
साहस और पराक्रम प्रकृति से सीखें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कठिनाइयाँ और प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं, तो उनके साथ व्यक्ति में एक ऐसी व्यग्रता एवं साहसिकता का भी अनायास प्रादुर्भाव होता है, जो उसे सहज ही उन परिस्थितियों से उबार लेती हैं। प्रकृति से सुरक्षा प्रेरणा मनुष्य में ही नहीं, अन्य प्राणियों, पशु-पक्षियों और निर्बल कीड़े-मकोड़े तक में पायी जाती है। ऐसी कई घटनायें जानने में आयी हैं, जब इस प्रकृतिदत्त प्रेरणा प्रवाह से असहाय, अशक्त और कुछ न कर सकने की स्थिति में भी जानवरों ने चौंका देने वाला संघर्ष किया और उन्हें परास्त किया।
टेक्सास (अमेरिका) के प्राणी शास्त्र विशेषज्ञ एच.सी. डाँन ने एक ऐसी ही घटना का उल्लेख एक निबन्ध में किया था। किसी दिन वे जीव-जन्तुओं की विभिन्न प्रवृत्तियों का अध्ययन करने के लिए टेक्सास के निकटवर्ती जंगलों में गये हुए थे। एक झाड़ी के पास उन्होंने चूहों की चीख और सरसराहट सुनी। दौड़कर वे उस स्थान पर पहुँचे तो देखा कि पाँच फुट लम्बे एक साँप के मुँह में दबा हुआ चूहा मुक्त होने का प्रयत्न कर रहा है। वह छटपटाते हुए चीख भी रहा था। तभी एक दूसरा चूहा, पास के बिल से निकला और साँप पर हमला करने लगा। वह कभी उसकी दुम काटता, कभी पीठ। साँप की देह पर जगह-जगह काटते-काटते चूहे ने आखिर उसकी दुम पकड़ ली और मुँह में दबाने लगा। साँप ने कई पलटे खाये, फुफकार मारी मगर सब व्यर्थ। अन्त में साँप ने घबड़ा कर आक्रमणकारी चूहे का सामना करने के लिए मुँह में दबे हुये चूहे को छोड़ दिया। जैसे ही वह चूहा मुक्त हुआ और साँप पीछे मुड़ा दोनों बड़ी तेजी से भाग कर बिल में घुस गये। निर्बल कहे जाने वाले प्राणी भी अपने परिवार के संकटग्रस्त साथियों को देखकर उत्तेजित हो उठते हैं। ऐसे अवसरों पर वे बड़े साहस से काम लेते हैं। उनसे कई गुने शक्तिशाली पशु को भी उनके सामने घुटने टेक देते पड़ते है। फिर मनुष्य ही क्यों कर प्रतिकूलताओं में घबड़ा जाता है, समझ नहीं आता।
बम्बई की नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी की ओर से प्रकाशित एक पत्रिका में क्राम्पटन फ्राँजर ने एक और ऐसी ही घटना का वर्णन किया था। उन्होंने एक बार देखा कि एक बड़े पीपल के वृक्ष पर ऊँची शाखाओं से लिपटे हुए एक साँप पर पाँच छः तोतों ने आक्रमण किया। शायद उस साँप ने किसी तोते को अपना आहार बना लिया था। भिन्न-भिन्न दिशाओं से तोतों ने प्रहार करना आरम्भ किया। वे अपनी पैनी चोंचों से साँप पर हमला करते और उड़ जाते। बेचारा साँप तिलमिला कर रह जाता, कुछ समय बाद तोतों ने व्यूह रचना बदली और साँप पर तीव्र आक्रमण किया। एक तोते ने उसे बीच से दबोच कर खींच लिया। इतने से ही साँप की दुम डाल से छूट गयी और वह नीचे पथरीली जमीन पर बड़ी जोर से गिरा एवं उसके प्राण पखेरू उड़ गये। उत्पीड़न और प्रतिशोध के लिए भी कई बार निर्बल पशु-पक्षी आश्चर्यजनक रूप से साहसी बन जाते हैं।
खरगोश यों तो बड़ा डरपोक और भीरु पशु होता है। परन्तु मादा खरगोश अपने बच्चों पर किसी प्रकार का संकट आते देख बड़ी खूँखार होती देखी गयी है। एक बार एक शिकारी कुत्ते ने आसन्न प्रसूता मादा खरगोश के बच्चों को पकड़ने के लिए उन पर आक्रमण किया। उन बच्चों की माँ वहीं उपस्थित थी। नवजात शिशुओं पर संकट आया देख उसने शिकारी कुत्तों के मुँह पर अपनी पिछली टाँगों से इतना करारा प्रहार किया कि कुत्ते भागते ही बने।
इसी प्रकार एक बार मौका पाकर एक लोमड़ी ने बतख के बच्चों को धर दबोचा। बच्चे बुरी तरह चीखने लगे। उनकी चीख-कराह सुनकर पास से ही बच्चों की माँ दौड़ी आयी और अपनी चोंच से लोमड़ी को नोंचने लगी। उसके अंग प्रत्यंग आक्रमणकारी लोमड़ी का सामना कर रहे थे। पंखों की मार से उसने लोमड़ी को परेशान कर डाला। इस प्रत्याशित आक्रमण से घबराई लोमड़ी बच्चों को छोड़कर भाग निकली। अंदर साहस का माद्दा हो तो कितना ही खतरनाक दुश्मन हो, जूझा जा सकता है।
संकटग्रस्त अवस्था में खूँखार आक्रमणकारी पशुओं का सामना करने का बल निरीह और अल्प शक्ति वाले जानवरों में न जाने कहाँ से आता है? आगरा उ.प्र. के निवासी एक कृषक की आँखों देखी घटना का विवरण पिछले दिनों समाचारपत्रों में छपा था। उक्त कृषक की कुछ गायें जंगल में चर रही थीं, तभी पास की झाड़ी से एक चीता निकला और गाय पर हमला बोल दिया। चीते की गंध पहचान कर ही गाय ने जोर से हुँकार भरी और उसका आक्रमण होने से पूर्व ही चीते पर प्रत्याक्रमण कर दिया। हुँकार सुनकर पास में ही चर रही एक गाय चुपचाप चीते के पीछे पहुँची और उसकी पीठ पर इतनी जोर से सींग का प्रहार कर उछाला कि चीता चारों खाने चित्त गिरा। सम्भल कर उठने से पूर्व पहले वाली गाय ने पुनः हमला किया और अपने सींग उसके पेट में घुसेड़ दिये।
मात्र बाहरी आक्रमण या अन्य पशु पक्षियों द्वारा उत्पन्न की गयी घातक परिस्थिति ही नहीं, प्राकृतिक और अन्य आपदायें भी इनमें अद्भुत शौर्य साहस पैदा कर देती हैं। वे प्राणी जो आग और पानी के पास भी जाने से डरते हैं। तीव्र लपटों और भयंकर बाढ़ों को पार करते देखे गये हैं। मद्रास की एक सरकस की घटना है। असावधानी के कारण सरकस के तम्बू में आग लग गयी। तीव्र लपटों और भीषण शोलों से स्वयं को बचाने में सब भाग-दौड़ करने लगे। दर्शक और सरकस के कर्मचारी अपने स्वजन बान्धवों और सम्पत्ति साधनों की चिन्ता छोड़कर भागने लगे। ऐसी दशा में निरीह पशु-प्राणियों की किसे चिन्ता होती? बेचारे जानवर भी अपनी जान बचाने की कोशिश में भाग दौड़ करने लगे और सब तो जैसे तैसे निकल गये परन्तु पिंजड़े में बंद एक शेरनी छटपटाती रही। शेर आग से बड़ा डरता है। उसके साथ बच्चे भी थे। स्वयं अकेली का कोई बस न चलते देख शेरनी ने पिंजड़े से ही एक जोर का छलाँग लगायी और बाहर आ गयी। अपने एक बच्चे को मुँह में दबाकर वह बाहर भागी। इसी प्रकार दूसरे बच्चे को लेने पुनः अंदर आयी व उसे लेकर भी सुरक्षित बाहर आ गयी।
उपरोक्त घटनायें सिद्ध करती है कि साहस और शौर्य प्रत्येक प्राणी में प्रचुर और प्रचण्ड मात्रा में विद्यमान है। दूसरे संस्कारों की प्रबलता के कारण भले ही वह हर समय सामने न आये परन्तु है अवश्य। सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट कृति और परमात्मा के सर्वाधिक सन्निकट होने के कारण मनुष्य में तो ये गुण और भी अधिक मात्रा में होना चाहिए। हैं भी। उनका सुनियोजित करने की कला आना चाहिए।
विशेष परिस्थितियों में आकस्मिक रूप से परिजनों, साथियों के प्रति प्रेम और वात्सल्य की प्रेरणा निर्बल, असहाय और दयनीय स्थिति वाले पशु पक्षियों को भी इतना साहसी बना देती हैं, तो क्या कारण हैं कि मनुष्य पग पग पर शौर्यहीन, कायर और भीरु बना रहता है। निःसन्देह इसका कारण आत्मसत्ता के प्रति अविश्वास और आत्यंतिक स्वार्थलिप्सा ही है। जब व्यक्ति को केवल अपनी ही चिन्ता, अपना ही हित, अपना ही भला दिखाई देता है तो वह दुनिया का सबसे निर्बल और असहाय प्राणी बन जाता है और उसका सम्पूर्ण जीवन अस्वाभाविकताओं से भरे संघर्षों के कारण अभिशाप बन जाता है। शौर्य और साहस का अभाव, स्वार्थ-लिप्सा और पद-पद पर पाये जाने वाले संघर्ष वस्तुतः मनुष्य के मूल स्वभाव के प्रतिकूल ही तो हैं। यदि इन अस्वाभाविकताओं को दूर किया जा सके तो साहसिकता और पराक्रम कोई प्राप्तव्य गुण नहीं रह जाएँगे। वे तो इस अँधेरे के दूर होते ही स्वयं ही जाएँगे।