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Magazine - Year 1987 - Version 2

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विचारों की असाधारण सामर्थ्य और परिणति

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शक्ति की साधारणतः व्याख्या प्रकृति-पदार्थों की हलचलों के रूप में की जाती है। समझा जाता है कि पदार्थों के अंतराल में काम करने वाली हलचलें ही इस दृश्य जगत की अगणित गतिविधियों का सूत्रसंचालन करती हैं। मनुष्य के द्वारा भी जो कृत्य होते हैं, वे उसकी शारीरिक गतिविधियों द्वारा संपन्न होते प्रतीत होते हैं। इसमें इतना और जुड़ना चाहिए कि मानवी चेतना की विचार क्षमता भी एक शक्ति है। वह न केवल शारीरिक हलचलों को जन्म देती है; वरन व्यक्ति, पदार्थ एवं वातावरण पर भी अपना प्रभाव डालती है और उन्हें बदलने तक में अपनी आश्चर्यजनक भूमिका संपन्न करती है। अब विचारों को भी विद्युत के समतुल्य ही प्रभावोत्पादक माना जाने लगा है। कभी उन्हें चिंतन-क्षेत्र में घुमड़ती रहने और मस्तिष्क भर को कुछ काम देने वाली एक विशेषता भर समझा जाता था।

विचार निर्माण में मनुष्य स्वतंत्र है; किंतु उन्हें अपने ही कैदखाने में -— मस्तिष्कीय पिटारी में जकड़े रहना उसके लिए संभव नहीं। दूसरों के बारे में हमारे विचार-भाव शीघ्र ही उन तक गुप्त रूप से पहुँच जाते हैं। इनमें भी सज्जनोचित भाव तो पिछड़ जाते हैं, किंतु दुर्भावनायुक्त विचार अपेक्षाकृत अधिक शीघ्रता से पहुँचकर अपना भेद उसे बता देते है। परिणामस्वरूप अविज्ञात रूप से दूसरों के मन में अपने प्रति भी मनोमालिन्य के बीज अंकुरित होने लगते हैं। यही कारण है कि मित्रभावना के अभ्यासी विचारशील सज्जन व्यक्ति अपना स्वभाव ही कुछ इस प्रकार का बना लेते हैं कि अपरिचितों को भी वह प्रिय लगने लगते हैं। नाम मात्र के व्यवहार से ही मित्रता के निष्कर्ष निकलने लगते हैं। इसके विपरीत कलुषित विचारों वाले व्यक्ति आगन्तुकों से चाहे कितने कुशलतापूर्वक मिलें, उनका शंकालु हृदय प्रकट हो ही जाता है। प्रयत्न न करने पर भी नव्य परिचित व्यक्ति पहले उदासीन, तत्पश्चात शत्रु बन जाता है। यह सारा खेल अपने विचारों के कारण ही शक्य होता है।

रूस के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एनारेबीन ने अपने अनुसंधान-निष्कर्ष में बताया है कि मनुष्य के विचार एवं भाव-तरंगों के अनुरूप मस्तिष्क से दो प्रकार के रस स्रावित होते हैं, जिनकी प्रमुख भूमिका व्यक्तित्व विकास के निर्धारण में होती है। यह रस शारीरिक एवं मानसिक प्रक्रियाओं को उत्तेजितकर व्यक्ति को सुख-दुख, शांति-अशांति, आशा-निराशा, प्रफुल्लता-उद्विग्नता प्रदान करते तथा उन्नति अथवा अवनति की ओर धकेलते हैं। इन रसों का निर्माण पूर्णतया अच्छे या बुरे विचारों और भावनाओं पर निर्भर रहता है। इससे स्पष्ट है कि विचारणा एवं भावना के प्रचंड-प्रवाह के अनुसार ही मनुष्य के व्यवहार एवं उसकी आदतों का निर्माण होता है।

मूर्धन्य मनोवैज्ञानिक जे0 बी0 राइन ने विचारों की शक्ति की परख विभिन्न प्रयोग-परीक्षणों की श्रृंखलाओं के आधार पर करने में सफलता पाई है। उन्होंने विशेष प्रयोगों द्वारा केंद्रित विचारों के प्रभाव प्रदर्शित करके सिद्ध कर दिया है कि प्रयोगकर्ता के विचार निर्जीव-सजीव सभी पर अपनी छाप छोड़ते हैं। इन प्रभावों की प्रगाढ़ता एवं सत्यता की परख वैज्ञानिक विधियों द्वारा बारंबार हुई है।

प्राचीनज्ञान में विचार का स्वभाव बिजली के अनुरूप कहा गया है, जिसका गहन अध्ययन भी भौतिकी एवं आत्मिकी के क्षेत्र में होना हैं। विश्व के अनेक वैज्ञानिक परामनोवैज्ञानिक इस क्षेत्र में अनुसंधानरत है। विचारों के विद्युत-प्रवाह दूरस्थ व्यक्ति को उसी प्रकार से प्रभावित करते हैं जैसा कि चाहा जाता है। जब मानव विचार एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क तक भेजे जाते हैं तो उसे ‘टेलीपैथी’ कहते हैं। जीवन की अनंत शक्तियों पर पूर्ण विश्वास करने वाला सफल मनोचिकित्सक इस विधि द्वारा रोगी पर अपने विचार आरोपित करता है। यदि दोनों के विचारों का तारतम्य ठीक बैठ जाता है तो रोगी भी उन्हीं विचारों में डूब जाता है, जिनमें मनोचिकित्सक का विश्वास होता है। ऐसी स्थिति में रोगी चेतन अथवा अचेतन मन से उन्हीं अनंत शक्तियों पर अपना विश्वास जमाकर लाभान्वित होता है।

परामनोविज्ञानियों का कहना है कि विचार-संप्रेषणमात्र चिकित्साविदों तक ही सीमित नहीं। कोई भी व्यक्ति, कहीं भी इसका प्रयोग कर सकता हैं; क्योंकि विचार-संसार—आइडियोस्फियर में सभी प्रकार के विचार-प्रवाह निरंतर गतिमान हैं। उनमें से अपने अनुकूल विचार-तरंगों को आकर्षित किया और लाभान्वित हुआ जा सकता है। विश्व में प्रबल, स्वतंत्र, कल्याणकारी तथा प्रभावी विचारक बहुत थोड़े से हैं, अतः उनके द्वारा प्रवाहित आवृत्ति कम पड़ जाती है जो मात्र लड़खड़ाती, गिरती-पड़ती चलती रहती है, फिर भी सांसारिक लोगों पर वह अपना न्यूनाधिक प्रभाव तो छोड़ती ही रहती है और आशा,उत्साह, करुणा, दया एवं सद्भावनात्मक जल की वर्षा करके सिंचाई करती रहती है। यदि उनके द्वारा यह वर्षा बंद हो गई होती तो सदाशयता कभी की सूख गई होती।

‘थियोसोफिकल शोध संस्थान’ लंदन में अनुसंधानरत वैज्ञानिकों के अनुसार आधुनिक अनुसंधानों के द्वारा अब इस तथ्य का अधिकाधिक प्रकटीकरण होता जा रहा है कि प्रकृति में विचार एक विशेष प्रकार की प्रचंड शक्ति है। व्यक्तिगत रूप से यह भौतिक शरीर को निरंतर प्रभावित करते रहते हैं। व्यक्ति के विचार उसके अपने सहयोगी और वातावरण को सदैव अपने प्रभाव से अनुप्रमाणित करते रहते हैं। विचार-जगत में प्रवाहित अच्छी बुरी सभी प्रकार की तरंगें शंका, दुःख, क्रूरता, करुणा, दया, स्नेह, सहानुभूति फैलाती फिरती रहती हैं। यही कारण है कि कुवे एवं वर्नहम जैसे मूर्धन्य मनोचिकित्सकों ने विधेयात्मक चिंतन की दिशाधारा को प्रोत्साहन दिया है। प्रो0 सोरोकिन ने हारवर्ड अस्पताल के चिकित्सकों द्वारा सहानुभूतिपूर्वक सद्व्यवहार से रोगियों में संतोषजनक आशावादिता बढ़ाने में सफलता प्राप्त की है। उनका कहना है कि कोई भी टॉनिक मूल रूप से उतना प्रभावकारी नहीं सिद्ध हो सकता जितना अच्छा किसी चिकित्सक द्वारा रोगी को प्रेरक विचारों के टॉनिक से एवं उसे समझाने और प्रोत्साहित किए जाने से मिलता है। महामारी जैसे प्रकृति-प्रकोपों में बचे हुए लोगों को चाहे “भाग्यवान” कह लें, किंतु प्रकारांतर से वे “समर्थ विचारवान” व्यक्ति ही होते हैं, जो सर्वसमर्थ उस जीवनधारा से सतत् शक्ति संचित करते रहते है।

सामान्यतया विचार शक्ति बिखरकर नष्ट होती रहती है। उसके केंद्रित करने एवं मानसिक शक्तिसंपन्न बनने के लिए हमें उत्कृष्ट विचारों की संपदा बढ़ाने के साथ ही अपने ‘स्व’ का विकास करना होगा। हमारा स्वार्थ जितना व्यापक होगा, हमारी शक्ति उतनी ही बढ़ती चली जाएगी। यदि स्वार्थ के साथ लोकोपकार का समावेश हो जाए तो यह शक्ति अपरिमितता की ओर अग्रसर होने लगेगी। अहंभाव के विनाश से ही सशक्त मनोबल का सृजन होता है। सैद्धांतिक प्रतिकूलताओं से लोहा लेने पर मनुष्य की इच्छा-शक्ति में वृद्धि होती जाती हैं। ऐसा आत्मविश्वास उत्पन्न होता है कि उसके सामने अशुभ विचार टिक ही नहीं सकते।

मानसिक शक्तियों के विकास में सहायक होता है — सरल एवं सदाचारी जीवन। चालाक एवं व्यवहारकुशल प्रदर्शन-पटु लोग अपने मन को चिंता एवं संशय का आश्रय बना लेते हैं। ऐसे चापलूस मित्रों द्वारा सदमार्ग पर चलने का प्रोत्साहन कभी भी नहीं मिलता। इसके विपरीत सदाचारी व्यक्ति व्यवहार एवं विचार में सरल होता है। ऐसे स्वार्थविहीन व्यक्ति के उद्गार बड़े-बड़े विद्वानों से अधिक प्रभावी पाए गए है।

अपने आपको प्रगति-पथ पर अग्रसर करने और सुखी सुसंस्कृत बनाने के लिए सद्विचारों का अवलंबन लेना ही पड़ता है। इसका और कोई विकल्प नहीं है। यही बात दूसरों के संबंध में भी है। दूसरों को सहयोगपरक सहायता का अपना महत्त्व है। पर किसी को रचनात्मक विचार देकर उसे स्वावलंबी और समुन्नत बनाया जा सके तो निश्चय ही उससे बढ़कर और कोई पुण्य-परमार्थ हो नहीं सकता।

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