
प्रचण्ड धर्मानुष्ठान की पुण्य प्रक्रिया
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मानवी क्षमता सीमित है। यह उत्पन्न तो साहस एवं संकल्प के सहारे होती है, किन्तु उसका सफल एवं विकसित होना साधनों तथा परिस्थितियों पर निर्भर रहता है। वे न जुट पाये तो बुद्धिमत्तापूर्ण किया गये नियोजन और तत्परता के साथ नियोजित हुए प्रयास भी असफल होते देखे गये हैं, किन्तु दैवी सहकार, संकेत साथ रहने पर ऐसी कठिनाइयों की आशंका नहीं रहती। जिस सृष्टा के संकेतों पर यह समूचा ब्रह्माण्ड निश्चित गति एवं व्यवस्था के साथ चल रहा है उसकी इच्छाएँ योजनाएँ प्रेरणाएँ असफल होकर रहे ऐसा हो नहीं सकता। इसलिए भौतिक की समर्थता को मान देते हुए भी दैवेच्छा को प्रबल मानना पड़ता है। कर्मफल, भाग्य विधान ईश्वरीय कर्त्व्य आदि नामों से इसी को बखाना जाता है।
इक्कीसवीं सदी का रूप ऐसा सजाया जा रहा है। जैसा पुरातन काल के सतयुग में कभी था। अब तो सघन अंधकार की तरह अविवेक और अनाचार बहुलता का कलियुग चल रहा है, पर देखा गया है कि प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में परिस्थितियां तेजी से बदलती हैं। ऊषाकाल अरुणोदय में बदलता और उसके बाद स्वर्णिम सविता के दर्शन होने लगते हैं। देर नहीं लगती कि दिनकर का प्रकाश समूचे धरातल पर अपनी प्रकाश किरणों को बखेर देता है। यही देवी कर्तव्य है। मनुष्य इनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
विश्वास किया जाना चाहिए कि नवयुग का अवतरण दैवी अनुग्रह के रूप में इस धरित्री पर अवतीर्ण हुई थी, उसी प्रकार प्रज्ञा युग का आलोक भी दिनमान के प्रकटीकरण की तरह अनायास ही होगा। समुद्र पर किसी जमाने में पुल भी इसी प्रकार बना था और गोवर्धन पर्वत को लड़कों ने लाठियों का सहारा देकर उठा लिया था इस बार भी वैसा ही चमत्कार परिवर्तन प्रस्तुत हो तो उसमें कुछ आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।
भगवान सर्वव्यापी और शक्ति स्वरूप होने के कारण स्वयं तो एक स्थान पर सिमटने और प्रकट होने की प्रक्रिया पूरी नहीं करते, पर अपने प्राणवान पार्षदों को बिगड़े को बनाने के लिए बने को सजाने के लिए भेजते हैं। इस बार भी ऐसी ही प्रतिभाओं को विश्व के कोने-कोने में अवतरण होगा, जो ईश्वरी की इच्छा के अनुरूपता का अवातावरण बना सकें।
अभीष्ट प्रयोजनों के लिए प्रचंड ऊर्जा स्रोतों की आवश्यकता पड़ेगी। बिना उसके वाहनों और कारखानों तक को चलाना कठिन हो जाता है। इसलिए विशालकाय निर्माण करने के साथ ही ऊर्जा भण्डार की व्यवस्था बनानी पड़ती है। गंगा स्वर्ग से आई थी तब पृथ्वी पर उसका दबाव सहन करने के लिए शंकर आगे आये थे और उनने अपनी जटाएँ बखेरी थी। राम दल में पर्वत उठाने संजीवनी लाने लंका का मरोड़ देने वाले हनुमान कार्य क्षेत्र में उतरे थे। महाभारत तो असंख्यों द्वारा लड़ा गया था पर उसका ध्रुव केन्द्र अर्जुन की धुरी पर भ्रमण करता रहा। समय समय पर अवतारी आत्माएँ ऐसी प्रतिभाओं के रूप में प्रकट होती रही है। जो लाभ मोह अहंकार से मुक्त होकर जनमानस के परिष्कार में सत्प्रवृत्ति संवर्धन में जुट पड़ीं। ऐसे विषम समय में देवात्माएँ मनुष्य का काय कलेवर धारण करती और भगवान द्वारा निर्देशित सामयिक समस्याओं को आवश्यक मोड़ देने में प्रवृत्ति होती है। इसके लिए उन्हें धर्मानुष्ठानों से लेकर सुविस्तृत जन संपर्क में प्रवृत्त होना पड़ता है। अनादि काल से समय केेेी विकृतियों के निराकरण में वही प्रक्रिया कार्यान्वित होती रही है।
प्रतिभावान आदर्शवादियों को सुधार संवर्धन में जुट जाना सार्थक होना जा रहा है या नहीं, इसकी पहचान एक ही है कि उनने निजी लोभ मोह में अहंता प्रदर्शन में कटौती की या नहीं। यदि वे अपने चिन्तन चरित्र और व्यवहार को परिष्कृत कर सके होंगे तो उनका दूसरों पर प्रभाव भी पड़ेगा और अपनी बढ़ी हुई आत्म शक्ति के सहारे ऐसा कुछ भी कर सकेंगे जिनसे विकृतियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन संभव हो सके। यदि वे निजी स्वार्थ साधन के दलदल में पैरों से लेकर सिर तक डूबे होंगे तो फिर यह कठिन होगा कि वे उच्चस्तरीय कार्यों को कर सकने में उनके लिए आवश्यक समर्थन सहयोग जुटाने में सफल हो सके। पवित्र, प्रामाणिक, प्रखर प्रतिमाएं ही सामान्य कार्यों में सफल होती हैं और उन्हीं के लिए यह भी संभव है कि सार्वजनिक पारमार्थिक कार्यों को पूरा कर दिखायें। ओछे और घटिया व्यक्ति तो पग-पग पर असफल ही होते हैं।
यह प्रयास द्रुतगति से चल रहा है और सफल भी हो रहा है। इसके अतिरिक्त अदृश्य वातावरण के अनुकूलन के लिए दिव्य चेतना का सहयोग आकर्षित करने के विशेष धर्मानुष्ठानों का क्रम चलाया गया है।
इस हेतु इसी दिवाली से लेकर चैत्र नवरात्रि तक की अवधि में शत कुण्डी एक सौ गायत्री यज्ञ सम्पन्न किये जा रहे हैं, साथ ही नव सृजन की चेतना उभारने वाले सम्मेलन समारोह भी होंगे।
इन आयोजनों में व्यवस्थापकों को आवश्यक वस्तुऐं एकत्रित करने में दौड़−धूप न करनी पड़े और पैसे की भी सीमित आवश्यकता पड़े। इस सुविधा को ध्यान में रखते हुए हरिद्वार से एक पूरा ट्रक लदा हुआ सामान भेजा जाता है। इसमें शतकुण्डी यज्ञशाला,विशाल प्रवचन पंडाल, स्टेज, चित्र प्रदर्शनी, भोजनालय के उपकरण लाउडस्पीकर, रात्रि समय काम आने वाला जनरेटर आदि सामान होंगे। साथ ही गायक, वक्ता, संगीत उपकरणों तथा लाउडस्पीकरों समेत पहुँचेंगे।तीन तीन दिन के सम्मेलन होंगे। ट्रक आगे पीछे इतने समय तक और भीरुंगा जिससे सामान उतारने लाइनें तथा निर्धारित स्थान पर जमाने और उतारने का अवसर मिल सके। सौ कुण्ड बाने के लिए लकड़ी के फर्मे होंगे ताकि वह निर्माण कार्य एक दिन में ही पूरा हो जाये। हवन सामग्री का, यज्ञ विधि पुस्तिका का पूरा प्रबन्ध किया गया है,कि सभी वस्तुऐं सुविधापूर्वक उपलब्ध हो सकें।
108 कुण्डों के 1000 यज्ञ होने पर यह एक लाख कुण्डों का सुविस्तृत किन्तु विकेन्द्रित यज्ञ हो जायेगा। एक स्थान पर बड़ा यज्ञ आयोजन करने की उपेक्षा यह उचित समझा गया है, कि उसे प्रत्येक प्रान्त में दर्जनों की संख्या में सम्पन्न किया जाये। इसका प्रभाव यह होगा कि सभी स्थानों में गायत्री परिवारों तथा समीपवर्ती लोगों का बड़ी संख्या में सम्मिलित होना संभव हो सकेगा और वे उस आयोजन में भागीदार रहकर धर्म लाभ उठा सकेंगे। यज्ञ प्रातःकाल चलेगा। तीसरे पहर संकीर्तन होगा। रात्रि को सभा सम्मेलन चलेगा, जिससे उच्चकोटि के गायन वादन तथा प्रवचन चलेंगे।
इससे पूर्व 240 करोड़ का गायत्री जप प्रज्ञा परिवार के 24 लाख सदस्यों द्वारा पहले से ही चल रहा है। उस जप को इसे पूर्णाहुति समझा जा सकता है। 24 लाख कुण्डों की यज्ञ व्यवस्था योजनाबद्ध रूप से कहीं कभी भी नहीं बनी इसलिए इसे अपने ढंग का अनोखा,अद्भुत और अभूतपूर्व आयोजन भी कहा जा सकता है।
मंत्र शक्ति की प्रचण्डता प्रख्यात है। यदि उसे सही ढंग से साधा जा सके तो कारखाने वाले यंत्रों की अपेक्षा मंत्रों की क्षमता अद्भुत एवं असाधारण होती है। गायत्री मंत्री की महत्ता सर्वोपरि कही गई है।इस क्षेत्र का तना जप और इतना यजन होने का परिणाम अदृश्य जगत के परिशोधन की दृष्टि से असाधारण होना चाहिए। होगा भी।
लंका दमन के उपरान्त वातावरण में अदृश्य असुरता विपुल मात्रा में भरी रह गई थी। उसका निराकरण करने के लिए भगवान राम ने काशी में दशाश्वमेधघाट पर दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। इसी प्रकार कंस, जरासन्ध, दुर्योधन, आदि ने अनाचारों को निरस्त करने के उपरान्त भी पाया गया कि अदृश्य अन्तरिक्ष में आसुरी तत्व विपुल मात्रा में विद्यमान है। वे यथावत बने रहते तो बरसात के उद्भिजों की तरह नये आकार प्रकार में नये दैत्य उपज पड़ते और पिछली दृष्टा से भी बढ़े चढ़े अनाचार करते। इस कठिनाई से निपटने के लिए भगवान कृष्ण ने पाण्डवों से विशालकाय राजसूय यज्ञ कराया था। प्रत्यक्ष की भांति परोक्ष का संशोधन भी आवश्यक है। शरीर के स्नान कराने की तरह ही मन में पवित्रता की स्थापना आवश्यक होती है। समस्याओं का प्रत्यक्ष स्वरूप प्रत्यक्ष उपायों द्वारा संतुलित किया जाता है। ठीक इसी प्रकार परोक्ष जगत में दुर्बुद्धि के कारण अनौचित्य छा जाता है,उसका निराकरण करने के लिए गायत्री यज्ञ जैसे धर्मानुष्ठानों की आवश्यकता पड़ती है। वही किया भी जा रहा है। प्रथम चरण में 1 लाख कुण्डों के गायत्री महायज्ञ की व्यवस्था की गई। इसे इतने पर ही समाप्त नहीं किया जाना है। वह आगे भी ऐसे ही उत्साह पूर्वक चलता रहेगा ओर संभव है यह युग संधि की इसी अवधि में 24 लाख कुण्डों का आयोजन होकर रहे। इसी अवसर पर मिशन के सूत्र संचालक की 75 वीं हीरक जयंती भी है। अखण्ड ज्योति पत्रिका के पचासवें वर्ष की स्वर्ण जयंती भी। तीसरा सुयोग इसी में और आ मिलता है। तीन वर्ष की सावित्री साधना का समापन भी इसे राष्ट्रेव की कुण्डलिनी जागरण तप भी कहा गया है। इस प्रकार यह त्रिपदा त्रिवेणी बनती है ओर उसकी पूर्णता में एक लाख कुण्डों में यज्ञाग्नि प्रज्वलित होनी है। युग संधि की अवधि में तो यह 24 लक्ष्य कुण्डों की प्रक्रिया बन कर सम्पन्न होगी।
यज्ञ के दो पक्ष है। एक राजसूय -राजनैतिक समस्याओं के निराकरण के लिए। दूसरा धर्मधारणा क्षेत्र में उलझनों को सुलझाया जाता है। विशाल भारत के शुभारंभ की योजना कार्यान्वित करने के लिए कृष्ण के नेतृत्व में राजसूय यज्ञ हुआ था। त्रेता में सतयुग की वापसी वाला धर्म युग लाने के लिए देश जो दश अश्वमेध यज्ञ हुए वे वाजपेय यज्ञ थे। उसमें मनीषियों ने एकत्रित होकर भविष्य की रूपरेखा प्रस्तुत की थी।
प्रस्तुत लक्ष्य कुण्डी गायत्री यज्ञ को राजसूय और वाजपेय यज्ञ का मिला जुला स्वरूप समझना चाहिए। इसमें राजतंत्र और धर्मतंत्र की शक्ति का एकीकरण करके समग्र परिवर्तन की इक्कीसवीं सदी की प्रक्रिया गतिशील की जा रही है।