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Magazine - Year 1988 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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देवत्व है अंतिम लक्ष्य जिसका, वह है मनुष्य

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मनुष्य वस्तुतः कैसा है? क्या है? उसकी मूलभूत जन्म-जात प्रवृत्तियां क्या है? मनोविज्ञानियों,तत्ववेत्ताओं के लिए यह लम्बे समय से शोध का विषय रहा है। नीतिशास्त्र,धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन एवं विज्ञान आदि विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों ने समय-समय पर इस संदर्भ में अपने-अपने मन्तव्य प्रकट किये है। साथ ही सामाजिक परिवेश में उसके व्यक्तित्व-विकास की संभावनाओं का अध्ययन किया है कि किस प्रकार वह अपने स्वभाव-संस्कार का परिष्कार परिमार्जन करके स्वयं को ऊंचा उठाकर दिव्यता का वरण करता है।

अध्यात्मवेत्ताओं का कहना है कि मनुष्य के स्वभाव को जानने से पूर्व उसके उद्गम स्त्रोत को जानना आवश्यक है। मानवी अन्तःकरण की संरचना दैवी तत्वों से मिलकर हुई है। वह स्वयं ईश्वर का ज्येष्ठ पुत्र युवराज है और उसकी विश्व वाटिका को समुन्नत-सुविकसित करने के लिए एक कुशल माली की भूमिका निभाने आया है। उसका जन्मजात स्वभाव भी इस भूमिका का निर्वाह कर सकने के सर्वथा उपयुक्त है। शरीर,मनःतंत्र और भावनाओं-सद्प्रेरणाओं क्रीड़ा स्थल अन्तःकरण का त्रिविध संस्थान ऐसी दिव्य क्षमताओं और विभूतियों से भरा-पूरा मिला है, जिससे वह जीवन सम्पदा को सार्थक बनाने वाली उच्चस्तरीय भूमिका निभा सके।

आधुनिक वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में भ्रान्त धारणाएँ ही प्रस्तुत की हैं और उसके स्वभाव को हेय स्तर का ठहराया है। कहा है कि जन्मजात रूप से उसे पशु प्रवृत्तियाँ ही मिली हैं। उनकी पूर्ति से ही उसे चैन पड़ता है। वहीं उसे करना चाहिए। इन तथाकथित अन्वेषणकर्ताओं में डार्विन जैसे विकासवादियों का कहना है कि समुद्र में अमीबा जैसे एक कोशीय प्राणियों के रूप में जीवन उत्पन्न हुआ, उसी से विभिन्न प्रकार के प्राणी विकसित हुए। उसी विकास शृंखला में से बन्दर की औलाद के रूप में मानव जीवन प्रकाश में आया। पशु-प्रवृत्तियों के इन विश्लेषणकर्ताओं ने यह कहा है कि सभी जानवर स्वार्थ प्रधान है। जहाँ अवसर मिलता है वहाँ आक्रमण करने में नहीं चूकते। यौन स्वेच्छाचार उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। खतरे की स्थिति में लड़ने या भाग खड़े होने की दोनों ही प्रवृत्तियां अपनाते। चूँकि मनुष्य भी एक तरह का विकसित पशु है, इसलिए उसके स्वभाव में भी यही प्रवृत्तियां भरी रहती है। इस प्रतिपादन के अनुसार मनुष्य चोर-उचक्का,व्यभिचारी, आक्रमणकारी, स्वार्थी बनाता है तो यह उसकी स्वाभाविकता कही जायेगी।

इंग्लैंड के दार्शनिक हॉब्स ने मनुष्य को बहुत बड़ा स्वार्थी प्राणी माना है। उनका कथन है कि मनुष्य-मनुष्य के लिए भेड़िये के समान है यदि उसे मनमानी बरतने की स्वेच्छागामी होने की छूट मिल जाये तो अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए वह दूसरे का गला घोट सकता है। उनके अनुसार मनुष्य हिंसक स्वभाव का होने के कारण ही अपने लिए राज्य-प्रशासन एवं विभिन्न नियमों, कानूनों की व्यवस्था करता है जिससे उसे ऐसा कुछ करने से दंड पाने का भय बना रहे। प्रतिकार के भय से ही वह दूसरों पर आक्रमण नहीं करता। अन्यथा जहाँ इसकी संभावना नहीं होती, वहाँ उद्दण्डता बरतने, दूसरों को सताने, उन्हें विनष्ट करने का दुष्कृत्य क्यों करता।

आधुनिक मनोविज्ञान के प्रवर्तक सिग्मंड फ्रायड ने भी मनुष्य को स्वार्थी कहा है। उनके अनुसार मनुष्य का जीवन अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए है। दूसरों के प्रति प्रेम और उदारता मात्र दिखाने के लिए है। जो व्यक्ति अपने अंतर्मन में जितना अधिक स्वार्थी होता है वह उदारता का उतना ही आडम्बर फैलाकर संसार में प्रसिद्धि पाने की चेष्टा करता है। सुख प्राप्ति की कामना को ही उन सब कामों का मूल स्त्रोत बताया है। उनके अनुसार दान पुण्य परमार्थ इसलिए किये जाते है जिससे कीर्ति बढ़े या आर्थिक लाभ हो। लोगों की दान व्यक्ति पर श्रद्धा जाती रहे। फ्रायड का सम्पूर्ण मनोविज्ञान वासना-तृप्ति के इर्द−गिर्द ही चक्कर काटता है। इसी को उसने मनुष्य की मूल प्रवृत्ति माना है। जब उसे खेलने की खुली छूट मिल जाती है तो मनुष्य स्वस्थ रहता है अन्यथा दमित और अतृप्त वासना से अनेकानेक मनोविकारों का उदय होता है। इस प्रकार फ्रायडवादी प्रतिपादन के हिसाब से नीतिवादी-आदर्शवादी उत्कृष्टता की जड़ कट जाती है और मनुष्य नर पशुओं की श्रेणी में जा खड़ा होता है।

विकासवादी एवं फ्रायडवादी प्रतिपादकों की उपरोक्त मान्यताओं से हटकर मानवी स्वभाव की दिव्यता पर दृढ़ विश्वास रखने वाले मनःशास्त्रियों एवं अध्यात्मवेत्ताओं का कहना है कि मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ सन्तान है। ‘वह पूर्ण से उत्पन्न हुआ, पूर्णता युक्त है और अन्त में पूर्ण होकर ही रहेगा।’ इस श्रुति प्रतिपादन के अनुसार ही उसका स्वभाव एवं मूलवृत्तियां भी होनी चाहिए। फ्रायड द्वारा प्रतिपादित स्वभाव को इन्होंने मनुष्य के वास्तविक स्वभाव का विकृत रूप बताया गया है।

अध्यात्म विज्ञानियों के अनुसार मूलतः मानवी अन्तःकरण की संरचना दिव्य तत्वों से हुई है। स्नेह, सौजन्य, सद्भाव, पराक्रम, उल्लास, ऊर्ध्वगमन सत्प्रवृत्तियां ही उसमें भरी पड़ी है।उस क्षेत्र में जीवन क्रम को श्रेष्ठ बनाने तथा महानता के पथ पर अग्रसर होने की ही अदृश्य प्रेरणाएँ उठा करती है। सामान्यतया इसे अनसुनी करते रहने पर अन्तःकरण की दैवी चेतना प्रसुप्त पड़ जाती है और दुष्प्रवृत्तियों को जीवन सत्ता में प्रवेश करने की छूट मिल जाती है। इस क्षेत्र में निकृष्टताओं की भरमार होते रहने पर वही धीरे-धीरे स्वभाव का अंग बन जाती है। कालान्तर में यही प्रवृत्तियां संस्कार का रूप धारण कर लेती है और उनके दबाव से मनुष्य दुष्कर्मों की ओर आकृष्ट होता है। जन्म-जन्मान्तरों तक यही पशुवत् सरकार मानवी चेतना पर छाये रहते है। उनकी जड़ें मन की अचेतन परतों में गहराई तक जमी रहती है। ऐसी स्थिति में अन्तःकरण में सद्प्रेरणाएँ उभरती तो है किन्तु उस पर छायी मलीनता उन्हें कोई विशेष प्रतिफल प्रस्तुत नहीं करने देती। अन्तःकरण की दैवी सत्ता पर कुसंस्कार हावी रहते है और मनुष्य को श्रेष्ठता के महानतम के मार्ग पर बढ़ने में भारी अवरोध खड़ा करते है। कठोपनिषद् में ऋषि कहते हैं “ प्रमाद्यन्तम् वित्तमोहेन मूढ़्” अर्थात् सत्ता, सम्पत्ति के मोह में मनुष्य अपनी दिक् स्थिति भूल गया है। लगातार भ्रमित हो पथ अवरुद्ध होने का अर्थ है”मृत्यु”। अतः उपनिषद्कार संदेश देता है- कि मनुष्य पुरुषार्थ करे पर वैभव में खो न जाय। वह साध्य की अनुभूति करे। साध्य है अपना दिव्य स्वरूप-सत् चित् एवं आनन्द।

प्रख्यात मनोवैज्ञानिक कार्ल जुँग ने प्रकारान्तर से भारतीय अध्यात्म का ही समर्थन किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक ”टू ऐसे ऑन एनालिटीकल साइकोलॉजी” में कहा है कि मनुष्य स्वभावतः दिव्यता का पक्षधर है। अपने जीवन का परम लक्ष्य वह आत्मोत्कर्ष को मान्यता है। इस दिव्यता की प्राप्ति के लिए वह किसी प्रतीक या देव शक्ति को अपना माध्यम बनाता है। भावनाओं के आरोपण एवं श्रद्धा-विश्वास की प्रगाढ़ता से ही आत्मदर्शन की उपलब्धि होती है। अपने प्रेम-पात्र को वह अपने हृदय में विराजमान पाता है। इसकी उपलब्धि होने पर उसकी स्वार्थपरता समाप्त हो जाती है और वह लोकमंगल के कार्यों में निरत हो जाता है। आत्मज्ञान होने पर तथाकथित फ्रायडवादी मूलवृत्तियों का सर्वनाश हो जाता है, मनुष्य अपनी वैयक्तिक इच्छाओं की तनिक भी परवाह नहीं करता, समष्टिगत ति साध नहीं उसका उद्देश्य बन जाता है।

मनोविज्ञानी होमरलेन ने भी मानवी स्वभाव को दैविक माना है। यूनान के तत्ववेत्ता प्लेटो के अनुसार मनुष्य दूसरों की सेवा अपने दिव्य स्वभाव के कारण ही करता है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “रिपब्लिक” में कहा है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसकी प्रवृत्ति सदैव दूसरों की सेवा सहायता करने की रहती है। यह अलग बात है कि किसी में सेवा के भाव की बहुलता रहती है तो किसी में इसकी न्यूनता देखी जाती है। वस्तुतः यह भिन्नता मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई है। प्रायः अल्प विकसित मनुष्य की इन्द्रिय सुखों की ओर दौड़ता है और स्वार्थ पूर्ति में बाधा पड़ने पर दूसरों को सताता है। जिस व्यक्ति का स्वभाव विकसित हो जाता है वह विषम सुख से नहीं वरन् तत्व चिंतन एवं परमार्थ परायणता से तृप्ति पाता है। उचित शिक्षा एवं विद्या के द्वारा ही मनुष्य पशु प्रवृत्तियों से छुटकारा पाता और अपने अंदर निहित दिव्यता के दर्शन करता है।

फ्राँस के प्रख्यात दार्शनिक रूसो ने “इमील” नामक पुस्तक में कहा है कि मनुष्य का जन्मजात स्वभाव दैविक है। वह देवताओं की सन्तान है। उसमें जो दुष्प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं, वे समाज के वातावरण के संपर्क से ग्रहण की हुई होती है। उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया है कि शिशु के आरंभिक काल से ही उसे यदि उचित शिक्षा दी जाय, अच्छा वातावरण प्रदान किया जाय तो उसकी दैवी सम्पत्ति उत्तरोत्तर विकसित होती जायेगी और आगे चलकर वह अपनी सेवा से संसार को सुखी-समुन्नत बना देगा।

हालैंड के महान तत्ववेत्ता स्पिनोजा ने भी मनुष्य के वास्तविक स्वभाव को दिव्यता से परिपूर्ण बताया है। उनके अनुसार आत्मा परमात्मा का अंशधर है। सम्पूर्ण संसार में जहाँ तक दृष्टि फैलाई जाय उसी के गुणों का फैलाव है। चराचर जगत में वही व्याप्त है और फिर मनुष्य तो उसका साकार रूप है क्योंकि आत्मा ही परमात्मा का प्रतीक प्रतिनिधि है। अतः; उसके स्वभाव का पुण्य एवं पवित्रमय होना सुनिश्चित है। जब वह अपने से विचलित होता है तभी वह स्वार्थी, दम्भी, कामी और क्रोधी बन जाता है। उसके पतन पराभव का यही मुख्य कारण है। अपने स्वरूप को जान लेने पर समस्त दुष्प्रवृत्तियाँ-विषय लोलुपता समाप्त हो जाती हैं।

प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक इमेनुअल कान्ट का कहना है कि विवेक बुद्धि की उपस्थिति मानवी स्वभाव में दिव्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि ऐसा न होता तो धर्म, अधर्म, कर्तव्य, भला-बुरा निर्णय करने वाली विवेकशील बुद्धिमत्ता न रही होती। श्रेय-प्रेय का निर्णय करने की भावना मन में न आती। इन उत्कृष्ट भावनाओं का मन में आना ही मनुष्य के दैवी स्वभाव को सिद्ध करता है। उचित-अनुचित का निराकरण विवेक बुद्धि के सहारे ही बन पड़ता हैं। उचित व्यवहार दैवी स्वभाव के अनुकूल और अनुचित व्यवहार उसके प्रतिकूल है। यह स्वभाव मनुष्य को स्वार्थी नहीं वरन् सबके प्रति सद्व्यवहार करने-सद्भाव बरतने के लिए बाध्य करता है। कान्ट का कहना है कि उसी सिद्धान्त के अनुसार आचरण करो जो सबके लिए अनुकरणीय बन सके।

पिछले दिनों ढर्रे पर चले आ रहे चिन्तन एवं मनुष्य के प्रवृत्तिमूलक प्रतिपादन से विपरीत जो नया वर्ग मनोवैज्ञानिकों का उभर कर आया है, उनमें अमेरिका के मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैस्लो का नाम वरिष्ठों में लिया जाता है। अपने प्रतिपादन में उन्होंने कहा है कि “हां व्यक्ति में सर्वोपरि सत्ता का निवास है। समस्त प्राणियों से प्यार-करुणा, दया आदि का भाव रखना उसका मौलिक स्वभाव है। यदि ऐसा न होता तो जितने भी महापुरुष हुए है, अथवा जिन्होंने अपना परिष्कार परिमार्जन करके ऊंचा उठने में सफलता पाई है, वे परमार्थी, परोपकारी एवं रचनात्मक प्रवृत्ति के नहीं होते। वे प्रेम बाँटते और प्रेम पाते है। वे जिस भी अवाँछनीयता पर टूट पड़ते हैं, उसे मिटा कर रख देते है”।

इस तथ्य को प्रायः सभी मनःशास्त्री स्वीकार करते है कि विवेक बुद्धि मानव स्वभाव की सबसे बड़ी दैवी विशेषता है। विवेक एवं मनोबल मिलकर प्रवृत्तियों को बदल देने में सक्षम हैं कुछ सहज वृत्तियाँ जो मनुष्य में जन्मजात रूप में पाई जाती है, उनका परिशोधन-परिष्कार करके मानव से महामानव, देवमानव बना जा सकता है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध व्यवहारिक मनोविज्ञानवेत्ता डॉ.. वाट्सन का कथन उल्लेखनीय है। वे कहते हैं कि “ मनुष्य को ऐसी नैसर्गिक विशेषताएं मिली हुई है कि वह उचित-अनुचित, लाभ-हानि का विचार कर सकता है और विचार मन्थन से युक्ति संगत औचित्यपूर्ण निष्कर्ष निकालकर उन्हें ग्रहण कर सकता है। इसी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता या विवेकशीलता के आधार पर प्रवृत्तियों को विकसित एवं परिष्कृत करके मानव जीवन को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है।”

वस्तुतः सामान्य मनुष्य से महामानव स्तर तक वे ही पहुँचे है जिन्होंने अपनी प्रवृत्तियों को औचित्य एवं जीवन की सार्थकता है। यही अध्यात्म की-भारतीय मनोविज्ञान की विशेषता रही है कि उसने देवत्व को मुख्य माना है, विकासवाद के चरम सीमा को महामानव बनना माना है। यही वास्तविक मानवी प्रगति का स्वरूप है,वह नहीं जो पारस्परिक पाश्चात्य मनोविज्ञानवेत्ता सदा से कहते चले आ रहे हैं।

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