
गायत्री सर्व कामधुक्
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गायत्री माहात्म्य के अंतर्गत एक कथा आती है कि नारायण तीर्थ नामक स्थान में महर्षि शाकल्य का आश्रम था। उसमें एक हजार विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करते थे। एक दिन आवर्त देश के राजा सुप्रिय उस आश्रम में पहुँचे और बोले-”जिस साधना के आधार पर आप सिद्ध पुरुष बने हैं, उसे मैं भी सिद्ध करना चाहता हूँ। आप मुझे भी उसकी शिक्षा दीजिये।”
महर्षि ने कहा-”यह साधना चमत्कारी तो है, पर हर कोई उसे कर नहीं सकता। विशेषतया जिनका जीवन राजसी आदतों में ढला है, जो संयम रहित है, वे इसे करने पर भी सफल नहीं हो सकते, तुम तपश्चर्या में प्रवृत्त कैसे हो सकोगे?”
राजा को निराश देखकर उसकी आशा जागृत रखने के लिए ऋषि ने अपने कमण्डलु में से गायत्री में अभिमंत्रित जल एक सूखे ठूँठ पर छिड़का। देखते-देखते वह हरा हो गया। इस चमत्कार को देखकर राजा सोचने लगे कि मैं भी आत्मिक दृष्टि से सूखे ठूँठ की तरह हूँ। क्यों न ऋषि का शिष्यत्व प्राप्त करके इसी तपोवन में रहकर साधना करूं।
राजा शासन का प्रबन्ध परिवार के लोगों को सौंपकर जल्दी ही आये। उनने वहीं उसकी साधना की और उसका सत्परिणाम प्राप्त किया।
स्वामी विद्यारण्य जी दक्षिण भारत के एक माने हुए विद्वान थे। स्वामी जी ने विद्याध्ययन के अतिरिक्त 24 गायत्री महापुरश्चरण भी किये थे। उनके आशीर्वाद से अनेकों का कल्याण हुआ। विजय नगर के राजकुमारों ने अपना खोया राज्य फिर से प्राप्त किया।
उनने चारों वेदों का भाष्य ब्राह्मणों, उपनिषदों-दर्शनों, गीताओं, तंत्रों के भाष्य किये जो बड़े प्रामाणिक माने जाते हैं।
उनके भक्तजनों ने अनेक प्रकार के चमत्कार देखे और लाभ उठाये। अन्त में वे श्रृंगेरी पीठ के अधिपति के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
गायत्री साधना को समस्त कामनाओं की पूर्ति हेतु समय-समय पर मनीषियों द्वारा किया जाता रहा है। इससे उनके मनोरथ भी पूरे हुए हैं, साथ ही विश्व की तात्कालीन परिस्थितियों में परिवर्तन भी आया है।
एक कथा है कि स्वयंभू मनु और शतरूपा रानी ने गायत्री का महान तप किया। माता ने प्रसन्न होकर पूछा-तुम लोग क्या चाहते हो?
दोनों ने प्रणाम करके उनकी स्तुति की और कहा-”देवि! हम लोग भगवान को बार-बार अपनी गोदी में खिलाना चाहते हैं।”
देवी ने कहा-”यह लाभ तुम्हें अगले जन्मों में मिलेगा।”
पौराणिक कथा है कि दूसरे जन्म में वे दशरथ और कौशल्या बने और राम उनकी गोद में खेले। पश्चात् वे नन्द और यशोदा बने और भगवान कृष्ण को गोद में खिलाकर धन्य हुए। साथ ही युगपरिवर्तन जैसा महान प्रयोजन पूरा करने के भी वे श्रेयाधिकारी बने।
एक बार सुदूर क्षेत्रों में महान् दुर्भिक्ष पड़ा। सर्वत्र त्राहि त्राहि मच गई। मनुष्य और पशु पक्षी आहार और जल के अभाव में बेमौत मरने लगे।
किन्तु उस बीच भी महान् गायत्री उपासक महर्षि गौतम के आश्रम का समीपवर्ती क्षेत्र हरा भरा था और उस छोटे क्षेत्र में किसी बात की कमी नहीं थी।
गौतम को इतने भर से संतोष न हुआ। वे समूची जनता का कल्याण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कठोर गायत्री साधना का तप संपन्न किया। माता ने प्रसन्न होकर उन्हें एक पूर्ण पात्र दिया। जिसमें से अजस्र मात्रा में खाद्य सामग्री निकलने लगी। समयानुसार वर्षा हुई और दुर्भिक्ष दूर हो गया।