
विश्वास एवं आशंका पर आधारित चिकित्सा मनोविज्ञान
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बीमारियाँ भी आती ही हैं और उनका उपचार भी करना होता है। यह एक ढर्रा है, जिसे इच्छा अनिच्छा से सभी को घुमाना पड़ता है। पर कई व्यक्ति इस संबंध में अतिशय चिन्ता करते हैं, या सतर्कता बरतते हैं। सतर्कता बरतना बुरी बात नहीं है, पर उसे चिन्ता या परेशानी की स्थिति तक पहुँचा देना गलत है।
बीमारी बढ़ने पर उसके साथ-साथ क्या-क्या उलझनें खड़ी हो सकती है? उस बढ़ोत्तरी के क्या-क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं। मामूली इलाज काम न आया तो बढ़िया इलाज के लिये कहाँ जाना पड़ सकता है कि कितना खर्च लग सकता है। उतने साधन जुटाने पर कर्ज लेना या सामान बेचना पड़ सकता है। इतने पर भी रोग काबू में न आया तो मरने का अवसर भी आ सकता है। मरने के बाद हम कहाँ होंगे? और अशाँत कहाँ भटकेंगे? इस प्रकार की चिन्ताएँ छोटी बीमारी होने पर और उसे बढ़ा सकती हैं और मानसिक परेशानी के कारण हल्का-फुल्का रोग भी खतरनाक हो सकता है। उसकी चिकित्सा में जो लाभ हो सकता था उस पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है। चिन्ता उतना बिगाड़ कर देती है, जितना कि चिकित्सा लाभ नहीं पहुँचा पाती।
लेकिन रचनात्मक चिन्तन वाला सोचता है कि कौन सर्वथा निरोग है? हर किसी को कुछ न कुछ खटपट लगी रहती है। इतने बड़े शरीर में राई रत्ती बीमारी भी किसी कोने पर पड़ी रहे तो उनसे क्या बनता बिगड़ता है? मौत का तो समय निश्चित है। उससे पहले कोई नहीं मर सकता। मौत भी नहीं उठा सकती। क्या चिकित्सकों का इतना अध्ययन हमारी कुछ सहायता नहीं कर सकता? क्या जड़ी-बूटियों से लेकर रसायनों और प्रतिरोधकों में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह अपने इस रोग की जड़ें काट सकें? निश्चय ही दुनिया में अन्धकार से अधिक प्रकाश है। रुग्णता की तुलना में स्वस्थता का समर्थन करने वाले तत्व अधिक है।
जाँच-पड़ताल की बड़ी-बड़ी मशीनें देखकर कई रोगियों को बड़ा भय लगता है। आप्रेशन की छुरी-कैंची देखकर उन्हें पसीना छूटता है। समझते हैं यह सारा सरंजाम उन्हें मारने काटने के लिए है। यह मृत्यु के संदेशवाहक हैं एवं डॉक्टर साक्षात् यमराज है। यह तो जान लेकर ही हटेंगे। ऐसे डरपोक और अविश्वासी रोग अच्छे होने में बहुत समय लेते हैं। उनकी भयभीत और शंका शंकित मनोदशा, उनकी जीवनी शक्ति पर प्रहार करती तथा दुर्बल बनाती है। इस कारण उपचार भी आँशिक प्रभाव ही दिखा पाता है।
जिन्हें डॉक्टर परोपकार की प्रतिमा प्रतीत होते हैं, एवं नर्सें स्नेह सौजन्य की प्रतिमाएँ, उन्हें औषधियाँ संजीवनी बूटी जैसी लगती हैं और अस्पताल का उद्देश्य ही रोगियों की व्यथा हरना-अनुभव होता है। वे उस वातावरण में अपने लिए हर प्रकार की सुरक्षा देखते हैं। सोचते हैं यहाँ की विशिष्टता अपना कष्ट पूरा करके ही छुट्टी प्रदान करेगी। चिकित्सक की हर क्रिया में उन्हें आशा की झलक दीखती है। फिर आत्म विश्वास का भी तो कुछ मूल्य है। इसकी तुलना में अपने आप को धैर्य बंधाना, प्रोत्साहित करना और उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन देना अधिक सरल है।
यह नहीं कहा जा रहा कि रोग का इलाज ही न किया जाय और उसे उपेक्षा में पड़े रहने दिया जाय। इस सीमा तक निश्चिंत रहना भी अहित कर है। जिस प्रकार मैले कपड़े साफ करने के लिए साबुन की, आँगन को बुहारने के लिए बुहारी की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार शरीर में कहीं कोई क्षति दीखने पर उसकी भी पूर्ति की जानी चाहिए।
इतने पर भी बात को बढ़ा-चढ़ा कर सोचने की आवश्यकता नहीं है। बीमारी को हल्के मन से लेना, उसकी चिन्ता करने की अपेक्षा हल्का-फुल्का उपाय ढूँढ़ निकालना पर्याप्त है, कारण कि प्रकृति हमारा सबसे बड़ा डॉक्टर है। शारीरिक संरचना में ऐसे तत्व प्रचुर परिणाम में विद्यमान हैं, जो अनवरत रूप से क्षतियों की पूर्ति करते और आवश्यकताओं के अनुरूप सरंजाम जुटाते रहते हैं। मौत की भयावहता में सन्देह नहीं। बीमारी के साथ जुड़े हुए कष्टों से भी इनकार नहीं किया जा सकता, किन्तु सर्वोपरि तथ्य यह है कि जीवन बहुत बलवान है। वह भरपूर आयुष्य तक जीने के लिए संकल्पपूर्वक कटिबद्ध है। उसे प्रोत्साहन और सहयोग भर देते रहा जाय तो इतने भर से बहुत बड़ा काम सध सकता है। बीमारियाँ सावधान करने आती हैं कि असंयम का रास्ता छोड़ा जाय और प्रकृति अनुशासन में बँधा रहा जाय। जो इसे अस्वीकार कर लेते हैं, बीमारियाँ उन्हें छोड़कर चली जाती है।
कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो. रिचर्ड. एस. लैजेरस ने अनेक रोगियों की मनोदशा और चिकित्सा के परिणामों का पर्यवेक्षण किया। उनने पाया कि एक जैसी बीमारी और एक जैसे इलाज के चलते रहने से भी वही रोगी अधिक तेजी से रोगमुक्त हुए जो निश्चिन्त रहते थे और विश्वास करते थे कि उन्हें अच्छे होकर ही लौटना है। जिन्हें रोग की भयंकरता और चिकित्सकों की उपेक्षा दीखती थी वे दूने समय में वे धीरे-धीरे अच्छे हुए। कुछ तो उनमें से भी मर गये।
पचास वर्ष से अधिक आयु वालों में रक्तचाप या हृदय रोग के लक्षण दृष्टिगोचर होने पर यह कहा जा सकता है कि उनकी शारीरिक मशीन घिस जाने पर भी काम का दबाव यथावत बना रहने से ऐसा होता है। किन्तु उनके लिए क्या कहा जाय जो अभी किशोर या तरुण हैं, किन्तु हृदय संबंधी रोगों के शिकार हो गये। धड़कन बढ़ना, थकान, मधुमेह, अनिद्रा, दमा एवं अपच जैसे रोगों ने उनके अन्दर घर बना लिया और उन सबका संयुक्त प्रभाव उनके शरीर रूपी यंत्र को अव्यवस्थित होने के रूप में सामने आया। ऐसे लोगों के आहार एवं दिनचर्या में सर्वसाधारण की अपेक्षा इतना अन्तर नहीं होता, जिससे उनमें उस प्रकोप का कारण ढूँढ़ा जाय।
देखा यह गया है कि मनोविकार, मस्तिष्क से उपज कर अपना प्रभाव सारे शरीर पर डालते हैं और धीरे-धीरे खोखले बनते जाने वाले शरीर में क्रमशः हृदय रोग एवं अन्य जीर्ण रोग विकसित होने लगते हैं। इनमें किन्हीं को यह पैतृक विरासत में मिले हुए भी हो सकते हैं। किन्तु अधिकाँश में दुर्व्यसन और अचिन्त्य चिन्तन इसका निमित्त कारण होते हैं। नशेबाजी की लत भी इसका बड़ा कारण है। इसके अतिरिक्त कामुक उत्तेजना का सिर पर सवार रहना ऐसा निमित्त कारण है, जिसके आधार पर समस्त स्नायु संस्थान आवेशग्रस्त होता है और उससे नाड़ियों का माँस पेशियों का आकुँचन-प्रकुँचन अस्त-व्यस्त होता है। स्थिति मानसिक तनाव बढ़ने से लेकर हृदय की धड़कन अव्यवस्थित हो जाने के रूप में सामने आती है। यह व्याधि ऐसी है कि सीमा से अधिक बढ़ जाने पर पक्षाघात, हृदयाघात जैसे संकट खड़े हो सकते हैं। जीवन से हाथ धोना पड़ सकता है।
औषधियाँ रोकथाम करती हैं। उससे उफान को ठण्डा किया जा सकता है, पर जब चूल्हे में आग भड़क रही हो तब ऊपर रखे दूध में दुबारा उफान न आवेगा, यह नहीं कहा जा सकता। मानसिक आवेश बढ़े-चढ़े रहने पर किसी भी संकट की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं। उनके लगातार बने रहने पर स्थिति ऐसी बन जाती है, जिसे अपंगता कहा जा सके।
इन दिनों अच्छे आहार का सुयोग क्रमशः बढ़ता जाता है। चिकित्सा की सुविधायें भी बढ़ रही हैं, पर साथ ही हृदयाघात जैसे आकस्मिक दौरों से होने वाली मृत्यु संख्या भी बढ़ रही है। जो मरते नहीं, वे इस स्थिति में पहुँच जाते हैं कि कोई महत्वपूर्ण पराक्रम कर सकने में असमर्थ बन कर रहें। यह सब आशंकाग्रस्त मनःस्थिति का दुष्परिणाम है। आधुनिकता के सभी अनुदान मुबारक, पर कीमत इतनी महँगी न हो कि जर्जर काया एवं टूटी मनःस्थिति ही हाथ लगे।