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Magazine - Year 1987 - Version 2

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आश्चर्यजनक किन्तु सत्य!

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प्रकृति का ढर्रा एक सामान्य क्रम से लुढ़कता दीखता है, किन्तु कितनी बार ऐसे दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं जिनके रहस्यों का पता लगाना कठिन पड़ता है। यों वैज्ञानिकों का कहना है कि ये अचरज भी किन्हीं ऐसे प्राकृतिक नियमों के अंतर्गत होते हैं, जिनके वास्तविक कारणों को जानने में हम अभी समर्थ नहीं हो सके हैं।

सन् 1857 हमारे लिए गदर की लड़ाई के नाम से महत्वपूर्ण है, किन्तु अमेरिकावासियों के लिये कुछ और कारणों से यह यादगार वर्ष है। इस वर्ष कैलीफोर्निया की नापा काउण्टी में कई दिनों तक ऐसा पानी बरसा जो शरबत से भी अधिक मीठा था। कुछ लोगों ने तो इसे भावी उपयोग के लिये बड़े-बड़े पात्रों में जमा कर लिया और कई दिनों तक शरबत के रूप में उसका सेवन करते रहे। वैज्ञानिकों का मत था कि पानी में घुली हुई मिश्री इसका कारण थी। प्रकृति की इस अबूझ पहेली को वैज्ञानिक अब तक सुलझा नहीं पाये है।

19 वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड के लन्दन शहर में हुई कुत्तों व बिल्लियों की वर्षा बहुचर्चित रही है। तब से ही उस कहावत ने जन्म लिया-’इट इज रेनिंग कैट्स एण्ड डाँग्स’। 28 मई 1881 के दिन इंग्लैण्ड के वर्सेस्टर शायर के परिसर में गरजते तूफान के साथ टनों कैंकड़े और घोंघे गिरते देखे गए। वहाँ के निवासी उन्हें समेट कर विक्रय हेतु मण्डी में ले गये।

‘ला साइंस पोरटाँस’ में सिंगापुर में घटी एक ऐसी ही घटना का विवरण छपा है। 16 फरवरी 1861 को इतनी मूसलाधार वर्षा हुई कि समुद्र अपनी मर्यादाओं को लाँघकर शहर की गलियों तक जा पहुँचा। थोड़ी देर बाद पानी उतर गया, पर ढेरों मृत मछलियाँ सड़क पर पड़ी मिलीं।

जीवित मछलियों के वर्षा के पानी के साथ गिरने के प्रमाण भी वेल्स इंग्लैण्ड में मिलते हैं।

11 फरवरी 1859 को वेल्स की एक पहाड़ी पर कार्यरत जॉन लेविस ने अपने निकटवर्ती शहर अबेरडार के पादरी को बताया कि दोपहर को खेत पर काम करते समय अचानक उसकी पीठ पर छोटी-छोटी मछलियाँ बरसने लगीं। उसकी भीगी टोपी सुखाने के लिए खेत में उल्टी रखी थी। वह भी मछलियों से खचाखच भर गयी। वे उसमें उछलकूद मचा रही थी। परीक्षण हेतु कुछ मछलियों को समुद्र के नमकीन पानी में डाला गया तो वे मर गई जबकि सादे पानी वाले जल में वे यथावत बनी रही। आश्चर्य यह है कि वे समुद्र से उड़कर नहीं आयी तो फिर कहाँ से आई?

जीवित प्राणियों के अलावा अन्य पदार्थों की अप्राकृतिक वर्षा के भी अनेकों उदाहरण सामने आये हैं। फरवरी 1903 में पश्चिम योरोप का विस्तृत भूभाग सहारा रेगिस्तान के काले रेत से भर गया था। पदार्थों के रंग कई तरह के थे। ठीक ऐसी ही वर्षा इंग्लैण्ड के लीड्स शहर एवं वेल्स में 30 जून 1968 को हुई थी।

सन् 1819 में 13 अगस्त की रात को अमरीका के मेसाच्युसेट्स शहर में घनघोर वर्षा हुयी। आकाश मार्ग से गिरते हुए आठ इंच व्यास तथा एक इंच मोटाई के चिकने गोल पदार्थ देखे गये। कुछ दिन पश्चात् शोध-अनुसंधानों से पता चला कि वे फफूँद हैं।

13 नवम्बर 1833 को उत्तरी-अमेरिका में आग बरसते सभी ने देखी थी। उस इतिहास प्रसिद्ध घटना का कारण था अन्तरिक्ष से छोटी-छोटी अगणित उल्काओं का एक साथ बरस पड़ना। अनुमानतः 2 लाख छोटे बड़े जलते अंगारे आकाश से जमीन की ओर तेजी के साथ दौड़ते हुए देखे गये। गनीमत इतनी ही रही कि वे सभी जमीन तक पहुँचने से पहले ही बुझ गये। एक भी उल्का धरती को छू नहीं सकी और आकाश में धूल बनकर बिखर गई।

छोटी बड़ी ढेरों मीनारें सारे विश्व में हैं किन्तु इनमें सबसे निराली, विचित्र एक भारत में भी हैं। ये अहमदाबाद में है, एवं झूलती हुई मीनारों के नाम से प्रसिद्ध है। ये मीनारें अहमदाबाद रेलवे स्टेशन के समीप कालूपुर क्षेत्र में वशिर मस्जिद के अहाते में है। इतिहास प्रसिद्ध मौलवी हाफिज सिद्दी वशिर साहेब के नाम से यह मस्जिद स्थापित हैं। ये मीनारें अद्भुत हैं। नीचे से करीब 20 वर्ग फुट मोटे दो स्तम्भों से जुड़ी दीवार के ऊपर ये मीनारें बनी हैं। इनकी लम्बाई 75 फुट है। इन मीनारों की असली खूबी यह है कि अगर किसी एक मीनार के ऊपर चढ़कर खड़े हो जायें और कुछ लोग अगर दूसरी मीनार को पकड़कर हिलाएँ तो दोनों मीनारें झूले की तरह झूलने लगती है। पत्थर की मोटी-मोटी मीनारें जो जमीन में पता नहीं कहाँ तक गड़ी हैं, झूले की तरह झूलती हैं। पिछले करीब छह सौ साल से ये मीनारें इसी तरह झूलती चली आ रही हैं। विश्व में ऐसी कोई दूसरी मीनार नहीं हैं जो झूलती हो।

इन झूलती मीनारों को ईस्वी सन् 1458 में मल्लिक साहरंग साहब ने बनवाया था। यह वह समय था जब यहाँ सुलतान मुहम्मद का शासन था। सुलतान मुहम्मद यों तो कठोर शासक था, परन्तु वह कला प्रेमी भी था। कहते हैं कि जब पहली बार इन मीनारों के विषय में सुलतान को बताया गया तो उसे विश्वास नहीं हुआ। भला पत्थर की मीनारें झूल कैसे सकती हैं? इस बात की सत्यता को जानने के लिए वह खुद एक बार अहमदाबाद गया और एक मीनार पर चढ़कर देखा।

इन झूलती मीनारों का रहस्य क्या है, यह आज तक अज्ञात है। अंग्रेज जब भारत पर शासन करने लगे, तब उन लोगों ने भी बहुत कोशिश की कि इन झूलती मीनारों के रहस्य का पता लगाया जाय, परन्तु अब तक सारे प्रयत्न बेकार ही रहे हैं। सदियों का रहस्य आज भी रहस्य ही बना हुआ है।

प्रकृतिगत विशेषताएँ ही नहीं, मानवी जीवन में भी बहुधा ऐसा कुछ घटित होते देखा गया है कि जिसके संबंध में मात्र अचरज ही व्यक्त किया जाता है, पर यह प्रतीत नहीं होता कि यह असंभव समझी जाने वाली बातें किस कारण घटित हो सकीं?

प. जर्मनी के म्युनिख शहर के चारों तरफ से बन्द दरवाजे और खिड़कियों वाले कमरे में एक मनुष्य जलता हुआ पाया गया, जबकि दूसरी किसी वस्तु ने आग नहीं पकड़ी थी और खून काफी निकला हुआ था।

आश्चर्य है कि आग कैसे पकड़ी? संभवतः आत्म हत्या की गई हो। वहाँ पर माचिस बीड़ी-सिगरेट या कोई अन्य चीज नहीं थी जिससे आग पकड़ने की पुष्टि हो। अधिक खून निकलने के कारण वह इतना दुर्बल था कि स्वयं भी आग नहीं लगा सकता था। किसी तेल, पेट्रोल आदि की गंध भी नहीं थी।

एक दूसरा केस इसी प्रकार इंग्लैण्ड में हुआ था, जिसमें उसकी समस्त माँस पेशियाँ जल गई थी परन्तु उसके बाल, भौंहें और अंडरवियर व अन्य कपड़े बिल्कुल नहीं जले थे। क्या वह आत्महत्या का केस हो सकता था? जब जवाब किसी के पास नहीं था। ऐसी ही एक घटना में पार्टी चालू थी, लोगों का नाच गाना चल रहा था कि अचानक कमरे के मध्य में एक नर्तकी के शरीर से नीली रोशनी निकलने लगी और कुछ ही मिनटों में जलकर राख हो गई। इंग्लैण्ड की इस घटना का कोई हल निकल नहीं पाया।

ऐसी ही एक घटना 2 जुलाई 1951 की है। जिसमें मिसेज रोजर का शरीर अचानक जल कर राख हो गया, फिर भी उस कमरे में कोई भी अन्य वस्तु नहीं जली और न आग की लपटें ही दिखीं, मात्र गर्मी मालूम पड़ रही थी उनकी हड्डियाँ मात्र शेष थीं। इसका रहस्य नहीं समझा जा सका।

अनेक स्तरों की जाँच पड़तालों, विशेषज्ञों द्वारा परीक्षणों एवं उन्नत देशों की जाँचों से भी इन अग्निकाण्डों का रहस्य समझ के बार रहा। इन रहस्यों को “स्पान्टेनियस कम्बशन” नाम दिया गया है व एक परिकल्पना यह की गयी है कि संभवतः पृथ्वी की जियोमैग्नेटिक वेन्स की पकड़ में आने से ये घटनाक्रम घटे हों। पर यह भी एक तुक्का भर है। क्योंकि ये घटनाएँ वहाँ घटी हैं जहाँ इन वेव्स या विद्युत तरंगों की सघनता नहीं के बराबर होती है।

ये प्रसंग चाहे मानवी काया के हों अथवा विराट प्रकृति जगत के अविज्ञात अनोखे करतबों के एक प्रश्न चिन्ह विज्ञान जगत के समक्ष खड़ा करते हैं। जब हर बातों का जवाब देने का दावा वैज्ञानिक करते हैं, तो फिर ऐसे विचित्र घटनाक्रमों को संयोग मात्र अथवा अपवाद कहकर क्यों टाल देते हैं?

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