
तृतीय नेत्र : एक शक्तिशाली ऊर्जाकेंद्र
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आँखें व्यक्तित्व के गहन मर्मस्थल का प्रतीक हैं। बचपन का भोलापन, यौवन की मादकता, प्रौढ़ता की परिपक्वता हम किसी के नेत्रों में नेत्र डालकर आसानी से अवलोकन कर सकते है।
सौम्यता— सज्जनता भी आँखों से झलकती है और क्रोध— आवेश भी उन्हें देखकर किस स्तर तक उभरा, इसे सहज ही अनुमान लगा लेने में देर नहीं लगती। मैत्री, शत्रुता, उपेक्षा के भाव भी चेहरे पर चमकते हैं और शत्रुता की वक्रता भी।
व्यक्ति के स्वभाव और चरित्र को पढ़ने में यों समूचा चेहरा ही दर्पण का काम करता है, पर उसका केंद्र बिंदु नेत्र ही हैं।
समूचे चेहरे पर यों भावभंगिमा उभरकर व्यक्ति के मानसिक धरातल की जानकारी देती हैं, पर उसका सार— संक्षेप नेत्रों में भी बोलते-झाँकते देखा जा सकता है। यदि पढ़ने की क्षमता हो तो उसे ध्यानपूर्वक देखने से वस्तु स्थिति की सहज ही पहचाना जा सकता है।
यों शरीर के सभी अवयव अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं, पर नेत्रों की उपयोगिता-आवश्यकता दोनों ही बढ़ी-चढ़ी हैं। कहते है कि “दाँत गए तो स्वाद गया और आँख गई तो जहान गया।” इस उक्ति में व्यावहारिक दृष्टि से समुचित तथ्य समाया हुआ है। यों अंधे भी किसी तरह काम करते और ढर्रा चलाते हैं; पर वे दूसरे व्यक्तियों व पदार्थों के संबंध में कुछ भी जान नहीं पाते। ऐसी दशा में कल्पना या स्पर्शशक्ति ही थोड़ा सहारा देकर काम चला देती है। इसके अतिरिक्त अध्ययन-अध्यापन का भी आधा रास्ता रुक जाता है। ब्रेल लिपि के आधार पर उभरे हुए अक्षरों के सहारे ही कुछ पढ़ा जा सकता है या किसी से सुनकर स्मरणशक्ति की धारणा ही कुछ काम चला पाने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं। उपयोगिता और आवश्यकता का बौद्धिक पक्ष बहुत करके नेत्रों पर ही निर्भर है। महत्ता इसलिए है कि देव दर्शन जैसी भावना उभारने वाले प्रयोजन भी एक सीमा तक ही सध पाते हैं।
आध्यात्मिक जगत में जिस अंतर्मुखी होने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है, वह भी बहिर्मुखी प्रत्यक्ष जगत से अपने को अवरुद्ध करके भीतर घसीट ले जाने से ही बन पड़ती है। अन्यथा नेत्र न होने पर कल्पना क्षेत्र से विनिर्मित किया हुआ एक प्रपंच मस्तिष्क में घुस बैठता है। उसे अवरुद्ध करना और भी कठिन है। नेत्र चले जाने पर किसी का कथन सुना जा सकता हैं; पर ऐसा नहीं हो सकता कि मुखाकृति या सौंदर्य-सुषमा देखकर वस्तुस्थिति को अधिक अच्छी तरह समझना और उस आधार पर सही निष्कर्ष निकाल सकना संभव हो सके।
फिर भी प्रकृति इतनी उदार है कि नेत्र न रहने पर भी अपनी दयालुता से अन्य छुट-पुट सूत्रों के सहारे उसकी प्रतिभा निखार देती है। यही कारण है कि सूरदास जैसी प्रतिभाएँ नेत्रविहीन स्थिति में भी अपना काम करती रही।
जिनके नेत्र हैं, उन्हें दर्पण के सहारे बारीक दृष्टि से स्वयं अवलोकन करना चाहिए और यदि उसमें क्षुद्रताएँ समाविष्ट दिखें तो उनके परिमार्जन का प्रयत्न करना चाहिए। अहंता, वासना, कपट, कामना आदि अपनी भीतरी दुष्प्रवृत्तियों को नेत्र मात्र से उभरता देखा जा सकता है। इस अनगढ़ता को अपनी समीक्षा दूसरों से कराकर अपने द्वारा स्वयं ही मिटाना चाहिए। आत्मनिरीक्षण और आत्मपरीक्षण का प्रयोग अपने द्वारा अधिक अच्छी तरह किया जा सकता है। बाहर के सामान्य लोगों में सूक्ष्मबुद्धि का अभाव होता है, इसलिए वे अपने दृष्टिकोण से निंदा-स्तुति करते हैं और समीक्षा की दृष्टि से वे राग-द्वेषवश प्रायः भटके हुए ही होते हैं; अस्तु नेत्रों को माध्यम बनाकर आत्मसमीक्षा का प्रयोग-साधना यह अपना ही काम है अथवा फिर किसी दिव्यदर्शी साधक से, गुरुजन से इसकी समीक्षा करानी चाहिए। जो उसमें अनौचित्य झलका हो, उसका निराकरण करने के लिए सन्निद्ध होना चाहिए।
दोनों भृकुटियों के मध्य में तृतीय नेत्र का स्थान है। इसी को दिव्यदृष्टि या ज्ञानचक्षु कहते है। उसको जागृत करने की साधना साधारणतया त्राटक के आधार पर की जाती है। प्रत्यक्ष प्रकाशमान वस्तु को देखकर उसका स्वरूप नेत्र बंद करके चिंतन करते रहने की विधा को त्राटक साधना कहा गया है। इससे धर्मचक्षुओं में आत्मतेज का आविर्भाव होता है और दृष्टिकोण के परिमार्जन का क्रम चल पड़ता है।
अंतःत्राटक का एक तरीका यह भी है कि बिना किसी बाहरी उपकरण के दोनों आँखें बंद करके मात्र तीसरे नेत्र से ही दिव्य जगत का अवलोकन किया जाए। आरंभ में कुछ विशेष स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं पड़ता। अपनी संचित कल्पनाएँ ही उभर कर आती हैं। पर थोड़े दिन अभ्यास करने पर तृतीय नेत्र के दिव्य प्रकाश का उभरना आरंभ होता है और आँखें मूँदे रहकर भी अन्यत्र होने वाली या चुकी घटनाओं का दर्शन किया जा सकता है।
तृतीय नेत्र की शक्ति कितनी विशिष्ट होती है, इसका पुरातन विवरण शंकर जी द्वारा कामदेव को जला दिया जाने के रूप में किया जाता है। दमयंती को छेड़ने वाला व्याध भी इसी शाप-प्रकोप से नेत्रों की तीव्र बेधकशक्ति से जल मरा था, वस्तुतः तृतीय नेत्र प्रकाश और ऊर्जा का पुँज भी है। उसके आधार पर ऐसा कुछ भी किया जा सकता है, जिससे दिव्य दर्शन के अतिरिक्त शाप वरदान का उद्देश्य भी पूरा हो सके। शक्तिपात में, हिप्नोटिज्म में उस नेत्रशक्ति का प्रयोग किया जाता है, जो पहले से ही तृतीय नेत्र के भंडार में भर ली गई होती है। इस शक्ति से उत्पन्न हुई दिव्यदृष्टि अनेकों का अनेक प्रकार से भला भी कर सकती है।
यह भंडार कदाचित् अनायास भी फूट पड़ता है। इटली के सुप्रसिद्ध पर्यटन केंद्र फसिया का निवासी बेनेदेतों सुपीनों जब 16 वर्ष का था, तब उसमें एक विलक्षण क्षमता उभरी कि वह जिस वस्तु को भी एकाग्र दृष्टि से देखता वही जलने लगती। आतिशी शीशे द्वारा सूर्य किरणों के एकत्रित करने पर जब जिस प्रकार अग्नि प्रकट हो जाती है, ठीक उसके दोनों नेत्रों की दृष्टि एकत्रित किए जाने पर वही स्थिति उभर आती है और वस्तुएँ जलने लगती हैं। घर का सामान जल जाता। जिसे भी वह घूर कर देखता, वह पसीने-पसीने हो जाता। आखिर इस व्यथा की जाँच इटली के मूर्धन्य वैज्ञानिक डा0 मार्सियों से कराई। उनने जाँच-पड़ताल के बाद इतना ही बताया कि इसके नेत्रों में ऊर्जा उगलने की विशेषता तो है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि इसका कारण और उपचार क्या है? टेलीविजन पर भी उसका प्रभाव दिखाया गया।
मूलतः यह शक्ति होती सभी में है, पर वह अनायास तो किसी-किसी में ही अपवादस्वरूप विकसित हो जाती है। उसका “लेसर” स्तर का मूल स्तोत्र तृतीय नेत्र में अवस्थित होता है। इसे योगाभ्यासपरक साधनों के लिए, तमाशा दिखाने के लिए नहीं,वरन मात्र उच्च उद्देश्यों के लिए विकसित किया जा सकता है।