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Magazine - Year 1988 - Version 2

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उज्ज्वल भविष्य को साकार करेगी ऋषिकल्प तपश्चर्या

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गर्भवती को नौ महीने तक आये दिन रुग्णता का सामना करना पड़ता है। अपच, अनिद्रा, उल्टी दस्त, जैसी मुसीबतें उन दिनों विशेष रूप से छाई रहती हैं। उन्हें सामान्य और स्वाभाविक मानकर गर्भिणी से लेकर उस के कुटुम्बी, सम्बन्धी सभी प्रसन्न और आशान्वित रहते हैं। नवजात शिशु की उपलब्धि उसकी प्रगति और बड़े होने पर सभी के लिए सुविधा, सहकार देने की कल्पना छाई रहती है। उसी कल्पना में सभी विभोर बने रहते हैं। यों प्रसूता की प्रसव वेदना का अनुभव लगाया जाय तो वह एक भयंकर दुर्घटना जैसी दृष्टिगोचर होगा। कई घंटे तक चाकुओं से गोदे जाने जैसी भयंकर वेदना होती है, कई बार तो उस संकट में प्राण तक चले जाने का खतरा बन पड़ता है। इतने पर भी गर्भधारण को शुभ समाचार के रूप में लिया जाता है। वर्तमान की कठिनाई को उज्ज्वल भविष्य की संभावना पर निछावर कर दिया जाता है।

बीज बातें समय घर के भरे कोठे खाली हो जाते हैं। किसान साल भर जुताई, गुड़ाई, सिंचाई, रखवाली आदि के कष्ट साध्य कार्यों में लगा रहता है या सब करने में न तो उदासी आती है और न कष्ट की अनुभूति होती है, क्योंकि अगले ही दिनों धनधान्य से घर भर देने वाली फसल की छवि मानस पर छाई रहती है। मोती बीनने वाले पनडुब्बे गहरे समुद्र में डुबकियाँ लगाते समय जोखिम झेल लेते हैं। फिर भी ऐसा दुस्साहस हाथ लगने की आशा, उत्साह और उमंग प्रदान करती रहती है।

नवयुग के अवतरण की संभावना में ही हमें अपने आशा-विश्वास की सराबोर रखना चाहिए इससे पूर्व युग संधि की बेला में कुछ प्रकृति प्रकोप, मानवी अनाचार और सामूहिक उन्माद में बने पड़े विग्रह भी समाने आते रह सकते हैं। उनका सामना अधिक जागरूकता और साहसिकता के साथ करने के लिए अपेक्षाकृत अधिक तत्परता पूर्वक कटिबद्ध होना चाहिए। इतने पर भी निराशा को पास नहीं फटकने देना चाहिए। सतयुग की वापसी जैसी महान उपलब्धि के स्वप्न ही संजोये रहने चलिए।

पहलवानी करने वाली को चोटें भी खानी पड़ती हैं, पर दंगल जीतने का गौरव और पुरस्कार उनमें उमंगे भरे रहता है। विद्यार्थी को फीस देने, पुस्तकें खरीदने आदि के रूप में कुछ न कुछ खर्चते भी रहना पड़ता है और कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए प्रायः बारह वर्ष तक अनवरत अध्ययनरत भी रहना पड़ता है। फिर भी स्कूल के साथ जुड़े रहने से इनकार नहीं किया जाता। न अच्छे छात्र ऐसा सोचते हैं न अभिभावक बैठे रहने को समर्थन देते हैं। अध्यापक भी ऐसी उपेक्षा दिखाने वालों का अप्रसन्न होते हैं। हितैषियों में से भी सभी प्रकार कंधा डालने वालों से अप्रसन्न रहते हैं। युग संधि के दिनों प्रतिभावानों का अन्यमनस्क रहना ऐसा ही अपनाया गया अवरोध है जिससे तात्कालिक सुविधा भले ही सूझ पड़ती हो पर भविष्य तो निश्चय ही अंधकारमय स्तर का विपन्न ही बना रह सकता है।

प्रतिस्पर्धाओं में सम्मिलित होने वाले डटकर तैयारी करते हैं। विजय को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हैं। अग्नि परीक्षा में प्रवेश करते समय कुछ भी भले ही उस धातु खण्ड पर बीता हो पर जब कसौटी पर कसे जाने और तपाने में अधिक चमकने की प्रामाणिकता सिद्ध हो जाती है तो फिर किसी को स्तर पर संदेह नहीं रह जाता। खरे सोने की प्रामाणिकता का समुचित मूल्याँकन होता है। यही बात अपने समय के बारे में भी कही जा सकती है और उन वरिष्ठों के सम्बन्ध में भी जिनकी विकट परिस्थितियों द्वारा परीक्षा होती रहती है। इसमें उत्तीर्ण होने पर वैसा ही कुछ उपलब्ध होता है जैसा कि चयन प्रतियोगिता में सफल होने वाले बड़े स्तर के अफसर बनते हैं। चुनाव जीतने वाले साँसद, पार्षद, मंत्री आदि बनते है।

युग संधि की बारह वर्षीय अवधि ऐसी है जिसमें प्रतिभा सम्पन्नों को निर्वाह भर में संतुष्ट रहकर प्रस्तुत अवाँछनीयताओं से लड़ना पड़ेगा और उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए प्रबल प्रयत्न करने में किसी से पीछे नहीं रहकर पुरुषार्थरत रहना होगा। यात्रा में एक पैर पीछे से उठता है तो अगला आगे बढ़ता है। राजहंस नीर क्षीर का, विवेक अपनाते और दोनों को पृथक करते है। अधर्म के निवारण और धर्म के अभिवर्धन की द्विधा इन्हीं दिनों अपनी पूर्ण प्रखरता पर है। दो मोर्चे पर दुधारी तलवार से लड़ने की चुनौती ऐसे ही विशेष अवसरों पर समाने आती है।

त्रेता में असुरता का निराकरण और सतयुगी रामराज्य के संस्थापन का क्रम चला था। इसके लिए राम सहित अनेक ऋषि मुनियों ने पंचवटी में तप किया था। उसमें बारह वर्ष साधना चली और दो वर्ष असुरता से युद्ध लड़ा गया। चौदह वर्ष वनवास में बारह वर्ष तप साधना के थे। पाँडवों का सृजन इन्हीं दो कार्यों के लिए हुआ था। उन्हें जरासंध, कंस, दुर्योधन, शिशुपाल आदि द्वारा फैलाई गई अनीति की निरस्त करना था। साथ ही सिकुड़े हुए अस्त व्यस्त भारत को विशाल बनाने का महाभारत प्रयोजन पूरा करना था। इसके लिए भी प्रचण्ड आत्म शक्ति की आवश्यकता पड़ी। किसी बहाने उन्हें वनवास जाना पड़ा बारह वर्ष आत्मसाधना में बीते तथा एक वर्ष और अज्ञातवास में रहना पड़ा।

बुद्ध ने धर्म चक्र प्रवर्तन आन्दोलन को विश्वव्यापी बनाने से पूर्व बारह वर्ष तक निजी तपश्चर्या सम्पन्न की थी। एक गणना के अनुसार बारह वर्ष का भी एक युग माना जाता है। गान्धी युग सन् 1930 के नमक सत्याग्रह से लेकर सन 1942 के “करो या मरो” आन्दोलन के रूप में बारह वर्ष तक सामूहिक तप के रूप में गतिशील रहा। इन दिनों भी युग संधि का उपक्रम इतनी ही अवधि का चल रहा है। समुद्र मंथन की पुनरावृत्ति इसे समझा जा सकता है। इसमें आर्थिक, राजनैतिक स्तर के प्रगति प्रयास तो होंगे ही साथ ही आत्मशक्ति को उभारने की साधनात्मक प्रक्रिया भी प्रौढ़ता के स्तर तक पहुँचेगी।

सप्त ऋषियों की तप साधना प्रसिद्ध है।इसी आधार पर वे अजर अमर बने हुए आकाश में चमकते दमकते हैं। ध्रुव एवं ब्रह्मांड का ध्रुव केन्द्र बनने का अवसर तप साधना से मिला था। च्यवन ऋषि जब तप में निरत हुए तो वे सुकन्या जैसी पत्नी, अश्विनी कुमारी जैसे चिकित्सक पा सके और जराजीर्ण शरीर का कायाकल्प करके खोले यौवन को पुनः प्राप्त कर सकने में समर्थ हुए।

तपस्वी विश्वामित्र का मन नये संसार की अभिनव संरचना करने का था। तपोबल के अनुरूप वे वैसा संकल्प और साहस कर सके। उपक्रम साधन जुटे। उनके शिष्ट हरिश्चन्द्र ने न केवल अपना समस्त वैभव उनके चरणों पर समर्पित किया वरन् सेवा धर्म स्वीकार करने हेतु अनोखे ढंग की तपश्चर्या में निरत रहे। उन दिनों धरती ने असुरता के आतंक से मुक्ति पाई थी। त्रेता के रामावतार के दिव्य चरित्रों में विश्वामित्र के अनुदान समर्थ भूमिका निभा सके। तपोनिष्ठ ऋषि अगस्त्य का भी इस प्रयोजन में समर्थ योगदान था।

पार्वती ने लम्बा तप करके शिव को पति रूप में वरण कर सकने का सुयोग पाया था। अनुसुइया की तपस्या भी भागीरथ की गंगा की तरह पुण्य सरिता मंदाकिनी की धरती पर ला सकी। अनुसुइया, गार्गी, मैत्रेयी, कात्यायनी आदि ने भी अपने अपने स्तर के तप किये थे और उसी कारण वे उच्चस्तरीय ऋषियों के समकक्ष अपनी गणना करा सकीं। कुंती की साधना से द्रवित होकर सूर्य, धर्मराज, इन्द्र, पवन आदि इनकी गोदी में खेलने के लिए सहमत हुए थे। पाण्डव ऐसी दिव्य शक्तियों से सम्पन्न थे। अंजनी की साधना ही हनुमान जैसी प्रतापी को जन्म दे सकी। कण्व के संरक्षण में साधना करने वाली शकुन्तला ही चक्रवर्ती भरत की माता कहलाने का श्रेय प्राप्त कर सकी। स्वयं मनु और शतरूपा रानी की तपस्या ही उन्हें अवतारों को जन्म दात्री बना सकी।

पाषाण परिकर हिमालय को “देवात्मा” नाम इसलिए मिला कि उनकी कंदराओं में रहकर अगणित ऋषि तपस्वी उसमें अपनी प्रचंड प्राण ऊर्जा का समावेश करते रहे। अनेक दिव्य तीर्थों और दिव्य सरिताओं का क्षेत्र भी वहीं इसी वरदान के आधार पर बन सका। शिव तक ने इसे अपना क्रीड़ा क्षेत्र बनाया। राम देवप्रयाग में रहकर तप करते रहे और कृष्ण रुक्मणी सहित बद्रीनाथ क्षेत्र में तप करना आवश्यक समझा।

असुर समुदाय ने भी तप की शक्ति से ही अपने को असाधारण शक्तिशाली बनाया। वह दूसरी बात है कि उस उपलब्धि का दुरुपयोग करने वाले भस्मासुर, महिषासुर, वृत्रासुर, रावण, कुँभकरण आदि भी असाधारण शक्ति सम्पन्न बने एवं विनाश को प्राप्त हुए। इससे तप की महिमा तो स्पष्ट ही है, यह दूसरी बात है कि कोई गौ घृत को आग में डालकर समूचे नगर को भस्म कर डालने वाला अग्नि काण्ड उपस्थिति कर दे या आत्मदाह कर ले।

जमीन से सभी धातुएँ मिट्टी मिली हुई ही निकलती है। उन्हें भट्टी में तपाने के उपरान्त ही महत्वपूर्ण कामों में आ सकने योग्य बनाया जाता है। उपकरण औजारों के निर्माण की प्रक्रिया अग्नि संस्कार के साथ गलाई ढलाई करने के साथ जुड़ी हुई है। समुद्र का खारा पानी सूर्य ताप से उड़कर भाप बना और बादल बनकर बरसता, पेय जल बनता है। पारे जैसी विषाक्त धातुएँ अग्नि संस्कारों के सहारे संजीवनी का काम देने वाली औषधियों के रूप में विनिर्मित होती हैं। आयुर्वेद की गुणकारी रस भस्म तपाये जाने पर ही गुणकारी बनती हैं। खाद्यान्न पकाये जाने पर ही सुपाच्य बनते है। ईंट आवे में पककर मजबूत होती हैं। यह तप संस्कार सामान्य जनों को तपस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी बनाते हैं और उसे ऋद्धि सिद्धियों से सुसज्जित एवं शाप वरदान दे सकने वाली क्षमताओं से सम्पन्न करते हैं।

संकटों से निपटने, सुयोग जैसी परिस्थितियां विनिर्मित करने, वातावरण, में भरे प्रदूषणों की शुद्धि परिष्कार करने में भी तप ऊर्जा की क्षमता अपना चमत्कार दिखाती है। ईंधन जब तपता है तो शक्ति में परिणत होता है।

युग चेतना का उद्भव भी ऋषिकल्प मानसिक तपश्चर्या पर बहुत कुछ निर्भर है। रचनात्मक प्रत्यक्ष प्रयास तो होने ही चाहिए। श्रम, साधन, मनोयोग, कौशल के साथ साधनों को रचनात्मक कामों में लगाया जाना प्रत्यक्ष तप है। इस प्रकार के भौतिक प्रयास अपने स्थान पर सही एवं आवश्यक हैं। पर उनके साथ अध्यात्म साधना का समन्वय हो सके तो उसे “सोना और सुगन्ध” के सम्मिश्रण जैसा सुयोग समझा जा सकता है।

युग परिवर्तन की महान प्रक्रिया में विशिष्ट आत्माओं का विशिष्ट आत्माओं का विशिष्ट तप नियोजित तो होगा ही। उसकी जानकारी संभवतः सर्व साधारण तक पहुँचेगी भी नहीं। पर इस पुण्य प्रयोजन में सर्व साधारण का भी योगदान होना चाहिए। समुद्र सेतु बाँधने में वानरों का गोवर्धन उठाने में ग्वाल बालों का योगदान रहा। अपनी सीमित सामर्थ्य के कारण गीध-गिलहरी तक चुप नहीं बैठे रहे। युग संधि पुरश्चरण की सरल भावना में सम्मिलित होकर सभी भावनाशील युग धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। संयुक्त देवशक्ति द्वारा देवों दुर्गा के अवतरण का यह अभिनव प्रयोग है।

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