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Magazine - Year 1988 - Version 2

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पात्रता की साधना से अभीष्ट सिद्धियाँ

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बादल ऊपर से बरसते हैं। इसलिये समझा जाता है कि जलाशय आकाश में भरे पड़े होंगे। किन्तु जब थोड़ी गंभीरता के साथ वस्तुस्थिति समझने का प्रयत्न किया जाता है तो पता चलता है कि गहरे समुद्र का पानी ही भाप बनकर ऊपर उठता है और घनीभूत होकर बादल बन जाता है। भारी होने पर वही जब अपना भार बहन नहीं कर पाता तो नीचे बरस पड़ता है। वास्तव में वर्षा का जल समुद्र का ही अनुदान है, जो गहराई तक भीतर सैकड़ों मील नीचे तक जमीन में धँसा हुआ है।

ऊपर से कुछ मिलता न हो सो बात नहीं है। सरोवरों में वर्षों का जल ही जमा होता है। पवन आकाश में ही बहता है। जिनमें साँस लेने की क्षमता है वे उस प्राण वायु को समुचित मात्रा में खींचते और जीवन धारण किये रहते हैं। इसी प्रकार सूर्य ऊर्जा तथा अन्य अदृश्य शक्तियाँ आकाश से ही बरसती है।

इतने पर भी यह मानकर चलना चाहिये कि जीवनोपयोगी अधिकाँश वस्तुएँ धरती के भीतर से ही उत्पन्न होती हैं। बहुमूल्य पत्थर, धातुएँ, कोयला, खनिज तेल, कितने ही रसायन धरती से खोजकर निकाले जाते हैं। वृक्ष वनस्पतियाँ धरती पर ही उगते हैं और उसी के भीतर अपनी जड़े फैला कर बड़े बनते, फल-फूलों से लदते हैं। प्राणियों के लिए खाद्य पदार्थ भी धरती से उगाये जाते है। कुओं का पानी उसी के अंतराल में भरा होता है। नदियों का प्रवाह भी तभी बनता है जब धरती उसके लिए जगह देती है जल भंडार भी पृथ्वी पर भी भरा पड़ा हैं। समुद्र तक उसी के अंचल में छिपा बैठा है। पर्वतों की सुरम्य श्रृंखलाएं उसी पर अवस्थित है। धरती पर ही मनुष्य चलते फिरते और उसी पर अपना आवास निवास बनाते हैं।

मनुष्य की धरती उसकी काया है उसके अनेकानेक अंग अवयव जीवनचर्या का निर्वाह क्रम चलाये रहने के लिए तो निरन्तर कार्य करते ही रहते हैं साथ ही जो अनेकों विशिष्टताएं एवं विभूतियाँ है, वे भी पूरी तरह इसी कार्य कलेवर में उद्भूत होती है। उन्हें प्रयत्नपूर्वक जाग्रत किया जाता है।

शिक्षा, कला, सम्पन्नता, प्रतिभा आदि को शरीर में ही प्रयत्नपूर्वक समाविष्ट किया जाता हैं शरीर यदि अपंग असमर्थ स्तर का है तो कोई भी शिक्षक ऐसे व्यक्ति को कोई कौशल सिखा सकने में समर्थ नहीं हो सकता।

शरीर का ऊपरी आवरण तो तरह-तरह की हलचलें ही कर सकता हैं पर उसकी भीतरी परतें विचारशीलता, भावसंवेदना, आस्था आदि की विशेषताओं को भीतर से ही उभारती हैं उन्हें समुन्नत बनाने में शिक्षा व्यवस्था तो सहयोग भर देती है। यदि शिक्षा पद्धति में ही समग्र सामर्थ्य रही होती तो वह अन्य जीवधारियों को भी वैसा ही सुयोग्य बना लेती जैसे कि मनुष्य बनते है। मनुष्य में भी जो मानसिक रोगी या विक्षिप्त है, वे दूसरों के द्वारा बहुत प्रयत्न किये जाने पर भी प्रायः असफल ही रहते है। इससे सिद्ध हैं कि मौलिक क्षमताओं अपने ही भीतर है जो उन्हें विकसित कर लेते है, वे प्रतिभावान बनते है। जो उसको मात्र काम काज में ही लगाते हैं। वे सामान्य स्तर के बने रहते है। किन्तु जो उनकी उपेक्षा करते हैं वे नर पशु जीवन जी पाते हैं। इसके विपरीत जो अपनी क्षमताओं को कुमार्गगामी बनाते हैं वे पतित स्तर को अपराधी जिन्दगी जीते हैं। भर्त्सना और प्रताड़ना के भाजन बनते हैं।

“साधना से सिद्धि” का सिद्धान्त सर्वविदित है। साधना को मोटे तौर पर देवी देवताओं को प्रसन्न करने का उपाय, उपचार माना जाता है पर देवताओं का अनुग्रह भी इसी शर्त पर मिलता है कि अपनी पा.ता और उत्कृष्टता प्रमाणित करने के लिए व्यक्तित्व को परिष्कृत स्तर का बनाने में प्रयत्नपूर्वक सफलता प्राप्त कर ली जाये। कुपात्रों को देवी अनुग्रह या तो मिलते ही नहीं, यदि कुछ ही समय में जब उस अहंकार में कुकर्म चल पड़ते हैं तो फिर जड़ मूल सहित उखाड़ना पड़ता है। जो सामान्य पुरुषार्थ से कमाया गया था उसका भी लाभ नहीं मिल पता। जो सही रीति से कमाया था वह भी उसी आँधी में उड़ जाता है।

महत्वपूर्ण शक्तियाँ कुपात्र जनों को एक तो उपलब्ध ही नहीं हो पाती। यदि किसी प्रकार प्राप्त भी हो चले तो वह टिकती नहीं। भ्रष्ट व्यक्तित्व दृष्ट आचरण अपनाता है और कुछ ही समय में व्यक्तित्व को पूरी तरह नष्ट कर देता है।

योगाभ्यास से कई प्रकार की अतीन्द्रिय स्तर की दिव्य क्षमताएं प्राप्त होती है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, दूरानुभूति, विचार, संप्रेषण, भविष्य ज्ञान, व्यक्तित्व अध्ययन जैसी विलक्षणताएं कई व्यक्तियों में पाई जाती है और वे मनुष्य को सिद्ध पुरुषों की श्रेणी में ला बिठाती हैं। शारीरिक मानसिक लाभ भी ऐसे व्यक्ति दूूसरों को पहुंचाते देखे गये है। शाप वरदान की क्षमता भी उनमें उत्पन्न हो जाती है। इस दिशा में और भी खोजे इन दिनों हो रही हैं प्राचीन काल में ऋषि मुनि तो उन प्रयोगों में पारंगत थे ही।

इतने पर भी यह नहीं मान लेना चाहिए कि यह किसी का दिया हुआ वरदान है। वह अपने पुरुषार्थ से आत्मपरिष्कार की पृष्ठभूमि पर ही उगता है। जो उगा है उसे तद्नुरूप बाहरी सहायता भी मिलते रहने का प्रकृतिगत नियम हैं।

अंकुर जब उत्पन्न होता हैं तो बाहर से धूप, वर्षा, हवा आदि की अनायास ही सहायता मिलती है, और वह ऊंचा उठता जाता है। जिस चीज में अंकुर उत्पन्न करने की आरंभिक क्षमता ही नहीं, उसे बाहर की वे उपलब्धियाँ प्राप्त करने से वंचित ही रहना पड़ता है जो अन्य उगने में सर्माि अंकुरों को सहज ही मिलती रहती हैं।

स्वाति की बूंदें बरसती तो सर्वत्र है, पर उनसे लाभ केवल वे सीपियाँ ही उठा पाती है जिनमें मोती पैदा करने की मौलिक क्षमता पहले से ही उत्पन्न हो गई है कहते है कि स्वाति बूंदों की सहायता से केले में कपूर, बाँस में वंशलोचन उत्पन्न होता है है पर यह संभव तभी है जब वे उस लाभ को उठा सकने की अतिरिक्त विशेषता से पहले ही सम्पन्न हो चुके हो। अन्यथा वह लाभ हर सीप को हर बाँस के, हर केले को कहा मिलता है। मरे हुए को तो अमृत भी नहीं जिला सकता। जीवित व्यक्ति ही उसे प्राप्त करके अमर बनने सुने जाते हैं। कठोर चट्टानों पर पूरी वर्षा ऋतु गुजर जाने पर भी एक तिनका तक पैदा नहीं होगा।

देवी अनुग्रह हो या पुरुषार्थ उपार्जित वैभव। दोनों ही स्तर की सफलताएं प्राप्त करने के लिए प्रारंभिक प्रयास यही करना पड़ता है कि अपनी पात्रता, प्रामाणिकता और प्रतिभा को ऊंचे स्तर तक विकसित किया जाये। यह सिद्धान्त जिनने हृदयंगम कर लिया, समझना चाहिए उनने भौतिक और आत्मिक स्तर की दिव्य विभूतियाँ अर्जित करने का राज मार्ग प्राप्त कर लिया। चुम्बक का निजी आकर्षण ही उसी जाति के अन्य कणों को कही से भी खींच घसीट कर उसके समीप ही ले आता है। सफलताएं भी इसी प्रकार सत्पात्रों के समीप आती और अपनी विभूतियों से सत्पात्रों को सुसज्जित करती हैं।

कुपात्रता को यथावत बनाये रहने, दोष दुर्गुणों से भरे रहने पर सामान्य जीवन भी श्ति पूर्वक जी सकना कठिन पड़ता है। अयोग्य व्यक्ति जहाँ भी जाते है वहाँ से दुत्कारे जाते और खाली हाथ लौटते हैं, अध्यात्म क्षेत्र में भी यह नियम समग्ररूप से चरितार्थ होता है प्रगति किसी भी दशा में क्यों न की जाय? चलना ही पैरों पड़ता है।

सार्थक एवं समग्र जीवन साधना

पदार्थ से शरीर और शरीर से आत्मा का महत्व अधिक है। इसी प्रकार समृद्धि संपन्नता का प्रगति और योग्यता का आत्मिक प्रखरता, प्रतिभा का स्तर भी कम से, एक से एक सीढ़ी ऊंचाई का समझा जा सकता है। आन्तरिक आस्थाएं ही वे विभूतियाँ है जो व्यक्ति के चिंतन चरित्र और व्यवहार को परिष्कृत करती है। व्यक्तित्व को प्रखर, प्रमाणिक एवं प्रतिभावान बनाती है। इसी आधार पर वे क्षमतायें उभरती है, जो अनेकानेक सफलताओं की उद्गम स्त्रोत हैं।

आत्मबल के आधार पर अन्य सभा बल हस्तगत किए जा सकते हैं। इसी के आधार पर उपलब्धियों का सदुपयोग बन पड़ता हैं। परिस्थितियों की प्रतिकूलता रहने पर भी उन्हें व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के आधार पर अनुकूल बनाया जा सकता है। संसार के इतिहास में ऐसे गणित व्यक्ति हुए है, जिनकी प्रारंभिक परिस्थितियां गई गुजरी थी। निर्वाह के साधनों तक की कमी पड़ती थी, फिर प्रगति के सरंजाम जुट सकना और भी कठिन, लगभग असंभव दीख पड़ता था। इतने पर भी वे व्यक्तित्व की प्रामाणिकता के आधार पर सभी के लिए विश्वस्त एवं आकर्षक बन गए। उनका चुम्बकत्व व्यक्तियों, साधनों ओर परिस्थितियों को अनुकूल बनाता चला गया और वे अपने पुरुषार्थ के साथ उस सद्भाव का ताल मेल बिठाते हुए दिन दिन ऊंचे उठते चले गये ओर अंततः सफलता के सर्वोच्च शिखर तक जा पहुंचने में समर्थ हुए। ऐसे अवसरों पर व्यक्तित्व की उत्कृष्टता को ही श्रेय दिया जाता है। इस उपलब्धि को ही आत्मबल का चमत्कार कहते है।

इसके विपरीत ऐसे भी अनेकानेक प्रसंग सामने आते रहते हैं जिसमें सभी अनुकूलतायें रहने पर भी लोग अपनी दुर्बुद्धि के कारण दिन दिन घटते और रिसते चले गये। पूर्वजों के कमाये धन को दुर्व्यसनों में उड़ा दिया। आलस्य और प्रमाद में ग्रसित रहकर अपनी क्षमताओं और संपदाओं को गलाते चले गये। कई अनाचार के मार्ग पर चल पड़े और दुर्गति भुगतने के लिए मजबूर हुए। इसमें उनसे मानस की गुण कर्म स्वभाव की निकृष्टता ने अनेक सुविधायें रहते हुए भी उन्हें असुविधा भरी परिस्थितियों तक पहुंचा दिया।

चेतना की शक्ति संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। मनुष्य ही रेल, जहाज कारखाने आदि बनाता है। विज्ञान के नित नए आविष्कार करता है। यहाँ तक की धर्म और दर्शन, आचार और विचार भी उसी के रचे हुए हैं ईश्वर का साकार रूप में कल्पना तथा स्थापना करना भी उसी का बुद्धि कौशल है। इस अनगढ़ धरातल को सुविधाओं, सुन्दरताओं, उपलब्धियों से भरा पूरा बनाना भी मनुष्य का ही काम है। यहाँ मनुष्य शब्द से सी शरीर या वैभव को नहीं समझा जाना चाहिए। विशेषताएं चेतना के साथ जुड़ी होती हैं इसे भी प्रयत्नपूर्वक उठाया या गिराया जा सकता है। शरीर को बलिष्ठ या दुर्बल बना लेना प्रायः मनुष्य की अपनी रीति नीति पर निर्भर रहता है। सम्पन्न और विपन्न भी लोग अपनी हरकतों से ही बनते हैं। उठना और गिरना अपने हाथ की बात है। मनुष्य को अपने भाग्य का निर्माता आप कहा जाता है। यहाँ व्यक्ति का मतलब आत्म चेतना से ही समझ जाना चाहिए वही प्रगतिशीलता का उद्गम है। उसी क्षेत्र में पतन पराभव के विषैले बीजांकुर भी जमे होते हैं। सद्गुणी लोग अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी सुख शान्ति का वातावरण बना लेते हैं, अन्त चेतना के समुन्नत होने पर समूचा वातावरण, संपर्क क्षेत्र सुख शान्ति से भर जाता है। इसके विपरीत जिनका मानस दोष दुर्गुणों से भरा हुआ है, वे अच्छी भली परिस्थितियों में भी दुर्गति और अवगति का कठोर दुख सहते है।

वैभव अर्जित करने के अनेक तरीके सीखे और सिखाए जाते है। शरीर को निरोग रखने के लिये भी व्यायामशालाओं, स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर अस्पतालों तक की अनेक व्यवस्थायें देखी जाती हैं। औद्योगिक, वैज्ञानिक शैक्षणिक शासकीय प्रबंध भी अनेक है पर ऐसी व्यवस्थायें कम ही कही दीख पड़ती है जिनसे चेतना को परिष्कृत एवं विकसित करने के लिए सार्थक, समर्थ एवं बुद्धि संगत, सर्वोपयोगी आधार बन पड़ा हो।

प्रज्ञायोग ऐ ऐसी ही विद्या है। इसे बोलचाल की भाषा में जीवन साधना भी कहा जा सकता है। इसमें जप, ध्यान, प्राणायाम, संयम जैसे विधानों की व्यवस्था है पर सब कुछ इतने तक ही सीमित नहीं हैं उपासना में ध्यान धारण स्तर के सभी कर्मकांडों आ जाते है। इसके साथ ही जीन के हर क्षेत्र में मानवी गरिमा को उभारने और रुकावटें हटाने जैसे सभी पक्षों को जोड़कर रखा गया है। शरीरसंयम, समयसंयम, अर्थसंयम, विचारसंयम, इस धरा के अलग न हो सकने वाले अंग हैं। दुर्गुणों के, कुसंस्कारों के निराकरण पर जहाँ जोर दिया गया है वहाँ यह भी अनिवार्य माना गया है कि अब की अपेक्षा अगले दिनों अधिक विवेकवान्, चरित्रवान और पुरुषार्थ परायण बनने के लिए चिंतन तथा अभ्यास जारी रखा जाये। वास्तव में यह समग्रता ही जीवन साधना की विशेषता है। साधक को कर्तव्य क्षेत्र में धार्मिकता, मान्यता क्षेत्र में आत्म परायणता और अध्यात्म क्षेत्र में दूरदर्शी विवेकशीलता उत्कृष्ट आदर्शवाद को अपनाने के लिए कहा जाता है। इन सर्वतोमुखी दिशा-धाराओं में समुचित जागरूकता बरतने पर ही यह लाभ मिलता है, जिसे आत्म परिष्कार के नाम से जाना जाता है। यह हर किसी के लिए सरल, संभव और स्वाभाविक भी है।

आत्म–परिष्कार के अन्य उपाय भी हो सकते हैं पर जहाँ तक प्रज्ञा परिवार के प्रयोग का सम्बन्ध है वहाँ यह कहा जा सकता है कि वह अपेक्षाकृत अधिक सरल, तर्क संगत और व्यवस्थित है। इस संदर्भ में अनेक अभ्यास रस अनुभवियों की साक्षी भी सम्मिलित हैं।

आत्मिक प्रगति का महत्व समझा जाना चाहिए। व्यक्ति या राष्ट्र की उन्नति उसकी सम्पदा, शिक्षा, कुशलता आदि तक ही सीमित नहीं होती। शालीनता सम्पन्न व्यक्तित्व ही वह उद्गम होता है जिसके आधार पर अन्यान्य प्रकार की प्रतियाँ तथा व्यवस्थाएं अग्रणी बनती है। समर्थता का केन्द्र बिन्दु यही है। इस विभूति के बल पर किसी भी उपयोगी दिशा में अग्रसित हुआ जा सकता है किन्तु यदि आत्मबल के अभाव रहा तो संकीर्ण स्वार्थपरता ही छायी रहेगी और उसके रहते कोई ऐसा महाप्रयोजन संघ ने सकेगा जिसे आदर्शवादी एवं लोकोपयोगी भी कहा जा सके। यहाँ वह उक्ति पूरी तरह से फिट बैठती है, जिसमें कहा गया है कि एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।”

अनेक प्रकार की समृद्धियों और विशेषताओं से लदा हुआ व्यक्ति अपने कौशल के बलबूते सम्पदा बटोर सकता हैं। सस्ती वाहवाही भी लूट सकता है, पर जब कभी मानवी गरिमा को कसौटी पर कसा जायेगा तो वह खोटी ही सिद्ध होगी। खोटा सिक्का अपने अस्तित्व से किसी को भ्रम में डाले रह सकता हैं, पर उस सुनिश्चित प्रगति का अधिकारी नहीं बन सकता जिसे महामानव के नाम से जाना जाता है। जिसके लिए सभ्य सुसंस्कृत, सज्जन, समुन्नत जैसे शब्दों का प्रयोग होता है।

सन्त परम्परा के अनेकानेक महान ऋषियों, लोक सेवियों एवं युग निर्माताओं से जो प्रबल पुरुषार्थ बन पड़े उनमें उनकी आन्तरिक उत्कृष्टता ही प्रमुख कारण रही। उसी के आधार पर वे निजी जीवन में आत्म सन्तोष, लोक सम्मान और देवी अनुग्रह की निरन्तर वर्ष होती अनुभव करते है। अपने व्यक्तित्व कर्तृत्व के रूप में ऐसा अनुकरणीय उदाहरण पीछे वालों के लिए छोड़ जाते है जिनका अनुकरण करते हुए गिरो को उठाने और उठो को उछालने जैसे अवसर हस्तगत होते रहे। यही है जीवन की लक्ष्य पूर्ति एवं एक मात्र सार्थकता। प्रज्ञायोग की जीवन साधना इस महती प्रयोजन की पूर्ति करती हैं।

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