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Magazine - Year 1987 - Version 2

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अगणित विपत्तियों का एक ही उद्गम

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अगले दिनों संकट भरा समय आ रहा है। इस भविष्य कथन को अनेक स्रोतों से सुने जाने का प्रधान कारण यही है, कि भगवान के बाद दूसरा सृष्टि संचालक मनुष्य अपनी नीति मर्यादाओं और गरिमा से बहुत नीचे उतर आया है। ईश्वर की पराशक्ति का छोटा रूप मनुष्य की विचार शक्ति को समझा जा सकता है। वह जहाँ से उद्भूत होती है, उस व्यक्ति एवं संपर्क समुदाय को तो प्रभावित करती है, अदृश्य जगत की व्यापकता का ओर-छोर भी नापती है। रेडियो तरंगों से यह निखिल ब्रह्माण्ड भरा है। ताप, ध्वनि और प्रकाश की किरणों के लिए कोई सीमा बंधन नहीं। व समग्र ब्रह्माण्ड में परिभ्रमण करती है। रेडियो तरंगों का भी यही हाल है। ईथर तत्व से यह समूचा दृश्य अदृश्य जगत प्रभावित है। मनुष्य के विचार यों सूक्ष्म हैं किन्तु वे प्रकृति के साथ तादात्म्य जोड़े हुए इस समूचे संसार को प्रभावित करते हैं।

बिजली की शक्ति से हम परिचित हैं। वह कितनी शक्ति के साथ कितने प्रयोजन सिद्ध करती है। साथ ही यह भी प्रकट है कि जब मारक प्रयोजन में लग जाती हैं, तो धुँआधार भी कर देती है। विचारों के बारे में भी हमें इसी प्रकार सोचना चाहिए। वे सामान्यतया दैनिक काम काज निपटाने में ही खर्च होते रहते हैं; पर जब कभी इन्हें एकत्रित और संकलित किया जाता है, तो उसका प्रभाव देखते ही बनता है। वे मनुष्य को दिशाधारा, प्रेरणा और प्रतिभा प्रदान करते हैं। सामान्य परिस्थितियों में उत्पन्न हुए व्यक्ति ऐसे काम करने लगते हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। वे महामानव, सिद्ध पुरुष योगी, यती बनते हैं। विशालकाय चुम्बक की तरह सहयोग एवं साधनों को घसीट कर प्रचुर परिणाम में अपने आस-पास एकत्रित कर लेते हैं।

चीन की दीवार, मिश्र के पिरामिड, स्वेज और पनामा नहरें-देखकर अनुमान लगता है कि इनका प्रारंभ किसी के कल्पना क्षेत्र में ही हुआ होगा। निश्चय और साहस ने उसे बल दिया होगा और फिर साधन जुटने आरम्भ हो गये होंगे। संसार में बड़े-बड़े शासकीय और सामाजिक परिवर्तन हुए हैं। वह बदलाव अचानक ही नहीं हो गया। उसके लिए योजनाबद्ध संगठन, विचारणा और क्रियाशक्ति का नियोजन हुआ होगा। इसे विचारों की शक्ति के रूप में ही देखा जा सकता है।

राजतंत्र के स्थान पर इन दिनों प्रजातंत्र और समाजवाद का बोलबाला है। विश्व के कोने-कोने में छोटी-बड़ी राजनैतिक क्रान्तियाँ हो चुकी हैं। लोगों ने जो सोचा सो कर दिखाया, भले ही इसके लिए असंख्यों को प्राण गँवाने पड़े हों। सामाजिक क्षेत्र में दास दासी प्रथा, जमींदारी, साहूकारी, सामन्ती आदि के परखच्चे उड़ गये। वर-कन्या विक्रय भी सभी देशों में अपने-अपने ढंग से चलता था। नारी का शोषण उत्पीड़न, नर का जन्मजात अधिकार, माना जाता था। वे प्रचलन या तो मिटाये या मिटने जा रहे हैं। यह सब कैसे हुआ? इन परिवर्तनों उन्मूलनों की योजना रूसों, मार्क्स जैसे विचारकों ने बनाई। भारत में यह कार्य दयानंद विवेकानन्द-गाँधी-बुद्ध जैसों की प्रबल प्रेरणा ने सम्पन्न किया। इस स्तर के महामानवों ने न केवल भारतीय जनता को वरन् विश्व के लोकमत को भी झकझोर कर रख दिया।

वातावरण बिगड़ने के अवसर जब भी सुविस्तृत हुए हैं तब-तब उनके पीछे वृत्तासुर, महिषासुर, हिरण्यकश्यप, रावण, कंस, दुर्योधन, जरासन्ध, कालनेमि जैसों की दुर्बुद्धि ही विकसित और फलित होती रही है। उनका दैत्य वर्चस्व न केवल उनके व्यक्तित्वों को ही दुर्दान्त बनाता रहा है, वरन् कोटि-कोटि मानवों को भी त्रास देता रहा है। सबल संकल्प वाले साहसी एवं पराक्रमी व्यक्ति ही विशिष्ट- वरिष्ठ कहलाते हैं और वे अपने महान् कर्तृत्वों से तहलका मचाते हैं। सिकन्दर नेपोलियन जैसों के शरीर नहीं मन ही प्रबल थे। अशोक हर्षवर्धन, विम्बसार का मिला-जुला पराक्रम अपने समय में बुद्ध धर्म को विश्वव्यापी बनाने में सफल हुआ हैं। ईसा के मनस्वी अनुयायियों ने उस विचारधारा से दो तिहाई जनता को अपने अंचल में समेट लिया। साम्यवादी विचारधारा संसार के तीन चौथाई जनमानस को प्रभावित कर रही है और अपने प्रतिपादनों को कार्य रूप में परिणत करने के लिए भी अग्रसर हो रही है। इजराइल, जापान जैसे छोटे-छोटे देशों की प्रगति के पीछे साधन सामग्री का नहीं उनकी उबलती हुई मनस्विता का ही चमत्कार है।

इन दिनों भौतिक विज्ञान और बौद्धिक प्रत्यक्षवाद ने असाधारण उन्नति की है। इनने दो शताब्दियों के भीतर इतने परिवर्तन प्रस्तुत कर दिये कि समूची दुनिया बदली हुई प्रतीत होती है। जलयान, वायुयान, रेल, मोटर जैसे वाहन, तार, रेडियो, टेलीविजन से लेकर, बिजली, भाप से चलने वाले कारखानों का विस्तार और पराक्रम देखकर विज्ञान की जय बोलने का मन करता है। प्रत्यक्षानुयायी बुद्धिवाद ने पुरातन मान्यताओं में अधिकाँश की जड़ें हिला दी हैं। आस्तिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता का ढाँचा तो बना हुआ है, पर उसके भीतर से प्राण खिंच गये प्रतीत होते हैं। तर्कों के प्रहार से श्रद्धा का किला खण्डहर जैसा बन गया है। इसी बुद्धिवाद ने नीति धर्म, सदाचार, न्याय, औचित्य आदि की आदर्शवादी मान्यताओं को धराशायी न सही जीर्ण शीर्ण तो विचित्र रूप से कर दिया हैं।

भौतिक विज्ञान और बौद्धिक प्रत्यक्षवाद ने समर्थों के लिए अपार सुविधा साधन उत्पन्न किये हैं। साथ ही यह भी हुआ है कि दुर्बल चेतना वाले, घुड़दौड़ में पिछड़े हुए लोगों को नवीनतम प्रगति के सामने नतमस्तक होने के लिए बाधित कर दिया है। पिछड़ा पन उनके कंधों पर और भी अधिक कर दिया है। पिछड़ापन उनके कंधों पर और भी अधिक लदा है। पिछड़ापन उनके कंधों पर और भी अधिक लदा है। आर्थिक और नैतिक दृष्टि से वे और भी अधिक दुर्बल हुए हैं। मन्दता और अन्धता ने उनके हाथों से स्वच्छता का सौंदर्य तक छीन लिया है। आलस्य प्रमाद का आदी बना कर इस योग्य भी नहीं छोड़ा है, कि अपनी अवगति का कारण जानने और उसके निवारण कर सकने तक में समर्थ हो सके। अमर्यादित सम्पन्नता और अतिशय स्तर की दरिद्रता जब मनुष्य के प्रत्यक्ष और परोक्ष जीवन पर अधिकार जमाती है तो दोनों को ही मानवी गरिमा से कोसों दूर हटा देती है। सम्पन्न वर्ग उद्धत बन जाता है और दुर्बलों की न केवल विचारणा टूटती है वरन् हिम्मत सूझ बूझ और पुरुषार्थ परायणता कर जाती है।

आज की अगणित विभीषिकाओं और समस्याओं को इसी प्रगति के उद्धत उपयोग के साथ जुड़ी हुई सोचना और खोजना चाहिए।

ईश्वर ने मनुष्य को सर्वोच्च स्तर का साधन सम्पन्न बनाया है। इस वैभव पर अंकुश रखने के लिए मनीषियों ने नीति - सदाचार, विवेक न्याय, औचित्य का निर्धारण किया है। उसे कर्त्तव्यों और दायित्वों के आदर्शवादी अनुबंधों में बाँधा है। मानवी गौरव गरिमा की मर्यादाएँ बनाई हैं और नीचे गिरने से रोकने वाली वर्जनाओं का नियम निर्धारित किया है।

हाथी को अंकुश, घोड़े को लगाम, ऊँट को नकेल, बैल को नाथ काबू में रखती है और उचित दिशा में चलने, उचित कृत्य करने के लिए बाधित करती है। मनुष्य को भी नीति मर्यादाओं का दर्शन ही ऐसी राह पर ले चलता है, जिस पर चलते हुए व्यक्तिगत गरिमा का संरक्षण हो सके और सामाजिक प्रगति में, सुव्यवस्था में बाधा न पड़े। जब तक इस अनुशासन का पालन होता है तब तक सृष्टि संतुलन बना रहता है। मनुष्य स्वयं सुखी रहता है और दूसरों को भी चैन से रहने देता है; किन्तु जब वह उद्धत आतंकवाद स्तर की अनैतिकता फैलती है। उद्धत मनुष्य की अपराधी दुष्प्रवृत्तियों को राजदंड, लोकापवाद, बहिष्कार, तिरस्कार के सहारे यत्किंचित् ही रोका जा सकता है। जिसके अन्तराल में अश्रद्धा और उद्दंडता ने जड़ें जमा ली हैं। जो अपने आप को समग्र शासन को धोखा देने की कला में प्रवीण हो चुका है उसे औपचारिक नियंत्रणों से काबू में नहीं लाया जा सकता। जिनने छल छद्म दुराव कपट की अनेकानेक विधियाँ सीख ली हैं। जो कुचक्र और तरह रोक पाये? यदि वह अनाचार से रुकता नहीं तो निश्चय ही अनर्थ उत्पन्न करता है। यह अनर्थ अपराध ही प्रकारान्तर से वैयक्तिक और सामूहिक जीवन में अनेकानेक विपत्तियों के कारण बनते हैं। उन्हीं के कारण उपलब्ध अनुकूलता, उलट कर त्रासदायक, प्रतिकूलता में बदल जाती है।

प्रस्तुत विपत्तियों और उलझनों के प्रत्यक्ष कारण कुछ भी क्यों न दिखाई पड़ते हों, उनका स्वरूप कुछ भी क्यों न हो, पर तात्विक निष्कर्ष यही है कि मनुष्य ने अपनी विचारणा का स्तर गिराया फलतः उसका चरित्र एवं व्यवहार गये गुजरे स्तर का बन गया। सद्बुद्धि घटते ही उस रिक्तता को दुर्बुद्धि भर देती है। सदाचरण की उपेक्षा होते ही दुराचरणों की बन आती है। कर्त्तव्य की उपेक्षा हुई नहीं कि अधिकार इस सीमा तक उग्र उद्दंड हो उठता है कि उसे निम्न स्तरीय सीमा तक उग्र उद्दंड हो उठता है कि उसे निम्न स्तरीय स्वार्थपरता के अतिरिक्त और कोई ना नहीं दिया जा सकता है।

प्रकृति का अकाट्य नियम है कि शालीनता की रक्षा होते रहने तक अदृश्य जगत मनुष्य के लिए अनुकूलताएँ और सुविधाएँ उत्पन्न करता रहता है। ऐसे ही सुसंतुलित समय को सतयुग कहते हैं। सतयुग में कोई व्यक्ति न तो विपन्न होता है। न उद्विग्न पर जब मर्यादाओं और वर्जनाओं के उल्लंघन का दुस्साहस उभरता है, तो बहिरंग जगत में भी प्रतिकूलताओं के आँधी तूफान चलने लगते है। समाज की व्यवस्था बिगड़ती है। शासक हो उठता है। धनिकों की लिप्सा आकाश चूमने लगती हैं। मनीषा का स्थान कुटिलता ले लेती है। मार्ग दर्शन करने वाली प्रज्ञा दुर्बुद्धि बन कर वेश्यावृत्ति अपनाने लगती है। वह उसी की वकालत करती है, जिसके पीछे न्याय नहीं होता। तर्क-कुतर्क में बदल जाता है। एक ही मनोरथ शेष रह जाता है कि जिस प्रकार भी बन पड़े- जितनी जल्दी संभव हो अधिकाधिक स्वार्थ साधन किया जाय। भले ही इस निमित्त हेय से हेय स्तर के कुकर्म क्यों न करने पड़े?

स्पष्ट है कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों को निरूपण करती है। प्रतिकूल परिस्थितियों का नाम ही संकट विग्रह एवं अनाचार है। इन दिनों यही सब घटाटोप बन कर उमड़ रहा है। समुद्र का जल ही बादल बन कर बरसता है। मनुष्य की दुर्बुद्धि ही दुष्कर्म बनती है और विपत्ति बन कर जन-जन को संत्रस्त करती है। इन दिनों हम सब इसी चक्रव्यूह में फँसे हुए हैं। कुविचारों का बाजीगर ही हमें कठपुतली की तरह निर्लज्ज नाच-नचा रहा है।

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