
संतुलित रहें, प्रसन्न रहें
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धनुष, बाण चलाने वाले यह नियम भी जानते हैं कि खाली समय में डोरी को खुला छोड़ा जाय। जो कमान हर समय कसी रहेगी उसकी दूर तक तीर फेंकने की शक्ति चली जायगी। ठीक यही बात शरीर और मन के संबंध में भी है। यदि हर घड़ी व्यस्त रहा जाय तो शरीर थक कर चूर हो जायगा और फिर ढर्रे का सीमित काम निपटाने के अतिरिक्त इतनी सामर्थ्य शेष न रहेगी कि नये उत्साह के साथ नया कार्य भली प्रकार आरम्भ कर सकें।
जीवन में भली और बुरी दोनों ही प्रकार की परिस्थितियों का आना जाना बना ही रहता है। रात और दिन की तरह परिवर्तन का क्रम भी बना रहता है। देखना यह है कि उनमें से किन पर अधिक ध्यान दिया जाता है। यदि अनुकूलताओं की गणना की जाय तो प्रतीत होगा कि कुछ वस्तुओं का अभाव रहने पर भी जितना कुछ उपलब्ध है वह कम नहीं है। उसके लिए भी असंख्य व्यक्ति तरसते हैं।
यदि उपलब्धियों की गणना की जाय तो अपने भाग्य को सराहने का अवसर मिलेगा। इसके विपरीत यदि काला पक्ष देखने की आदत हो, प्रतिकूलताओं को ही गिना जाय और अनुकूलता का विस्मरण करते रहा जाय, तो प्रतीत होगा कि हम पूरी तरह कठिनाइयों के जाल जंजाल में फँसे हुए है। जिधर नजर उठाकर देखा जाय उधर ही निष्ठुर रूखे और उपेक्षा करने वाले ही दीख पड़ेंगे और चित्त खिन्न रहने लगेगा। इसके विपरीत यदि स्वभाव बदल जाय तो प्रतीत होगा कि उन्हीं की संख्या बढ़ी-चढ़ी है। प्रतिकूलताएँ तो केवल सतर्क रहने और प्रयासों में कमी न पड़ने देने की चेतावनी भर देने के लिए आती है। चेतावनी भर को विपत्ति मान बैठना भूल है।
काम की अधिकता से कोई थकता नहीं। थकान तो तब आती है, जब उसे बेगार भुगतने, बाधित रूप से लादा गया भार मानकर किया जाता है। बच्चे उठने से लेकर सोने तक कूदते फाँदते ही रहते हैं। खिलाड़ी मैदान में पूरी चुश्ती और मस्ती के साथ प्रवृत्ति होते हैं। उन्हें श्रम कम नहीं पड़ता, पर मनोरंजन की दृष्टि रहने से कुछ भी खलता नहीं, वरन् वैसे ही अवसर बार-बार मिलते रहने की इच्छा बनी रहती है। किसान अपने कामों में सुबह से लेकर गई रात तक लगे रहते हैं और काम निपटने पर गहरी नींद सोते हैं। इसी ढर्रे पर उनका जीवन क्रम हँसते-हँसाते हुए चलता रहता है। मजूर को-बेगारी को-काम को भार समझने की चिढ़ हो सकती है, किन्तु मालिक अपना काम समझकर करता हैं और मजूर से दूना काम कर लेता है। इतने पर भी उसे थकान नहीं सताती।
जीवन में शिकायतों जैसे अवसर नहीं आते। यह नहीं कहा जा रहा। संसार की बनावट के अनुरूप प्रतिकूलताओं का अस्तित्व भी रहेगा ही। यदि वह न रहे तो मनुष्य की सूझ-बूझ और साहसिकता को ही जंग लग जायगी। सफलताओं का अपना सुख है और असफलताओं के पीछे भूल सुधारने का उपयोगी प्रशिक्षण।
दोनों ही परिस्थितियों में अपने को संतुलित रखना चाहिए। सुख का सदुपयोग करना चाहिए और संकट को निरस्त करने के लिए उनसे जूझकर अपनी प्रतिभा निखारनी चाहिए। शरीर और मन को उत्तेजित करना, उद्विग्न रहना स्वभाव का ऐसा दोष है, जिससे मनुष्य दिनों-दिन दुर्बल और अक्षम बनता जाता है।