Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्मानुसंधान एवं पूर्वार्त मनोविज्ञान
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विज्ञानविदों ने अनवरत शोध प्रयासों के बाद प्रकृति के कुछ ही रहस्य उजागर करने में सफलता पाई है। उनकी यह मान्यता है कि इस समूचे दृश्य जगत में इतना अविज्ञात बिखरा पड़ा है, जिसकी न हमें जानकारी है न उस संबंध में पक्ष विपक्ष में कहने का कोई तर्क ही हमारे पास है। सूक्ष्म एवं अविज्ञात शक्तियों की न जाने व कितनी धाराएं अभी भी प्रकृति के अन्तराल में विद्यमान है। रहस्यमयी असीम संभावनाओं के समक्ष अभी तक प्राप्त भौतिक शक्तियों की सामर्थ्य नगण्य ही है। सामर्थ्यों के जो वर्तमान स्त्रोत हाथ आये है, उन्हें भी कभी अकल्पनीय असम्भव ही माना जाता था।
विशाल ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप पिण्ड मानवी काया के रहस्य भी कम अनोखे नहीं हैं स्थूल को छोड़ सूक्ष्म को ही देखे तो पाते है कि उसके सामान्य क्रिया कलाप इच्छा आकांक्षा विचारणा के रूप में समझ में आते है एवं स्थूल गतिविधियों का कारण बनते है। इन सबका अध्ययन मनोविज्ञान के अंतर्गत किया जाता रहा है। आधुनिक मनोविज्ञान भी मुख्यतः सचेतन में ही उलझा है। अवचेतन की वह मात्र ऊपरी परत को स्पर्श कर पाया है। छिपे हुए चमत्कारी सुपरचेतन की बात तो उसे समझ में आयी ही नहीं। यही शक्ति और प्रेरणा का केन्द्र बिंदु है। इसे समझना अभी शेष है। जानकारी के अभाव में मनुष्य प्रायः अपनी प्रसुप्त शक्तियों का उपयोग नहीं कर पाता, जैसा कि भौतिकी के सागर में निहित शक्तियों के संदर्भ में चिरकाल से होता आया है।
मानवी सत्ता को भलीभाँति समझ पाना मनोवैज्ञानिकों के लिए तब ही संभव है, जब वे मन के अध्ययन विश्लेषण के संकीर्ण दायरे से निकल पाने का साहस जुटा सके। इसके लिए सुविस्तृत अनंत आत्म क्षेत्र में प्रवेश अनिवार्य है। अन्यथा फ्रायडवादी मनोविज्ञान के चश्मे से नेत्र वही देखेंगे जो उन्हें घिसी पीटी मान्यताओं में आबद्ध मनोवैज्ञानिक मूल प्रवृत्ति का गुलाम मनुष्य को ठहराते हुए दिखाते रहे हैं। इस तरह आत्म विकास को सभी संभावनायें अवरुद्ध ही रहेगी।
मनोविज्ञान के उद्गम एवं विकास का मूल स्त्रोत भारतीय अध्यात्म है। इसे अध्यात्म का एक अभिन्न अंक कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं है। अध्यात्म से अलग कर देने पर मनोविज्ञान की अपनी उपयोगिता सिद्ध नहीं हो पाती। ऐतिहासिक कालक्रम का अवलोकन करने पर तय हुआ है कि सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक अध्ययन का आविर्भाव उपनिषदों से हुआ। उपनिषद्कार ही प्राचीनतम दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिक चिन्तक है। प्रमाण छांदोग्योपनिषद् में संकल्पवाद (वालण्ट्रीज्म) एवं प्रज्ञावाद (इन्टलेक्युअलिज्म), ऐतरेय उपनिषद् में मनोवृत्ति-वर्गीकरण तथा बृहदारण्यक उपनिषद् में स्वप्न मीमाँसा आदि के रूप में देखे जा सकते हैं। उपनिषदों का प्रभाव ग्रीक दर्शन पर पड़ने के कारण वहाँ भी मनोविज्ञान का विकास हुआ। ग्रीक चिन्तकों ने इसे यथावत स्वीकारने के कारण इसका नाम साइकोलॉजी रखा। यह शब्द लैटिन भाषा के साइक तथा लोगोस शब्दों से मिलकर बना है। साइक अर्थात् आत्म, लोगोस अर्थात् ज्ञान। अर्थात् आत्मा का विज्ञान ही मनोविज्ञान है। इसके प्राचीन अध्येता अरस्तू, सुकरात, प्लेटो आदि ने आत्म तत्व पर चिन्तन करके इस संबंध में बहुत कुछ लिखा है। ये बातें इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि आत्मानुसंधान प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक अध्ययन की महत्ता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी थी।
आज से तीन शताब्दियों पूर्व से भारत तथा साँस्कृतिक दृष्टि से सुविकसित कुछ पाश्चात्य देशों में मनोविज्ञान, अध्यात्मविज्ञान का एक अविच्छिन्न अंग माना जाता रहा है। जैसे-जैसे प्रत्यक्षवाद-भौतिकवाद मानवी चिन्तन में अपनी जड़ें जमाता चला गया, इसी क्रम में मान्यताओं एवं प्रतिपादनों में उलटफेर होता चला गया। परिभाषाएं बदलती चली गई।
मनःशास्त्री टिंचनर ने मनोविज्ञान का मन के विज्ञान के रूप में उल्लेख करते हुए मन की विशिष्टताओं को तीन भागो संवेदना, प्रतिभा तथा भावना के रूप में विभक्त किया है। अन्य मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को चेतना के विधान के रूप में परिभाषित किया है। चेतन के अर्थों में विभिन्नता अवश्य हैं प्रो. बोर्ड तथा अन्य व्यवहारवादी मनःशास्त्रियों ने चेतना को अनुभव के रूप में प्रयुक्त किया है। वाट्सन ने उसे आत्मा के स्थानापन्न के रूप में माना है। उस तरह चेतना शब्द को अभी भी विवाद की दृष्टि से देखने वाले मनोविज्ञान के क्षेत्र में उसे प्रयुक्त करते देखा जा सकता है। प्रो. विलियम जेम्स ने अपनी कृतियों में मन शास्त्र को चेतना की अवस्थाओं में निरूपित किया है। इन अव्यवस्थाओं से उनका अभिप्रायः संवेदनाओं, संवेगों तथा संकल्पों के अध्ययन से है।
डॉ. नॉरमन एलमन ने अपने अध्ययन में अनुभव एवं व्यवहार का सामंजस्य प्रस्तुत किया है। उनकी मान्यता है कि चेतन अनुभव के विज्ञान से तथा ज्ञान व्यवहार से आन्तरिक एवं बाह्य जीवन की अभिव्यक्तियां है। व्यवहारवाद के जन्म के पश्चात् मनोविज्ञान तथा शरीर विज्ञजन में भेज स्थापित कर विलियम मैकडूगल ने मनोविज्ञान को परिभाषित करते हुए बताया है कि यह एक ऐसा विज्ञान है जो संपूर्ण शरीर के व्यवहार का ज्ञान कराता है।
मनःशास्त्र को नई दिशा देने तथा मन की चेतन अचेतन परतों की नवीन जानकारियां देने में जुँग एडलर आदि मुख्य माने जाते है। पर इनकी जानकारी भी मन के दृश्य पक्षों तक ही सीमित है। दृश्य के पार अदृश्य में संभावनाओं के रहस्यमय, सामर्थ्यवान स्त्रोत मानवी सत्ता में विद्यमान है जिनके बारे में जाना जाना अभी शेष है। कुछ मनःशास्त्री अपनी अपूर्णता एवं अल्पज्ञता स्वीकार कर पूर्णता एवं समग्रता हेतु भारतीय चिंतन में प्रविष्ट होने पर जोर देते है। उनके अनुसार इनमें वे सूत्र हैं जिनसे मानवी सत्ता के रहस्यमय स्वरूप का उद्घाटन हो सकता है।
“इन विजिवल इन्फ्लुएन्स” पुस्तक के लेखक डॉ. कैनल लिखते हैं कि भारतीय मनोविज्ञान में प्रतिपादित शाश्वत ज्ञान मात्र चिन्तन पर नहीं अपितु अनुभूतियों पर अवलंबित है। भारतीय मनीषियों, उपनिषद्कारों ने मन एवं बुद्धि के परे आत्मा के क्षेत्र में प्रविष्ट हो गहन मंथन किया है। इन गहन अनुभूतियों में उन्होंने जाना कि आत्मा का रहस्य जानकर ही पिण्ड एवं ब्रह्मांड की अविज्ञात शक्तियों तथा संपूर्ण रहस्यों का समग्रता से उद्घाटन किया जा सकता है।”
“वर्ल्ड एवं पॉवर नियलीटी” के लेखक सर जॉन वुडरफ अपने विख्यात ग्रंथ में लिखते हैं कि “वेदान्त” मनोविज्ञान के विकास की चरम अभिव्यक्ति है। इसमें निरूपित सिद्धान्त आधुनिकतम मनोविज्ञान के ज्ञानकणों के समक्ष उन्नत पर्वत शिखरो समान है।”
“विस्डम ऑफ ओवर सेल्फ” पुस्तक में डॉ. पाल ब्रण्टन स्पष्ट करते हैं कि भारत के पास उसके आध्यात्मिक ज्ञान की प्राचीन सम्पत्ति है, जिसमें दर्शन एवं मनोविज्ञान का उत्कर्ष समाया है। वे कहते हैं कि अपरिमित सामर्थ्य का स्त्रोत मानवी सत्ता में विद्यमान है। इन्हें जानने समझने के लिए शरीर विज्ञान, मनोविज्ञान के दायरे को पार कर आत्म विज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करना पड़ेगा। इस यात्रा के मार्गदर्शक प्रकाश संकेतन रूप में ऋषि प्रणीत सिद्धान्तों को ही आधार बनाना पड़ेगा।”
इसी राजमार्ग पर चलकर वह तथ्य सुस्पष्ट होने लगता है जिसमें हम ब्रह्मांड के प्रतिरूप पिण्ड के स्थूल, सूक्ष्म, कारण विविध स्वरूपों तथा इन सबसे परे महाकारण का रहस्य मर्म जान पाते हैं। ब्रह्माण्ड की यथार्थता का बोध “सर्वखल्विदं ब्रह्म” के रूप में होने लगता है। अविज्ञात को जानकर जीवन्मुक्ति के राजमार्ग पर चल पड़ने हेतु भारतीय मनोविज्ञान सभी को समान रूप से आमंत्रण देता है। इस आह्वान को स्वीकारने वाले बंधनों से मुक्त हो जाते है, इसमें कोई संशय नहीं।
ने अपने अंधे माता-पिता को काँवर से नीचे उतार दिया था। आगे बढ़ चलने पर जब यह प्रभाव क्षेत्र समाप्त हो गया तो श्रवण कुमार को अपनी भूल का आभास हुआ और अपने माता-पिता से क्षमा माँग कर उन्हें फिर कंधे पर बिठा लिया। दण्डकारण्य में असुरों का शासन चिरकाल तक रहा। कुकृत्य होते रहे, फलतः उस क्षेत्र में बहुत समय बीत जाने पर भी ऋषि-तपस्वियों ने निवास करने का साहस नहीं किया। हिमालय जैसे पुण्य क्षेत्र को साधना के लिए अभी भी अधिक फूल प्रद इसलिए माना जाता है है कि वहाँ चिर पुरातन में अनेक ऋषियों ने तपस्या के उद्देश्य से अपना कार्य क्षेत्र बनाए रखा। उनके व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व में अभी भी उन क्षेत्रों की विशिष्टता विद्यमान है। यद्यपि उस निवास को युगों की अवधि बीत गई। भूमि की विशेषता है कि वह न केवल, वर्षा गर्मी से प्रभावित होती है। वरन् वहाँ जो कुछ होता रहा है। उसका प्रभाव भी विद्यमान रहता है। तीर्थ परम्परा के पीछे ऐसे ही उत्कृष्टता से भरे घटनाक्रम अपनी छाप छोड़ते रहे हैं। यही हैं वे सब निमित्त कारण जिनकी महत्ता को समझते हुए लोग तीर्थ यात्रा करते और वहाँ रह कर अपनी आध्यात्म साधनाएँ सम्पन्न सम्पन्न करते हैं। श्रद्धा के अनुरूप उन्हें प्रतिफल भी प्राप्त होता है।
हरिद्वार का शाँति कुँज अपने समय का एक ऐसा गायत्री तीर्थ है जो स्थान की महिमा को अपने साथ पूरी तरह संजोए हुए हैं। हिमालय का प्रवेश द्वार होने से हरिद्वार नाम पड़ा है। एक ओर शिवालिक पहाड़ियाँ, दूसरी और गढ़वाल हिमालय की छत्रछाया उस पर घनीभूत रहती है। गंगा का तट सटा हुआ है। जब गंगा का अवतरण हुआ था तो इस तपोमय क्षेत्र में सप्तऋषि तप करते थे। गंगा ने उनकी समाधि साधना में विघ्न डालना उचित न समझा और अपनी सात धाराएँ काट कर उन्हें अपने स्थान पर अवस्थित रहने दिया। इसी लिए भूमि का नाम सप्त सरोवर पड़ा है। जिस स्थान पर गायत्री के ऋषि, महर्षि विश्वामित्र तप करते थे उसी पर शाँति कुँज बना है। हिमालय की प्रतीक देवालय प्रतिमा मात्र भारत वर्ष में इसी एक स्थान पर हैं। प्रायः आधी शताब्दी से जलती आ रही अखण्ड ज्योति की यहाँ स्थापना है, जिसके आलोक में अब तक करोड़ों की संख्या में जप किया जा चुका हैं। गायत्री माता का देवालय तो अवस्थिति है ही। नौ कुण्डों वाली यज्ञ शाला में नित्य दो घण्टे तक गायत्री महामंत्र से अग्निहोत्र होता है। सप्त ऋषियों की प्राण प्रतिष्ठा की हुई प्रतिभाएँ भी इसी देवालय में स्थापित है।
शाँतिकुंज विगत 27 वर्षों से स्थापित है। इस अवधि में नित्य प्रति गायत्री उप अनुष्ठानों की नियमित श्रृंखला चलती रही है। दोनों नवरात्रियों में तो यहाँ इतने अधिक साधक हर वर्ष आते हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि अभी भी साधना तपश्चर्या के प्रति लोक निष्ठा का अन्त नहीं हुआ है। स्थापना से लेकर अब तक जितना जप और हवन हुआ है उसे देखते हुए इसे गायत्री तीर्थ का नाम दिया जाना उचित ही है। इतनी नियमित साधना अन्यत्र कहीं भी कदाचित ही नहीं होगी।
नित्य प्रति के आध्यात्मिक प्रवचन यहाँ की परम्परा है। प्रायः सांय आरती जिस क्रम से यहाँ होती है वह मन मोह लेती है और भाव श्रद्धा उमगाती है। रात्रि को युग संगीत और सहगान कीर्तन इस कला में प्रवीण मंडली द्वारा सम्पन्न होता है। देश देशान्तरों में युगान्तरीय चेतना का आलोक वितरण करने वाले धर्म प्रचारक परिव्राजकों का यहाँ अनवरत प्रशिक्षण क्रम चलता रहता है। नौ दिवसीय साधना सत्रों का क्रम तो कभी टूटने ही नहीं पाता। इन विशेषताओं के कारण इस क्षेत्र में प्रवेश एवं निवास करने वाला यह अनुभव करता है कि उसे दिव्य संरक्षण और सान्निध्य प्राप्त हो रहा है।
इसी केन्द्र में बारह वर्ष तक चलने वाले युग-सन्धि महापुरश्चरण का संकल्प हुआ है। जिसके अंतर्गत स्थानीय गायत्री जप और सूर्योपस्थान का अनवरत क्रम तो चलेगा ही। हजारों स्थानों पर यही प्रक्रिया इसी संकल्प के अंतर्गत चलने लगी है, जिसकी पूर्णाहुति सन् 2000 में अभूतपूर्व स्तर पर सम्पन्न होगी, घर की अपेक्षा ऐसी दिव्य भूमि में साधना का कितना अधिक प्रतिफल हो सकता है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।