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Magazine - Year 1988 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रकाश रश्मियों की प्रभावकारी सामर्थ्य

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First 45 47 Last
इस धरित्री पर अवतरण के बाद मनुष्य ने सबसे पहले प्रकाश पुज अग्नि गोले सविता देवता का देखा। वही उसका प्रेरणास्रोत बना तथा उसकी आराधना के रूप में परब्रह्म की निराकार शक्ति की उपासना आरंभ हुई ऊर्जा के अनेकानेक रूप है, पर जिस शक्ति समुच्चय ने उसे सर्वाधिक प्रभावित किया, आदिमकालीन स्थिति से वर्तमान में ला बिठाया, वह थी प्रकाश की शक्ति। अग्नि पिण्ड को देखकर उसने पहला आविष्कार अग्नि प्रज्ज्वलन के रूप में किया एवं अपनी प्रारंभिक आवश्यकताएँ जुटाई। प्रकाश व ताप की शक्ति को मनुष्य भूला नहीं है व आज भी ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के पर्याय के रूप में इन्हीं दो शक्तियों को वह प्रमुख मानता आया है। ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राण शक्ति प्रकाश रश्मियों के रूप में जीव जगत को सतत् प्रभावित करती रहती है। क्रमशः परिष्कृत होते-होते वह “लेसर” के रूप में अब मनुष्य के पास विद्यमान है, जिसकी शक्ति सामर्थ्य अपरिमित कूती जाती है।

प्रकाश रश्मियों के द्वारा क्या पीड़ित मानव जाति को लाभान्वित कर पाना संभव है?, इस पर विभिन्न प्रयोग समय-समय पर चलते रहे है। इस संबंध में कास्मिक रेथेरेपी, टेलीथेरेपी, रेडियेस्थैसिया, रेडियोनिक्स माम से विभिन्न समयों पर चिकित्सा पद्धति विकसित हुई है। अब यह तथ्य सुनिश्चित होता चला गया है कि विभिन्न वर्णों द्वारा न केवल शरीर की न्यूनाधिकता को संतुलित किया जा सकता है वरन् जीवनी शक्ति बढ़ाकर विभिन्न रोगों से जूझने व मनोविकार मिटाने में भी सफलता पाई जा सकती है।

भारतीय दर्शन के अनुसार सभी प्राणी पदार्थ पाँच तत्वों से बने है, जिनमें से एक अग्नि तत्व है। इस चिकित्सा पद्धति के सिद्धान्त के अनुसार सजीव अथवा निर्जीव हर पदार्थ में अग्नि अथवा प्रकाश के सातों रंग विद्यमान है। इसका पता त्रिपार्श्व (प्रिज्म) से वस्तु अथवा व्यक्ति को देखने से चलता है। आधुनिक विज्ञान भी यह स्वीकारता है कि पदार्थ ऊर्जा का समुच्चय है। प्रकाश की गणना ऊर्जा के अंतर्गत की जाती है। किलियन फोटोग्राफी एवं बाद में आर्गान एनर्जी के आविष्कार ने तो इसे निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया कि प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणी का एक सूक्ष्म प्रकाश शरीर होता है। प्रिज्म से देखने पर शरीर के भिन्न-भिन्न भाग भिन्न-भिन्न रंगों के बने दिखाई पड़ते है, यथा मनुष्य में बाल नीले रंग के, नाशाग्र हरे रंग का, जीभ नारंगी आदि। ऐसी बात नहीं कि अलग-अलग मनुष्यों में अंगों के ये रंग बदलते रहते है। व्यक्ति चाहे किसी देश का हो, प्रत्येक की नाक सदा हरी, बाल नीले, जीभ नारंगी ही होगी। इन्हें रंगों के क्रम में बदलाव से व्याधि उत्पन्न होती है। अतः यदि किसी व्यक्ति के बालों का रंग नीला नहीं है अथवा जीभ नारंगी नहीं है, तो यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति किसी-न-किसी व्याधि का मरीज है, भले ही उस वक्त तक उसमें किसी प्रकार के रोग के लक्षण प्रकट नहीं हुए हो, पर निश्चित रूप से यह इस बात का प्रतीक है कि जल्द ही व्यक्ति बीमार पड़ने वाला है। किर्लियन फोटोग्राफी से भी इस बात की पुष्टि हो गई कि आँरा अथवा आभामण्डल में रंग-परिवर्तन निकट भविष्य में रोगग्रस्तता का स्पष्ट संकेत देते है।

कास्मिक रे थेरेपी में रंगों के इसी बदलाव को पुनर्व्यवस्थित कर बीमार को रोगमुक्त किया जाता है। यह चिकित्सा प्रणाली इस सिद्धान्त पर काम करती है कि सी वृक्ष को निर्मूल करना हो तो उसकी जड़ काटी जाय, न कि टहनी-पत्तियाँ, पर आज अधिकाँश चिकित्सा पद्धतियाँ जो प्रचलन में है, इसके विपरीत सिद्धान्त पर आधारित है। वे रोग की तह में न जाकर सिर्फ प्रकट लक्षणों को मिटाने का प्रयास करती है, जिससे मूल विकृति तो ज्यों की त्यों बनी रहती है और उसके लक्षण बहरूपिये की तरह नित नये रूप रंग बदल-बदल कर सामने आते रहते है। वस्तुतः बीमारी की पैठ जितनी उथली मानी जाती है, उतनी वह है नहीं। इसकी गहरी जड़े सूक्ष्म शरीर तक धँसी होती है। अस्तु उपचार मूल बिन्दु का होना चाहिए। वर्तमान प्रणालियों की इसी कमी के कारण बड़ी व्याधियों के उपचार में आशाजनक सफलता नहीं मिल पाती और उपचार-प्रक्रिया के प्रति व्यक्ति शंका-शंकित बना रहता है।

रेडिएस्थीसिया की अभिनव चिकित्सा पद्धति में इसी की व्यवस्था है। इसमें सूक्ष्म अथवा प्रकाश शरीर से ही इलाज आरंभ किया जाता है और जिन रंगों की कमी पड़ती है, उन रंगों की पूर्ति प्रकाश-किरणों द्वारा व्याधिग्रस्त को की जाती है, किन्तु इससे पूर्व रोगग्रस्त भाग और उससे सम्बद्ध रंग का निश्चय करना पड़ता है। फिर उक्त रंग की किरणों की बौछार मरीज पर की जाती है। इसके लिए वाँछित रंग के रत्नों का भी प्रयोग किया जाता हे। ज्ञातव्य है कि रत्नों को रोगी के शरीर के ऊपर रख देने अथवा किसी डोरी के माध्यम से हवा में उसके ऊपर लटका देने भर का कोई असर नहीं पड़ता। प्रभावकारी परिणाम तो तब उत्पन्न होता है, जब उसे मरीज के ठीक ऊपर धागे के सहारे चक्कर लगवाया जाय। संभव है इस प्रक्रिया के दौरान रत्न अपनी ही प्रकृति की किरणें हमारे चारों ओर संव्याप्त ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से अवशोषित कर रोगग्रस्त पर फेंकता है।

इस प्रयोग की सत्यता परखने के लिए तीवरपूल यूनिवर्सिटी के शरीरशास्त्री डाँå लाँगफेलो ने एक प्रयोग किया। उनने अपने बीमार कुत्ते के पिल्ले को टेबुल पर रख कर गोमेद पत्थर को धागे से बाँध कर उसे पिल्ले के ऊपर हवा में घुमाना शुरू किया। आरंभ में तो इसका कोई असर दिखाई नहीं पड़ा और कुत्ते का बच्चा ज्यों-का-त्यों निश्चल पड़ा रहा, पर जब चक्र हजार से कुछ ऊपर पहुँचें, तो उसकी पूँछ में हल्की गति हुई। डाँå लोंगफेलो को कुछ आशा बंधी तो उन्होंने यह प्रक्रिया आगे जारी रखी। साढ़े चार हजार चक्रकों तक पहुँचते-पहुँचते पिल्ले की हालत में काफी सुधार झलकने लगा। दो दिनों तक उसे यह उपचार दिया गया, जिससे वह पूरी तरह स्वस्थ होकर उछलने-कूदने लगा।

यह उपचार पद्धति प्रत्यक्ष में बीमारों पर जितनी असरदार व कारगर देखी गई है, दूर स्थित मरीजों के लिए भी उतनी ही सफल व प्रभावोत्पादक सिद्ध हुई है।

ऑक्सफोर्ड, इंग्लैण्ड की डिलावेयर प्रयोगशाला के शोधकर्ताओं ने इस आशय के अनेकानेक प्रयोग-परीक्षण किये है। इसमें दूरवर्ती मरीज को प्रभावित करने के लिए उसकी तस्वीर अथवा उससे संबद्ध कोई अन्य वस्तु काम में लायी जाती है। सबसे लम्बी दूरी के बीच सम्पन्न किये गये इस प्रकार के एक प्रयोग के लिए उन्होंने एक सत्रह वर्षीय बालक को चुना और दो दूरस्थ स्थान इंग्लैण्ड में ऑक्सफोर्ड और अमेरिका में न्यूयार्क निर्धारित किये। प्रयोग इन्हें स्थानों के बीच होना था। बालक को आक्सफोर्ड की डिलावेयर प्रयोगशाला के एक कमरे में रखा गया तथा उसकी एक फोटो व टेलीथेरेपी यंत्र न्यूयार्क भेज दिये गये। प्रयोग आरंभ करने से पहले लड़के को साइकोप्लास्ट नामक एक अतिसंवेदनशील उपकरण से जोड़ दिया गया। समय पूर्व निश्चित था। फोन से सूचना मिलते ही प्रयोग प्रारंभ हुआ। न्यूयार्क में लड़के के चित्र को रेडियोनिक उपचार यंत्र से सम्बद्ध कर 20 मिनट तक उसे चलाया गया, फिर आधे घंटे के विराम के बाद 20 मिनट तक मशीन और चलायी गई इस क्रिया की शारीरिक प्रतिक्रिया का स्पष्ट अंकन लड़के से जुड़ी साइकोप्लास्ट मशीन ने इंग्लैण्ड में किया। भूल और त्रुटियों से बचने के लिए प्रयोग को कई-कई बार दुहराया गया। स्थान-परिवर्तन और सब्जेक्ट-परिवर्तन के साथ भी अनेक बार प्रयोग किए गए, पर हर बार परिणाम एक ही प्रकार का मिला। इससे इस बात की पुष्टि हो गई कि इस दौरान दोनों के बीच कोई परोक्ष सम्बन्ध स्थापित हुआ और फोटो पर जो प्रभाव डाला गया, उसका असर उस दूरवर्ती बालक तक संचारित हुआ। इस प्रयोग का विस्तृत विवरण “माइण्ड एण्ड मैटर” नामक इंग्लैण्ड की त्रैमासिक पत्रिका में आज से कुछ माह पूर्व छपा था।

अब प्रश्न यह है कि टेलीथेरेपी यदि पूर्णतः वैज्ञानिक है, तो यह किस सिद्धान्त पर काम करती है और दूरवर्ती लोग इससे क्यों व कैसे प्रभावित होते है? सर्वविदित है कि प्रत्येक प्रकाश किरण की अपनी एक विशिष्ट तरंग लम्बाई और आवृत्ति होती है। रहस्यवादियों का भी यही कहना है कि स्वभाव के अनुरूप पृथक-पृथक् व्यक्तियों के सूक्ष्म अथवा प्रकाश शरीर (ईथरिक डबल) का रंग अलग-अलग होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि रिससे (फिन्गर प्रिण्ट) की भाँति दुनिया में जितने लोग है, उनके ईथरिक डबल भी उतने प्रकार के होंगे, अर्थात् उनमें से प्रत्येक की अपनी विशेष फ्रीक्वेंसी व वेब लेन्थ होगी। शोधों के दौरान पाया गया है कि एक व्यक्ति से संबंधित किसी भी वस्तु रक्त, लार, मूत्र, वस्त्र अथवा यहाँ तक कि उसकी तस्वीर की भी वही आवृत्ति होती है, जो मूल व्यक्ति की है। जब तस्वीर अथवा व्यक्ति से सम्बद्ध अन्य वस्तु पर ब्रह्माण्डीय किरणें बरसायी जाती है, तो संभव है, उनसे उसी आवृत्ति एवं तरंग दैर्ध्य की तरंगें विकसित होती हो, जो उस व्यक्ति की है। वह व्यक्ति उन तरंगों का एकमात्र उपयुक्त रिसेप्टर होने के कारण किरणें उन तक पहुँचकर सिर्फ उसी को प्रभावित करती हो।

रेडियो ट्रान्समिशन सेण्टर में जिस फ्रीक्वेंसी पर कार्य कम प्रसारित होते है उस फ्रीक्वेंसी की रेडियो सेट पर मिलाने से ही उस कार्यक्रम को सुन पाते हैं यह संभव है कि इसी प्रकार का रिमोट कन्ट्रोल सिस्टम विभिन्न रंगों व रश्मियों के बीच काम करता हों।

यूनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का मेडिकल सेण्टर के शरीर-क्रिया विज्ञानी डॉ.. हरबर्ट रेनो का कहना है कि “रंगों में इतनी सामर्थ्य हैं कि वह शरीर-क्रिया को अस्त-व्यस्त कर सकता है एवं उसे सुधार भी सकता है, पर यह सब बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति किस स्तर के किस रंग के संपर्क में रह रहा है, साथ ही वह स्वस्थ है या अस्वस्थ।” उनका कथन है कि “अलग-अलग प्रकार के रंगों का प्रभाव अलग-अलग होता है एवं स्वस्थ स्थिति में लम्बे समय तक गहरे रंगों के संपर्क में रहने से अंतःस्रावी ग्रन्थियों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उनकी क्षमता धीरे-धीरे घटने लगती है, जो समयान्तर में तरह-तरह की शारीरिक-मानसिक असामान्यताओं के रूप में सामने आती है। इसके विपरीत वे रंगों के भल प्रभाव से भी इनकार नहीं करते। एक प्रयोग के दौरान उन्होंने हाइपरटेन्सन के एक मरीज को जब हल्के नीले रंग से पुते कमरे में लम्बे समय तक रखा, तो रक्तचाप में अर्पयाशित परिवर्तन देखा गया। इस प्रकार के अनेकानेक प्रयोग-परीक्षणों के बाद वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि रोगी को उचित अवधि तक अनुकूल रंग के संपर्क में रखा जाय, तो इससे स्वास्थ्य-संवर्धन का लाभ हस्तगत किया जा सकता है। इसका वर्णन डॉ. रेनो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “कलर एण्ड ह्मूमन फिजिक” में विस्तारपूर्वक किया है।

रंगों में मौलिक तीन माने गये है-लाल, नीला, पीला। शोधों के दौरान लाल उष्ण और उत्तेजक, नीला शान्ति कारक एवं पली सौम्य व शीलता प्रदायक प्रकृति का ज्ञात हुआ है। जो सदा निरुत्साहित रहते हो, जिनमें उमंग-उत्साह की कमी और स्फूर्ति का अभाव हो, वैसे लोगों के लिए लाल रंग से पुते कमरे में रहना विशेष लाभकारी हो सकता है। क्रोधी व उत्तेजक प्रकृति के लोगों, उच्च रक्तचाप के मरीजों तथा गर्मी बढ़ने से होने वाली शिकायतों का शमन नीले रंग के संपर्क में रह कर किया जा सकता है, जबकि उन्मादग्रस्तों, सनक और आवेश के शिकार लोगों के लिए पीला रंग अनुकूल पड़ता है, सो क्रोमोपैथी विशारदों का मत है।

सात रंगों में बैंगनी, आसमानी, हरा और नारंगी। लाल, नीला, पीला इन तीन के सम्मिश्रण से ही बढ़ते हैं। इनमें से जब, जिनकी, जिस परिमाण में आवश्यकता महसूस हो, उन्हें उस अनुपात में तैयार कर साथ-साथ एक से अधिक वर्णों का फायदा उठाया जा सकता है, किन्तु सामान्य स्वास्थ्य की स्थिति में सफेद अथवा हल्के रंगों के संपर्क में ही रहना उचित है। साधारण प्रयोजन के रहने वाले कमरों को इसीलिए हल्के रंगों से पोता जाता है। हल्के रंग के कपड़े पहनने में इसी कारण अच्छा अनुभव होता है। घरों में हल्के वर्ण का प्रकाश ही पसंद किया जाता है। इन सब का विस्तृत वर्णन प्रसिद्ध अमेरिकी वर्ण चिकित्सा विशेषज्ञा श्रीमती इबान बर्ग बिटन ने अपनी पुस्तक “कलर ब्रीदिंग, दि ब्रेथ ऑफ ट्रान्सम्युटेशन” में किया हे। विगत 50 वर्षों में उन्होंने वर्ण-चिकित्सा के माध्यम से विभिन्न रोगों के अनेकानेक रोगियों को ठीक करने का दावा किया है।

ऐसी बात नहीं कि “कलर थेरपी” प्राचीन काल में थी ही नहीं। श्रीमती विटन का कहना है कि यह चिकित्सा पद्धति पृथ्वी की उन दो सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रागैतिहासिक काजीन एटलाण्टिस एवं लैमूरिया सभ्यताओं के समय में भी विद्यमान थी, जो अब सागर के गर्भ में समा चुकी है।

वस्तुतः इस निखिल ब्रह्माण्ड में जो भी वैभव समया पड़ा है वह अनन्त सामर्थ्य का भाण्डागार हे। इसमें ब्रह्माण्डीय कणों-किरणों तथा प्रकाश रश्मियों के रूप में विराट ऊर्जा भरी पड़ी है। एक भारतीय वैज्ञानिक (डाå परमहंस तिवारी) ने महाशून्य से विद्युत पैदा करके यह प्रमाणित कर दिया है कि यह महाकाश प्राण चेतना का महासमुद्र है। पल्सार्स, क्वाजार्ज, लेसर, मेसर यही से उद्भूत माने जाते है। रेडियोनिक्स एवं कलर थेरेपी की विधाओं का महत्व समझा जा सके तो पदार्थ विज्ञानियों की तरह चिकित्साविज्ञानी भी रोगियों की नीरोग एवं स्वस्थ को जीवन शक्ति सम्पन्न बनाने हेतु इस ऊर्जा का सदुपयोग सुनियोजन कर सकता है। यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं कि यह सब पूर्णतः विज्ञान सम्मत हैं आवश्यकता मात्र व्यापक स्तर पर प्रयोग परीक्षण की है। ब्रह्मवर्चस द्वारा इस शोध कार्य को पिछले दिनों अपने हाथ में लिया गया है।

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