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Magazine - Year 1988 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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गायत्री मंत्र में समाहित दर्शन एवं शिक्षण

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गायत्री महामंत्र के तीन चरण हैं। तीनों में एक-एक सत्प्रेरणाओं का समावेश है। वे वैसी हैं जिनको यदि हृदयंगम किया जा सके- जीवनक्रम में उतारा जा सके तो समझना चाहिये कि सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त हो गया। भौतिक और आत्मिक अभ्युदय का द्वार खुल गया।

प्रथम चरण में सविता का वरण-अधिग्रहण किया गया है। ‘सविता’ तेज पुज सूर्य को कहते हैं। सूर्य में आभा और ऊर्जा की प्रमुखता है। आभा अर्थात् चमक, रोशनी ऊर्जा अर्थात् गर्मी-शक्ति। प्रगतिशील व्यक्ति इन दोनों गुणों को अपनाते हैं। प्रखर प्रतिभावान बनते हैं। ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी बनकर अपनी समर्थता को विकसित करते हैं। जो असमर्थ हैं, दुर्बल हैं, दीन हीन स्तर की अनगढ़ एवं पिछड़ी हुई स्थिति में रहने के अभ्यस्त हैं, उनकी विशिष्टताएँ मूर्च्छित ही पड़ी रहेगी। किसी प्रकार दिन ही कट सकेंगे। निर्वाह के अतिरिक्त और कुछ पराक्रम उनसे करते न बन पड़ेगा। इस दुर्गति से बचने के लिए आवश्यक है कि अपने को सशक्त बनाया जाए। शारीरिक दृष्टि से भी और मानसिक स्तर पर भी। पराक्रम साहस को स्वभाव का अंग बनाया जाय। कार्यरत रहा जाय। उद्योगी, पुरुषार्थी, जागरूक एवं उमंगों आशाओं से अपने को भरा पूरा रखने के लिए प्रयत्नरत रहा जाय। आलस्य पास न फटके। उदासी रहे नहीं। कठिन समय आने पर धैर्य न खोया जाय और उपस्थित अड़चनों से जूझने कठिनाइयों से निबटने का साहस सँजोये रहा जाए। प्रगति की दिशा में बढ़ने का यह प्रथम आधार है। संकोची, दब्बू, कायर, बन कर न रहा जाय। आत्म निर्भर रहने और आत्म विश्वास को दुर्बल न पड़ने देने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाय। अपनी सामर्थ्य को इसी स्तर पर बढ़ाया जाय कि उसके सहारे दूसरों की सेवा सहायता कर सकना भी बन पड़े।

गायत्री के दूसरे चरण के देवस्य में संकेत है कि अपना मानस, चिन्तन देवोपम रहे। चरित्र पर निकृष्टता का दाग धब्बा न लगने दिया जाय। देवत्व से प्रयोजन है- व्यक्तित्व के परिष्कार का। गुण, धर्म, स्वभाव में सज्जनोचित आदर्शवादिता को समाविष्ट किये रहना। इसी में मानवी गरिमा की शोभा है। मर्यादाओं का परिपालन, वर्जनाओं का उल्लंघन न करने का व्रतधारण, यही है मनुष्य में देवत्व के उदय का स्वरूप। शालीनता का निर्वाह इसी प्रकार बन पड़ता है।

नर पशुओं की तरह असंख्य लोग जीवित रहते हैं। उन्हें पेट प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। इन्हीं के निमित्त निरन्तर मरते-खपते रहते हैं। लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के लिए अपनी समूची क्षमता नियोजित करते रहते हैं, फिर अपनी समूची क्षमता नियोजित करते रहते हैं, फिर भी तृप्ति का दर्शन नहीं मिल पाता। तृष्णा की खाई इतनी गहरी है कि उसमें सभी संभव उपलब्धियों को झोंकते रहा जाय तो भी पट सकने की संभावना बन नहीं पड़ती। आगम में ईंधन डालते जाने पर वह बुझती नहीं वरन् अधिकाधिक प्रज्वलित होती जाती है। यही हाल वासना-तृष्णा का है। उसमें अब तक कोई भी तृप्त नहीं हो सका। विचारशील जन सादा जीवन-उच्च विचार की नीति अपनाते हैं औसत नागरिक स्तर के निर्वाह में संतुष्ट रहते हैं। उपार्जन में कमी नहीं करते। संयम बरतते है। जो बचता है उसे ऐसे पुण्य प्रयोजन में लगाते हैं जिनसे आत्म-संतोष और सेवा धर्म का निर्वाह होता रहे। लोक परलोक के उज्ज्वल होने कमा सुयोग बनता रहे।

गायत्री के तीसरे चरण में सद्बुद्धि की महिमा बखानी गयी है और अर्जित करने की प्रेरणा दी गई है। दृष्टि कोण ही है जो उच्चस्तरीय होने पर स्वर्ग का सृजन करता है और निकृष्टता पर उतर आने से सब ओर नरक ही बिखरा दीख पड़ता है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। जो जैसा सोचता है वह वैसा बन जाता है। उत्थान और पतन अपने ही नीति निर्धारण पर अवलम्बित रहते हैं। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता इसीलिए कहलाता है कि वह अपने चिन्तन को दिशा धारा देने में पूर्णतया समर्थ है। प्रेरणाएँ मस्तिष्क में उभरती है। शरीर उनका परिपालन करने लगता है। दुर्बुद्धि अपनाने वाले दुर्गति के भाजन बनते हैं। जिनकी समझ-सूझबूझ नीति निष्ठा अपनाती हैं उन्हें न कुसंग जन्य दुख भोगना पड़ता है और न कुकर्म करने पर जो संकट उठाने पड़ते हैं उनमें फँसने की आवश्यकता होती है। मनुष्य जन्म देकर भगवान ने अपने चरम अनुग्रह का परिचय दिया है और इसके लिए स्वतंत्र छोड़ा है कि वह सद्बुद्धि का उपार्जन करके, सुख शान्ति भरे स्वर्गीय वातावरण का अपने तथा सम्बन्धियों के लिए सृजन करें, अथवा दुर्बुद्धि अपना कर स्वयं नरक के गत में गिरे और साथी सम्बन्धियों को भी उसी में गिरने के लिए बाधित करें।

प्रत्यक्षतः जो कुछ भी वैभव, सुयश सहयोग किसी को उपलब्ध होते हो तो समझना चाहिये कि वे सद्बुद्धि की देन हैं। उसी के प्रकाश में सन्मार्ग पर चल सकना संभव होता है। सन्मार्ग अपनाने वाले ही उन उपलब्धियों का पग-पग पर रसास्वादन करते हैं, जिनके हस्तगत करने में जीवन की सार्थकता है।

‘धिर्यः’ की याचना का अर्थ है, अपने से उसे उपार्जित करने के लिए कटिबद्ध होने का प्रकाश प्राप्त करना। यह किसी दूसरे से वरदान अनुग्रह की तरह उपलब्ध नहीं होती। विभूतियाँ स्वयं ही उपार्जित करनी पड़ती है। प्रयत्नशीलों को अभीष्ट स्तर का सहयोग भी मिल जाता है और अनुकूलताओं की भी कमी नहीं रहती है। काँटे तो उनके पैरों में गड़ते हैं जो झाड़ झंखाड़ भरे कुमार्ग पर चल पड़ने के लिए अनर्थ और अनिष्ट को जान बूझकर आमन्त्रित करते हैं। सद्बुद्धि के प्रकाश में यदि सन्मार्ग पर आरुढ़ रहा जाय तो फिर सुख शान्ति से भरी पूरी परिस्थितियाँ आजीवन साथ रहती है। कभी प्रारब्धवश अनिष्ट आ भी पड़े तो वे सहज अपनाये रहने पर देर तक टिक नहीं पाते।

गायत्री के इसी चरण में एक शब्द आता हैं- ‘नः” अर्थात् हम सब। “आई” नहीं “वी” इन दिनों हर किसी पर व्यक्तिवाद का नशा बुरी रह चढ़ा है। हर कोई अपनी ही सुख सुविधा बढ़ाने में लगा है। अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए यदि दूसरों का अहित करना पड़े तो इसमें भी नहीं चूकता। यह संकीर्ण स्वार्थपरता ही अनाचारों, भ्रष्टाचारों, अपराधों का निमित्त कारण बनकर रह रही है। क्रिया की प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक है। आक्रमण, प्रत्याक्रमण का, प्रतिशोध, प्रति-प्रतिशोध का कुचक्र चल पड़ता है। फलतः समय, कौशल और साधन ऐसे कृत्यों में ही लगाने लगता है। जिसमें अपनी और दूसरों की केवल हानि ही बन पड़ती है।

स्थिति को उलटने के लिए आवश्यक है कि समूहवाद के प्रति सर्व साधारण में निष्ठा उत्पन्न की जाय। सहकारिता का, सहिष्णुता का वातावरण बने और हिलमिल कर रहने, मिल बाँट कर खाने की परम्परा को प्रश्रय मिले। व्यक्ति अपने आपको समाज का एक अविच्छिन्न घटक समझे। सबके लाभ में अपना लाभ और सबके हित में अपना हित समझे। यही वह रीति नीति है जो संगठन शक्ति को विकसित करती और सत्प्रवृत्तिसंवर्धन के लिए हर किसी उत्साह उमगाती है। व्यक्ति और समाज का बहुमुखी हित साधन इसी में है।

गायत्री मन्त्र का संक्षिप्त साराँश दूरदर्शी विवेकशीलता का अभिवर्धन है। तात्कालिक लाभ के लिए अदूरदर्शी अक्सर भावना भविष्य अंधकारमय बनाते रहते हैं। दूरदर्शिता भविष्य की संभावनाओं का स्मरण कराती है और बताती है कि श्रेय पथ पर चलने से ही सबका सब प्रकार कल्याण है। सज्जनों की संघ शक्ति हो सके तो समझना चाहिये कि धरनी अवतरित होने में विलंब नहीं। दूरदर्शिता और प्रखर प्रतिभा के अर्जन में संलग्न रहना यही है गायत्री मन्त्र का तत्वदर्शन।

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