
प्रेम पियाला जो पिये, सीस दच्छिना देय!
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पौधों को जड़ों से खुराक न मिले और ऊपर से तेज धूप में झुलसना पड़े, तो उनका कुम्हला कर सूख जाना निश्चित है। भावनात्मक सरसता से अभिसिंचित होने का मनुष्य को अवसर न मिले तो वह नीरस होने लगता है, निराश और निष्ठुर भी। ऐसी मनःस्थिति में निर्वाह करना एक प्रकार का अभिशाप है। शरीर और निष्ठुर भी। ऐसी मनःस्थिति में निर्वाह करना एक प्रकार का अभिशाप है। शरीर से मनुष्य होने पर भी अन्तर से उसे श्मशानवासी भूतपलीत की स्थिति में रहना पड़ता है।
भावनाओं में प्रेम की उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए लौकिक और आध्यात्मिक स्तर के अनेक प्रयोग जाने अनजाने किये जाते हैं, पर वे उत्कृष्टता की कसौटी पर खरे न उतरने के कारण आधे-अधूरे काने-कुबड़े होकर रह जाते हैं। सफलता के उस स्तर तक नहीं पहुँच पाते, जहाँ सहज सरसता का रसास्वादन उपलब्ध हो सके।
आत्म-कल्याण के लिए पूजा-अर्चा के अनेक विधि विधान अनेकों द्वारा अपनी-अपनी मान्यता, परम्परा के अनुरूप किये जाते हैं। किन्तु देखा गया है कि वे प्रगति पथ पर चल नहीं पाते। ऊब आने लगती है। चंचलता हैरान करती है। लकीर पीटने की तरह कुछ क्रिया कृत्य तो कर लिये जाते हैं पर न तो संतोष होता है और न आनन्द आता है। किसी प्रकार चिन्ह पूजा होती रहती है। इस अधूरेपन का एक ही कारण है कि उसमें भक्ति भावना का समावेश नहीं रहता। जिसकी पूजा की जा रही है, उसके साथ प्रेमाशक्ति नहीं जुड़ती।
यहाँ यह समझ लेने की आवश्यकता है कि प्रेम की प्रतीति यत्किंचित् उपहार देने या मनुहार करने मात्र से नहीं बन पड़ती। इसके साथ सेवा सहायता का पुट जुड़ा रहना आवश्यक है। भजन संस्कृत की भज्, धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है-सेवा। भजन पूजन उसी को कहना चाहिए, जिसके साथ सेवा साधना जुड़ी हुई है।
भगवान की सेवा सहायता क्या हो सकती है? इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि उसके विश्व उद्यान को हरा-भरा फला-फूला बनाने के लिए सृष्टा का हाथ बँटाना सेवक का एक ही कृत्य होता है। स्वामी के कार्यों में हाथ बँटाना, उसकी मर्जी के अनुरूप मनोयोग पूर्वक श्रम करना। भजन पूजन अच्छी बात है, पर वह मात्र कर्मकाण्डों तक सीमित नहीं होना चाहिए। नियन्ता की दृष्टि बड़ी पैनी है। वह अन्तरंग की भक्ति भावना को प्रेम साधना को परखता है। वह यह नहीं देखता कि उसकी प्रतिमा को निखारने, पखारने में कितना श्रम किया गया। विधि विधान में कितना समय लगाया गया। प्रेम का अर्थ है प्रिय पात्र की आवश्यकता को पूरा करना। इसका दुहरा लाभ है, जहाँ प्रिय पात्र को अपने काम में हाथ बँटाने की प्रसन्नता होती है, वहाँ सेवाधर्मी-प्रेम पुजारी को भी कम आनन्द नहीं होता। प्रेम जहाँ भी प्रकट होता है, वहाँ हरीतिमा लहलहाती और उल्लासदायिनी सुगंध भर जाती है। निर्झर जहाँ से भी फूटता उमँगता है, वहाँ दूर-दूर तक शीतलता सरसता, हरीतिमा उभर उठती है। यही बात प्रेम के संबंध में है। जब वह ईश्वर के माध्यम से उगता उठता है तब उसे भक्ति कहते हैं। उच्चस्तरीय प्रेम का नाम ही भक्ति है। उसमें प्रिय पात्र के साथ इतनी घनिष्ठता होती है कि बिना सेवा सहायता किये मन का समाधान ही होती है कि बिना सेवा सहायता किये मन का समाधान ही नहीं होता। जिसने प्रेम को अपनाया वह न तो नीरस रह सकता है, न निष्ठुर, न निराश, अपनी मनःस्थिति ही उसे उल्लास में डुबोये रहती है।
लौकिक प्रेम का सर्वोत्तम स्वरूप तो सत्प्रवृत्ति संवर्धन, लोक मानस के परिष्कार जन-जागरण, तथा असमर्थ, विपत्तिग्रस्तों की सेवा सहायता करने में ही है। इसमें व्यक्ति विशेष से लगाव नहीं होता, वरन् परिस्थितियों को सुधारने में मन उल्लसित रहता है। ऐसे अवसर कहीं भी कभी भी मिल जाते हैं। सेवा के लिए सुविस्तृत क्षेत्र खुला पड़ा है। दृष्टि पसारते ही ऐसे अगणित व्यक्ति आस-पास ही दीख पड़ते हैं, जिन्हें उठाये जाने की, बढ़ाये जाने की आवश्यकता है। निस्वार्थ भाव से अपने से पिछड़े लोगों का ऐसा एक बड़ा समुदाय अपने इर्द-गिर्द ही मिल सकता है, जिन्हें साधन सहयोग की ही तरह दृष्टिकोण को परिष्कृत करने वाले परामर्श की आवश्यकता है। किसी के माँगने पर ही सहयोग उपलब्ध कराया जाय, इसकी प्रतीक्षा में बैठे रहने की जरूरत नहीं। जहाँ भी अपनी पहुँच है वहाँ पिछड़ेपन को सहज ही सुधारा जा सकता है और इस प्रकार का प्रयत्न किया जा सकता है कि बिना अपना अहंकार जताये, बिना अहसान दिखाये, अपनी सम्भव सेवा प्रस्तुत की जा सके, इस प्रकार की प्रक्रिया जब जिस मात्रा में जिस भाव संवेदना के साथ प्रस्तुत की जा सके। समझना चाहिए कि वहाँ उतनी ही भक्ति बन पड़ी और उस आधार पर दैवी अनुकम्पा की सम्भावना बढ़ी।
व्यक्ति विशेष से राग-द्वेष प्रायः स्वार्थ सिद्धि अथवा अड़चन के कारण उत्पन्न होता है। जिससे अपना मतलब सधता है, या साधने के आशा होती है, वही प्यारा लगता है। जो सहमत, सहायक नहीं होता उसकी अपेक्षा होने लगती है। कभी-कभी तो विरोध विग्रह भी खड़ा हो जाता है। यह प्रक्रिया लोक व्यवहार में आये दिन चलती रहती है। आज के मित्र कल शत्रु, आज के शत्रु कल मित्र बनते रहते हैं। यह स्वार्थ सिद्धि के उतार-चढ़ाव की विडम्बना मात्र है।
प्रेम के साथ आदर्शों का जुड़ा रहना आवश्यक है। उसमें प्रिय पात्र की इच्छा पूर्ति का नहीं हित-कामना का पुट रहता है। पत्नी से यदि सच्चा प्यार है, तो तत्काल यह विचार उठेगा कि उसका हित साधन किसमें है। जो दूरदर्शिता की कसौटी पर खरा उतरता हो उसी निर्धारण को क्रियान्वित किया जाना चाहिए। भले ही इसमें अपनी ललक-लिप्सा पर अंकुश लगाना पड़ता हो। स्पष्ट है कि कामुकता का आवेग सच्चे प्रेम की किसी भी प्रकार पूर्ति नहीं करता। इस उत्साह के अतिवाद में पत्नी को अनेकों रोग लग जाते हैं। उसके शरीर को असाधारण क्षति पहुँचती है और यौवन की स्थिरता सुन्दरता, दीर्घायुष्य में भारी कमी पड़ती है। इच्छा की पूर्ति में नहीं हित साधना में प्रेम की गहराई और वास्तविकता सन्निहित है।
मित्रों से, सम्बन्धियों से, परिजनों से, अधिक सान्निध्य रहने के कारण घनिष्ठता बढ़ती है। साथ ही प्रेम भाव का भी रिश्ता बनता है। यह प्रकृति प्रेरणा है। पशु, पक्षी भी साथ-साथ रहने पर एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते और सान्निध्य में प्रसन्नता व्यक्त करते हैं मनुष्यों के बीच भी यह प्रवृत्ति पाई जाती है। किन्तु यह सामयिक मित्रता है।
जहाँ आदर्श साक्षी है, वहाँ छाँव भले ही ध्यान से उतर जाय, पर कर्त्तव्य सदा सुस्थिर बने रहते हैं। अग्निकाण्ड, दुर्भिक्ष, महामारी, बाढ़, भूकम्प जैसी दुर्घटनाओं का समाचार मिलते ही दयालू, कर्त्तव्यपरायण उनकी सेवा सहायता हेतु दौड़ पड़ते हैं। बदले में कुछ अपेक्षा नहीं रखते। इस कर्त्तव्य प्रेम को ही सच्चा प्रेम कहते हैं। उसमें दयालुता और आदर्शवादिता जो जुड़ी होती है।