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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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नादयोग द्वारा आत्मपर्यवेक्षण

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जिस प्रकार शरीर और प्राण मिलकर जीवन चलता है, उसी प्रकार प्रकृति और परब्रह्म के संयोग से यह सृष्टिचक्र चलता है। दोनों इतनी अधिक सघनता के साथ गुँथे हुए हैं कि उन्हें एकदूसरे से अलग नहीं कर सकते।

साधना शरीर और मन के संयोग से बन पड़ने वाली क्रिया का नाम है। इस माध्यम से हम पहले प्रकृति को पकड़ते हैं, इसके बाद पुरुष को पकड़ते हैं। साधना के क्रिया-कृत्यों में प्रथम भूमिका शरीर की होती है, शरीर के साथ मन की भी; क्योंकि मन और शरीर दोनों ही प्रकृति विनिर्मित हैं। मन को ग्यारहवीं इंद्रिय माना गया है। उसकी ऊँची भूमिका भावात्मक है, जो रसरूप परब्रह्म को अपने चंगुल में जकड़ती है।

  ज्ञानेंद्रियो के सहारे सांसारिक ही नहीं आध्यात्मिक प्रयोजन भी सिद्ध होते हैं। शब्द नेत्रों का विषय है। उसकी सूक्ष्म भूमिका प्रत्यक्ष देव प्रतिमादर्शन अथवा ध्यानयोग के माध्यम से निभती है। इसके बाद दो धाराओं वाली जिव्हा को वश में करना पड़ता है। जिव्हा स्वाद एवं संभाषण की दुहरी कार्यपद्धति संपन्न करती है, इसलिए उसे द्विधा कहा गया है। इस निमित्त अस्वाद व्रत, मौनधारण, उपवास के अतिरिक्त खेचरी मुद्रा का विधान है। उससे शरीर, मन और आत्मा के तीनों क्षेत्र सधते हैं।

कर्णेंद्रियों का शब्द माध्यम है। इसे सत्संग के द्वारा विकसित किया जाता है। प्रवचन-उपदेश, संगीत-कीर्तन आदि के अतिरिक्त नादयोग की साधना करनी होती है। स्थूल और सूक्ष्मनाद इस समूचे ब्रह्मांड में संव्याप्त है। वह संभाषण में ही नहीं, घटनाओं से भी उत्पन्न होता है। भगदड़, मारपीट, धमाका, चीत्कार आदि ध्वनियाँ हैं, पर उनके सहारे यह जान लिया जाता है कि क्या घटना घटित हो रही है। आग लगने, आँधी चलने, पानी बरसने आदि की घटनाओं को अंधे भी जान लेते हैं। शब्दों की अपनी भाषा है। भाषा न समझने वाले संकेतों से भी अपने मनोभाव व्यक्त कर देते हैं।

स्थूलजगत की तरह सूक्ष्मजगत भी है और सूक्ष्मजगत में जो ध्वनियाँ गूँजती हैं, वे हमारे कानों की पकड़ में नहीं आतीं। यदि उन्हें सुना-समझा जा सके तो उनके आधार पर यह जाना जा सकता है कि कहाँ क्या घटनाक्रम घटित हो रहा है और उसका प्रभाव अपने पर तथा अपने क्षेत्र पर क्या पड़ेगा?

कानों की ग्रहणशक्ति बहुत सीमित और भौंड़ी है। हमारे कान एक सेकेंड बीस से लेकर बीस हजार तक कंपन उत्पन्न करने वाली ध्वनियों को ही सुन सकते हैं, इससे न्यूनाधिक शक्ति वाली ध्वनियाँ उनकी पकड़ में नहीं आतीं। श्रवणातीत सुपरसोनिक ध्वनियाँ 10 लाख से लेकर 1000 करोड़ तक के कंपन हर सेकेंड उत्पन्न करती पाई गई हैं। वे हमारे कानों के इर्द-गिर्द होकर ही निकल जाने पर भी सुनाई नहीं देती। तात्पर्य यह है कि महाशब्द सागर में से हम अपने लिए उतना ही सुन पाते हैं, जितना कि जीवन निर्वाह के लिए नितांत आवश्यक है।

श्रवणातीत ध्वनियों का उपयोग जब से वैज्ञानिकों ने जाना है, तब से वे उनके प्रभावशाली उपयोग करने लगे हैं। शल्य चिकित्सा, कीटाणु, ऋतु-परिवर्तन, मोटे धातुखंडों को गला देना, जैसे प्रचंड कार्य उनसे लिए जा रहे हैं। उन्हें प्रकारांतर से बिजली या अणुशक्ति की तरह काम में लाया जाया जाने लगा है।

ताप और आकाश की गति का अपना महत्त्व है। उनकी गति भी कम नहीं है; किंतु जहाँ तक घटनाक्रमों एवं विचार चेतना का संबंध है, वहाँ तक ध्वनि ही मनुष्य की ज्ञानवृद्धि में अत्यधिक सहायक पाई गई है। समुद्रतल में होने वाली हलचलों या चलने वाली पनडुब्बियों की स्थिति एवं दूरी को जानने के लिए ध्वनि-तरंगों के आधार पर नाप-तौल करने वाले यंत्र ही काम करते हैं।

अंतरिक्ष में संव्याप्त अदृश्य जगत की हलचलों की ध्वनि-श्रवण की क्षमता समुन्नत करने की स्थिति को जाना जा सकता है। वे अभ्यस्त के लिए टेलीफोन, रेडियो स्तर की भूमिका निभा सकती हैं। यों कान के शब्द थोड़ी ही दूर तक सुनाई पड़ता है। पर रेडियो स्टेशनों से प्रसारणों को ‘सुपर इम्पोजिशन ऑफ साउण्ड बैव्स’ क सिद्धांत पर तीव्र बना दिया जाता है, तो एक सेकेंड से भी कम समय में वे तरंगें समूची पृथ्वी का चक्कर लगा लेती है। अंतरिक्ष में उड़ रहे कृत्रिम उपग्रहों की गतिविधियों के संबंध में इसी आधार पर जानकारी मिलती है या चालकों से बात-चीत होती है।

ध्वनि कहने-सुनने में एक प्रतीत होती है, पर उसके कई भाग-विभाग होते हैं। अल्ट्रासोनिक, इन्फ्रासोनिक, सोनिक, हाइपरसोनिक, सुपरसोनिक आदि के रूप में उनका वर्गीकरण एवं विभिन्न प्रयोजनों के लिए उनका प्रयोग होता है। फिर भी जितना जाना जा सकता है वह स्थूल जगत से संबद्ध है। अभी अदृश्य जगत और सुपरयूनीवर्स में काम करने वाली ध्वनियों का स्वरूप और क्रिया कलाप जानना बाकी है। यह कार्य शायद भौतिक उपकरणों के सहारे न हो सके। उसे मनुष्य के कानों में काम करने वाली झिल्ली को अधिक शक्तिशाली बनाकर, साथ ही उसके साथ मानसिक अतींद्रिय क्षमताओं को समावेश करके ही उस स्थिति तक पहुँचा जा सकता है कि आकाश में भ्रमण करने वाले ग्रह-नक्षत्रों की हलचलों से अवगत हो सकें। जो घटनाक्रम घटित हो चुका अथवा भविष्य में घटित होने वाला है, उसकी संभावना का सही अनुमान लगा सकें। पितृलोक, देवलोक या ब्रह्मलोक की सत्ताओं से उसी प्रकार विचार-विनिमय कर सकें, जैसे कि टेलीफोन द्वारा मनुष्य के बीच किया जाता है।

नाद का आरंभिक अभ्यास कोलाहलरहित शांत एकांत स्थान में किया जाता है। दोनों कानों में उँगलियाँ, शीशियों के कार्क की, कपडेें की कड़ी गोली लगाई जाती है, जिससे बाहर के शब्द भीतर न पहुँचे। पालथी मारकर मेरुदंड और ग्रीवा को एक सीध में रखना आवश्यक है। प्रथम चरण में अंतर्मुखी होना पड़ता है और तरह-तरह की आवाजें, जो भीतर से अंग-प्रत्यंगों की हलचलों द्वारा उठती है, उन्हें ध्यानपूर्वक सुनना पड़ता है। डाॅक्टर स्टेथास्कोप को कान में लगाकर रोगी के हृदय की धड़कन सुनते हैं और उन्हें ‘लप-डप’ के रूप में धड़कन तथा खरखराहट (मरमर) के रूप में उस क्षेत्र की विकृतियाँ समझ में आती है। नादयोग के आधार पर उन्हें सुना और अभ्यास द्वारा यह जाना जा सकता है कि शरीर के भीतर किस अंग-अवयव में क्या सही और क्या गलत हो रहा है। यह नादयोग द्वारा अंतर निदान की विधि है, जिसके द्वारा वर्तमान का ही नहीं, शरीर का भावी घटनाक्रम भी जाना जा सकता है।

टोरेण्टों के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा साउण्ड प्रूफ केबिन बनाया, जिससे साँस लेने की व्यवस्था तो रहे पर बाहर का कोई शब्द सुनाई न पड़े। पाया गया कि उस स्थिति में बैठे हुए व्यक्ति को श्वास-प्रश्वास की क्रिया आँधी-तूफान चलने जैसे- हृदय की धड़कन पत्थर तोड़ने जैसे, पेट भीतर के पाचनतंत्र की क्रियाएँ रेलगाड़ी चलने जैसी सुनाई पड़ रही थी। इस आधार पर अब एक नयए विधान— विज्ञान का अन्वेषण हो रहा है। जिसके सहारे हर व्यक्ति अपने भीतरी अंगों की गतिविधियाँ सुन सके और रोग के स्वरूप को स्वयं ही दूसरों के निरीक्षण-परीक्षण के बिना ही आत्मपर्यवेक्षण कर सके।

योग विज्ञान ने नादयोग के द्वारा न केवल स्थूलशरीर को समझने में सफलता पाई थी; वरन सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर की स्थिति जानने, सुधारने एवं वलिष्ठ करने की विधा खोज निकालने में भी सफलता पाई है। यह अनुभूतियाँ अंतराल की गहन परतों में पहुँचती तथा यह बताती है कि विकृति का कहाँ  क्या स्वरुप है और उसके निराकरण के लिए भौतिक एवं आत्मिक स्तर का क्या उपचार होना चाहिए? यह प्रथम चरण ऐसा है जिसे नादयोग की आत्मनिरीक्षण प्रक्रिया के साथ जोड़ा जा सकता है।

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Type: SCAN
Language: HINDI
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Type: TEXT
Language: HINDI
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