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Magazine - Year 1988 - Version 2

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नवयुग की सम्भावनाएँ - लेखमाला - सृजन की रूपरेखा एवं विस्तार−क्रम

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मिल, कारखानों और सरकारी विभागों में कर्मचारियों की भर्ती आसानी से हो जाती है। आकर्षक वेतन की अतिरिक्त फण्ड, पेन्शन आदि की सुविधाएं जुड़ी होती हैं, पर उन सेवा संस्थानों की गतिविधियाँ चलाने में अत्यन्त कठिनाई पड़ती है जो कार्यकर्ताओं के लिए अभीष्ट सुविधाएं जुटा नहीं पाती। सेवा प्रयोजनों की प्रगाढ़ अभिरुचि होते हुए भी निर्वाह चाहिए ही। जिनके पास स्थाई आजीविका का प्रबंध है वे तो कार्यकर्ताओं को जमा किये भी रहते हैं, पर जिनका सब कुछ आकाशी वृत्ति पर टिका हुआ है। वे किसके बूते तो सेवाकर्मियों को जुटायें और जो सेवा क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं वे निश्चित आजीविका के अभाव में किस प्रकार कहीं देर तक टिक पाये। यह एक पेचीदा प्रश्न है जिसका उपेक्षा करने पर वह नहीं हो सकता है, जिसे व्यापक विचार क्रान्ति के लिए सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन हेतु इन्हीं दिनों किया जाना आवश्यक है। इन दिनों संसार की जनसंख्या 400 करोड़ के ऊपर है। वह सन् 2000 तक 1000 करोड़ हो जाने की संभावना है। यदि एक हजार के पीछे एक युग शिल्पी भी जोड़ा जाये तो एक करोड़ नव निर्माण में निरत व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ेगी। दूर की बात न सोची जाये, मात्र अपने देश की योजना जन गणना 100 करोड़ के आसपास होगी। इनके लिए भी तो उस अनुपात से भारी संख्या में युग सृजेताओं को अपना पूरा समय लगाते हुए निर्धारित कठिन कार्य में अहर्निशि निरत रहना चाहिए।

सेवा क्षेत्र में कार्यकर्ताओं की आवश्यकता सब से प्रमुख है। देवालय खड़े कर देगा सुगम है पर इनके साथ यदि महत्वपूर्ण कार्यक्रम जुड़ें तो उनके लिए सुयोग्य कार्यकर्ता चाहिए। एक तो इस संकीर्ण स्वार्थपरता के वातावरण में सच्चे उदारचेता और चरित्रवान् कार्यकर्ता मिलना ही दूभर हो रहा है। फिर यदि वे मिले तो जीवित रहने के लिए निर्वाह तो चाहिए ही। वह कहाँ से आये? आरंभ में उभरा उत्साह कुछ समय बाद आवश्यकताओं के दबाव से या तो अपना मन बदल लेता है छद्म का आश्रम लेकर ऐसे प्रपंच रचने लगता है जो लोक सेवियों की प्रामाणिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देता है। अपने देश की साधु, ब्राह्मण संस्था को इस प्रकार डगमगाते गड़बड़ाते देखा जा सकता है।

विदेशों के ईसाई समाज में यह विचारशीलता देखी जाती है कि वे व्यक्तिगत दान न तो देते है और न लेते है अभीष्ट सेवाओं में निरत प्रामाणिक संस्थाओं को ही वे दान देते है। उन्हीं के माध्यम से कार्यकर्ताओं को ही वे दान देते है। उन्हीं के माध्यम से कार्यकर्ताओं की नियुक्ति तथा दूसरी व्यवस्थाएँ की जाती हैं। इस प्रकार निश्चिन्तता पूर्वक योजनाएँ बनतीं और चलती हैं। संसार भर में फैले हुए गिरजों, पादरियों की व्यवस्था तथा कार्यक्रमों निश्चिन्तता - पूर्वक चलते रहते है, पर अपने देश में तो वैसा कुछ है नहीं। सम्पन्न धर्म संस्था तथा धनी मानी लोगों द्वारा स्थापित पुण्यार्थ न्यास भी किस प्रकार बहकी-बहकी गतिविधियाँ चलाते हैं इसे कुछेक उदाहरण देख कर भी समझा जा सकता है। इसे कुछेक उदाहरण देख कर भी समझा जा सकता है। इसे अपने धर्म परायण देश का तो दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि सुयोग्य और प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को निश्चिन्ततापूर्वक सृजन सेवा में निरत रहने का कोई ठोस आधार नहीं बन पाया।

काँग्रेस आन्दोलन के जमाने में कुछ ऐसे प्रबंध हुए थे। कुछ इस दिशा में गंभीरतापूर्वक सोचा गया था। गोखले द्वारा ‘सर्वेण्ट ऑफ इण्डिया सोसाइटी” स्थापित हुई थी। लाला लाजपतराय के प्रयास से “पीपुल्स ऑफ इण्डिया” का गठन हुआ था। वह उत्साह उसी जोश खरोश के दिनों तक सीमित रहा। बाद में तो आन्दोलन के साथ उस प्रयास में शिथिलता आ गई। कुछेक गिनी चुनी संस्थाओं के अतिरिक्त प्रायः सभी को राज सहायता पर निर्भर रहना पड़ रहा है।

वह समय भी अब नहीं रहा। जब साधु-ब्राह्मणों स्तर के लोक सेवियों की परमार्थ-परायणता और प्रामाणिकता के कारण उत्पन्न होने वाली श्रद्धा से लोग अनुप्राणित होते थे और भिक्षाटन से, दान दक्षिणा से अथवा देवालयों में संचित होने वाले साधनों के आधार पर उन लोक सेवियों का निर्वाह चल जाया करता था। गुरुकुल भी अभावग्रस्त नहीं रहते थे। सुदामा के गुरुकुल भी अभावग्रस्त नहीं रहते थे। सुदामा के गुरुकुल को कृष्ण द्वारा अपनी समस्त सम्पदा का हस्तान्तरित होना प्रसिद्ध है। बुद्ध संस्थानों को हर्ष-वर्धन, अशोक आदि ने अभावग्रस्त स्थिति में नहीं रहने दिया था। पर इन दिनों तो अन्धविश्वासों का ही बोल-बाला है। गुण पारखियों और सृजन सेवा को प्रमुखता देने वाला चिन्तन कहाँ है? साहस करना तो बहुत आगे की बात है।

इन विषम परिस्थितियों में शांतिकुंज के संचालकों को युग निर्माण जैसी विशालकाय योजनाओं को कंधे पर लेने के साथ साथ सब कुछ परिस्थितियों के अनुरूप सोचना पड़ा है और ऐसा तंत्र बनाना पड़ा है जिसके सहारे सतयुग की वापसी जैसे सर्वांगपूर्ण और विश्वव्यापी क्रिया–कलापों का गतिचक्र व्यावहारिक पृष्ठभूमि पर खड़ा किया जा सके।

अखण्ड ज्योति और उसकी सहेली पत्रिकाओं के माध्यम से युग-साहित्य के प्रसारण से ऐसी भावनाओं को उभारा गया है जो मात्र अपने ही निर्वाह की बात सोचते रहने तक सीमित न रहकर समय के परिवर्तन हेतु अपना योगदान करने के लिए भी उत्साह दिखा सकें, साहस संजों सकें। इन लोगों में से जो अधिक भावनाशील हैं उन्हें एक महीने के और दस दिन वाले सत्रों में सम्मिलित किया जाता रहता है। जीवन साधना का पक्ष सत्रों का प्रमुख अंग रहता है। उसी में युग-सृजन के लिए कुछ करने की प्रेरणा को इस स्तर पर सम्मिलित रखा जाता है कि वह गले के नीचे उतर से और व्यावहारिक जीवनचर्या में स्थान प्राप्त कर सके।

शिक्षार्थियों में से कुछ लोग इस स्थिति में होते है कि अपने क्षेत्र में आत्म परिष्कार और लोक निर्माण के बहुमुखी कार्यक्रमों का उत्तरदायित्व अपनी सामर्थ्य के अनुरूप कंधों पर उठा सकें और निरन्तर नियमित रूप से अपने अपने क्षेत्र में अपने समय एवं साधनों का अंश नियमित रूप से लगाते रह सकें। ऐसे व्रतधारियों का संकल्प ही, आगे की भूमिका निभाने लगता है। कोई साथी न मिलने पर एकाकी सृजन सेवा में संलग्न रहने का व्रत लेता और निबाहता है।

ऐसे व्रतधारी युगशिल्पी इस प्रयास में निष्ठापूर्वक लगे रहते है कि युग साहित्य के माध्यम से अपने निजी विचारों की अभिव्यक्ति से अपने जैसे चार व्यक्ति और भी अपने संपर्क क्षेत्र में से उभार सकें। जब एक से पाँच हो जाते हैं तो उनका एक नियमित प्रज्ञा मण्डल बन जाता है। साप्ताहिक सत्संग का वे लोग अनवरत क्रम चलाते है। बारी-बारी वे एक दूसरे के घर पर एकत्रित होकर घनिष्ठता बढ़ाते और आत्म शोधन तथा नवसृजन के संदर्भ में विचारों का आदान-प्रदान करते रहने का क्रम चलाते है।

उत्साह का अगला चरण उठता है इन पाँचों द्वारा अपने अपने क्षेत्र में से चार और ढूंढ़ना। उन्हें युग चेतना से अनुप्राणित करना। इस प्रकार एक से पाँच और पाँच से पच्चीस बनाते चलने की एक सेवाधर्मी इकाई बन जाती हैं। पच्चीस का संगठन पूर्ण माना गया है। इससे अधिक के बीच घनिष्ठता रह सकना और पारस्परिक विचार विनिमय के आधार पर कुछ ठोस प्रयास करते बन नहीं पड़ता। इसलिए एक सेवा घटक को पच्चीस तक सीमित रहना व्यवस्था बनाये रहने की दृष्टि से पर्याप्त समझा गया है। अधिक बढ़ते हों तो उनका एक पृथक-प्रज्ञा मण्डल बनने लगता है। मधु मक्खियाँ एक सीमा तक ही एक छत्ते में रहती है। संख्या बढ़ने पर नये छत्ते बनने लगते हैं।

यह उपक्रम सुनने में दिवास्वप्न जैसा लगता है। शेखचिल्ली की रंगीली कल्पना उड़ान जैसी भी। पर कुछ लोग होते हैं जिनका व्यक्तित्व ही असंभव को संभव बनाने के लिए ही विनिर्मित हुआ जैसा लगता है। यह असंभव दीखने वाली योजना प्रचण्ड प्रेरणा पीछे लगी रहने के कारण संभव होते हुए इन्हीं आँखों से प्रत्यक्ष देखी जा रही है। ऐसी संगठन हजारों की संख्या को पार करके लाखों की गणना में विकसित होने के लिए उन्मुख हो रहे हैं। यह संगठन क्या करें। इसके लिए आत्मनिर्माण, परिवार निर्माण और समीपवर्ती क्षेत्र का सामाजिक निर्माण प्रमुख है। इसी को दूसरे शब्दों में विचारक्रान्ति नाम दिया गया है। जिसके अंतर्गत नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्रों में प्रगतिशीलता के अनेक पक्षों का समावेश हो जाता है। बीस सूत्री रचनात्मक कार्यों में शक्ति भर योगदान देना भी इसी प्रक्रिया का एक अंश है। विवाह विकृतियों का उन्मूलन सुधारात्मक प्रयासों में प्रमुख है। नशेबाजी, आलस्य, प्रमाद, अस्वच्छता, जातिगत, ऊंच–नीच, नारी का अवमूल्यन जैसी अवाँछनीयताओं से लोहा लेना भी इन्हीं प्रयासों के अंग के रूप में सम्मिलित किया गया है।

उपरोक्त स्तर के लोक सेवियों में से प्रत्येक को न्यूनतम दो घंटे नित्य का समय देना होता है। इसका दूसरा विकल्प यह है कि सप्ताह में एक छुट्टी का दिन इसी प्रयोजन के निमित्त लगाते रहा जाये। इस प्रकार समयदान के छोटे छोटे टुकड़े जुड़कर सम्मिलित रूप से इतने अधिक बन जाते हैं कि उन्हें हजारों कार्य कर्ताओं की स्थाई नियुक्ति के समतुल्य माना जा सकें।

कुछ ही समय में एक छोटी-सी टीम के सहारे इतनी सफलता मिली है कि और विश्वास किया जा सकता है कि और विश्वास किया जा सकता है कि प्रस्तुत निर्धारण कल्पना नहीं वरन् पूर्ण रूपेण व्यावहारिक है। इसे आगे भी चलाया, बढ़ाया और उस स्तर तक पहुँचाया जा सकता है जिसमें अवैतनिक स्तर पर आश्चर्यजनक संख्या में कार्यकर्ताओं की उपलब्धि कहीं जा सके। आशा की जानी चाहिए इस आधार को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहने पर देश की ही नहीं संसार भर की सृजन-शिल्पियों की महती आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है।

दूसरा प्रश्न उठता है उपरोक्त प्रयोजनों में कदम कदम पर पड़ने वाली आर्थिक आवश्यकताओं का साधन, उपकरण आदि का। सत्संग और स्वाध्याय जैसे सामयिक प्रयोजनों में भी इनकी आवश्यकता पड़ती है। फिर जब प्रौढ़ शिक्षा, गरीबी उन्मूलन समाज सुधार जैसे कार्यों को बड़े रूप में करने पर लिया जायेगा तो हर जगह पैसे की आवश्यकता पड़ेगी। इसकी पूर्ति करने के लिए सार्वजनिक चंदा, सरकारी अनुदान, धनीमानियों की मनुहार यह तीन उपाय ही प्रयोग में लाये जाते है। पर इस तंत्र के चिन्तन ने इसकी पूर्ति भी अपने बलबूते करने का निश्चय किया है। पचास वर्ष के अनुभव ने यह बताया है कि योजनाओं की, कार्यकर्ताओं की प्रामाणिकता यदि असंदिग्ध हो तो सहयोगी अयाचित रूप में भी मिल सकता है। विनोबा ठीक ही कहते थे कि जो संस्था लोक श्रद्धा अर्जित कर और स्वेच्छा, सहयोग जुटाने में असफल रहे उसे बन्द हो जाना चाहिए। इस प्रतिपादन को प्रायः आदि शताब्दी से कसौटी पर कसा जाता और खरा पाया जाता रहा है।

अपना निर्धारण यह है कि न्यूनतम दस पैसा नित्य हर उपार्जनकर्ता नव-सृजन के लिए अनुदान रूप में निकालें और उसे अपनी देख रेख में अपने संगठन द्वारा अपने से खर्च किये जाने की व्यवस्था बनाये तथा उसके सदुपयोग की देखभाल रखना अपनी जिम्मेदार समझे।

दस पैसा प्रति व्यक्ति के हिसाब से 25 व्यक्तियों का ढाई रुपया होता है। अर्थात् महीने में 85 रुपया। इतने से झोला पुस्तकालय का, लाउडस्पीकर का, स्लाइड प्रोजेक्टर का, बिजली बैटरी तथा संबंधित - पूजा अर्चा का खर्च चल जाना चाहिए, चल भी जाता है। इस प्रकार मंडल की आर्थिक आवश्यकता अपने ढंग से अपनी पटरी पर आसानी से गति अपनाये रहती है।

जहाँ अधिक उत्साह है वहाँ लोगों ने अपने अपने स्तर की प्रज्ञा पीठें विनिर्मित कर ली हैं। उनमें सेवाभावी कार्यकर्ताओं के निवास की भी व्यवस्था है। वे लोग या तो अपने घर परिवार से पेन्शन रूप में प्राप्त कर लेते है, या फिर व्रतधारी कार्यकर्ताओं के घरों में रखे गये मुट्ठीफंड जमा करने वाले घड़ों के मासिक संग्रह से उनकी पूर्ति हो जाती है, मुट्ठी फण्ड की योजना प्राचीनकाल की उस साधु परम्परा की पुनरावृत्ति है जिसमें हर धर से एक पेटी माँग कर लोक सेवी अपना निर्वाह चलाते थे। अब समय के अनुरूप यही सुविधाजनक समझा गया है कि गृहस्थ अपने यहाँ नवसृजन की आवश्यकता पूरी करने हेतु धर्मघट रखें और उसे हर महीने संग्रह करके प्रज्ञापीठ पर स्थायी निवास करने वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता की पूर्ति करते रहें। विवाह आदि हर्षोत्सवों पर कुछ दान दक्षिणा देने की पुरातन धर्म परम्परा है उसे यदि प्रामाणिकता के आधार पर जीवन्त किया जा सके तो कितने ही स्थानीय एवं क्षेत्री सेवा कार्य उतने भर से अपनी आर्थिक आवश्यकता पूरी कर सकते हैं और बिना सरकारी अनुदान के, बिना चंदा संग्रह एवं धनीमानियों की मनुहार के भी काम चल सकता है।

उत्साह शिथिल या समाप्त हो जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा प्रेरणा, संगठन एवं योजना यथावत् चलती रहे तो इसी आधार पर व्यापक क्षेत्र में कार्यकर्ताओं की तथा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती रह सकती है और नव सृजन का गति चक्र भी अपनी पटरी पर अग्रगामी बन कर अनवरत रूप से चलता रह सकता है।

एक से पाँच, पाँच से पच्चीस का क्रम यदि चक्र वृद्धि गति से बढ़ता रहे तो कुछ की छलाँग में देश भर की, विश्व भर की, सृजन शिल्पियों वाली आवश्यकता पूरी होती रह सकती है। कभी परम्परा थी कि परिवार पीछे एक व्यक्ति परमार्थ प्रयोजनों के लिए दिया जाय और उसका उत्तरदायित्व शेष परिवार निबाहे। राजपूत घरानों से एक समय एक व्यक्ति सेना में भर्ती होने के लिए दिया जाता था। ब्राह्मण परिवार एक ब्रह्मचारी, संन्यासी समाज को देते थे। सिख धर्म के आरंभिक दिनों में भी, घर पीछे एक व्यक्ति “सत्श्रीअकाल” को समर्पित किया जाता था। उन दिनों वाली भावनाएँ यदि आज पुनर्जीवित की जा सकें तो वानप्रस्थ आश्रम को पुनर्जीवन मिल सकता है और आधी आयु परिवार के लिए लगाने के उपरान्त शेष आयु नवसृजन जैसे परमार्थ हेतु समर्पित की जा सकती है। यही प्रचलन इन दिनों भी उभारा जा सके तो उन सृजन शिल्पियों की आवश्यकता सहज ही पूरी हो सकती है, जिनके अभाव में विचार क्रांति के नव-निर्माण के असंख्यों कार्य रुके पड़े है।

भारत की दिव्य चेतना के नव जागरण के ही यह चिन्ह हैं कि समय दानी - अंशदानी कार्यकर्ता पुरातन देव परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए इस प्रकार उभर रहे है, मानों स्रष्टा ने उन्हें इस पुण्य प्रयोजन का भार वहन करने के लिए ही विशेष रूप से भेजा हो। इससे उज्ज्वल भविष्य की रूप रेखा साकार होती दिखती है।

चूरु (राज.) श्री हरीराम शर्मा द्वारा लगभग 4 जार स्टीकर समूचे क्षेत्र में लगाने का संकल्प लिया गया है। अभी तक दो हजार स्टीकर दुकानों घरों तथा में लगाये जा चुके है।

बड़ौदा (गुज.) श्री दिनकर भाई द्वारा एक लाख स्टीकर संपर्क क्षेत्र में लगाने का भाव - भरा संकल्प क्या गया है। हर शिक्षित को मूक प्रेरणा देने का यह प्रयास अन्यों के लिए प्रेरणादायी बन रहा है।

भीलवाड़ा (राज.) संकल्प सत्र में सम्मिलित होकर श्री बनवारी लाल झँवर द्वारा एक लाख स्टीकर घर-घर पहुँचाने, दुकानों, बसों, में लगाकर मूक प्रेरणा देने का प्रेरणादायी संकल्प लिया गया है।

प्रतापगढ़ (उ.प्र.) नगर के प्रतिष्ठित नागरिकों की उपस्थिति में डॉ. सम्पूर्णानन्द जी द्वारा समूचे क्षेत्र में प्रज्ञा आलोक के वितरण की व्यापक व्यवस्था बनाई गई। इस वर्ष दो हजार अखण्ड ज्योति के सदस्य बनाने का संकल्प लिया गया।

झाँसी (उ.प्र.) शतवेदीय दीपयज्ञ कार्यक्रम में उपस्थित कई लोगों ने देव दक्षिणा स्वरूप अपने दोष दुर्गुणों का त्याग किया। प्रायश्चित स्वरूप अपने क्षेत्र में प्रज्ञा साहित्य पहुँचाने के लिए संकल्पित हुए।

लीमड़िया, पंचमहाल (गुज.) समूचे क्षेत्र में 111 गाँवों में दीपयज्ञ आयोजन के माध्यम से महाप्रज्ञा के आलोक वितरण की व्यवस्था बनाई गई है। श्री रामजी भाई जी. गरासीया के नेतृत्व में पाँच सदस्यों की टोली स्टीकर आन्दोलन के अंतर्गत घरों, दुकानों, ऑफिसों एवं बसों में स्टीकर लगाने, सद्वाक्य लिखने तथा प्रज्ञा साहित्य पहुँचाने में संलग्न है।

पाथाखेड़ा (बैतूल, म.प्र.) युगशिल्पी सत्र से वापस जाने के बाद से परिजनों में अभूतपूर्व उत्साह है। समूचे क्षेत्र में दीपयज्ञ, स्टीकर आन्दोलन, सद्वाक्य लेखन के साथ-साथ अब तक आ रही 160 पत्रिकाओं की संख्या दुगुनी करने का प्रयास सामूहिक रूप से चल रहा है।

वाराणसी (उ.प्र.) वाराणसी मंडल के कार्यकर्ताओं की गोष्ठी समूचे क्षेत्र में प्रज्ञा आलोक के विस्तार की व्यापक योजना बनाने के साथ सम्पन्न हुई समीपवर्ती शाखाओं से आये कार्यकर्ताओं को युगसंधि महापुरश्चरण में सम्मिलित होने, शांतिकुंज में चल रहे सत्रों में भावनाशील परिजनों को भेजने तथा समचू क्षेत्र में दीपयज्ञों की व्यापक श्रृंखला निर्धारित करने की प्रेरणा दी गई।

मण्डावली, बिजनौर (उ.प्र.) सहस्रवेदीय दीप यज्ञायोजन सानन्द सम्पन्न हुआ। श्रद्धावान ग्रामीण जनता ने देव दक्षिणा स्वरूप अपनी एक-एक बुराई छोड़ने तथा एक अच्छाई ग्रहण करने का संकल्प लिया।

अंजड़, खरगोन (म.प्र.) स्थानीय महिला शाखा द्वारा कुटीर उद्योग के अंतर्गत सिलाई, बुनाई का निःशुल्क प्रशिक्षण आरम्भ किया है। महिला मण्डलों की स्थापना तथा दीपयज्ञों के माध्यम से महाप्रज्ञा के आलोक वितरण की व्यवस्था भी बनाई जा रही है।

बरेली (उ.प्र.) चौबीस सहस्रवेदीय दीपयज्ञ का भव्य कार्यक्रम भाव-भरे वातावरण में सम्पन्न हुआ। त्रिदिवसीय कार्यक्रम का उद्घाटन जिलाधिकारी श्री आर.के. शर्मा ने किया। समारोह का शुभारम्भ करते हुए श्री शर्मा ने किया। समारोह का शुभारम्भ करते हुए श्री शर्मा ने आशा व्यक्त की कि वर्तमान विभीषिकाओं से बचाकर मानवता को उज्ज्वल भविष्य की ओर ले जाने में गायत्री परिवार जैसी संस्थायें ही समर्थ हो सकती है। उद्घाटन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक श्री केवलानन्द भट्ट द्वारा किया गया।

पटना (बिहार) कर्मठ कार्यकर्ताओं की पदयात्रा टोली पटना से शान्तिकुँज के लिए उत्साहपूर्ण वातावरण में विदा हुई। मार्ग में पड़ने वाले नगरों में युगचेतना के विस्तार के लिए वाहनों, घरों, दुकानों, ऑफिसों में स्टीकर चिपकाने, सद्वाक्य लिखने तथा अखण्ड-ज्योति के नियमित सदस्य बनाने के प्रयास व्यापक स्तर पर किए जा रहे है।

मेरठ (उ.प्र.) गायत्री ज्ञान मन्दिर शास्त्रीनगर में आयोजित दीप यज्ञायोजन उल्लासपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ। युगधर्म के अनुरूप दीप यज्ञायोजनों की व्यवस्था का शिक्षित जन समुदाय पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। महानता से जुड़ने के लिए शान्तिकुँज में चल रहे सत्रों में सम्मिलित होने के लिए सैकड़ों भावनाशील परिजन तैयार हुए।

पन्तनगर (उ.प्र.) फिल्म निदेशक डॉ. ए. अरविन्द की उपस्थिति में दीप यज्ञ कार्यक्रम सोल्लास सम्पन्न हुआ। अनचीन्हे अनजाने टी.वी. सीरियल की शूटिंग के लिए आये श्री अरविन्द दीपयज्ञ कार्यक्रम से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने पूरे कार्यक्रम की वीडियो रिकार्डिंग करवाई। इसके महत्वपूर्ण अंशों को अपने सीरियल में सम्मिलित करने की भी इच्छा व्यक्त की।

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