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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
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साँस साँस में, रोम रोम में बसते हैं भगवान

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कठोपनिषद् की भृगु बल्ली में यम और नचिकेता का संवाद आता है। यम जानना चाहते हैं कि राजकुमार की जिज्ञासा कहीं कामनावश तो नहीं है। किन्तु जो आकाँक्षा नचिकेता ने व्यक्त की थी वह सचमुच उसे ब्रह्मविद्या का अधिकारी सिद्ध करने में समर्थ हुई। समर्थ गुरु यमाचार्य से प्राप्त करने योग्य एक ही वस्तु थी, उसके लिए नचिकेता ने कहा-

अन्यत्र धर्मान्दयत्राधर्मादन्यभास्मात्कृताकृतात्। अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद् वद्॥

अर्थात्-”हे भगवान! जो धर्म-अधर्म, कृत-अकृत और कार्य कारण के बंधन से रहित है’ भूत, भविष्य और वर्तमान की काल सीमायें जिसे बाँधने में समर्थ नहीं है, उस ब्रह्म-तत्व का उपदेश मुझे दीजिए।”

ईश्वर-दर्शन की आकाँक्षा मनुष्य की सम्पूर्ण कामनाओं से बढ़कर है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है, किन्तु यह आकाँक्षा इतनी प्रबल हो कि उसके समक्ष साँसारिक प्रलोभनों का प्रभाव मिट जाय। सच्ची जिज्ञासा से ही भगवान मिलते हैं। इस आँतरिक भूख, आत्म तत्व की प्राप्ति की प्रबल आकाँक्षा की परीक्षा यमाचार्य ने इस तरह की-

एतत्तुल्यं यद नन्यसे वरं वृणीष्य वित्तं चिरजीविकाँ च। महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानाँ त्वा काममाजं करोमि॥

“हे नचिकेता! धन-वैभव और चिर-काल तक जीवन आदि जो कुछ चाहो, इस आत्म ज्ञान संबंध वर के बदले में माँग लो, तुम इस भूलोक में महान ऐश्वर्यशाली बनो, मैं तुम्हें सम्पूर्ण भोगों को भोगने में समर्थ बनाये देता हूँ।”

यह परीक्षा हर ईश्वरनिष्ठ के समक्ष आती है। पग-पग पर प्रलोभन और आकर्षण अपनी ओर खींचते हैं। मनुष्य काम-वासना की ओर, धन-वैभव और वस्तु साधनों के उपभोग के सुख प्राप्त करने के लोभ में अपने जीवन-लक्ष्य से गिर जाता है। ईश्वर प्राप्ति की आकाँक्षा प्रबल न हुई तो साँसारिक प्रलोभनों के आगे मनुष्य एक पल भी टिक नहीं सकेगा। हमारी ब्रह्म-दर्शन की आकाँक्षा इतनी प्रबल हो कि यमाचार्य के रूप में मौत की छाया हर क्षण आँखों के आगे घूमती रहे और जब भी कोई साँसारिक वासना जागृत हो तो उस मृत्यु से हमारे अन्तःकरण का नचिकेता यह कह सके-”यत्तत्पश्यसि तद्वद”-हे मृत्यु! “जिससे देखती हो, मुझे उसका ही उपदेश दो” अर्थात् मृत्यु को ध्यान में रखकर उस परम अविनाशी तत्व को ही प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे।

क्षणिक सुख के लिये अपने जीवन लक्ष्य को भूल जाना बुद्धिमानी नहीं मान सकते। साँसारिक कामनायें अमृत तत्व की प्राप्ति नहीं करा सकतीं। उनको प्राप्त कर लेना किसी प्रकार श्रेयस्कर हो नहीं सकता। मनुष्य अपनी मूल सत्ता से बिछुड़ जाने के कारण दुःखी है। चिरन्तन शान्ति के लिए उसी परमात्मा की ही शरण लेनी चाहिए।

शरीर के भीतर ही प्रकाश स्वरूप परमात्मा अवस्थित है। सत्य-भाषण, तप, ब्रह्मचर्य और यथार्थ ज्ञान से उसकी प्राप्ति संभव है। सब तरह के दोषों से विमुक्त हो कर ही मनुष्य उसे प्राप्त कर सकता है। यह धारणा गहराई तक हमारे हृदय में प्रविष्ट हो। आकाँक्षा जिस क्षण शिथिल हो जाती है उसी समय वासनाओं के तीखे आघात मनुष्य को परेशान करने लगते हैं। शक्ति का मुकाबला शक्ति से किया जाता है। लोहे को काटने के लिए लोहे की ही छैनी बनानी पड़ती है। कुटिल विचारों और कुत्सित कर्मों को मार भगाने के लिए प्रबल-आकाँक्षा की गदा हर समय तैयार रहनी चाहिए।

भगवान कृष्ण का आदेश है-

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमष्यक्सं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमरसं धु्रवम्॥ संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र सममुद्रयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्व भूतहिते रतः॥

अर्थात्-इन्द्रियों के विषयों को वश में रख कर, सर्वत्र समत्व का पालन करते हुए जो दृढ़, अचल और अचिन्त्य सर्वव्यापी अवर्णनीय और अविनाशी स्वरूप की उपासना करते हैं, वे सब प्राणियों के हित में लगे हुए मुझे ही पाते हैं।” यहाँ ईश्वर के प्रति निष्ठा और परोपकार का समन्वय किया गया है। निष्काम-कर्म का यही स्वरूप है कि मनुष्य उस परमात्मा पर अटल विश्वास रखकर कामना रहित कर्म करे।

कर्म करते हुए मनुष्य से अज्ञान-वश त्रुटियाँ हो सकती हैं, किन्तु निष्काम भावना के कारण उसके सात्विक लक्ष्य पर किसी तरह का आक्षेप नहीं आता। लक्ष्य की स्थिरता ईश्वर के प्रति अनन्य भाव रखने से आती है। दोषों, त्रुटियों और भूलों से बचाव करना भी ईश्वरीय-ज्ञान के प्रकाश से ही सम्भव है।

साँसारिक आघातों से विकल होकर जब मनुष्य परमात्मा की शरणागति प्राप्त करता है, तब हृदय की भावनाओं में परमात्मा की प्रेरणायें और उसके निर्देश प्राप्त होने लगते हैं। समर्पण या शरणागति का भाव जितना सजीव होगा, परमात्मा की अनुभूति भी उतनी ही प्रखर होगी।

कोतवाल के साथ रहने पर जिस तरह चोरों का भय नहीं सताता, उसी प्रकार साँसारिक भव-बंधनों से वही निवृत्त रह सकता है जिसके हृदय में परमात्मा का प्रकाश ओत-प्रोत हो रहा है वह ब्रह्म ही सम्पूर्ण शक्तियों का स्वामी, सारी सृष्टि का नियामक और कारण स्वरूप है।

आत्मा चेतन पदार्थ तो है, किन्तु वह सत्ता मात्र होने के कारण स्वतः क्रियाशील नहीं है। किन्तु आत्म-ज्ञान से मनुष्य अपने आपको परमात्मा में मिला देना सीख जाता है। ईश्वर की सत्ता में अपने आपको विलीन कर देने से मनुष्य को ईश्वरीय शक्तियों का अनुभव होने लगता है। उस समय उसके सारे विकार मिट जाते हैं और अनिवर्चनीय आनन्द की सुखानुभूति होने लगती है। जो कुछ भी शक्ति, सामर्थ्य और सम्पन्नता है वह परमात्मा में हैं उसके पास बैठने के कारण ही यह श्रेष्ठतायें मनुष्य में भी आ जाती हैं इस नियम को भूल जाने के कारण ही क्षुद्र बन जाता है। परमात्मा को याद बार-बार न करते रहें, उसे अपने जीवन का अंग न बना लें तो जड़ता आ जाना संभव है। यही उपासना की पृष्ठभूमि भी है।

संसार में रहकर मनुष्य तरह-तरह की कामनायें किया करता है। जिधर उसे सौंदर्य, सुख और संतोष दिखाई देता है, उधर ही वह चल पड़ता है, किन्तु विवेक की कसौटी यह है कि जो कुछ सत्य है, वही ग्रहणीय है। जिससे अन्तःकरण की मलिनतायें मिट जाती हो वही अभीष्ट है। वह तत्व आत्म-तत्व ही हो सकता है। विचार के द्वारा इस आवश्यकता को समझ तो सकते हैं, एक क्षीण-सी जिज्ञासा भी उठती है इसके लिए, किन्तु सुखों की प्रतिद्वन्द्विता में आत्म-ज्ञान की आकाँक्षा मूर्छित रह जाती है। किसी एक लक्ष्य को प्रधान बनाये बिना काम चलता नहीं। इसलिए यह बात भली प्रकार विचार कर लेने की है कि हमारा लक्ष्य क्या है?

ईश्वर को प्राप्त करना और अन्तःकरण में ईश्वरीय प्रकाश जागृत करना ही मनुष्य जीवन का ध्येय है। इस मार्ग में विघ्न-बाधायें आती हैं, किन्तु जिनके विचारों में निष्ठा होती है, जो प्रबल जिज्ञासा रखते हैं और जिनकी आकाँक्षायें इतनी बलवान होती हैं कि दुनिया की कठिनाइयों से सहज ही मुकाबला कर सकें, वे अपना जीवन ध्येय पूरा कर लेते हैं। परमात्मा बहुत दूर नहीं है, वह हमारे समीप, हमारी साँस में समाया हुआ है। उसे प्राप्त किया जा सकता है पर इसके लिए साधक की आकाँक्षा-अत्यन्त प्रबल होनी चाहिए।

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Type: SCAN
Language: HINDI
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