • अपने स्वार्थ के लिए (कहानी)
    • जीवन : सीमित अवधि के लिए मिला पारस
    • वह जो कभी आपने देखा नहीं
    • सद्वाक्य
    • पृथ्वी से परे भी जीवन विद्यमान है!
    • विज्ञापनसुचना
    • बढ़ती अनैतिकता और डायनी महौल
    • सद्वाक्य
    • विनाश की संभावना भूलें नहीं
    • मत्स्य भगवान (कहानी)
    • नवसृजन हेतु कटिबद्ध प्रज्ञापरिवार की नूतन गतिविधियाँ
    • सद्वाक्य
    • अपनों से अपनी बात— हम बौने बनकर न रह जाएँ!
    • आएगा ऐसा वसन्त
    • आएगा ऐसा वसंत (कविता)
    • आवेशग्रस्त होने का परिणाम (कहानी)
    • आएगा एसा
    • test
    • आएगा ऐसा बसंत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


इंद्रियनिग्रह और धमर्धारणा

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 10 12 Last
धर्म के दस लक्षणों में छठा लक्षण है— इंद्रियनिग्रह। इंद्रियाँ अपने काम के लिए बनी है। यदि उनसे उनका उचित काम लिया जाए तो वे जीवन के आवश्यक क्रियाकलापों की पूर्ति में समुचित योगदान देती हैं।

आंखें ने हों तो रास्ता चलना घर की वस्तुओं को ढूँढ़ना, पढ़ना, कृषि, व्यवसाय आदि करना कैसे बन पड़े, अंधे को तो छोटे-छोटे कामों के लिए लकड़ी का सहारा लेने पड़ता है। कान न हों तो दूसरे दिखेंगे भर। उनका कथन, परामर्श कुछ भी न सुन पड़ेगा और संसारमात्र में सर्वत्र निस्तब्धता छाए होने का अनुभव होगा।

जीभ न हो तो स्वाद के आधार पर खाद्य-अखाद्य का निर्णय कैसे हो? ग्रास का मुँह में उलट-पुलट होती हैं, वह किस प्रकार हो सके? इसी प्रकार विचारों की अभिव्यक्ति, उनका आदान-प्रदान किस प्रकार बन पड़े? यह सब कुछ वाणी के माध्यम से ही संभव होता है। वाणी और स्वाद के दो प्रयोजनों में काम लाए जाने के कारण जिव्हा को दो इंद्रिय गिना गया है। नासिका से सुगंध और दुर्गंध का अंतर होता है और सड़न, प्रदूषण तक उपयुक्त महक का अनुभव करके यह निश्चय किया जाता है कि कहाँ रुका और कहाँ से चला दिया जाए। गंदगी को हटाकर स्वच्छता की स्थापना कैसे की जाए?

त्वचा की संवेदनशीलता सर्दी, गर्मी कोमलता कठोरता आदि का स्पष्ट बोध कराती है। उसके छिद्र पसीना बहाते, गंदगी निकालते और छूकर वस्तुओं के स्तर का अनुमान लगाने में मदद देते हैं। जननेंद्रियों को मूत्र-विसर्जन और विषयानंद को भी अलग से न गिनकर त्वचा इंद्रिय के क्षेत्र में ही सम्मिलित किया गया है। प्रजनन भी वंश परंपरा स्थिर रखने की दृष्टि से आवश्यक है।

कर्मेंद्रियों में हाथ पैर आदि आते हैं, वे श्रमिक है और मन के आदेशानुसार वफादार नौकर की तरह काम करते रहते है॥ उनकी अपनी निज की कोई इच्छा या स्वाद परायणता नहीं है तो भी उन्हें सुकृत करने, कुमार्ग पर न चलने की प्रेरणा तो दी जाती है। आलसी बनने का अर्थ हाथ पैरों का न चलना ही माना जाता है।

इंद्रियनिग्रह का तात्पर्य इन सही रूप में काम करते हुए जीवन को प्रगतिशील और सुव्यवस्थित बनाने वाले घटकों को क्रियाशील रहने से रोकना नहीं है। ऐसा करने पर जो जीवित रहते हुए भी मृतक बनकर रहना पड़ेगा इंद्रियनिग्रह का अर्थ इतना ही है कि इन्हें कुमार्गगामी न बनने दिया जाए। जो अनुचित है, वह इनके द्वारा न बन पड़े इसी की सतर्कता रखने से इंद्रियनिग्रह साधना सध जाती है। दसों इंद्रियों को अर्थात सशक्त काया-संस्था को मात्र सत्प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करना उनका दुरुपयोग न होने देने ही इंद्रियनिग्रह है।

आदतें शालीनता, मर्यादा एवं सुव्यवस्था के अनुरूप ढालने की अपेक्षा उन्हें कुमार्ग पर भटका देना और स्वेच्छाचार का प्रदर्शन करना अति सरल है। पानी नीचे की तरफ बहता है। ढेला ऊपर से नीचे की ओर गिरता है पर किसी को भी ऊपर चढ़ाना हो तो उसके लिए जोर लगाने और निशाना साधने की जरूरत पड़ती है। वह कार्य अनायास ही नहीं हो जाता।

इंद्रियों को सन्मार्गगामी बनाने के संबंध में सक्रिय रखने का कौशल ऐसा हैं जो हर किसी से नहीं बन पड़ता; फलतः बहुमूल्य क्षमता सहज ही अस्त−व्यस्त होती रहती हैं। कई बार तो उनका गलत उपयोग अनेक प्रकार के संकट भी खड़े करता हैं। अतिशय काम लेने या बिलकुल ही न लेने से तो अपनी क्षमता ऐसे ही गँवा बैठती हैं।

दुरुपयोग तो और भी भयंकर हैं। आँखों देखकर किसी के सौंदर्य पर मुग्ध हो चला जाए और उसे हथियाने का कुचक्र चल पड़े तो समझना चाहिए नेत्रों का दुरुपयोग हुआ। सौंदर्य की तरह किसी के धन-वैभव को देखकर भी ईर्ष्या से जल मरने या अपहरण का भाव भी उठ सकता हैं।

कानाफूसी में अक्सर दुरभि संधियाँ रची जाती हैं। किसी को अपने अनुग्रह का विश्वास दिलाया जा सकता हैं। चुगलखोरी करके किन्हीं के बीच विद्वेष भड़काया जा सकता हैं। कानों से अश्लीलता भड़काने वाले कथन या गायनों में रस लिया जा सकता हैं। नाक को इत्र फुलेल की आदत डाली जा सकती हैं। जीभ को चटोरेपन की आदत डालने, स्वादिष्ट व्यंजनों को पेट में अनावश्यक रूप से ठूंसते रहने की उसकी कुचेष्टा न केवल पेट को अपच से लाद देती हैं, अपितु इस कारण उत्पन्न हुई विषाक्त सड़न से नाना प्रकार के रोगों का उद्भव भी होता हैं। कटु भाषण करने, शेखीखोरी, चुगलखोरी, व्यंग, उपहास जैसी आदतें समूचे जीवन को घिनौना एवं असफल बनाती हैं। नशेबाजी जैसे कुचक्रों का माध्यम भी सुख हैं। यदि जिव्हा उन्हें एकदम अस्वीकार करें, सहन करने को तैयार नव हो तो नशेबाजी का धीमा विष भी न छूटने वाली आदत बनकर इस प्रकार गले बँध जाता हैं कि आधी तंदुरुस्ती नष्ट हो, उम्र के आधे हिस्से में कटौती कर देती हैं। उनसे बचाव हेतु, जीव कर्त्तव्य हैं कि उन कुटेवों को भीतर घुसने देने के लिए इन द्वारों को ही न खोले।

जो इंद्रियाँ दस हैं। इनमें पाँच ज्ञानेंद्रियां मुख्य हैं। इनमें जिव्हा और जननेंद्रिय को प्रमुख माना गया है क्योंकि इनकी भ्रष्टता सर्वनाश के दृश्य उपस्थित करती हैं।

जननेंद्रियों का छोटी आयु से ही कामुकता के लिए प्रयोग करना शुरू कर दिया जाए और क्षरण की सीमा मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहा जाए और क्षरण की सीमा-मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहा जाए तो शरीर एवं मस्तिष्क असमय में ही खोखले हो जाते हैं। पेड़ के तने को गोद-गोदकर उनमें से गोंद या जीवन रस निकालते रहा जाए तो निश्चय ही वह न बढ़ सकेगा और न पूरी आयु तक स्थिर रह सकेगा। शरीर को यदि कामुकता के नियमित निचोड़ा जाता रहे तो उससे रूप-सौंदर्य का स्थिर रह सकना तो दूर काम-धाम करते रहने योग्य जीवनशक्ति का भंडार भी खाली हो जाएगा।

रतिक्रिया की मर्यादा तोड़ने में न केवल अपना; वरन अपने साथी का भी स्वास्थ्य चौपट होता हैं और यदि चिंतन में अश्लीलता चढ़ी रहे तो समझना चाहिए कि उपयोगी प्रसंगों पर गंभीरतापूर्वक सोच सकने की मेधाशक्ति का ही अपहरण हो गया।

अश्लीलता चिंतन अनैतिक भी हैं। उसमें नारीमात्र को रमणी, कामिनी, भोग्या, वैश्या के रूप में देखने सोचने की दुर्बुद्धि जड़ पकड़ती हैं और ऐसे ही लोग योग्य, अयोग्य का विचार किए बिना व्यभिचार, बलात्कार, असीमित यौनाचार, हस्तमैथुन जैसे आत्मघाती प्रयासों पर उतारू हो जाते हैं। पलंग का एक पाया टूटा तो बाकी तीन भी सुस्थिर नहीं रह सकते। कामुकता के प्रसंग में जो स्वच्छंद होते हैं, वे नैतिकता के सामाजिकता के अन्यान्य, उपयोगी पक्षों को भी छिन्न-विच्छिन्न करते चले जाते हैं और पतन के गहरे गर्त में गिरते हैं।

मन को ग्यारहवीं इंद्री माना गया है। यह भी शरीर के साथ जुड़ा रहने के कारण अदृश्य इंद्री माना जाता है। उसे स्वच्छंद छोड़ देने पर कुकल्पनाओं के अंबार अपने क्षेत्र में जमा कर लेता है। “खाली दिमाग शैतान की दुकान” वाली उक्ति में बहुत कुछ यथार्थता भरी पड़ी हैं।

वासना, तृष्णा और अहंता के चिशूल विकृत मन की ही उपज है। इस अचिंतन से अपने को न रोक पाने वाले व्यक्ति अपनी समूची गतिविधियों को ही अनुपयुक्तता के दल-दल में फँसा लेते हैं। लोभ, मोह और अहंकार को समस्त कुकृत्यों का जन्मदाता माना गया हैं। जहाँ मन पर यह तीनों विकृतियाँ छाई रहेंगी, वहाँ कोल्हू के बैल जैसी व्यस्तता भी छाई रहेगी और सत्प्रयोजनों के लिए कुछ करते धरते न बन पड़ेगा। सदाशयता को चरितार्थ करने में इन तीनों को ही प्रमुख व्यवधान माना जाना चाहिए।

जो अनुपयुक्त हैं, उसे कड़ाई से रोकने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। पालतू पशुओं से भी कुछ काम लेना सहज नहीं होता। हाथी को अंकुश, घोड़े को लगाम, ऊँट को नकेल, बैल को नाथ डालकर काबू में रखा जाता हैं और उन्हें सही काम करने के लिए बाधित किया जाता है। गाय-भैंस तक के गले में रस्सी बाँधनी पड़ती हैं। यदि इन सब को छूट दे दी जाए तो वे निर्धारित कार्य करना तो दूर कहीं भी, किसी भी दिशा में चल पड़ेंगे। स्वयं मुसीबत में फँसने के साथ-साथ स्वामी-सवार की भी दुर्गति करेंगे; इसलिए उन्हें स्वच्छंद छोड़ने का प्रचलन नहीं है।

इंद्रियों के संबंध में भी यही बात हैं। यही बात मनोविकारों के संबंध में भी हैं। इस समुदाय पर समुचित अंकुश रखा जाए, मजबूत रस्से से बाँधा जाए। इतने पर भी बगावत करने जैसे लक्षण दिखाई पड़ें तो फिर प्रताड़ना का भय ही एकमात्र उपाय हैं। इंद्रियनिग्रह के लिए सुविधा विरोधी तप-साधना करते हुए ऐसा साहस भरा मनोबल बढ़ाना पड़ता हैं जो अपने प्रताप से किसी भी घटक को उच्छृंखलता न बरतने दें।

प्रवाह को रोकने के लिए प्रतिपक्षी बाँध बनाना पड़ता है। अत्याचारों के विरुद्ध उनका सामना करने को तैयारी करनी पड़ती हैं। लात का जवाब लात और घूँसे का जवाब घूँसा माना जाता है। शठ के साथ शठता बरती जाती हैं और विष को विष से मारा जाता हैं। कुविचारों और बुरी आदतों के विरुद्ध प्रतिपक्षी मोर्चा खड़ा करना चाहिए और वह ऐसा होना चाहिए कि अभ्यस्त कुटेवों से डटकर मोर्चा ले सके।

कामुकता के विरुद्ध ब्रह्मचर्य के लाभों और नारी के देवी स्वरूप को हृदयंगम करने की भावनाएँ विकसित करनी चाहिए। चटोरेपन के विरुद्ध उन घटनाओं और लोगों के उदाहरणों को सामने रखना पड़ेगा, जिनने इस संदर्भ में आदर्शों को निबाहा और जन-जन द्वारा अभिनंदनीय माने गए। इसी प्रकार नशेबाजी, कुदृष्टि कानाफूसी जैसी बुरी आदतों के विरुद्ध तर्कों, तथ्यों, प्रभाव और उदाहरणों का ऐसा भंडार मनःक्षेत्र में जमाकर रखना चाहिए; जब कि उनके साथ टक्कर कराते हुए व्यक्तित्व के किसी भी कोने में घुसी हुई दुष्प्रवृत्तियों के साथ करारा संघर्ष करने में सफलता मिल सके। नैतिकता और शालीनता का संयम और सदाचार का पक्ष स्वभावतः इतना मजबूत है कि उसके सहारे मानवी गरिमा सुस्थिर और सुनिश्चित बनाई जा सके। गड़बड़ी तो तब पड़ती है, हारना तो तब होता है जब अनीतिमूलक अभ्यास तो चिंतन पर सवार होकर अभ्यास का रूप ले ले और उन्हें निरस्त करने वाले देवपक्ष मूर्छित-तंद्रित रहकर अपनी प्रतिरोधी क्षमता गँवा बैठे।

First 10 12 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • पाठकों से आग्रह भरा अनुरोध
  • उत्कर्ष का राजमार्ग
  • गिलहरी का आदर्शवादी पुरुषार्थ
  • आत्मबोध से लक्ष्यप्राप्ति
  • सद्वाक्य
  • बुद्धि-क्षेत्र से परे अपरोक्षानुभूति
  • आत्मा का स्वरूप (कहानी)
  • दुर्बुद्धि एवं सद्द्बुद्धि
  • तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीराः
  • सद्वाक्य
  • इंद्रियनिग्रह और धमर्धारणा
  • पंडित दीनदयाल उपाध्याय (कहानी)
  • व्यामोह का मायाजाल
  • पानी कुछ नहीं बोला (Kahani)
  • विचारों की असाधारण सामर्थ्य और परिणति
  • भूलभुलैया में भटके हुए हम ......
  • तृतीय नेत्र : एक शक्तिशाली ऊर्जाकेंद्र
  • सद्वाक्य
  • सिद्धियाँ कब फलीभूत होती हैं?
  • मौन की व्याख्या (कहानी)
  • नादयोग द्वारा आत्मपर्यवेक्षण
  • जीवन की पग-पग पर परीक्षा की (कहानी)
  • अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
  • लक्ष्मीजी का निवास (कहानी)
  • वाक्सिद्धि और मौन व्रत
  • गहन परिवर्तन की आवश्यकता
  • यह ब्रह्मांड न तो अनगढ़ है, न बेतुका
  • वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
  • प्रतिकूलताएँ कभी बाधक नहीं बनतीं!
  • सद्वाक्य
  • स्वप्न की सत्ता का वैज्ञानिक विवेचन
  • अंतर्ग्रही प्रभावों के घेरे में मनुष्य एवं पर्यावरण
  • कर्त्तव्यपालन— एक योगाभ्यास
  • काय-ऊर्जा के सुनियोजन से प्रखरता का विकास
  • हजरत मूसा (कहानी)
  • कीर्तिमानों की सनक
  • आकृतियों की असाधारण प्रभाव क्षमता
  • अपने स्वार्थ के लिए (कहानी)
  • जीवन : सीमित अवधि के लिए मिला पारस
  • वह जो कभी आपने देखा नहीं
  • सद्वाक्य
  • पृथ्वी से परे भी जीवन विद्यमान है!
  • विज्ञापनसुचना
  • बढ़ती अनैतिकता और डायनी महौल
  • सद्वाक्य
  • विनाश की संभावना भूलें नहीं
  • मत्स्य भगवान (कहानी)
  • नवसृजन हेतु कटिबद्ध प्रज्ञापरिवार की नूतन गतिविधियाँ
  • सद्वाक्य
  • अपनों से अपनी बात— हम बौने बनकर न रह जाएँ!
  • आएगा ऐसा वसन्त
  • आएगा ऐसा वसंत (कविता)
  • आवेशग्रस्त होने का परिणाम (कहानी)
  • आएगा एसा
  • test
  • आएगा ऐसा बसंत
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj