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Magazine - Year 1987 - Version 2

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बुद्धि-क्षेत्र से परे अपरोक्षानुभूति

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वेदांत दर्शन में भारतीय तत्त्वचिंतन का सार निहित है। इसमें आस्तिकता का समर्थन व प्रतिपादन है। तत्त्वचिंतन की इस धारा में स्पष्ट किया गया है कि एक ऐसा परम तत्त्व विश्वचेतना जो सबकी नियामक, ‘एकमेवाद्वितीयं’ सर्वत्र परिव्याप्त है। सृष्टि के कण-कण, विश्व-ब्रह्मांड के प्रत्येक घटक में समाई हुए है। संपूर्ण विश्व उसी की अभिव्यक्ति है। इसी सत्ता को वेदांत पूर्ण ब्रह्म कहकर संबोधित करता है, पर नाम के प्रति उसका कोई संकीर्ण भाव नहीं। क्योंकि परम सत्ता नाम और रूप से परे है। यह बताते हुए ही “एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति” के सूत्र को प्रतिपादित किया गया है। विभिन्न मतावलंबी उसे भिन्न-भिन्न नामों से जानते हैं। ईसाइयों का गॉड, मुसलमानों का अल्लाह या खुदा; यहूदियों का जेहोवा, ताओवादियों का ताओ, पारसियों का आहुरमज्द। इसी दिव्य सत्ता के भिन्न-भिन्न प्रतीकात्मक नाम हैं। आधुनिक चिंतकों जैसे प्लेटो का शुभ, स्पिनोजा का सबस्टेंशिया, काण्ट का डिंग एन सिच,हरबर्ट स्पेन्सर का “अननोएबल”, शोपनेहावर की विल, इमर्सन का “ओवरसोल” इसी विश्वचेतना के भिन्न-भिन्न पर्याय हैं।

वेदांत ने इसी परमसत्ता को सत्, चित्, आनंद कहकर भी इंगित किया है। जिसका तात्पर्य है— यथार्थता, ज्ञान और स्वतंत्रता (आनंद)। यह आध्यात्मिक अनुभव के तीन रूप हैं। यह दार्शनिक प्रतिपादन कि “प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है” “जीवन का उद्देश्य इस अव्यक्तता को व्यक्त करना तथा दिव्य जीवन की प्राप्ति ही है” का संदेश देता है।

यह सत्य क्या है? यथार्थता— वास्तविकता क्या है? इसकी जानकारी तो परम ज्ञान की प्राप्ति से ही होती है। इसी से सतरूप अर्थात अपने दिव्य स्वरूप का बोध होता है। इस सत स्वरूप को जानकर, यथार्थता से अवगत होकर ही सच्चे आनंद की प्राप्ति होना संभव है।

पर यह ज्ञान है क्या? हम नित्य बड़ी-बड़ी पोथियाँ पढ़ते हैं, मोटे-मोटे ग्रंथों को तोते की तरह रटते और अनेकानेक ग्रंथालयों के चक्कर काटते हैं। सारे जीवन नाना विधि परीक्षाएँ पास करते, ढेर की ढेर उपाधियाँ बटोरते रहते हैं। फिर भी अपने स्वरूप से परम सत्य से अनभिज्ञ ही रहते हैं और जिंदगी के सुनिश्चित बँधे-बँधाए क्षण बीत जाते हैं। हमारा सारा का सारा अस्तित्व काल-कवलित हो जाता है। समयानुसार फिर पैदा होते और पुनः उसी श्रृंखला का प्रारंभ हो जाता है। यदि सचमुच ज्ञान की प्राप्ति होती तो अपनी दिव्यता का भान भी होता और आनंदामृत की प्राप्ति भी; पर ऐसा कुछ नहीं होता उल्टे दुःख, निराशा के चक्कर में रोते झींकते सारा का सारा जीवन बीत जाता है। “पुनरपि जननं पुनरपि मरणं” से छुटकारा नहीं। ऋषि के कथन से स्पष्ट है कि पी.एच.डी.; डी.लिट्, एफ.आर.सी.एस. जैसी उपाधियाँ अर्जित करना ज्ञान की प्राप्ति की द्योतक नहीं। इससे तो यही स्पष्ट होता है कि अमुक व्यक्ति ने सापेक्षिकता संसार में ढेर की ढेर जानकारियाँ इकट्ठी कर ली हैं और उसी के बलबूते नाना उपाधियों से अलंकरण और यश-कीर्ति की प्राप्ति हुई है; पर इसमें कुछ भी ऐसा नहीं,जिससे निरपेक्ष सत्ता का बोध हो सके, सही माने में सत्य की प्राप्ति संभव हो सके।

वस्तुतः ज्ञान दो प्रकार का होता है। एक है निरपेक्ष ज्ञान जिसका प्रतिपादन भारतीय ऋषियों तथा अंगोरवाट या क्योतो के संतों ने किया है। दूसरा है सापेक्ष ज्ञान— जिसे आक्सफोर्ड, बर्कले के प्रोफेसर और दुनिया भर के शिक्षाविद् कहते हैं।

ज्ञान के यह दो विभेद हैं, जिन्हें मानव मन ग्रहण करता है। इन विभेदों को दूसरे शब्दों में वो तर्क प्रधान (रेशनल) तथा अन्तर्ज्ञान (इन्ट्यूशन) कह सकते हैं। पश्चिमी जगत ने तथा नास्तिक मतवादियों ने इस अन्तर्ज्ञान की उपेक्षा-अवहेलना ही की है। जबकि पूर्वी जगत विशेषतया आर्यावर्त के ऋषि-मुनि कहे जाने वाले शोधकर्त्ता मनीषी-चिंतकों ने हजारों वर्षों पहले इसी अंतर्ज्ञान के बलबूते चेतना जगत की जानकारी हासिल की और परम सत्य की प्राप्ति गूँगे के गुड़ की तरह से है जिसकी मिठास अनुभव तो की जा सकती है; पर इसकी व्याख्या विवेचना करना असंभव है। इसीलिए संत सुकरात ने कहा— “मैं जानता हूँ, पर कह नहीं सकता।” चीनी संत लाओत्जू का कहना कि “नहीं बता सकता, इसका तात्पर्य यह है कि मैंने ज्ञान पाया है।” वेदांत दर्शन भी इसी परम ज्ञान के विषय में नेति-नेति कह कर चुप्पी साध लेता है। हाँ! इस परम तत्त्व की प्राप्ति के उपायों के बारे में संकेतमात्र किए गए हैं और इसी की विशद व्याख्या भी हुई है। परमहंस श्री रामकृष्ण कहा करते थे कि परम तत्त्व को मुख से उच्चारित— विश्लेषित करना असंभव है। ज्ञानस्वरूप परमात्मा मुख से उच्चारित नहीं हुआ; इसलिए झूठा नहीं हुआ है। जबकि शास्त्र बार-बार दुहराए जाने के कारण झूठे हो गए हैं। उपनिषदों में इसी को उच्च ज्ञान और निम्न ज्ञान भी कहा गया है। इसे अपरोक्ष ज्ञान अर्थात् ज्ञान स्वरूप ईश्वर की प्राप्ति का अनुभव जो अनुच्चरित— अविश्लेषित है। तथा परोक्ष ज्ञान अर्थात इस निरपेक्ष ज्ञान की प्राप्ति के संकेत और उसकी व्याख्या। बौद्धों ने इसे ही अपनी भाषा में पहले को पूर्ण ज्ञान दूसरे को सापेक्ष ज्ञान भी कहा है। चीनी दर्शन ने इसी बौद्धिक और अंतर्ज्ञान को यिन और याँग रूप में मान्यता दी है। ताओइज्म व कन्फ्यूशिज्म भी इसका समर्थन करते हैं।

बौद्धिक या सापेक्ष ज्ञान वह है, जो आस-पास के वातावरण में विभिन्न पदार्थों तथा होने वाली घटनाओं के बारे में इंद्रियों द्वारा होने वाले अनुभवों के माध्यम से पाया जाता है। इसकी परिधि बुद्धि तक सीमित है। सामान्यतया इसी ज्ञान को संसार में विविध भाषाओं, अक्षरों, वाक्यों के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है।

दूसरे शब्दों में सापेक्षिक ज्ञान सीमाबंधन वाले दृश्य जगत का ही ज्ञान है। विज्ञान अभी इसी तक सीमित है। विख्यात भौतिकवाद वार्नर हेसेनवर्ग ने अपनी पुस्तक “फिजिक्स एण्ड फिलॉसफी” में इस सीमा को स्वीकारते हुए कहा है कि विज्ञानरूपी विधा एक सीमा तक ही उपयोगी है। यह सीमा है सापेक्षिता।

सापेक्षिता की सीमाबद्धता क्या है? इसे जानना हम सभी के लिए कठिन तो अवश्य है। कारण कि हम, सापेक्ष और निरपेक्ष में विभेद नहीं जानते अथवा कर नहीं पाते। वेदांत दर्शन के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पूर्वकाल के ऋषियों ने इसी निरपेक्ष तत्त्व को जाना था। उससे एकत्व प्राप्त किया था तथा इस विभेद की कठोपनिषद् में श्रेयस् और प्रेयस के नाम से विशद् व्याख्या भी की है, साथ ही सापेक्षता के भ्रम जाल से उबरने का संदेश भी दिया है। बौद्धों के “जैन” संप्रदाय तथा ताओवादी संत चुआँगत्सू ने भी इसका समर्थन किया है।

पर ये दार्शनिक व्याख्याएँ हमारे लिए उपयोगी तभी हैं जब हम इनकी धारणा करें और व्यवहारिक जीवन में लाएँ अन्यथा शब्दजाल तो सापेक्षिता की सीमा में ही आता है। उससे निरपेक्ष तत्त्व की अनुभूति होना असंभव है। पश्चिम जगत में मूर्धन्य तत्त्ववेत्ता कोर्जीत्सकी ने इसी को पुष्ट करते हुए कहा है कि “नक्शा भूमि अथवा विजय नहीं है।” कठोपनिषद् का ऋषि स्पष्ट उद्घोष करता हुआ कहता है-

अशब्दमर्स्पशरुपमत्ययं तथा रसं निव्यममगन्धवच्चयत् अनाद्यन्तं महत परं धुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखत् प्रयुच्यते॥ (3-15)

अर्थात् परमात्मा प्राकृत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध से परे हैं। इंद्रियों की पहुँच उस तक नहीं हैं। वे नित्य, अविनाशी, असीम हैं। इसी ज्ञानस्वरूप परम तत्त्व को जानकर मनुष्य सदा के लिए भ्रममुक्त (जन्म-मरण के बंधन से मुक्त) हो पाता है।

परमहंस रामकृष्ण ने इसी को और अधिक सरल-सुस्पष्ट करते हुए बताया है कि शास्त्र की आवश्यकता तो निर्देशन भर के लिए है। परम तत्त्व की प्राप्ति तो व्यावहारिक जीवन में उन निर्देशों को उतारने से ही पूरी होगी। जैसे— किसी के यहाँ उसके गाँव से पत्र आए कि चार किलो मिठाई, 4 धोती, तीन लोटे लेकर आ जाए। अब उसका कार्य यह है कि बाजार जाकर इन सब चीजों को खरीदे। तत्पश्चात घर जाए और सामान पहुँचाए। तभी प्रयोजन की पूर्ति होगी। यदि वह मात्र पत्र पढ़ता रहे याद कर डाले, उस पर बहस करे तो क्या फायदा?

पत्र पढ़ना है परोक्ष ज्ञान और सामान पहुँचाना अपरोक्ष ज्ञान। इस अपरोक्ष ज्ञान को पूर्ण ज्ञान या निरपेक्ष ज्ञान भी कहा गया है। मनीषियों का कहना है कि ज्ञान तर्क से परे है। इसी से आचार्य शंकर “शब्द जालं महारण्यं चित्त विभ्रम कारणम्।” अर्थात् तर्कों की लच्छेदार भाषा चित्त विभ्रम के कारण के अलावा और कुछ नहीं है। इसी कारण “ब्रह्मसूत्र” के सूत्रकार महर्षि व्यास ने “तर्क प्रतिष्ठानात्” का सूत्र प्रतिपादित किया है। जान स्टुअर्ट मिल ने भी यही स्पष्ट किया है कि ज्ञान का साम्राज्य तर्क से परे है; क्योंकि वह परम ज्ञान तर्क के लिए लालायित रहने वाली बुद्धि के क्षेत्र से परे हैं।

इसी परम ज्ञान को लोओत्जू ताओ कहते हैं और उपरोक्त तथ्य को ‘ताओतेचिंग’ नामक ग्रंथ में स्पष्ट करते हैं कि ताओ शब्द से ताओ की अभिव्यक्ति नहीं होती यह; तो शब्द, मन, वाणी, बुद्धि के क्षेत्र से परे अनुभूतिगम्य है।

इस प्रकार यह दिव्य ज्ञान पूरी तरह से बुद्धि के क्षेत्र से परे अपरोक्षानुभूति है। एक ऐसी अनुभूति, जो असामान्य स्थिति के चेतनास्तर में होती है। इस स्थिति को समाधि की स्थिति भी कहा जा सकता है। इसी स्थिति में प्राप्त दिव्य ज्ञान के बारे में अनेकों पूर्वी व पश्चिमी गुह्यवादियों ने अपने अनुभव के आधार पर संकेत किए हैं। आधुनिक शोधकर्त्ताओ ने भी इसे माना है। विख्यात मनीषी विलियम जेम्स ने अपनी पुस्तक “दि वैरायटी ऑफ रिलीजियस एक्सपीरियेन्सेज” में सुस्पष्ट किया है कि हमारी सामान्य जागृत चेतना स्थिति जिसे बौद्धिक चेतना कहते है, से परे एक विशेष चेतना की स्थिति होती है, जो इससे पृथक है। वहाँ अव्यक्त रूप से बिल्कुल अलग प्रकार की दिव्य चेतना  होती है।  चेतना के इसी क्षेत्र में परम ज्ञान की उपलब्धि संभव हो पाती है।

इसी परम ज्ञान को निरपेक्ष ब्रह्म को प्राप्तकर ऋषि, मनीषी, ज्ञानी भ्रमजाल से परे होकर विश्व-उद्यान में जीवनमुक्त हो विहार करते हैं और परमपिता की इस वाटिका को सुरम्य बनाने में हाथ बँटाते हैं। वेदांत ज्ञान की यह सर्वोपरि उपलब्धि है।

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