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Magazine - Year 1987 - Version 2

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परिवर्तन की अदृश्य किन्तु अद्भुत प्रक्रिया

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मुर्गे की बाँग लगते ही सवेरा होने का आभास मिल जाता है। उसके बाद पौ फटती है, ब्रह्ममुहूर्त, ऊषाकाल का आगमन होता है। प्राची का रक्तवर्ण देखते ही बनता है। इसके उपरान्त ऊर्जा और आभा भरा सूर्य अपनी तीव्र किरणें बखेरना आरम्भ करता है और दिनकर के प्रचंड प्राण भरे दर्शन होते हैं। सायंकाल भी ऐसा ही होता है। सूर्य डूबने से घंटों पहले धूप मध्यम पड़ जाती है। डूबता सूर्य बहुत पहले से ही फैलना फूलना शुरू कर देता है। पश्चिम के दूरवर्ती बादल चित्र विचित्र रंगों से भर जाते हैं। सूर्य थोड़ा थोड़ा करके डूबना शुरू करता है। अन्तिम अंश अदृश्य हो जाने के उपरान्त भी पश्चिम में दूर दूर तक लालिमा छाई रहती है। रात्रि में अंधेरा घिरने और सूर्य अस्त होने के बीच काफी काफी मध्यान्तर रहता है। प्रभात में भी सूर्योदय से पूर्व घोर निशा रहती है और रात्रि और दिन का मध्यवर्ती बहुत-सा समय आधी अधूरी असमंजस से भरी स्थिति में ही निकल जाता है।

बीसवीं सदी का अन्त और इक्कीसवीं सदी का आगमन जब अपनी परिपूर्ण स्थिति में होंगे तब उनके बदलने में काफी देर लगेगी। यह समय क्रमिक गति से बदलेगा। परिवर्तन की धीमी गति से चलती हुई प्रक्रिया दिखाई देगी। इन्हें देखकर तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि समय की गति किस दिशा में चल रही है। पर जो होने जा रहा है वह एक क्षण में उलट जाए ऐसा नहीं हो सकता। नाटकों में पर्दा उलटते ही दूसरी तरह के दृश्य सामने आ खड़े होते है, पर युग परिवर्तन तो बड़ी बात है। उसकी प्रक्रिया द्रुत गति से चलती हुई भी मानवी बुद्धि को धीमी से प्रतीत होगी। पृथ्वी और सूर्य अपनी अपनी धुरी तथा कक्षा में अत्यन्त तेजी से अग्रसर रहते हैं पर घर बरामदे में बैठकर देखने पर उनकी चाल बहुत धीमी प्रतीत होती है। सूर्य के चलने जैसा तो कुछ अनुमान भी लगता है पर पृथ्वी घूमती है इस बात पर तो विज्ञजन ही विश्वास करते हैं। सामान्य जन तो अपना खेत, घर जहाँ का तहाँ देखकर यह समझ भी नहीं पाते कि पृथ्वी के घूमने वाला कथन सही है भी या नहीं। आकाश की चादर झिलमिल तारे चादर में टँगी पन्नियों की तरह सुहावने तो लगते हैं पर प्रतीत यही होता है कि वे जहाँ के तहाँ हैं। यद्यपि वे अकल्पनीय तेजी से आगे भी बढ़ते हैं, घूमते भी हैं ओर दूर भी हटते हैं। उनका प्रकाश धरती तक पहुँचने में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं, पर यह सब मोटी बुद्धि से नहीं समझा जा सकता। मस्तिष्क और आँखों की बनावट इस हो रहे परिवर्तन को सहज स्वीकार नहीं करती।

युग परिवर्तन की प्रक्रिया भी विश्व व्यवस्था को देखते हुए आश्चर्यजनक गति से बदलेगी पर उस परिवर्तन की प्रक्रिया को यथावत यथा समय समझ सकना हर किसी के लिए कठिन पड़ेगा। इस सच्चाई को हृदयंगम करने में बहुत जोर लगाना पड़ेगा।

30 दिसम्बर सन् 2000 की रात्रि को सोते समय जो नजारे देखकर सोयेंगे वे 01 जनवरी सन् 2001 में सर्वथा बदले हुए दीखें यह नहीं हो सकेगा। गति की तीव्रता को पहचानना सरल नहीं होता। धीमापन तो और भी अधिक समझने में जटिल होता है। छोटा बालक निरन्तर बढ़ता रहता है। पर वह दिखाई नहीं पड़ता कि हर रोज, हर घंटे किस क्रम से कितना बढ़ रहा है। घड़ी में सेकेंड की सुई जब बहुत ध्यान देने पर ही चलती मालूम पड़ती है। फिर मिनी सेकेंड की चालों को यथावत समझना तो ओर भी कठिन है। रस्से में ढेला बाँध कर घुमाया जाये तो तेजी के कारण वह छतरी जैसा बन जाता है और स्थिर दिखाई पड़ता है। तेजी से जमीन पर घुमाया गया लट्टू भी अपनी धूरी पर खड़ा दिखता है। इतने पर भी उसकी द्रुतगामी भ्रमण प्रक्रिया को झुठलाया नहीं जा सकता।

युग बदलेगा तो उसकी गति ऐसी ही होगी होगी, जैसी कि पिछली शताब्दी में परिवर्तनों का क्रम रहा है। पूर्व काल में बिजली की किसी को कल्पना तक नहीं थी। पर अब तो जीवन पूरी तरह उसी पर निर्भर हो गया है। बत्ती, पंखे, हीटर, कूलर, टेलीफोन आदि घरेलू उपकरण बिजली पर ही निर्भर हैं। जिन देहातों में बिजली नहीं पहुँची है वहाँ भी कपड़े, कुदाल, हाशिया जिन कारखानों में तैयार होते हैं वे बिजली के ऊपर ही अवलम्बित हैं। रेल मोटर, जलयान, वायुयान आदि में बिजली ही दौड़ती है। माचिस और सुई तक वही बनाती है। एक शताब्दी पूर्व यह कल्पना न थी कि बिजली मनुष्य जीवन के साथ इस कदर गुंथ जायगी कि उसकी सहायता के बिना काम ही न चल सके। प्रिटिंग प्रेसों से लेकर रेडियो, दूरदर्शन, लाउडस्पीकर, सिनेमा आदि में बिजली के चमत्कार दीख पड़ता है।

पर यह परिवर्तन कितनी धूम धड़ाके के साथ किस दिन सम्पन्न हुए यह नहीं कहा जा सकता। संस्कृति में आधुनिकता का समावेश हुआ है। पुरानी पीढ़ी की तुलना में आज का आहार विहार ही नहीं व्यवहार, दृष्टिकोण एवं स्वभाव भी आश्चर्यजनक रीति से- असाधारण रूप से परिवर्तित हो गया है। पर यह नहीं कहा जा सकता कि इतना बड़ा परिवर्तन किस घड़ी मुहूर्त में सम्पन्न हुआ। बदलाव तो आया, पर उसकी गति एवं प्रक्रिया इतनी धीमी इतनी बिखरी रही कि बदल बहुत कुछ गया पर उस उलट फेर का निश्चित समय, स्थान एवं क्रम विवेचना पूर्वक नहीं बताया जा सकता।

शरीर की जीवकोशिकाएं एक वर्ष के भीतर प्रायः पूरी तरह बदल जाती हैं। उनके जन्मने मरने का क्रम हर घड़ी जारी रहता है, किन्तु प्रत्यक्षतः वही शरीर, यथावत बना हुआ प्रतीत होता है। साँप केंचुली बदलता रहता है। पर उसकी सत्ता वैसी ही बनी रहती है जैसे कि पहले थी। सूर्य अपने सौर मण्डल को समेटे हुए महासूर्य की परिक्रमा पथ पर द्रुतगति से दौड़ता रहता है। आकाश के जिस क्षेत्र में आज हम हैं उसमें वापस लौटने में हजारों वर्ष लगेंगे। तब तक अपने दसियों जन्म हो चुके होंगे। इतने पर भी यही प्रतीत होता रहता है कि हम जहाँ के तहाँ है। धरती, आकाश, सूर्य सितारे आदि अपना स्थान बदलते और अग्रगामी होते रहते हैं पर हमें स्थिरता ही दृष्टिगोचर होती रहती है।

युग संधि की इस बेला में सब कुछ तेजी से बदल रहा है भले ही उसे हम प्रत्यक्ष अनुभव न करते हों। माता के गर्भ में भ्रूण आरम्भ में एक बबूला मात्र होता है कि प्रसव का झटका सह सके और उन्मुक्त वायुमंडल की सर्वथा बदली हुई परिस्थितियों में साँस ले सके। यह परिवर्तन क्रम देख समझ नहीं पाते। गर्भाधान के उपरान्त प्रसव की ही प्रत्यक्ष घटना होती है इस बीच जो विकास क्रम चलता है वह पर्दे के पीछे ही बनता रहता है उसे हम प्रत्यक्ष न तो देख पाते है और न अनुभव करते हैं। युग परिवर्तन की प्रक्रिया भी इसी अदृश्य वास्तविकता के साथ द्रुतगति से अग्रगामी हो रही है।

जापान पर अणु बम गिरे थे, तब प्रतीत होता था कि विश्व के भाग्य का निबटारा इन्हीं अस्त्रों से कुछ ही दिनों में हो जाएगा, किन्तु अदृश्य की परिस्थितियाँ बदली और अब जिनने विशालकाय अणु बमों के भण्डार जमा कर लिये हैं, वे उनके संबंध में एक ही बात सोच रहे हैं कि इस कचरे को कहाँ दफनाया जाये। प्रकृति ने संतुलन ऐसा बनाया कि अणु युद्ध जीता नहीं जा सकता इसलिये दूरदर्शिता प्रत्यक्ष घोषणा के पीछे ठोस तथ्य हैं और यह निश्चित है कि जिस अणु अस्त्र भण्डारण में कुबेर भण्डार जितना धन खर्च हो चुका उसे अपव्यय रूप में बट्टे खाते ही गिना जायेगा। नक्षत्र युद्ध की दिनों दिन बड़ी डींगें हाँकी जा रही है पर उसका पूर्णतया असफल रहना भी निश्चित है। आकाश पर आधिपत्य जमाने के कितने प्रयास हो चुके, कितने ही होने जा रहे हैं पर इसे भी ध्रुव सत्य मानना चाहिए कि इस संदर्भ में जो जितना उत्साह दिखा रहे हैं उन्हें अधिक निराशा पल्ले बाँधनी पड़ेगी। इस प्रकार विकिरण बखेरने के उपरान्त दिग्गज इतना ही कर पायेंगे कि अपनी दुर्बुद्धि का परिचय देते हुए निर्माणकर्ता गाली खाये और पीढ़ियां तक कोसे जाये। विकिरण, प्रदूषण में इसी आशा से अपने आपको फिर कर लेगा। प्राणी इतने जहरीले हो जायेंगे कि उस प्रदूषण को पचा सके। मच्छर मारने के लिए डी.डी.टी. आरम्भ में रामबाण समझी गई थी पर अब मच्छर डी.डी.टी. प्रूफ हो गये है और उसी के खुले ड्रमों पर बैठे भोजन का आनंद लेते रहते हैं। प्रदूषण से उतना विनाश न होगा जितना कि समझा जाता है।

बढ़ती आबादी एक विकट समस्या मालूम पड़ती है। पर विचारशीलता बढ़ने के साथ-साथ ही उसका घटना आरम्भ हो जायेगा। यूरोप के कई देशों में जन्म दर स्थिर हो गई है। कहीं-कहीं घटने भी लगेगी। वहाँ का अर्थशास्त्र कहता है कि परिश्रमी जातियों को बाहर से ला-ला कर अपने देश में बसाया जाय। यह समझ पिछड़ेपन का अन्त होते होते संसार भर में हो जायेगी। इन दिनों प्रसव पीड़ा में प्रायः ‘ 15 लाख महिलाएँ प्राण खो बैठती है। समझ बढ़ते ही महिलाएँ उपयोगी कार्यों में लगेंगी। विवाह भले ही करें पर अण्डे बच्चे उगलने के व्यवसाय से पूरी तरह हाथ खींच लेंगी। महिलाओं में असहयोग उभरे तो पुरुषों के लिए एकाकी प्रजनन करते रहना कहाँ बन पड़ेगा? इक्कीसवीं सदी में जनसंख्या वृद्धि नाम की कोई समस्या न रहेगी। उसका समापन बीसवीं सदी का अन्त होते होते समाप्त हो जायेगा।

एकता और समता का दर्शन हर किसी के गले उतरेगा। इन दिनों में सहकारिता आन्दोलन पनप रहा है। आगे चलकर वह शासन, अर्थशास्त्र, भाषा सम्प्रदाय सभी को अपनी गाँठ में बाँध लेगा। मियाँ बीवी वाले अकेले चूल्हें न पकेंगे। लॉर्ज फैमली स्तर की केन्टीने गाँव मुहल्ले के रूप में विकसित हो जायेगी। खाना एक जगह पकेगा। कपड़े एक जगह धुलेंगे। सोने की कोठरियाँ एक ही बड़े हाल में हलके पार्टीशनों से अलग कर दिये जाया करेंगे। अलग घर बसाने, अलग खेती करने, मौत बुढ़ापे के लिए साधन, अलग बचा कर रखने की आवश्यकता न पड़ेगी। यह सहकारिता विश्व साम्यवाद के रूप में बदलेगी और सशक्त राष्ट्र संघ विश्वव्यवस्था का सूत्र संचालन करेगा। सामर्थ्य भर काम करने और आवश्यकता भर लेने की नीति हर किसी को न्यायोचित भी लगेगी और सुविधाजनक भी। आज के पूँजीवाद बिलगाववाद, उपनिवेशवाद, आधिपत्य शोषण के सूत्र ही समाप्त हो जायेंगे।

बढ़ते हुए अपराधों की जड़ आज का चिन्तन और वातावरण है। इन दिनों में ही मानवी गरिमा का प्रवेश होगा और लोभ लिप्सा का, अमीरी ठाट बाट का वर्तमान रवैया उपहासास्पद बन जायेगा और निन्दनीय भी। तब कोई इस जोखिम भरे झंझट में हाथ डालकर आग में झुलस मरने जैसी हरकत क्यों करेगा? जब वसुधैव कुटुम्बकम् और आत्मवत् सर्वभूतेषु का दर्शन अन्तःकरणों में गहराई तक प्रवेश करेगा तो कोई कारण नहीं कि स्वार्थों का टकराव समाप्त न हो और मिलजुल कर सुख से रहने और चैन से रहने की नीति हर किसी के द्वारा न अपनाई जाय।

न बड़े कारखाने वाले रहेंगे और न उनके द्वारा खड़े किये गये प्रेत पिशाच जैसे स्वसंचालित उद्योग। तब देहाती कस्बों में गृह उद्योग पनपेंगे और शहरों की घिचपिच समाप्त हो जायेगी। विशालकाय नगर, वाहन, उद्योग, अपने खंडहरों में यह साक्षी देते होंगे कि कोई ऐसा युग भी रहा, जिसमें पूँजीवाद ने सर्वत्र बेकारी फैलाई थी और लोग सिमट सिमट कर इन शहरों में अपनी सर्वांगीण सुविधा खोने के लिए आ बसते थे और यहीं नरक जैसी सड़ांध में सड़ कर मरते थे। तब कोई बड़े नगरों की सैर पर न जाया करेगा। प्राकृतिक सुषमा वाले क्षेत्र ही दर्शकों को आकर्षित करेंगे और उन्हीं के इर्द गिर्द उस शिक्षा के केन्द्र बनेंगे जो मनुष्य बहुज्ञ ही नहीं, विवेकवान भी बनाती है।

व्यसन और व्यभिचार दुर्बुद्धि की देन है। अपव्यय और धन संग्रह भी उसी दुर्नीति की देह है वह न रहेगी तो कोई नशेबाजी जैसे दुर्व्यसन जो मनुष्य की बढ़ी चढ़ी मूर्खता का ही परिचय देते हैं। आज तथाकथित बुद्धिमान ही इस प्रकार की मूर्खता अपनाते और अपने पैर कुल्हाड़ी मारते हैं। बर्तनों और उपकरणों के लायक धातु धरती के गर्भ से पीछे भी मिलती रहेगी। कभी तो शस्त्र और विशालकाय यंत्रों में धातुओं का अन्धाधुन्ध उपयोग होता था, उसकी जब आवश्यकता ही न रहेगी तो उत्खनन के लिए हाथ पैर पीटने की भी आवश्यकता न रहेगी।

मनुष्य के दो हाथ और मस्तिष्क का कोश इस योग्य है कि सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति हलके फुलके प्रयासों से ही पूरा करते रहे। फिर किसी कौन तो दरिद्र रहना पड़ेगा न अशिक्षित तब किसी पर भी पिछड़ेपन का लाँछन न लगेगा न कोई शोषक रहेगा न शोषित समता और एकता को केन्द्र बिन्दु मानकर अपनी इस दुनिया का नवनिर्माण होगा।

मनुष्यकृत ध्वंस निर्माण की प्रत्यक्ष घटनाएं दृष्टिगोचर होती है किन्तु प्रकृति द्वारा उत्पन्न किये गये परिवर्तनों में परिस्थितियों ही बदलती है जिनका स्वरूप कभी कभी कुछ हलचलों के रूप में देखा जा सकता है युग परिवर्तनों का स्वरूप वो प्रत्यक्ष देखना चाहते है उन्हें बसन्त की उपमा से तथ्य को समझाने का प्रयत्न करना चाहिए। बसन्त के दिनों सर्वत्र खिले फूलों को बाहर दृष्टिगोचर होती है स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में एक साथ उच्च कोटि के अनेकों महामानव जनम थे और उनने त्याग बलिदान के आदर्शवादी पुरुषार्थ प्रस्तुत किये थे। पूरा परिवर्तन की बेला में सृजन शिल्पियों द्वारा किये गये जनमानस परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन जैसे कृत्यों का अतिशय अभिवर्धन देखा जा सकता है। भावना क्षेत्र में सुधारकों की एक बड़ी सेना योजनाबद्ध रूप से कार्य करती हुई दिखाई देगी। दे भी रही है।

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